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बुधवार, 18 जून 2025

भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि में वन, वनवासी और जनजातियाँ: राजस्थान का संदर्भ


  • सारांश 

    यह लेख भारतीय संस्कृति में 'वन', 'वनवासी' और 'जनजाति' जैसी अवधारणाओं का दार्शनिक, ऐतिहासिक और सामाजिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, विशेषकर राजस्थान की जनजातीय परंपराओं के संदर्भ में। काली बाई, एकलव्य, और भील-मीणा जैसी जातियों के माध्यम से यह लेख भारतीय जीवनदर्शन में वनसंस्कृति की केंद्रीय भूमिका को उजागर करता है।

    प्रस्तावना (विस्तारित रूप)

    भारत की सांस्कृतिक चेतना में 'वन' और 'जनजातियाँ' केवल भौगोलिक क्षेत्र या सामाजिक वर्ग नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय जीवनदर्शन की मूल आत्मा हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों, महाकाव्यों और स्मृति-साहित्य में वन न केवल प्राकृतिक आवास के रूप में, बल्कि एक आध्यात्मिक साधना-स्थल, आत्मशोधन के क्षेत्र, और सांस्कृतिक शिक्षा के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है।

    इसी प्रकार, जनजातियाँ — जिन्हें अलग-अलग संदर्भों में 'वनवासी', 'आदिवासी', और संविधानिक रूप से 'अनुसूचित जनजाति' कहा जाता है — भारत की सांस्कृतिक विविधता की जीवंत संवाहक रही हैं। ये समुदाय केवल वनों के वासी नहीं, बल्कि धरोहरों के धारक, परंपराओं के रक्षक और नैसर्गिक ज्ञान के भंडार रहे हैं।

    इस लेख में हम इन शब्दों — वन, वनवासी, आदिवासी और जनजाति — की शब्द-व्युत्पत्ति, ऐतिहासिक विकास, वैचारिक मतभेद और सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, हम भारतीय धर्मशास्त्रों, महाकाव्यों और स्मृति ग्रंथों में 'वनवास' की अवधारणा को एक दंडात्मक व्यवस्था नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन और जीवन के क्रमिक संस्कार के रूप में देखने का प्रयास करेंगे।

    विशेषकर राजस्थान की जनजातियाँ — जैसे भील, मीणा, सहारिया, गरासिया आदि — न केवल अपने इतिहास और परंपरा में विशिष्ट हैं, बल्कि भारत की समग्र सांस्कृतिक पहचान को भी सशक्त बनाती हैं। उनके संघर्ष, बलिदान और सांस्कृतिक योगदान (जैसे वीरांगना काली बाई का शौर्य) भारतीय चेतना में प्रेरणा के शाश्वत स्रोत हैं।

    यह लेख एक प्रयास है — भारतीय संस्कृति में वन और जनजातीय परंपराओं के परस्पर संबंधों को समझने, उन्हें केवल 'विकासशील' नहीं, बल्कि 'संस्कृति-समृद्ध' समुदायों के रूप में प्रतिष्ठित करने और उनके ऐतिहासिक गौरव को पुनर्स्थापित करने का।

    1. जनजाति: परिभाषा, वैचारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक विमर्श

    जनजाति (Tribe) शब्द संस्कृत के "जन" (लोग/समूह) और "जाति" (उत्पत्ति/समुदाय) से बना है। इसका अर्थ है — "एक ऐसा समुदाय जो समान वंश, सांस्कृतिक परंपरा, भाषा, और क्षेत्रीयता से जुड़ा हुआ हो तथा जिसकी जीवनशैली पारंपरिक एवं स्वतंत्र हो।"

    भारतीय संविधान (अनुच्छेद 342) के अनुसार: भारत सरकार द्वारा जिन समुदायों को अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) घोषित किया गया है, वे ही कानूनी रूप से जनजातियाँ मानी जाती हैं।

    सामाजिक दृष्टि से: जनजातियाँ आमतौर पर स्वशासी, ग्राम्य अथवा वन क्षेत्रों में रहने वाली होती हैं। इनकी संस्कृति में प्रकृति पूजा, स्वतंत्र सामाजिक संरचना, और लोक आधारित न्याय प्रणाली होती है।

    क्या वनवासियों को ही जनजाति कहा जाता है?

