दृष्टिकोण | मुख्य निष्कर्ष |
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सायण भाष्य (वैदिक यज्ञीय अर्थ) | रुद्र एक यज्ञीय देवता हैं, जो रोगों, आपदाओं और संकटों का नाश करते हैं। उनका धनुष और बाण यज्ञीय शक्ति के प्रतीक हैं। |
यास्क का निरुक्त | रुद्र अग्नि, वायु और ब्रह्माण्डीय शक्ति के प्रतीक हैं। उनका विश्वरूप सर्वव्यापक ब्रह्म को दर्शाता है। |
निघण्टु (वैदिक शब्दकोश) | रुद्र अग्नि, जल, वायु, सूर्य, एवं चिकित्सा के कारक हैं। |
आध्यात्मिक (उपनिषद/योगिक) | रुद्र परम ब्रह्म (अद्वैत स्वरूप) हैं, और उनका धनुष-बाण ज्ञान और योग का प्रतीक है। |
जैन दृष्टिकोण | रुद्र अर्हत् (जिन) समान हैं, जो तपस्या और संयम के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। |
बौद्ध दृष्टिकोण | रुद्र बोधिसत्त्व समान हैं, जो करुणा और प्रज्ञा द्वारा अज्ञान का नाश करते हैं। |
Wednesday, March 12, 2025
ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
गणधरवाद मे वेदों की व्याख्या की विविध परंपराएँ
विशेषावश्यक भाष्य और गणधरवाद का महत्व
आवश्यक निर्युक्ति नामक प्राचीन ग्रन्थ के आधार पर उसकी विस्तृत व्याख्या के रूप में ७ वीं शताब्दी में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण द्वारा विशेषावश्यक भाष्य की रचना की गई. विशेषावश्यक भाष्य में "गणधरवाद" नामका एक विशिष्ट प्रकरण है. इस प्रकरण में भगवान् महावीर एवं उनके 11 गणधरों के बीच वार्तालाप को दर्शाया गया है.
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर: शंकाओं से शिष्यत्व तक
इन 11 महापंडित ब्राह्मणों को किसी न किसी गूढ़ दार्शनिक विषयों पर शंका थी. भगवान् महावीर त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ थे अतः उन्होंने उनकी शंकाओं को स्वतः ही जानकर उनका निराकरण कर दिया. गणधरवाद नामक ग्रन्थ में उन सभी 11 पंडितों के शंकाओं एवं भगवान् महावीर द्वारा किये गए समाधान का वाद-विवाद अर्थात तर्कशास्त्रीय शैली में विस्तृत निरूपण किया गया है. वार्तालाप/वाद-विवाद में अपनी शंकाओं का समाधान होने पर उन महा पंडितों ने भगवान् का शिष्यत्व अंगीकार किया और वे ही भगवान् के प्रधान शिष्य अर्थात गणधर बने.
इंद्रभूति गौतम और आत्मा का प्रश्न
इनमे प्रथम थे इंद्रभूति गौतम (जिन्हे सामान्य रूप से जैनों में गौतम स्वामी के रूप में जाना जाता है) जिन्हे "आत्मा है या नहीं" इस विषय पर शंका थी. इंद्रभूति गौतम ने अनुमान, प्रत्यक्ष, आगम आदि प्रमाणों के सम्बन्ध में तत्कालीन तर्कशास्त्रीय प्रणाली के अनुसार भगवान् महावीर से वाद किया एवं भगवान ने उन सभी प्रकार से उसका समाधान किया।
इस प्रसंग में एक रोचक तथ्य ये है की इंद्रभूति की शंकाओं का लगभग समाधान होने के बाद भी एक वेदवाक्य को लेकर उनके मन में दुविधा थी. इंद्रभूति ने जो अर्थ समझा था उसके अनुसार जीव (आत्मा) एक स्वतंत्र सत्ता न होकर पंचभूतों से उत्पन्न एवं उसीमे विलीन होनेवाली एक व्यवस्था थी. इंद्रभूति की समझ चार्वाक दर्शन में वर्णित आत्मा की व्याख्या के निकट थी साथ ही उसमे वेदान्तिक दर्शन का भी प्रभाव था. उस समय भगवान ने उसी वेदवाक्य का दूसरे तरीके से अर्थ किया एवं इंद्रभूति उससे संतुष्ट होकर महावीर के शिष्य बने और प्रथम गणधर के रूप में प्रतिष्ठित हुए.
इस पुरे प्रकरण से यह समझ में आता है की प्राचीन काल (सायण से बहुत पहले) से ही वेदों के अर्थ करने की अनेक विधियां विकसित हो चुकी थी.
संहिता पाठ एवं पदपाठ
संहिता पाठ:
विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तित्यरे व्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः।
(बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.12)
पदपाठ:
विज्ञानघनः एव – विज्ञान का सघन स्वरूप ही
एतेभ्यः भूतेभ्यः – इन भूतों (पंचभूतों) से
समुत्थाय – उत्पन्न होकर
तान्येवानु विनश्यति – उन्हीं में पुनः विलीन हो जाता है
न प्रेत्य संज्ञा अस्ति – मरने के बाद कोई संज्ञा नहीं होती
इति अरे व्रवीमि – "हे अरे! मैं यह कहता हूँ"
होवाच याज्ञवल्क्यः – ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा
व्याकरणीय विश्लेषण
(1) संज्ञा और विशेषण:
विज्ञानघनः (नपुंसकलिंग, एकवचन) – शुद्ध चेतना का घना स्वरूप
भूतेभ्यः (पंचमी विभक्ति, बहुवचन) – पंचमहाभूतों से
संज्ञा (स्त्रीलिंग, एकवचन) – चेतना, स्मृति, पहचान
(2) क्रिया और लकार:
समुत्थाय (कृदन्त, ल्यबन्त रूप) – उत्पन्न होकर
अनु विनश्यति (लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – पुनः नष्ट हो जाता है
व्रवीमि (लट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – "मैं कहता हूँ"
होवाच (लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – "ऐसा कहा"
अन्वय (वाक्य संरचना):
"विज्ञानघनः एव एतेभ्यः भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति। न प्रेत्य संज्ञा अस्ति। इति अरे व्रवीमि। होवाच याज्ञवल्क्यः।"
सरल हिन्दी अनुवाद:
याज्ञवल्क्य कहते हैं – "आत्मा (चेतना) केवल विज्ञानघन (शुद्ध ज्ञानस्वरूप) ही है। यह पंचभूतों से उत्पन्न होती है और उन्हीं में विलीन हो जाती है। मृत्यु के बाद कोई व्यक्तिगत संज्ञा या पहचान शेष नहीं रहती।"
दार्शनिक व्याख्या
(1) सामान्य अर्थ:
यह श्लोक आत्मा की प्रकृति और मृत्यु के पश्चात उसकी स्थिति को दर्शाता है। इसमें बताया गया है कि जीव पंचभूतों से उत्पन्न होता है और मृत्यु के बाद उन्हीं में विलीन हो जाता है। यह विचार अद्वैत वेदान्त के ब्रह्मवाद से मेल खाता है, जिसमें आत्मा और ब्रह्म को एक ही तत्व माना गया है।
(2) वेदान्तिक व्याख्या:
अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से यह आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है।
मृत्यु के बाद जीव पंचभूतों में विलीन हो जाता है, और संज्ञा (व्यक्तिगत अहं) समाप्त हो जाती है।
ब्रह्म-ज्ञान प्राप्ति के बाद जीव मुक्त होकर ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
(3) चार्वाक दर्शन की व्याख्या:
चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म या मोक्ष को नहीं मानता।
इस श्लोक को भौतिकवादी दृष्टि से देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन केवल पंचभूतों का संयोजन है।
"न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का सीधा अर्थ यह है कि मृत्यु के बाद कोई भी चेतन तत्व नहीं बचता, क्योंकि आत्मा कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।
(4) गणधरवाद की व्याख्या:
गणधरवाद में भगवान महावीर और उनके गणधर इन्द्रभूति गौतम के मध्य हुआ संवाद आत्मा के स्वरूप और उसके अस्तित्व को स्पष्ट करने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस श्लोक में प्रयुक्त "विज्ञानघन" शब्द का अर्थ जैन गणधरवाद के अनुसार केवल भूतों से उत्पन्न चेतना नहीं है, बल्कि अनंत ज्ञान-पर्यायों से युक्त जीव को दर्शाता है।
गणधरवाद की प्रमुख अवधारणाएँ:
आत्मा विज्ञानघन है: आत्मा केवलज्ञान का स्रोत है। यह भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अनादि और शाश्वत सत्ता है।
"समुत्थाय" का अर्थ: आत्मा पंचभूतों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि भूतों के साथ शरीर संबंध जोड़ती है।
"तान्येवानु विनश्यति" का अर्थ: आत्मा स्वयं नष्ट नहीं होती, बल्कि उसका लौकिक संज्ञान (स्थूल संज्ञा) समाप्त होता है।
"न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का अर्थ: मृत्यु के बाद व्यक्ति विशेष की भौतिक पहचान समाप्त हो जाती है, लेकिन आत्मा अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म धारण करती है।
नित्य-अनित्य सिद्धांत: आत्मा नित्य है, लेकिन उसकी विशेष पर्यायें (स्थिति) नष्ट होती रहती हैं।
कर्म-बंधन का सिद्धांत: आत्मा अपने कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करती है और केवल कर्मों के क्षय के बाद मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
(5) जैन दृष्टिकोण:
आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप है और पंचभूतों से स्वतंत्र है।
पंचभौतिक शरीर धारण करता और छोड़ता है, परंतु आत्मा स्वयं अविनाशी होती है।
मृत्यु के बाद पुराना नाम-रूप समाप्त होता है, लेकिन आत्मा नए शरीर में जन्म लेती है।
कर्मों के बंधन के कारण आत्मा संसार में भ्रमण करती रहती है, लेकिन जब कर्मों का क्षय होता है, तब वह मोक्ष प्राप्त कर लेती है।
निष्कर्ष:
वेदांत के अनुसार – आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है और व्यक्तिगत संज्ञा समाप्त हो जाती है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार – आत्मा जैसी कोई सत्ता नहीं होती, केवल पंचभूतों का संयोजन ही जीवन है।
गणधरवाद के अनुसार – आत्मा अविनाशी है, पंचभौतिक शरीर को त्यागकर पुनर्जन्म लेती है।
जैन दर्शन के अनुसार – आत्मा स्वतंत्र सत्ता है, कर्मों के अनुसार शरीर धारण करती है और मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) का पालन करना आवश्यक है।
अंतिम निष्कर्ष:
यह श्लोक आत्मा के स्वरूप पर गहन दार्शनिक चिंतन को प्रस्तुत करता है। जैन दृष्टिकोण में इसे इस प्रकार समझा जाता है कि मृत्यु के बाद केवल पंचभौतिक शरीर समाप्त होता है, लेकिन आत्मा कर्मों के अनुरूप नए जन्म में प्रवेश करती है। आत्मा की नित्यता, कर्मबंधन और मोक्ष का सिद्धांत जैन दर्शन की आधारभूत मान्यताओं में आता है, जिसे गणधरवाद ने प्रमाणित किया।
यह श्लोक जैन दर्शन के अनुसार कर्मबंध, पुनर्जन्म और आत्मा की शाश्वतता को दर्शाता है।
आभार:
दर्शन शास्त्र के प्रकांड पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने गणधरवाद का विस्तृत अनुवाद किया है. यह ग्रन्थ प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुआ है. इस ग्रन्थ के पृष्ठ २३ से २८ तक वृहदारण्यक के अर्थ को लेकर इंद्रभूति गौतम की शंका एवं भगवान महावीर द्वारा प्रस्तुत समाधान पर विस्तृत चर्चा की गई है. गणधरवाद से सम्बंधित व्याख्या के लिए इसी ग्रन्थ को आधार माना गया है.
ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन
Jyoti Kothari
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ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन
भूमिका
ऋग्वेद की ऋचाएँ गूढ़ रहस्यों से भरपूर हैं, जो विभिन्न अर्थ-व्याख्याओं के आधार पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद (70.74.22) की यह ऋचा, जिसका मुख्य विषय वृषभ (बैल) और ऋत (सत्य/व्यवस्था) है, विभिन्न दर्शनों में अलग-अलग प्रकार से व्याख्यायित की गई है। जहाँ वैदिक परंपरा में इस ऋचा को इन्द्र और जलचक्र से जोड़ा गया है, वहीं जैन परंपरा में इसे भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और समवसरण में प्रवचन से जोड़ा जाता है। इस लेख में, इस ऋचा का शुद्ध संहिता पाठ, पद पाठ, व्याकरण, अन्वय, शब्दार्थ एवं विभिन्न दर्शनों के अनुसार व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
निघंटु और सायण भाष्य के अनुसार, यह ऋचा वर्षा चक्र और इन्द्र की भूमिका को इंगित करती है। निघंटु में "वृषभ" का अर्थ इन्द्र तथा "गो" का अर्थ सूर्य किरणें बताया गया है। अतः यह ऋचा इन्द्र के जलनियंत्रण की शक्ति और वृष्टि-चक्र के संचालन का वर्णन करती है। सायण भाष्य के अनुसार, यहाँ "ऋतस्य सदसः" का तात्पर्य जलाशय (अंतरिक्ष) से है, जहाँ सूर्य की किरणें जल को वाष्पित कर वर्षा उत्पन्न करती हैं। इस दृष्टिकोण से, ऋचा का अर्थ इन्द्र के गरजने और जलवृष्टि करने से संबंधित है।
वहीं, जैन परंपरा में इस ऋचा की व्याख्या भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और समवसरण में प्रवचन देने की प्रक्रिया के रूप में की जाती है। जिस प्रकार एक युवा वृषभ अपने समूह में गर्जना करता है और अपनी उपस्थिति स्थापित करता है, उसी प्रकार अर्हत ऋषभदेव अपनी दिव्य वाणी के माध्यम से समवसरण में धर्म का प्रचार करते हैं, और उनकी वाणी पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होती है। जैन परंपरा के अनुसार, यह ऋचा भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और उनकी धर्मध्वनि की व्यापकता को इंगित करती है। इस लेख में, ऋग्वेद की इस महत्वपूर्ण ऋचा का संपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, जिससे इसके गूढ़ अर्थ को समझा जा सके।
शुद्ध संहिता पाठ:
ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्संगाष्टेयों दृषमों गोमिरानट।
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥ ऋग्वेद 70.74.22
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥ ऋग्वेद 70.74.22
पद पाठ:
ऋतस्य हि सदसः धीतिः अरणौत्।
गाष्टेयः दृषमः गोमिः आनट्।
उत अतिष्ठत् अविषेणः रवेण।
महायन्ति वित्सम् विव्याधा रजांसि॥"
- ऋतस्य
- हि
- सदसः
- धीतिः
- अरणौत्
- सः
- गाष्टेयः
- दृषमः
- गोमिः
- आनट्
- उत्
- अतिष्ठत्
- अविषेणः
- रवेण
- महायन्ति
- वित्सम्
- विव्याधा
- रजांसि
व्याकरण:
- ऋतस्य (षष्ठी विभक्ति, एकवचन) – "ऋत" का, सत्य का, धर्म का।
- हि (निश्चयार्थक अव्यय) – निश्चय ही।
- सदसः (षष्ठी विभक्ति, एकवचन) – सभा का, मंडल का।
- धीतिः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – धारणा, प्रज्ञा, बुद्धि।
- अरणौत् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – प्रकाशित करता है, फैलाता है।
- सः (संबंधवाचक सर्वनाम) – वह।
- गाष्टेयः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ।
- दृषमः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – तेजस्वी, चमकने वाला।
- गोमिः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – गव्यों से युक्त, गोमय।
- आनट् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – प्रविष्ट हुआ, शामिल हुआ।
- उत (समुच्चयार्थक अव्यय) – और, पुनः।
- अतिष्ठत् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – स्थित हुआ, खड़ा हुआ।
- अविषेणः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – अविष (शत्रुता रहित), शांत।
- रवेण (तृतीया विभक्ति, एकवचन) – ध्वनि के द्वारा।
- महायन्ति (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन) – व्यापक होते हैं, फैलते हैं।
- वित्सम् (द्वितीया विभक्ति, एकवचन) – ज्ञान, समझ।
- विव्याधा (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन) – व्याप्त किया, फैलाया।
- रजांसि (अव्यय) – लोक, जगत्।
अन्वय:
ऋतस्य हि सदसः धीतिः अरणौत्।
सः गाष्टेयः दृषमः गोमिः आनट्।
उत अतिष्ठत् अविषेणः रवेण।
महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥
(अर्थात्)
ऋत (सत्य) की सभा (संसद) में धृति (प्रज्ञा) प्रकाशित होती है।
वह (वृषभ) तरुण गाय से उत्पन्न, तेजस्वी, गोमय (धर्म के वाहक) समूह में प्रवेश करता है।
वह अविष (शत्रुता रहित), गूढ़ ध्वनि से स्थित होता है।
महान ज्ञानी, अपने वाणी रूपी रव से ज्ञान को सम्पूर्ण लोक में व्याप्त कर देते हैं।
सामान्य अर्थ (General Meaning):
यह ऋचा एक प्राकृतिक दृश्य का वर्णन करती है जिसमें सत्य (ऋत) के प्रभाव से एक सभा में दिव्य ज्ञान (धीतिः) प्रकट होता है। जिस प्रकार एक युवा बैल (वृषभ), जो गायों के झुंड से उत्पन्न होता है, अपनी ध्वनि से झुंड में पहचान बनाता है, उसी प्रकार सत्य के प्रभाव से उत्पन्न दिव्य ज्ञान (धर्मवाणी) सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होता है और उसे प्रकाशित करता है।
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इन्द्र देव: जलचक्र के नियंत्रक, एक कलात्मक चित्रण |
निघंटु के अनुसार अर्थ (According to Nighantu):
निघंटु में "वृषभ" का अर्थ "इन्द्र" तथा "गो" का अर्थ "किरण" बताया गया है। अतः इस ऋचा का अर्थ होगा – "इन्द्र अपनी ध्वनि (गरज) के माध्यम से जलचक्र को नियंत्रित करता है और अपने प्रकाश से जलवृष्टि करवाता है।" इसे वर्षा और मौसम चक्र से संबंधित किया जाता है।
सायण भाष्य के अनुसार अर्थ (According to Saayan Bhashya):