    आंशिक रूप से हाँ। "वनवासी" शब्द का उपयोग उन समुदायों के लिए किया जाता है जो परंपरागत रूप से जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हैं, और जिनकी आजीविका वनों पर आधारित होती है।

    लेकिन ध्यान दें:

    • सभी वनवासी जनजाति नहीं होते (कुछ घुमंतू जातियाँ या अर्ध-नगरीय जन भी वन क्षेत्र में रहते हैं)।

    • और सभी जनजातियाँ केवल वनवासी भी नहीं होतीं — जैसे मीणा, जो मैदानों में रहते हैं और अब शिक्षित व शहरी भी हो चुके हैं।

    निष्कर्ष: हर जनजाति वनवासी नहीं होती, परंतु अधिकांश वनवासी समुदाय जनजातीय स्वरूप रखते हैं।

    क्या इन्हें ही आदिवासी कहा जाता है?

    "आदिवासी" शब्द का अर्थ है — "आदि काल से रहने वाले निवासी"। यह शब्द औपनिवेशिक काल के बाद आरंभ हुआ जब ब्रिटिश और भारतीय समाजशास्त्रियों ने यह अवधारणा दी कि भारत में कुछ समुदाय ‘प्राचीनतम निवासी’ हैं, जो आर्य/अन्य जातियों से पहले यहाँ रहते थे।

    संविधान में यह शब्द नहीं है, वहाँ केवल "अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe)" शब्द प्रयोग होता है।

    एक वैचारिक विभाजन भी है:

    • कुछ संगठन इन्हें "आदिवासी" कहते हैं — ताकि केवल उन्हें ही भारत का मूलनिवासी पहचान को स्थापित किया जा सके।

    • जबकि राष्ट्रवादी विचारधाराएँ इन्हें "वनवासी" कहती हैं — यह मानकर कि वे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं और भारतीय संस्कृति के रक्षक हैं।

    इनका प्राचीन नाम क्या था?

    वेदों, पुराणों और महाकाव्यों में निम्न नामों से इनका उल्लेख मिलता है:

    प्राचीन नामआज के संदर्भ मेंविशेषता
    निषादभील, कोल, गोंड आदिवनवासी, शिकारी, नाविक
    शबरशबर जनजाति (उड़ीसा/छत्तीसगढ़)पर्वतीय जाति
    पुलिंदमध्य भारत के गोंड समुदायरजवार, कोल, भील से संबंधित
    भीलअभी भी प्रयुक्तधनुर्धारी, अरण्यवास
    दास/दास्युमूल निवासीगैर-वैदिक/अन्य जातियाँ

    ऋग्वेद में "दास्य" शब्द का प्रयोग अजनजातीय, अनार्य या भिन्न संस्कृति वाले लोगों के लिए होता है।

    कब से इन्हें 'आदिवासी' या 'वनवासी' कहा जाने लगा?

    'आदिवासी' शब्द: बीसवीं सदी की शुरुआत में आदिवासी नेताओं, समाजशास्त्रियों और राष्ट्रवादियों द्वारा यह शब्द लोकप्रिय हुआ। 1930–40 के दशक में जवाहरलाल नेहरू, वेरियर एल्विन आदि ने इसका उपयोग किया। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा में 'अनुसूचित जनजाति' शब्द आया, परंतु सामाजिक-राजनीतिक शब्दावली में ‘आदिवासी’ शब्द बना रहा।

    'वनवासी' शब्द: 1960 के बाद राष्ट्रवादी संगठनों जैसे RSS, वनवासी कल्याण परिषद आदि ने इस शब्द को अपनाया ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि ये समुदाय भारत की संस्कृति से अलग नहीं, बल्कि उसका प्राचीन अंग हैं।

    निष्कर्ष सारणी:

    शब्दअर्थउत्पत्तिउद्देश्य
    जनजातिपरंपरागत समुदायभारतीय संविधान (अनु. 342)प्रशासनिक वर्गीकरण
    आदिवासीआदि निवासीसमाजशास्त्र, 20वीं सदीऐतिहासिक अधिकार की मांग
    वनवासीवन में रहने वालेराष्ट्रवादी विमर्शएकात्मता और संस्कृति से जुड़ाव