सायण इस ऋचा को जलचक्र और अंतरिक्ष से जोड़ते हैं। उनके अनुसार, "ऋतस्य सदसः" का अर्थ है जल का स्थान (अंतरिक्ष), और "धीतिः" का अर्थ है सूर्य की किरणें। यह सूर्य की ऊर्जा का वर्णन करता है, जो जल को अंतरिक्ष से वाष्पित कर वर्षा उत्पन्न करती है। "वृषभ" यहाँ जल का प्रतीक है, जो अंतरिक्ष में बादलों के रूप में गर्जना करता है और फिर वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर गिरता है।
इस ऋचा का जैन दृष्टि से अर्थ करने से पहले इस सन्दर्भ में जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान डॉ सागरमल जैन की व्याख्या को समझना आवश्यक है. उनके अनुसार:
डॉ सागरमल जैन की व्याख्या
इस ऋचा के शाब्दिक अर्थ के अनुसार, इसके द्वितीय चरण का अर्थ होगा – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ रंभाता हुआ गौओं के साथ मिलता है, किन्तु केवल इतना अर्थ करने से ऋचा का भाव स्पष्ट नहीं होता। इसके पूर्व चरण "ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्सं" को भी ध्यान में लेना आवश्यक है। इस चरण का अर्थ सायण और दयानन्द सरस्वती ने भिन्न-भिन्न रूप में किया है, किन्तु दोनों ही अर्थ लाक्षणिक रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।
जहाँ दयानन्द ने "ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्सं" का अर्थ किया – "ऋत की समान विचारधारा (भक्ति) प्रकाशित हो रही है," वहीं सायण भाष्य के आधार पर सातवेलकर ने इसे "जल स्थान (अंतरिक्ष) का धारक यह इन्द्र प्रकाशित करता है," इस रूप में प्रस्तुत किया। परन्तु, इन दोनों ही अर्थों को न तो पूर्णतः शब्दानुसार कहा जा सकता है और न ही पूर्णतः लाक्षणिक।
दयानन्द ने इसकी लाक्षणिकता को स्पष्ट करते हुए कहा कि "ईश्वर का प्रकाश फैला है।" परन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारतीय चिन्तन में ईश्वर की अवधारणा एक परवर्ती विकास है। ऋत की अवधारणा इससे प्राचीन है, और इसका अर्थ सत्य या व्यवस्था (cosmic order) होता है।
जैन दृष्टिकोण से व्याख्या
यदि इस ऋचा को वृषभ से संबद्ध मानें, तो इसका अर्थ इस प्रकार होगा – जिस प्रकार तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ गौ-समूह के बीच अपनी ध्वनि से सुशोभित होता है, उसी प्रकार ऋषभदेव के केवलज्ञान से उत्पन्न सम्यक्वाणी से सत्य की सभा (समवसरण) सुशोभित होती है।
ऋषभदेव समवसरण में ऊपर आसीन होकर जिस धर्मध्वनि का उद्घोष करते हैं, वह अपनी तीव्र रव ध्वनि के द्वारा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होती है।
इस प्रकार, उपर्युक्त ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
जैन दर्शन के अनुसार शब्दार्थ:
- ऋतस्य सदसः – सत्य की सभा, समवसरण, जहां सत्य प्रतिपादित होता है।
- धीतिः – धारण शक्ति, प्रज्ञा, केवलज्ञान का प्रकाश।
- अरणौत् – प्रसारित करता है, प्रकाशित करता है।
- गाष्टेयः – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ।
- गोमिः – गौओं से युक्त, धर्म-समाज से जुड़ा हुआ।
- अविषेणः – बिना शत्रुता के, शांत, करुणामयी।
- रवेण – ध्वनि के द्वारा, दिव्य वाणी से।
- महायन्ति – व्यापक होते हैं, सर्वत्र गूंजते हैं।
- वित्सं – ज्ञान, समझ।
- विव्याधा रजांसि – पूरे लोक में व्याप्त होना।
विस्तृत व्याख्या (जैन दृष्टिकोण से):
इस ऋचा में ऋत (सत्य) की सभा (संसद) में प्रज्ञा का प्रकाश होने की बात कही गई है। यदि इसे वृषभ (बैल) के रूप में लिया जाए, तो यह प्रतीकात्मक रूप से भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और उनकी धर्मवाणी की ओर संकेत करता है।
🔹 ऋतस्य हि सदसः धीतिरणौत्सं – सत्य की सभा में, जहां धर्म और ज्ञान का प्रकाश होता है, वहां केवलज्ञान रूपी प्रज्ञा प्रकाशित होती है। यह समवसरण का ही प्रतीक है, जहां भगवान ऋषभदेव सम्यक्ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।
🔹 गाष्टेयों दृषमों गोमिरानट – जिस प्रकार तरुण गाय (गौओं के झुंड) से उत्पन्न वृषभ अपनी वाणी के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाता है, वैसे ही भगवान ऋषभदेव अपने समवसरण में धर्मध्वनि का उद्घोष करते हैं, जो चारों दिशाओं में फैलती है।
🔹 उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण – वे (ऋषभदेव) समवसरण में उपविशित होते हैं और उनकी दिव्य वाणी (ध्वनि) संसार में व्याप्त होती है।
🔹 महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि – उनकी तीव्र धर्मध्वनि पूरे लोक में व्याप्त होती है और समस्त संसार को धर्म के प्रकाश से आलोकित करती है।
यहाँ "वृषभ" का अर्थ केवल बैल नहीं है, बल्कि यह भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान की गूंजने वाली वाणी को भी दर्शाता है, जो सत्य और धर्म को प्रकट करती है।
निष्कर्ष:
यह ऋचा केवल एक सामान्य प्राकृतिक दृश्य का वर्णन नहीं करती, बल्कि एक गूढ़ आध्यात्मिक भाव को प्रकट करती है। ऋषभदेव के केवलज्ञान से उत्पन्न दिव्य वाणी (धर्मध्वनि) सत्य की सभा (समवसरण) को सुशोभित करती है और उनकी दिव्य ध्वनि पूरे संसार में गूंजती है, जिससे ज्ञान का प्रकाश फैलता है।
इस प्रकार, इस ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है।
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
वेदों के सन्दर्भ में आचार्य कोत्स एवं आचार्य यास्क के विचार
आचार्य कोत्स वैदिक युग के प्राचीनतम वैदिक ऋषियों में से एक हैं. ज्ञात ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार उन्होंने ही सर्वप्रथम वेदों की अपौरुषेयता को अस्वीकार कर उसे ऋषियों की रचना माना था. उनसे लगभग 200 वर्ष बाद हुए निर्युक्तकार आचार्य यास्क ने उनके विचारों का खंडन किया एवं वेदों को अपौरुषेय सिद्ध करने का प्रयास किया. आचार्य कोत्स के विचार आधुनिक विद्वानों के तर्क एवं प्रमाण पर आधारित विचारधारा से मेल खाते हैं जबकि आचार्य यास्क के विचार परम्परावादी एवं आस्था को रेखांकित करते हैं. जैन एवं बौद्ध जैसी श्रमण परम्पराएं भी वेदों की अपौरुषेयता को अस्वीकार करती है.
वेदों के सन्दर्भ में आचार्य कोत्स एवं आचार्य यास्क के विचार प्राचीन भारतीय दार्शनिक विमर्श की ओर ले जाता है. इस लेख में दोनों प्रसिद्ध वैदिक आचार्यों के बारे में थोड़ा जानने का प्रयास करते हैं.
आचार्य कोत्स और उनके विचार
1. आचार्य कोत्स का परिचय एवं काल
आचार्य कोत्स (कोत्साचार्य) वैदिक युग के प्रमुख विद्वानों में से एक थे। वेदों की व्याख्या और उनकी प्रकृति को लेकर वे एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखते थे। उनका काल विद्वानों द्वारा ईसा पूर्व 1000-800 के मध्य माना जाता है। वे भारतीय वैदिक परंपरा में एक ऐसे विचारक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने वेदों की अपौरुषेयता पर प्रश्न उठाया था।
2. आचार्य यास्क और उनका काल
आचार्य यास्क भारतीय वैदिक व्याख्या परंपरा के प्रसिद्ध भाष्यकार और "निरुक्त" ग्रंथ के रचयिता थे। उनका काल ईसा पूर्व 800-600 के बीच माना जाता है। वेदों के कठिन शब्दों की व्याख्या के लिए उन्होंने निघंटु नामक शब्दसंग्रह पर टीका लिखी, जिसे "निरुक्त" कहा जाता है। यह संस्कृत भाषा का सबसे प्राचीन भाषाशास्त्रीय ग्रंथ है और व्याकरण, निरुक्त तथा वेदों की व्याख्या की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
3. यास्क द्वारा कोत्स का उल्लेख
आचार्य यास्क ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "निरुक्त" में आचार्य कोत्स का उल्लेख किया है। यास्क ने उन्हें एक ऐसे विद्वान के रूप में उद्धृत किया है जिन्होंने वेदों के अपौरुषेय (दैवीय) स्वरूप पर संदेह प्रकट किया था।
यास्क ने कोत्स की शंकाओं को निरुक्त में प्रतिपादित किया और उनका उत्तर देने का प्रयास किया। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण संवाद उल्लेखनीय है:
"कश्चिदाह वेदाः न अपौरुषेयाः।"
(अर्थात्, कोई कहता है कि वेद अपौरुषेय नहीं हैं।)
यह कथन आचार्य कोत्स के विचार को व्यक्त करता है, जिसमें उन्होंने कहा कि वेद दिव्य ज्ञान नहीं, बल्कि ऋषियों द्वारा संकलित और निर्मित ग्रंथ हैं। इस विचार को यास्क ने अस्वीकार करते हुए वेदों की शाश्वतता और अपौरुषेयता को सिद्ध किया।
4. कोत्स की वेदों के प्रति अवधारणा
आचार्य कोत्स का मत था कि:
-
वेद अनादि नहीं हैं:
वेद किसी दैवीय स्रोत से नहीं आए, बल्कि यह प्राचीन ऋषियों के विचारों और अनुभवों का संकलन है। -
वेद मानव-निर्मित हैं:
वेदों की रचना किसी ईश्वर द्वारा नहीं, बल्कि विद्वानों और ऋषियों द्वारा की गई है। -
वेदों में नवीनता:
वेदों में जो ज्ञान संकलित है, वह ऋषियों के अनुभव और विवेक से प्राप्त हुआ है। यह दिव्य नहीं, बल्कि बुद्धि और चिंतन का परिणाम है।
5. यास्क द्वारा कोत्स के मतों का खंडन
यास्क ने कोत्स के इन विचारों को अस्वीकार किया और तर्क दिया कि:
-
वेद अपौरुषेय हैं:
वेद किसी मानव द्वारा निर्मित नहीं हैं, बल्कि वे शाश्वत ज्ञान हैं जो ऋषियों ने अपनी साधना द्वारा प्राप्त किया। -
वेदों का शाश्वत स्वरूप:
यास्क के अनुसार, वेदों का ज्ञान नित्य (शाश्वत) है और यह किसी व्यक्ति की कल्पना नहीं है। -
वेदों की प्रमाणिकता:
वेदों में वर्णित ज्ञान की पुष्टि स्वयं प्रकृति और जीवन की घटनाओं से होती है, इसलिए यह ईश्वरीय ज्ञान का प्रतिबिंब है।
6. कोत्स के विचारों का प्रभाव
आचार्य कोत्स के विचार भारतीय वैदिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण बौद्धिक मंथन को दर्शाते हैं। उनके विचारों ने वैदिक ज्ञान की व्याख्या को एक तार्किक और विवेकसम्मत दृष्टिकोण से देखने का मार्ग प्रशस्त किया। हालांकि यास्क और अन्य परवर्ती विद्वानों ने वेदों की अपौरुषेयता को स्थापित किया, फिर भी कोत्स के विचारों ने आगे चलकर भारतीय दार्शनिक चिंतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
7. निष्कर्ष
आचार्य कोत्स प्राचीन भारत के वेद-विवेचक विद्वानों में से एक थे। वे उन विद्वानों में थे जिन्होंने वेदों की परंपरागत व्याख्या से भिन्न दृष्टिकोण रखा। यास्क ने उनकी शंकाओं को निरुक्त में प्रस्तुत कर उनका समाधान करने का प्रयास किया। यह दर्शाता है कि वैदिक युग में भी ज्ञान की परख और विमर्श की परंपरा थी, जिससे भारतीय दार्शनिक चिंतन समृद्ध हुआ।
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
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Tuesday, March 11, 2025
Jainism in Shivalik and Narmada Valley Civilizations
India has been home to some of the world's oldest civilizations, many of which predate or coexisted with the well-known Indus Valley Civilization. Some of the most ancient civilizations in India include:
1. Narmada Valley Civilization (c. 800,000 BCE – 2,000 BCE)
- Considered one of the earliest prehistoric human settlements in India.
- Archaeological findings, including fossils of Homo erectus and early tools, suggest human habitation along the Narmada River for nearly a million years.
- Bhimbetka Rock Shelters (Madhya Pradesh), dated to around 5000 BCE, contain cave paintings that provide evidence of early human culture.
2. Shivalik Civilization (c. 2,000,000 BCE – 1,000 BCE)
- The Shivalik Hills region in present-day Himachal Pradesh, Haryana, and Uttarakhand has yielded fossils of prehistoric primates and mammals.
- Evidence of early human activity suggests that the region was home to some of the earliest human settlements in the Indian subcontinent.
The question of Jain presence in the Shivalik and Narmada Valley civilizations is an intriguing one, necessitating a multidisciplinary approach that incorporates archaeology, textual analysis, and cultural anthropology.
The Shivalik and Narmada Valley civilizations are among the oldest in India, believed to predate even the Indus Valley Civilization. This article seeks to explore the possible roots of Jainism, one of the world's oldest religions, in these ancient civilizations.
Scholars, historians, and archaeologists have yet to devote extensive research to this field, making it an area that warrants further academic exploration. However, the archaeological pieces of evidence suggest the presence of Jainism in both these civilizations.
Archaeological Evidence
Direct evidence explicitly linking Jainism to the Shivalik or Narmada Valley civilizations remains limited. However, the presence of ancient rock shelters, inscriptions, and iconographic depictions suggests the possibility of early ascetic traditions, which might have included proto-Jain elements. Some scholars argue that certain pre-Mauryan artifacts exhibit features resembling later Jain iconography, though definitive identification remains debated.
Specific Instances from the Shivalik Region
Takarla (Himachal Pradesh) - Dated to 1000 BCE: Rock carvings discovered in Takarla depict human figures in meditative postures, bearing resemblance to later Jain iconography. These carvings suggest a long-standing ascetic tradition in the region.
Pinjore (Haryana) - Pre-Mauryan Period: Excavations at Pinjore have revealed ancient symbols and markings that some scholars believe may be connected to early Jain monastic traditions.
Morni Hills (Haryana) - Dated to 500 BCE: Ancient meditation shelters and rock-cut caves in Morni Hills indicate a tradition of renunciation, potentially linked to proto-Jain or other ascetic movements.
Specific Instances from the Narmada Valley
Bhimbetka (Madhya Pradesh) - Dated to 5000 BCE: Prehistoric cave paintings in Bhimbetka depict figures in meditative postures. While not definitively Jain, these images align with the ascetic traditions central to Jain philosophy. Bhimbetka Rock Shelters – Situated in the Ratapani Wildlife Sanctuary, in the Raisen district of Madhya Pradesh. The sanctuary is part of the Vindhya mountain range and is a dry deciduous forest, rich in biodiversity.
Adamgarh Hills (Madhya Pradesh) - Dated to 3000 BCE: Rock shelters with engravings and evidence of early monastic living suggest that this area may have been used by ascetics, some of whom could have belonged to proto-Jain traditions. Adamgarh Rock Shelters – Located near Hoshangabad (now Narmadapuram), in a forested region on the northern banks of the Narmada River. This region falls within the broader Satpura Forest Range, which consists of dry deciduous forests.
Navdatoli (Madhya Pradesh) - Dated to 2000 BCE: Terracotta figurines discovered here show seated figures with elongated earlobes, a characteristic often associated with Jain monks and renunciates.
Maheshwar (Madhya Pradesh) - Dated to 1500 BCE: Excavations at this site have uncovered remains of what appear to be early monastic settlements, which may have housed ascetics following traditions akin to Jainism.
Literary and Historical Correlations
The Jain tradition itself traces its origins to prehistoric times, with the first Tirthankara, Rishabhanatha, being associated with an ancient past that precedes Vedic traditions. Certain Jain texts mention Rishabhanatha's influence in central and northern India, including the Shivalik and Narmada Valleys. While these references are largely hagiographical, they suggest that Jainism (or at least proto-Jain ideas) may have coexisted with early civilizations in these regions.
Additionally, some Jain scriptures hint at the presence of wandering ascetics in ancient times, indicating a longstanding tradition of renunciation that predated Mahavira and the historical codification of Jainism.
There are several stories in Jain scriptures related to different forests. I urge Jain historians to trace the mark in Vindhya and Satpura forests to link the archaeological findings.
Interpretation in Light of Vedic References
ऋतस्य हि सदसों धीतिरदोत्स गाष्टेयों दृषमों गोमिरानट। उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि।॥ 70. 74. 22
This Rigvedic verse, often interpreted with multiple meanings, has been examined from various perspectives, including Jain interpretations linking it to concepts of truth (ऋत) and cosmic order. Some scholars argue that the symbolism in Vedic literature hints at parallel traditions of spiritual pursuit, including proto-Jain influences.
From a Jain perspective, if we interpret this verse in connection with ascetic traditions, it may metaphorically reflect the ideals of a spiritual order emphasizing self-discipline and renunciation, fundamental to Jain philosophy.
Conclusion
While direct archaeological evidence of Jainism in the Shivalik or Narmada Valley civilizations is scarce, specific sites provide circumstantial evidence suggesting that ascetic traditions, potentially including proto-Jain elements, may have existed in these regions. The presence of rock shelters, meditative figures, and references in ancient texts supports the hypothesis that Jainism—or at least its foundational ideals—could have had a presence in these prehistoric societies. Further archaeological and textual research is required to establish a more definitive connection.
However, archaeological evidence from Bhimbetka, Adamgarh Hills, and Navdatoli suggests that Jainism may date back to the pre-Vedic period, while findings from Maheshwar indicate its presence at least as early as the Rigvedic era. These findings suggest that Madhya Pradesh possesses the oldest archaeological pieces of evidence about Jainism.
Thanks,
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
Monday, March 10, 2025
विभिन्न दृष्टिकोणों से ऋग्वेद की ऋचा का विश्लेषण – शब्दार्थ, अन्वयार्थ एवं विस्तृत व्याकरण सहित
वेदों की व्याख्या प्रायः सायण भाष्य के आधार पर ही की जाती है, जबकि यह एकांगी दृष्टिकोण है और इससे सत्य का यथार्थ स्वरुप उद्घाटित नहीं होता. सायण का काल १४वीं शताब्दी है और वेद इससे कम से कम 2500 वर्ष पूर्व लिखा गया है. इतने वर्षों में शब्द ही नहीं भाषा भी बदल जाती है और उसके अर्थ भी बदल जाते हैं. इतना ही नहीं लेखक का अपना दृष्टिकोण एवं पूर्वाग्रह भी इसमें सम्मिलित हो जाता है.