    2. प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वनवास की अवधारणा

    भारतीय महाकाव्यों और धर्मशास्त्रों में वनवास एक दंड नहीं बल्कि धर्म, आत्मशोधन और मोक्ष की ओर एक क्रमिक यात्रा का प्रतीक रहा है।

    1. धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती का वनों में गमन

    स्रोत: महाभारत, आश्रमवासिक पर्व (अध्याय 1–3)

    श्लोक:
    "धृतराष्ट्रस्तदा राजा प्राप्य पुत्रक्षयं महत्।
    तपश्चकर्त धर्मात्मा गत्वा शतशृङ्गमाश्रमम्॥"

    हिंदी अर्थ: धृतराष्ट्र ने अपने सभी पुत्रों के वध के पश्चात महान दुख सहा। फिर वे धर्मनिष्ठ होकर तप करने के लिए शतशृंग पर्वत स्थित आश्रम में चले गए।

    2. कुन्ती का पुत्रों को त्यागकर वनगमन

    स्रोत: महाभारत, आश्रमवासिक पर्व (अध्याय 3)

    श्लोक:
    "सा चापि कर्णमातैव धर्मपत्न्येव धर्मिणी।
    वनं ययौ सती देवी पुत्रान् हित्वा तपोवना॥"

    हिंदी अर्थ: कर्ण की माता कुन्ती, धर्मपत्नी के समान धर्मपरायण थीं। उन्होंने अपने पुत्रों को छोड़कर तपस्या हेतु वनगमन किया।

    3. विदुर का वन में वास और मृत्यु

    स्रोत: महाभारत, आश्रमवासिक पर्व (अध्याय 5)

    श्लोक:
    "विदुरस्तपसा दीप्तः कालं कृत्वा महामुनिः।
    प्राणान्सन्दध्यौ योगेन प्रविवेश महत्तरम्॥"

    हिंदी अर्थ: महामुनि विदुर तप से तेजस्वी हो गए थे। योगबल से अपने प्राणों को समाहित कर वे महान तत्व (परब्रह्म) में लीन हो गए।

    4. राम, लक्ष्मण और सीता का वनवास

    स्रोत: वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड, श्लोक 112.25

    श्लोक:
    "चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
    मधु मूल फलैः जीवन् हित्वा मुनिवदाश्रमम्॥"

    हिंदी अर्थ: (राम कहते हैं) मैं चौदह वर्षों तक एकांत वन में मुनियों की भाँति रहूँगा और मधु, मूल, फल आदि से जीवन यापन करूँगा।

    5. वानप्रस्थ का निर्देश – गृहस्थ से संन्यास की ओर

    स्रोत: मनुस्मृति – अध्याय 6, श्लोक 1  

    श्लोक:
    "गृहस्थस्तु यथा शास्त्रं पुत्रानुत्पाद्य धर्मतः।
    पश्चाद्वने वसेद्द्वैतो वन्येनैव च जीवति॥"

    हिंदी अर्थ: गृहस्थ आश्रम में पुत्र उत्पन्न कर धर्मपूर्वक जीवन बिताने के पश्चात व्यक्ति को वन में जाकर दो वस्त्रों में वन्य आहार से जीवन यापन करते हुए रहना चाहिए।

    6. ऋषि-मुनियों के आश्रम और नगरवासियों का संपर्क

    स्रोत: महाभारत, वनपर्व

    पांडवों के वनवास के समय अनेक नगरवासी, ऋषि, ब्राह्मण और विद्वान उनसे संपर्क में रहते हैं। जैसे – अगस्त्य और लोपामुद्रा, याज्ञवल्क्य और जनक संवाद आदि।

    निष्कर्ष: इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि:

    • वनवास केवल दंड नहीं, बल्कि धार्मिक एवं आत्मिक अनुशासन था।

    • राजपरिवार, नगरवासी और कुलीन भी स्वेच्छा से वनगमन करते थे।

    • यह जीवन का एक क्रमिक संस्कार था – वानप्रस्थ से संन्यास की ओर।

    वन: भारतीय सांस्कृतिक चेतना का आधार

    "वन" केवल प्राकृतिक आवास नहीं था, वह ध्यान, तपस्या, ज्ञान और आत्मसंयम का क्षेत्र था। वैदिक, उपनिषदिक, रामायण-महाभारत, बौद्ध-जैन और तमाम अन्य ग्रंथों में वनों को आध्यात्मिक साधना का आधार माना गया है।