सायण भाष्य वेदों का याज्ञिक एवं देवता केंद्रित व्याख्या करता है. परन्तु वेद जैसे महान ग्रन्थ के अन्य अर्थ भी हो सकते हैं. इस सन्दर्भ में भगवान् महावीर एवं इंद्रभूति गौतम के बीच वेदमंत्रों को लेकर संवाद उल्लेखनीय है जहाँ दोनों ने वेदमंत्रों का अलग अलग अर्थ किया था (देखें गणधरवाद). यदि आजसे 2500 वर्ष पहले ऐसा हो सकता था तो आज तो उसकी शक्यता और बहुत अधिक हो गई है.
अनेक अर्वाचीन विद्वान केवल मात्र सायण भाष्य के आधार पर ही अर्थ करने का आग्रह रखते हैं. जो की सर्वांगीण अर्थ की दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता. हाँ, एकांगी दृष्टिकोण रखना हो तो यह सही हो सकता है. इसी बात को ध्यान में रखते हुए ऋग्वेद की एक ऋचा (ऋग्वेद 2.33.10) का यहाँ विभिन्न दृष्टिकोणों से अर्थ किया गया है. वेद-विद एवं विद्वानों से विनती है है की इसमें कोई गलती हो तो सुधरने की कृपा करें.
सर्वप्रथम बहुप्रचलित सायण भाष्य के आधार पर अर्थ करने के बाद यास्क के निरुक्त, निघण्टु, आध्यात्मिक (वेदान्तिक/योगिक), जैन एवं बौद्ध दृष्टिकोण से बहु पक्षीय अर्थ एवं विश्लेषण प्रस्तुत किया जायेगा.
I. मूल संस्कृत मंत्र (संहितापाठ एवं पदपाठ):
संहितापाठ: ऋग्वेद 2.33.10
अर्हन्न् बिभर्षि सायकानि धन्वा
अर्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् ॥
अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं
न वा ओजीयः रुद्रत्वदस्ति ॥
पदपाठ:
अर्हन् बिभर्षि सायकानि धन्वा |
अर्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपम् ||
अर्हन् इदं दयसे विश्वम् अभ्वम् |
न वा ओजीयः रुद्रत्वदस्ति ||
II. सायण भाष्य (वैदिक कर्मकाण्डीय दृष्टिकोण से व्याख्या)
🔹 सायणाचार्य के अनुसार, यह मंत्र रुद्र की शक्ति, उनके यज्ञीय स्वरूप और उनकी कृपा को दर्शाता है।
🔥 सायण भाष्य का मूल अर्थ:
(1) "अर्हन् बिभर्षि सायकानि धन्वा"
👉 हे रुद्र! आप अपने धनुष और बाण धारण करते हैं, जो कि रोगों एवं विघ्नों के नाशक हैं।
🔹 सायणाचार्य कहते हैं कि यह यहाँ यज्ञीय अर्थ में प्रयोग हुआ है।
- धनुष = यज्ञीय शक्ति का प्रतीक
- सायक (बाण) = पापों एवं रोगों के नाशक यज्ञीय मन्त्र
तात्पर्य: रुद्र अपने धनुष एवं बाणों के माध्यम से रोगों, शत्रुओं एवं अनिष्ट शक्तियों का नाश करते हैं।
(2) "अर्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपम्"
👉 हे रुद्र! आप निष्क (स्वर्ण हार) धारण करते हैं और विश्वरूप हैं।
🔹 सायणाचार्य के अनुसार:
- "निष्क" = सोने का आभूषण, जो यज्ञ करने वालों के लिए शुभ होता है।
- "यजतं" = यज्ञ में आहुति देने वाला।
- "विश्वरूप" = जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो।
तात्पर्य: यह मंत्र यज्ञीय दृष्टि से रुद्र की समस्त जगत पर व्यापकता एवं यज्ञ में उनकी प्रमुख भूमिका को इंगित करता है।
(3) "अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं"
👉 हे रुद्र! आप इस सम्पूर्ण विश्व पर दया करते हैं।
🔹 सायणाचार्य कहते हैं कि यहाँ "दयसे" का अर्थ "रोगों को दूर करने वाले" से है।
- "दयसे" = कृपा करना, रोग निवारण करना।
- "विश्वमभ्वम्" = सम्पूर्ण जगत की पीड़ा दूर करना।
तात्पर्य: रुद्र यज्ञ के माध्यम से समस्त प्राणियों के दुःख, रोग एवं कष्टों को दूर करते हैं।
(4) "न वा ओजीयः रुद्रत्वदस्ति"
👉 हे रुद्र! आपसे अधिक बलशाली (ओजीयः) कोई नहीं है।
🔹 सायणाचार्य इसे इस प्रकार समझाते हैं:
- "ओजीयः" = अत्यधिक बलशाली।
- "रुद्रत्वदस्ति" = आपमें रुद्रस्वरूप शक्ति निहित है।
तात्पर्य: रुद्र सर्वाधिक शक्तिशाली देवता हैं, जो यज्ञ के माध्यम से जगत का कल्याण करते हैं।
III. सायण भाष्य के आधार पर विस्तृत अर्थ
🔹 सायण के अनुसार इस मंत्र में रुद्र के निम्नलिखित गुण दर्शाए गए हैं:
1️⃣ रुद्र यज्ञीय देवता हैं, जो यज्ञ के माध्यम से जगत का पोषण करते हैं।
2️⃣ उनका धनुष और बाण रोग, मृत्यु एवं आपदाओं का नाश करने वाले हैं।
3️⃣ वे स्वर्ण निष्क धारण करते हैं, जो उनके तेज, सौंदर्य एवं यज्ञ-संबंधी महिमा को दर्शाता है।
4️⃣ रुद्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं और विश्वरूप हैं।
5️⃣ वे यज्ञीय शक्ति द्वारा सम्पूर्ण विश्व के दुःख दूर करने वाले हैं।
6️⃣ उनसे अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है।
II. शब्दार्थ (शब्द-शब्द का अर्थ) एवं व्याकरणीय विश्लेषण
शब्द | धातु / व्युत्पत्ति | शब्दार्थ (अर्थ) | विभक्ति एवं लिंग |
---|---|---|---|
अर्हन् | √अर्ह् (योग्यता रखना) | योग्य, पूजनीय, वंदनीय | प्रथमा विभक्ति, पुल्लिंग |
बिभर्षि | √भृ (धारण करना) | धारण करते हो, रखते हो | मध्यम पुरुष, एकवचन |
सायकानि | √सि (फेंकना) + "अक" प्रत्यय | बाण, अस्त्र | नपुंसकलिंग, बहुवचन, द्वितीया विभक्ति |
धन्वा | √धन् (ध्वनि करना) | धनुष, शस्त्र | पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति |
अर्हन् निष्कं | √अर्ह् + निष्क (स्वर्ण आभूषण) | योग्य आभूषण, मूल्यवान वस्त्र | द्वितीया विभक्ति |
यजतं | √यज् (यज्ञ करना) | यज्ञ करने वाला | कर्तृवाचक, द्विवचन |
विश्वरूपम् | √विश् (व्याप्त होना) + रूपम् | सर्वव्यापी स्वरूप | द्वितीया विभक्ति, नपुंसकलिंग |
दयसे | √दय् (कृपा करना) | कृपा करते हो, अनुग्रह करते हो | मध्यम पुरुष, एकवचन |
विश्वम् अभ्वम् | √विश् (संपूर्ण) + √भू (होना) | सम्पूर्ण सृष्टि, अविनाशी रूप | द्वितीया विभक्ति |
न वा | निषेध शब्द | नहीं भी | - |
ओजीयः | √ओज् (बल, शक्ति) | अधिक शक्तिशाली | पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति |
रुद्रत्वदस्ति | रुद्र + त्व (भावार्थक प्रत्यय) + अस्ति | रुद्रस्वभाव वाला, रुद्ररूप | - |
III. अन्वय (संधि विच्छेद के साथ अर्थ)
🔹 "हे अर्हन्! आप बाण (सायकानि) और धनुष (धन्वा) धारण करते हैं।
🔹 आप यज्ञ में अर्ह निष्क (मूल्यवान वस्त्र/आभूषण) धारण करते हैं।
🔹 आप विश्वरूप (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वरूप) को धारण करने वाले हैं।
🔹 हे अर्हन्! आप इस सम्पूर्ण विश्व (विश्वम् अभ्वम्) पर दया करते हैं।
🔹 आपसे अधिक शक्तिशाली (ओजीयः) कोई नहीं है।
🔹 आपमें ही रुद्रत्व (रुद्र का स्वभाव) स्थित है।"
IV. विभिन्न दृष्टिकोणों से व्याख्या
(यास्क के निरुक्त, निघण्टु, आध्यात्मिक (वेदान्तिक/योगिक), जैन एवं बौद्ध दृष्टिकोण से)
1. यास्क का निरुक्त (Nirukta - Etymological Analysis)
यास्काचार्य के अनुसार, यह मंत्र रुद्र के कई गुणों को दर्शाता है।
- "अर्हन्" = श्रेयस्करः (कल्याणकारी), समर्थः (सक्षम), पूजनीयः (वंदनीय)
- "बिभर्षि" = समस्त जगत को धारण करने वाला
- "यजतं" = जो अपने कार्यों से यज्ञ स्वरूप हो
- "विश्वरूपम्" = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वरूप को धारण करने वाला
🔹 निष्कर्ष:
यहाँ रुद्र केवल एक देवता नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड के संचालन का प्रतीक हैं।
2. निघण्टु (Nighantu - Vedic Lexicon)
ऋग्वेद के शब्दों की पुरातन सूची में:
- "रुद्र" = अग्नि, वायु, पर्जन्य
- "विश्व" = समस्त सृष्टि
- "सायक" = प्रकाश के किरणें (सूर्य के बाण)
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र केवल एक शस्त्रधारी देवता नहीं हैं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड के कारक, पोषक और संहारक भी हैं।
3. आध्यात्मिक (Vedantic/Yogic Interpretation)
- रुद्र = आत्मन् (ब्रह्म)
- सायक (बाण) = ध्यान और ज्ञान के अस्त्र
- धनुष = योग साधना
- विश्वरूप = अद्वैत ब्रह्म, सम्पूर्ण चेतना
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र आत्मस्वरूप हैं। उनका बाण ज्ञान की तीव्रता है, उनका धनुष योग है, और वे स्वयं ब्रह्म हैं।
4. जैन दृष्टिकोण
- अर्हन् = जिन, तीर्थंकर
- बाण और धनुष = तपस्या और संयम
- विश्वरूप = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र कोई शस्त्रधारी देवता नहीं, बल्कि वास्तविक जिन (विजेता) हैं, जो आत्मज्ञान के माध्यम से समस्त संसार को तिरस्कार कर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।
डॉ सागरमल जैन ने इस सूक्त का एक विशेष प्रकार से अर्थ किया है. यहाँ उनका दृष्टिकोण भी प्रस्तुत है:
जैन दृष्टि से व्याख्या:
"हे अर्हन्! तू संयम रूपी शस्त्र (धनुष-बाण) को धारण करता है और सांसारिक जीवों के प्राण रूपी स्वर्ण का त्याग करता है। निश्चित रूप से तुझसे अधिक बलवान और कठोर (कषायों एवं कर्मों के उन्मूलन में) और कोई नहीं है। हे अर्हन्, तू विश्व के समस्त प्राणियों पर मातृवत् दया करता है।"
विश्लेषण:
यहाँ अर्हन् की रूपक के माध्यम से स्तुति की गई है। शस्त्र धारण करने का तात्पर्य संयम रूपी शस्त्र को धारण कर कर्म-शत्रुओं या कषाय-वासनाओं को पराजित करने से है। जैन परंपरा में 'अर्हन्' (अरिहंत) शब्द की व्याख्या शत्रु (कर्म) का नाश करने वाले के रूप में की जाती है। आचारांग सूत्र में साधक को अपनी वासनाओं से युद्ध करने का निर्देश दिया गया है।
इसी प्रकार, व्यंग्य रूप से (व्याज स्तुति) यह भी कहा गया है कि जहाँ सारा संसार स्वर्ण के पीछे भागता है, वहीं अर्हन् इसका त्याग करता है। यहाँ 'यजतं' शब्द त्याग का वाची माना जा सकता है। अतः तुझसे अधिक कठोर और समर्थ कौन हो सकता है?
इस संदर्भ में 'विश्वमम्बं' शब्द विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसमें अर्हन् को विश्व के सभी प्राणियों पर दया करने वाला तथा मातृवत् स्नेह करने वाला कहा गया है, जो जैन परंपरा का मूल आधार है।
5. बौद्ध दृष्टिकोण
- अर्हन् = बोधिसत्त्व / निर्वाण प्राप्त व्यक्ति
- धनुष और बाण = ध्यान और प्रज्ञा
- दयसे = करुणा (compassion)
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र बुद्ध की तरह हैं, जो प्रज्ञा और करुणा के द्वारा अज्ञान को नष्ट करते हैं।
IV. सायण भाष्य बनाम अन्य व्याख्याएँ
दृष्टिकोण | मुख्य निष्कर्ष |
---|---|
सायण भाष्य (वैदिक यज्ञीय अर्थ) | रुद्र एक यज्ञीय देवता हैं, जो रोगों, आपदाओं और संकटों का नाश करते हैं। उनका धनुष और बाण यज्ञीय शक्ति के प्रतीक हैं। |
यास्क का निरुक्त | रुद्र अग्नि, वायु और ब्रह्माण्डीय शक्ति के प्रतीक हैं। उनका विश्वरूप सर्वव्यापक ब्रह्म को दर्शाता है। |
निघण्टु (वैदिक शब्दकोश) | रुद्र अग्नि, जल, वायु, सूर्य, एवं चिकित्सा के कारक हैं। |
आध्यात्मिक (उपनिषद/योगिक) | रुद्र परम ब्रह्म (अद्वैत स्वरूप) हैं, और उनका धनुष-बाण ज्ञान और योग का प्रतीक है। |
जैन दृष्टिकोण | रुद्र अर्हत् (जिन) समान हैं, जो तपस्या और संयम के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। |
बौद्ध दृष्टिकोण | रुद्र बोधिसत्त्व समान हैं, जो करुणा और प्रज्ञा द्वारा अज्ञान का नाश करते हैं। |
IV. सायण भाष्य बनाम अन्य व्याख्याएँ
V. समग्र निष्कर्ष
1. सायण भाष्य के अनुसार यह मंत्र रुद्र को एक यज्ञीय देवता के रूप में चित्रित करता है, जो रोगों को दूर करने वाले, यज्ञ में भाग लेने वाले और विश्वरूप धारण करने वाले हैं।
2. निरुक्त और निघण्टु के अनुसार, रुद्र न केवल एक देवता बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति और ब्रह्माण्डीय शक्ति के कारक हैं।
3. आध्यात्मिक दृष्टि से वे ब्रह्म (परम सत्य) हैं, जैन दृष्टि से वे संयमी आत्मज्ञानी हैं, और बौद्ध दृष्टि से वे प्रज्ञा और करुणा के प्रतीक हैं।
यह मंत्र केवल यज्ञीय अनुष्ठान तक सीमित नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी गहन अर्थ रखता है।
1. सायण भाष्य के अनुसार यह मंत्र रुद्र को एक यज्ञीय देवता के रूप में चित्रित करता है, जो रोगों को दूर करने वाले, यज्ञ में भाग लेने वाले और विश्वरूप धारण करने वाले हैं।
2. निरुक्त और निघण्टु के अनुसार, रुद्र न केवल एक देवता बल्कि सम्पूर्ण प्रकृति और ब्रह्माण्डीय शक्ति के कारक हैं।
3. आध्यात्मिक दृष्टि से वे ब्रह्म (परम सत्य) हैं, जैन दृष्टि से वे संयमी आत्मज्ञानी हैं, और बौद्ध दृष्टि से वे प्रज्ञा और करुणा के प्रतीक हैं।
यह मंत्र केवल यज्ञीय अनुष्ठान तक सीमित नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी गहन अर्थ रखता है।
- निरुक्त – रुद्र संहारक और पालक दोनों हैं।
- निघण्टु – रुद्र अग्नि, वायु, और परम शक्ति हैं।
- वेदान्त – रुद्र परब्रह्म (ब्रह्माण्डीय चेतना) हैं।
- जैन दृष्टि – रुद्र तपस्वी, संयमी, आत्मज्ञानी वीतराग जिन अर्हन्त हैं।
- बौद्ध दृष्टि – रुद्र बुद्ध समान करुणामय और ज्ञान के प्रकाशक हैं।
यह सम्पूर्ण विश्लेषण इंगित करता है की केवल जैन और बौद्ध ही नहीं अपितु वैदिक दर्शन से सम्बंधित अलग अलग मत वेदों का अलग अलग अर्थ करते हैं. इसके अतिरिक्त निकट काल में हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती एवं महर्षि अरविन्द द्वारा किये हुए अर्थों में भी विभिन्नता है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की जैन दर्शन के प्रौढ़ विद्वान डॉ सागरमल जी जैन ने भी जैन दृष्टि से अनेक ऋचाओं का अनुवाद किया है. इन सभी अर्थों का अवलोकन करने हेतु विनती है.
ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
Bhavanas – Reflections for a Meaningful Life
१६ भावनाएँ (16 Bhavanas) – Reflections for a Meaningful Life
Jainism teaches us to reflect deeply on certain thoughts, called Bhavanas, to develop wisdom, kindness, and detachment. The 12 Bhavanas help us understand the truth of life, while the 4 Additional Bhavanas guide us in maintaining good relationships with others. Bhavanas are the gateway to Dhyana (Meditation) and a powerful tool to eradicate Karma (Nirjara).
By thinking about these 16 Bhavanas, we can become better human beings and move toward liberation (Moksha).
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Bhavana and Dhyana (Meditation) |
The 12 Bhavanas (१२ मुख्य भावनाएँ)
1️⃣ अनित्य भावना (Anitya Bhavana) – Impermanence of the World
Everything in mundane life is temporary or impermanent. Our body, relationships, and possessions do not last forever. Understanding this reduces our attachment to material things.
2️⃣ अशरण भावना (Asharana Bhavana) – Helplessness
No one—family, friends, or wealth—can protect us at the time of death. This is the helplessness in everybody's life. Only our good or bad karma follows us. Understanding this is understanding the truth.
3️⃣ संसार भावना (Samsara Bhavana) – Cycle of Birth and Death
We have taken countless births in different forms—human, animal, insect, and more. This cycle of birth and death is full of suffering. The only way to escape is by following Dharma, the path of Moksha.
4️⃣ एकत्व भावना (Ekatva Bhavana) – Aloneness
We are responsible for our own karma. No one else can take the results of our actions, and we alone will face their consequences. Understanding of this aloneness combined with helplessness, leads to a deeper truth.
5️⃣ अन्यत्व भावना (Anyatva Bhavana) – Separateness
The soul (Atma) is separate from the body and all worldly things. Realizing this helps us avoid false attachment. This Bahavana, in a way, is opposite to the previous one.