    ऋषि-मुनियों के आश्रम प्रायः वनों में ही स्थित होते थे। वहाँ राजाओं, व्यापारियों, विद्यार्थियों और साधकों का आना-जाना लगा रहता था।

    अरण्यक ग्रंथों का नाम ही इस बात का प्रमाण है कि वे वन में वास करते हुए रचित हुए।

    राम, लक्ष्मण और सीता का वनवास और पांडवों का अज्ञातवास इसी परंपरा का हिस्सा है, जो यह दर्शाता है कि नगरीय कुलीन वर्ग भी समय-समय पर वन-जीवन में प्रवेश करता था।

    जैन शास्त्रों में तीर्थंकरों, मुनियों के वनों और पर्वतों में तपस्या करने, केवल ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने का बहुतायत से उल्लेख मिलता है. सभी तीर्थंकर नगर से वन में जाकर दीक्षा ग्रहण करते हैं एवं दीक्षा के बाद अपना अधिकांश समय वनों/पर्वतों में ही साधना करते हुए व्यतीत करते हैं. तीर्थंकरों एवं महान आचार्यों द्वारा नगर के समीप स्थित उपवनों में आकर नगरवासियों को उपदेश देने का भी प्रचुर मात्रा में उल्लेख मिलता है. 

    इसी प्रकार की संस्कृति बौद्धों में भी पाई जाती है. निष्कर्ष ये है की सम्पूर्ण भारतीय परंपरा में वन, वनवास, एवं वन्यजीवन का महत्वपूर्ण स्थान है.  

    वनवासियों की भूमिका – मात्र "आदिवासी" नहीं, संस्कृति के वाहक

    भारत में भील, गोंड, सन्थाल, कोल, मुण्डा, नागा आदि जनजातियाँ युगों से वनों में निवास करती रही हैं। लेकिन वे केवल "वन के निवासी" नहीं थे, बल्कि उनके पास समृद्ध सांस्कृतिक, दार्शनिक, औषधीय, और पर्यावरणीय ज्ञान था।

    भीलों को रामायण-महाभारत में मित्र और सहयोगी के रूप में वर्णित किया गया है। गोंड जनजाति के देवताओं और परंपराओं में भी अत्यंत प्राचीन तत्त्व मिलते हैं।

    वस्तुतः इन जनजातियों को आदिवासी नाम देना भारत की जनता को विभाजित करने की अंग्रेजों की एक गहरी चाल थी. 

    क्या नगरीय एवं ग्रामीण लोग भी वनों में निवास करते थे?

    हाँ, अवश्य। भारत में "वनवास" एक दंड या पीड़ा नहीं, बल्कि संस्कार था।

    • राम और पांडवों का वनवास एक आत्मसंधान का चरण था।

    • संन्यास आश्रम के अंतर्गत जीवन के अंतिम चरण में वनों में वास की परंपरा रही है – वानप्रस्थ आश्रम के अंतर्गत व्यक्ति गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर वनों में तप, अध्ययन और आत्मचिंतन हेतु निवास करता था।

    वाऩप्रस्थ = वन + प्रतिष्ठान → वन में प्रतिष्ठित होना (निवास करना)

    यह गृहस्थ और संन्यास आश्रम के बीच का संक्रमण काल है।

    गुरुकुल अधिकतर वनों में ही स्थित होते थे, जहाँ नगरीय और ग्रामीण विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे।

    वन–संस्कृति और भारतीय जीवनदर्शन

    वनों को देवताओं का निवास कहा गया – "वनदेवता", "वृक्षदेवता", "नदीदेवता"।

    वृक्षों की पूजा, औषधीय वनस्पतियों की पहचान, ऋतु-चक्र का ज्ञान, ये सब वन से ही विकसित हुए।

    वन, अरण्य, गिरि, नदी, झील – ये सब केवल भौगोलिक घटक नहीं बल्कि सांस्कृतिक पात्र हैं।

    निष्कर्ष: वन एवं वनवासी जीवन भारतीय परंपरा का केवल हिस्सा नहीं, उसकी आत्मा रहे हैं। यह एक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय परंपरा थी जिसमें:

    • जनजातीय समुदाय

    • नगरवासी और ग्रामवासी

    • ऋषि-मुनि और राजपुरुष

    • विद्यार्थी और संन्यासी

    — सभी भागीदार थे। भारत की सांस्कृतिक चेतना "वन" को त्याज्य नहीं, वरणीय मानती थी।

    राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ: इतिहास, संस्कृति और पहचान

    राजस्थान अपनी राजसी परंपराओं के साथ-साथ अत्यंत समृद्ध जनजातीय विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। यहाँ की जनजातियाँ सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से राज्य की आत्मा का हिस्सा हैं। राज्य में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या लगभग 92 लाख है, जो लगभग 13.5% है। प्रमुख जनजातियाँ निम्नलिखित हैं:

    1. भील

    • जनसंख्या: लगभग 39 लाख

    • क्षेत्र: उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़

    • इतिहास: भील भारत की प्राचीनतम जनजातियों में गिने जाते हैं। रामायण और महाभारत में इनका उल्लेख मिलता है। ये कुशल धनुर्धर और पारंपरिक शिकारी माने जाते थे।

    • भाषा: भीली (राजस्थानी और गुजराती मिश्रित)

    • संस्कृति व पूजा-पद्धति: गवरी नाट्य, ग्रामदेवता, भैरव, काली, हनुमान की पूजा

    महाभारत, आदिपर्व 132.6: "हिरण्यधनुं निषादं तं बालमेकलवं तदा। दृष्ट्वा प्रणम्य तत्रैनं प्रणिपत्याब्रवीद्वचः॥"

    हिंदी अनुवाद: द्रोणाचार्य ने उस समय हिरण्यधनु नामक निषादराज के पुत्र एकलव्य को देखा। उसने झुककर प्रणाम किया और विनम्र वाणी में कहा...

    Dr. Verrier Elwin: “भीलों में एकलव्य की पूजा होती है और वह उनके कुलदेवता के रूप में प्रतिष्ठित है।”

    वीरांगना काली बाई खाट (भील)

    डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गाँव की वीरांगना काली बाई भील का जीवन और बलिदान एक प्रेरणादायक कथा है:

    जीवन परिचय

    • जन्म: जून 1935 (या 1934) में डूंगरपुर के रास्तापाल गाँव में भील परिवार में हुई थी

    • परिवार: पिता – सोमभाई भील, माता – नवली देवी। माता-पिता किसान थे

    • शिक्षा: स्थानीय सेवा संघ द्वारा स्थापित पाठशाला में पढ़ती थी, जहाँ शिक्षण के लिए नानाभाई खाँट और सेंगाभाई रोत गुरु थे

    घटना का क्रम

    • पाठशाला पर हमला: जून 1947 में महारावल लक्ष्मण सिंह के आदेश पर जिला मजिस्ट्रेट व पुलिस ने मार्ग में चल रही स्कूल को बंद करने की कोशिश की

    • गुरुओं का उत्पीड़न: नानाभाई खाँट को पीटा गया और उनकी मृत्यु हो गई। सेंगाभाई रोत को ट्रक से बाँधकर घसीटा जा रहा था

    • काली बाई का साहस: लगभग 11‑13 वर्ष की उम्र में, कालीबाई ने हँसिया लेकर ग्राफ़ किया गया और अपने गुरु की रक्षा के लिए रस्सी काटकर उन्हें बिलकुल मुक्त कराया

    • बलिदान: पुलिसकर्मियों ने उन पर गोली चलाई, वे गंभीर रूप से घायल हुईं और 20 जून 1947 को वीरगति को प्राप्त हुईं

    महत्व और विरासत

    • आधुनिक एकलव्य: काली बाई को शिक्षा की देवी और आधुनिक ‘एकलव्य’ कहा जाता है

    • पर्यटन एवं स्मारक:

      • मान्डवा (डूंगरपुर) में काली बाई पैनोरमा का निर्माण हुआ, जिसे 2018 में मुख्यमंत्री द्वारा उद्घाटित किया गया 

      • रास्तापाल में उनकी और नानाभाई खाँट की प्रतिमाओं पर माला चढ़ाकर श्रद्धांजलि दी जाती है; जयंतियाँ मनाई जाती हैं