6️⃣ अशुचि भावना (Ashuchi Bhavana) – Impurity of the Body
The human body is made up of blood, bones, and waste, unclean substances. It is constantly changing and will decay one day. Instead of being obsessed with the body, we should focus on the pure and eternal soul.
7️⃣ आस्रव भावना (Asrava Bhavana) – Influx of Karma
Karma enters our soul because of our actions, thoughts, and emotions. Negative emotions like anger, greed, and ego bring bad karma. Mithyatva, Raga, and Dwesha are the main causes of Asrava. Understanding this truth to the level of perception is Asrava Bhavana.
8️⃣ संवर भावना (Samvara Bhavana) – Stopping the Inflow of Karma
Restraining the influx of Karma is one of the main goals of spiritual life. Samvara Bhavana helps understanding this. True knowledge, along with right perception and practicing self-control, non-violence, and discipline, we can stop new karma from entering our soul.
9️⃣ निर्जरा भावना (Nirjara Bhavana) – Shedding of Karma
We can remove past karma through penance, meditation, and self-discipline. The lighter our soul becomes, the closer we get to liberation.
🔟 लोक स्वरूप भावना (Loka Swaroopa Bhavana) – Understanding the Universe
The universe is eternal, consists of six Dravyas and follows fixed rules. It consists of heavens, hells, human and animal realms, and infinite living beings. By understanding this, we become aware of our true purpose in life.
1️⃣1️⃣ बोधि दुर्लभ भावना (Bodhi Durlabha Bhavana) – Rarity of Right Knowledge
Getting a human birth is rare. Learning the right Dharma and conceiving it is extremely rare. We should not waste this opportunity and must follow the teachings of Tirthankaras.
1️⃣2️⃣ धर्म सुआख्यातत्व भावना (Dharma Suākhyātatva Bhavana) – Glory of True Dharma
True Dharma is well-proclaimed by the Tirthankaras and leads to Moksha. The Dharma is well defined. We should follow the TriRatna (Right Faith, Right Knowledge, Right Conduct) to achieve true happiness.
The 4 Additional Bhavanas (४ अतिरिक्त भावनाएँ)
1️⃣3️⃣ मैत्री भावना (Maitri Bhavana) – Friendliness
We should be friendly and loving towards all living beings. This removes aversion and helps create peace and harmony in our mind, thus in the world.
1️⃣4️⃣ प्रमोद भावना (Pramod Bhavana) – Appreciation of Virtuous Souls
Instead of feeling jealous of good and noble people, we should appreciate and respect them. We should try to follow their example. This helps in inculcating virtues in ourselves.
1️⃣5️⃣ करुणा भावना (Karunya Bhavana) – Compassion for the Suffering
Mercy and compassion are great virtues. It is said that all virtues follow Karuna (Kindness). Whenever we see someone in pain, we should help them with kindness. We should avoid harming any living being.
1️⃣6️⃣ मध्यस्थ भावना (Madhyastha Bhavana) – Neutrality towards the Wicked
One who is evil, unjust, or doing something wrong, we generally retaliate. Ignoring them, instead, is Madhyastha Bhavana. If someone is doing bad deeds, we should not feel hatred or take revenge. Instead, we should stay neutral and avoid getting involved in negativity.
Understanding the word Bhavana
The Meaning and Sanskrit Origin of the Word "भावना" (Bhavana)
The word भावना (Bhāvanā) has deep roots in Sanskrit grammar and philosophy, and it carries a profound meaning beyond just "thought" or "reflection." Let’s break it down in detail.
1. Etymology of "भावना"
The word भावना (Bhāvanā) is derived from the Sanskrit root "भू" (bhū), which means "to be," "to exist," or "to become."
- Root: √भू (bhū) → "to be, to grow, to manifest"
- Suffix: -अना (ana) → Used in Sanskrit to denote a continuous process, making something happen
- Formation: भू + अना → भावना (Bhāvanā)
Thus, भावना literally means "the process of bringing something into being" or "the act of cultivating and manifesting a thought or state of mind."
It is not just passive thinking but actively generating and nurturing an idea, quality, or state of consciousness.
2. Meanings of "भावना" in Different Contexts
-
In Jainism & Spirituality:
- भावना refers to deep contemplation, reflection, and internalization of spiritual truths.
- It is a mental exercise to bring about a transformation of the soul by aligning thoughts with the ultimate truth.
- The 16 Bhavanas are meant to purify the soul and develop detachment, kindness, and wisdom.
-
In General Sanskrit Usage:
- "Feeling" or "Emotion" – भावना refers to emotions like love, compassion, devotion, and respect.
- "Cultivation" or "Development" – Just as a seed grows into a tree with care, भावना means the deliberate cultivation of thoughts and virtues.
- "Imagination" or "Visualization" – In poetry and literature, भावना means the act of envisioning something deeply.
-
In Sanskrit Grammar (Vyākaraṇa)
- The term भावना is used in Pāṇini's grammar to describe the "intended meaning" or "conveyed sense" of a verb or action.
- It indicates causation and mental effort behind an action (Kārya-kāraṇa sambandha).
3. भावना as a Path to Transformation
Unlike ordinary thoughts, भावना is a systematic method of focusing the mind on higher truths.
- It bridges the gap between knowledge and experience.
- By practicing Bhavanas, a person shifts from intellectual understanding to an inner realization.
- It is an active state – one does not just think about impermanence (Anitya Bhavana), but deeply realizes it, feels it, and integrates it into life.
Thus, भावना is a practice, an effort, and a deep realization all at once.
4. भावना in Jain Philosophy
In Jainism, भावना is a critical concept because it is a mental discipline that purifies the soul and reduces karma.
- The 16 Bhavanas are not just meditations but powerful mental tools to reshape our perception of life.
- They are not blind beliefs but contemplations leading to self-experience.
- This aligns with अनुप्रेक्षा (Anuprekṣā), which means systematic inner reflection.
Example:
- When one deeply meditates on Anitya Bhavana (Impermanence), it is not just thinking about impermanence. It is seeing impermanence in everything around, feeling it, and letting go of attachments naturally.
5. Conclusion: Why is भावना So Important?
- भावना is the foundation of self-transformation.
- It is not just a thought but a living experience that changes our actions and emotions.
- It is the first step toward wisdom (Jnana) and liberation (Moksha).
Jainism beautifully integrates भावना as a bridge between knowledge (Darshan) and conduct (Charitra), leading to the purification of the soul.
Thus, भावना is not mere thinking—it is the conscious, systematic cultivation of the right perspective that leads to inner awakening. 🙏
Exercise:
A. Match the Following
- अनित्य भावना → A. Friendliness towards all
- संसार भावना → B. Appreciating noble people
- मैत्री भावना → C. Everything is temporary
- प्रमोद भावना → D. Cycle of birth and death
- मध्यास्थ भावना → E. Neutrality towards the wicked
(Answers: 1 → C, 2 → D, 3 → A, 4 → B, 5 → E)
B. Fill in the Blanks
- _________ भावना teaches us that nothing in the world is permanent.
- _________ भावना helps us understand that only our karma stays with us at the time of death.
- _________ भावना encourages us to feel compassion for those who are suffering.
- _________ भावना tells us that true Dharma is the only path to Moksha.
- _________ भावना reminds us that our soul is different from our body.
(Answers: 1. अनित्य, 2. अशरण, 3. करुणा, 4. धर्म सुआख्यातत्व, 5. अन्यत्व)
C. Think and Write
- Which Bhavana do you like the most and why?
- Can you name one daily habit that will help you practice Maitri Bhavana?
- What does Samsara Bhavana teach us about our past and future lives?
- How can we stop new karma from entering our soul?
- What is the difference between Pramod Bhavana and Karunya Bhavana?
D. Creative Activity
- Storytelling: Write a short story where a person follows at least three Bhavanas in their daily life.
- Drawing: Make a poster with all 16 Bhavanas in a creative way.
- Discussion: Share an experience where you practiced Maitri, Karunya, or Madhyastha Bhavana in real life.
Conclusion
The 16 Bhavanas help us understand life better and guide us toward a peaceful, wise, and kind way of living. By thinking about them daily, we can make better choices, be more compassionate, and move closer to Moksha.
🌿 Which Bhavana will you practice today? 🌿
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ
ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में अनेक ऋषभ, वृषभ, अर्हत, अर्हन्त आदि वाचक ऋचाएं हैं. इन ऋचाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है की प्रथम तीर्थंकर एवं इस अवसर्पिणी काल में आर्हत निर्ग्रन्थ (जैन) धर्म के प्रथम उपदेशक ऋषभदेव ऋग्वेद काल में भी पूजनीय थे. परन्तु अनेक अर्वाचीन विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं और ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में प्राप्त ऋषभ, वृषभ, अर्हत, अर्हन्त आदि शब्दों को वैदिक देवों के विशेषण के रूप में व्याख्या करते हैं. इस प्रकार की व्याख्या समीचीन नहीं लगती.
इस हेतु यहाँ पर ऋग्वेद की एक ऋचा (मंत्र/सूक्त) का विशुद्ध व्याकरणिक दृष्टि से अर्थ किया गया है. इसके साथ ही वर्त्तमान में किये जानेवाले अर्थ का भी सन्दर्भ प्रस्तुत किया गया है. इस सम्पूर्ण व्याख्या से यह सिद्ध हो जायेगा की ऋग्वेद की ये ऋचाएं तीर्थंकर ऋषभदेव एवं अर्हन्त की और ही इंगित करती है न की किसी वैदिक देव की और.
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अरिहंत अर्हन्त तीर्थंकर |
अर्हन्तो ये युदानवो नरो असामिशंवसः।
प्र वर्क्ष बजिवेस्योन दियो अर्था मरुद्मयेः।। (ऋग्वेद 5.52.5)
इस सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरण, अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या), एवं विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है:
शब्दार्थ:
- अर्हन्तः – योग्य, पूजनीय, सिद्ध पुरुष।
- ये – जो (संबंधसूचक सर्वनाम)।
- युदानवः – योद्धा, युद्ध-कुशल व्यक्ति।
- नरः – मनुष्य।
- असामि-शंवसः – असामि (असम = बिना) + शंवसः (शुभ वासना रखने वाले) = जो बिना कल्याणकारी इच्छाओं के हैं, अथवा जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं।
- प्र – आगे, श्रेष्ठ रूप से।
- वर्क्ष – वृक्ष, प्रतीकात्मक रूप में आधार या शक्ति का स्रोत। वेदों में कुछ स्थानों पर वृक्ष के लिए वर्क्ष का प्रयोग हुआ है.
- बजिवेस्यः – बज (बल) + वेस्य (वेश, स्थान) = बल का निवास, अर्थात् शक्ति के स्रोत।
- उन – (संस्कृत व्याकरण में स्पष्ट नहीं, संभवतः उन्नत या विशेष अर्थ में प्रयुक्त)।
- दियः – बुद्धि, प्रकाश, ज्ञान।
- अर्थाः – उद्देश्य, ध्येय।
- मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।
अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या):
"ये नरः युदानवः (योद्धा) अर्हन्तः (योग्य, पूजनीय) असामिशंवसः (जो बिना किसी स्वार्थ के हैं), ते प्र (श्रेष्ठ रूप से) वृक्ष बजिवेस्यः (शक्ति के स्रोत) उन (उन्नत) दियः (बुद्धि) अर्थाः (उद्देश्य) मरुद्मयेः (मरुद्गण के समान व्यापक) भवति।।"
विस्तृत अर्थ:
जो मनुष्य योद्धा होते हैं, वे यदि अर्हन्त अर्थात् पूजनीय (गुणों से युक्त) हों, और बिना किसी स्वार्थ (शुभाशय की व्यक्तिगत अपेक्षा से रहित) के कार्य करें, तो वे श्रेष्ठ रूप से शक्ति के स्रोत (मूल आधार) बनते हैं। उनकी बुद्धि (प्रज्ञा) उन्नत और दिव्य हो जाती है, तथा उनके उद्देश्य वायुदेव (मरुत्) के समान व्यापक और गतिशील होते हैं, अर्थात् वे स्वतः ही समस्त लोक के कल्याण के लिए सक्रिय रहते हैं।
विशेष:
अरिहंत एक गुणवाची शब्द है जिसका अर्थ होता है शत्रुओं को नष्ट करनेवाला. जैन दर्शन में अरिहंत शब्द का व्यापक प्रयाग है जहाँ उसका अर्थ "आतंरिक शत्रुओं को नष्ट करनेवाले" रूढ़ है. इसी प्रकार अर्हन्त को अरिहंत का पर्यायवाची भी माना गया है. यहाँ पर इन दोनों ही अर्थों का सामंजस्य बैठता है. इसी प्रकार
- मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं। इसे जैन दृष्टि से देखें तो तीर्थंकरों को वायु के सामान अप्रतिवद्ध बिहारी कहा गया है. यह अर्थ भी तीर्थंकर का ही एक विशेषण है.
भावार्थ:
इस ऋचात्मक वाक्य का संकेत यह है कि सच्चे योद्धा वे हैं जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। जब मनुष्य अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, सच्ची अर्हत्ता (योग्यता) और धर्म का पालन करता है, तो वह एक प्रबुद्ध (ज्ञानयुक्त) शक्तिस्वरूप बन जाता है और उसका उद्देश्य संपूर्ण लोक-कल्याण के लिए हो जाता है। ऐसे लोग प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु) के समान स्वतंत्र, तेजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।
विशेष टिप्पणी:
यह ऋचात्मक वाक्य वैदिक या काव्यात्मक शैलियों से प्रभावित प्रतीत होता है। इसमें नायक (श्रेष्ठ पुरुष) के गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा योद्धा वही है जो न केवल बाहरी युद्ध में बल्कि आंतरिक रूप से भी शुद्ध, निःस्वार्थ और ज्ञानयुक्त हो।
इस सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरण, अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या), एवं विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है:
![]() |
सायण भाष्य अनुसार इस श्लोक में वर्णित पुरुष का कलात्मक चित्र |
शब्दार्थ:
- अर्हन्तः – योग्य, पूजनीय, सिद्ध पुरुष।
- ये – जो (संबंधसूचक सर्वनाम)।
- युदानवः – योद्धा, युद्ध-कुशल व्यक्ति।
- नरः – मनुष्य।
- असामि-शंवसः – असामि (असम = बिना) + शंवसः (शुभ वासना रखने वाले) = जो बिना कल्याणकारी इच्छाओं के हैं, अथवा जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं।
- प्र – आगे, श्रेष्ठ रूप से।
- वृक्ष – वृक्ष, प्रतीकात्मक रूप में आधार या शक्ति का स्रोत।
- बजिवेस्यः – बज (बल) + वेस्य (वेश, स्थान) = बल का निवास, अर्थात् शक्ति के स्रोत।
- उन – (संस्कृत व्याकरण में स्पष्ट नहीं, संभवतः उन्नत या विशेष अर्थ में प्रयुक्त)।
- दियः – बुद्धि, प्रकाश, ज्ञान।
- अर्थाः – उद्देश्य, ध्येय।
- मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।
अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या):
"ये नरः युदानवः (योद्धा) अर्हन्तः (योग्य, पूजनीय) असामिशंवसः (जो बिना किसी स्वार्थ के हैं), ते प्र (श्रेष्ठ रूप से) वृक्ष बजिवेस्यः (शक्ति के स्रोत) उन (उन्नत) दियः (बुद्धि) अर्थाः (उद्देश्य) मरुद्मयेः (मरुद्गण के समान व्यापक) भवति।।"
विस्तृत अर्थ:
जो मनुष्य योद्धा होते हैं, वे यदि अर्हन्त अर्थात् पूजनीय (गुणों से युक्त) हों, और बिना किसी स्वार्थ (शुभाशय की व्यक्तिगत अपेक्षा से रहित) के कार्य करें, तो वे श्रेष्ठ रूप से शक्ति के स्रोत (मूल आधार) बनते हैं। उनकी बुद्धि (प्रज्ञा) उन्नत और दिव्य हो जाती है, तथा उनके उद्देश्य वायुदेव (मरुत्) के समान व्यापक और गतिशील होते हैं, अर्थात् वे स्वतः ही समस्त लोक के कल्याण के लिए सक्रिय रहते हैं।
भावार्थ:
इस ऋचात्मक वाक्य का संकेत यह है कि सच्चे योद्धा वे हैं जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। जब मनुष्य अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, सच्ची अर्हत्ता (योग्यता) और धर्म का पालन करता है, तो वह एक प्रबुद्ध (ज्ञानयुक्त) शक्तिस्वरूप बन जाता है और उसका उद्देश्य संपूर्ण लोक-कल्याण के लिए हो जाता है। ऐसे लोग प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु) के समान स्वतंत्र, तेजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।
विशेष टिप्पणी:
यह ऋचात्मक वाक्य वैदिक या काव्यात्मक शैलियों से प्रभावित प्रतीत होता है। इसमें नायक (श्रेष्ठ पुरुष) के गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा योद्धा वही है जो न केवल बाहरी युद्ध में बल्कि आंतरिक रूप से भी शुद्ध, निःस्वार्थ और ज्ञानयुक्त हो।
सायण की व्याख्या:
"जो पूज्य, दानशील, संपूर्ण बल से युक्त तथा तेजस्वी ज्योतिर्मय नेता हैं, उन पूज्य वीर मरुतों के लिए यज्ञ करो और उनकी पूजा करो।"
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है की सायण भाष्य वेदों के बहुत बाद की रचना है मात्र ६-७ सौ वर्ष पहले का. सायण भाष्य की व्याख्या को ही अंतिम नहीं माना जा सकता। इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए सायण को समझना आवश्यक है.
भाषा: संस्कृत।
काल: १४ वीं शताब्दी
विषयवस्तु: चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) पर एक विस्तृत भाष्य।
दृष्टिकोण: मुख्यतः याज्ञिक (कर्मकांड प्रधान), जिसमें वैदिक ऋचाओं की व्याख्या यज्ञों (वैदिक अनुष्ठानों) के संदर्भ में की गई है।
प्रभाव: यह पूर्ववर्ती विद्वानों भट्ट भास्कर, उवट और स्कंदस्वामिन की व्याख्याओं पर आधारित है।
महत्व: यह वेदों पर लिखे गए सबसे विस्तृत और व्यापक रूप से संदर्भित भाष्यों में से एक है।
सायण का कार्य वेदों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बना हुआ है, विशेष रूप से कर्मकांड और पारंपरिक ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से। हालांकि, विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद है कि क्या उनकी व्याख्या वेदों के दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्षों को पूरी तरह से समाहित करती है या नहीं।
जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान डॉ। सागरमल जैन ने इस ऋचा की जैन दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार से व्याख्या की है.
जैन दृष्टि से व्याख्या:
"जो दानवीर, तेजस्वी, संपूर्ण वीर्य से युक्त, नरश्रेष्ठ अर्हन्त हैं, वे याज्ञिकों के लिए वंदनीय और मुनियों के लिए पूजनीय हैं।"
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)
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