    • शिक्षा और प्रेरणा: आदिवासी क्षेत्र में शिक्षा की ज्योति जगाने का उनका योगदान आज भी याद किया जाता है 

     निष्कर्ष

    काली बाई भील की कथा हमें सिखाती है कि सच्ची वीरता उम्र नहीं, नैतिक दृढ़ता, गुरुभक्ति और शिक्षा के प्रति प्रेम होती है। 11‑13 वर्ष की इस बालिका ने जिस साहस का परिचय दिया, न केवल अपने गुरु की जान बचाई, बल्कि पूरे आदिवासी समुदाय के लिए सांस्कृतिक और शिक्षा से जुड़े मूल्यों का संदेश भी दिया।

    2. मीणा

    • जनसंख्या: 32–34 लाख

    • क्षेत्र: जयपुर, सवाई माधोपुर, दौसा, करौली, टोंक

    • इतिहास: प्राचीन ‘मत्स्य जनपद’ से संबंध, विराटनगर (वर्तमान बैराठ)

    • भाषा: ढूंढाड़ी उपबोली

    • संस्कृति: थोक प्रणाली, स्वांग नाट्य, देवी, भैरव व कुलदेवता की पूजा

    महाभारत, विराट पर्व 1.2: "एतद्वै विराटनगरं यत्र स मन्मथो राजा।"

    हिंदी अनुवाद: यह विराटनगर वही है जहाँ राजा विराट राज्य करते थे...

    स्रोत: “The People of India – Rajasthan”, Lt. Col. James Tod

    3. गरासिया

    • जनसंख्या: लगभग 2.5 लाख

    • क्षेत्र: सिरोही, जालोर, पिंडवाड़ा, माउंट आबू

    • संस्कृति: भील-राजपूत मिश्र, वालर नृत्य, नागदेवता और भैरव की पूजा

    4. सहरिया

    • जनसंख्या: लगभग 2 लाख

    • क्षेत्र: बारां, कोटा, झालावाड़

    • संस्कृति: वन पर आधारित जीवन, पारंपरिक नृत्य और गीत, पीपल और नागदेवता की पूजा

    5. डामोर

    • जनसंख्या: लगभग 1.25 लाख

    • क्षेत्र: डूंगरपुर, बांसवाड़ा

    • संस्कृति: कृषि पर आधारित, ग्राम देवता की पूजा

    6. काथोडी

    • जनसंख्या: लगभग 50,000

    • क्षेत्र: बांसवाड़ा, डूंगरपुर

    • संस्कृति: बांस से जुड़ा जीवन, वनदेवी की पूजा

    7. गाड़िया लुहार

    • क्षेत्र: अजमेर, नागौर, बीकानेर, गंगानगर

    • इतिहास: सेना के साथ रहते थे, अब घुमंतू जीवन

    • संस्कृति: लोहे के औजार बनाना, भैरव व दुर्गा की पूजा

    8. कंजर

    • क्षेत्र: भरतपुर, करौली, धौलपुर

    • इतिहास: ब्रिटिश काल में 'आपराधिक जनजाति', अब Denotified

    • संस्कृति: लोकगीत, नृत्य, जंगल देवी व नागदेवता की पूजा

    9. सांसी

    • क्षेत्र: बीकानेर, गंगानगर, जयपुर

    • इतिहास: ऊँट-परिवहन से जुड़े; आपराधिक श्रेणी में वर्गीकृत

    • संस्कृति: देवी, भैरव, हनुमान की पूजा

    निष्कर्ष: राजस्थान की जनजातियाँ न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर के वाहक भी हैं। इन्हें केवल आर्थिक-सामाजिक योजनाओं से नहीं, अपितु सांस्कृतिक अधिकारों और पहचान के स्तर पर भी संरक्षित किया जाना चाहिए।

    राजस्थान की लोकदेवता परंपरा: संस्कृति, श्रद्धा और समावेशी धर्म का जीवंत दर्शन


    बंगाल का मंगलकाव्य: ग्राम्य देवियों की वैदिक प्रतिष्ठा की संघर्षगाथा


    Thanks, 

    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur, represents the Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional.

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    सोमवार, 16 जून 2025

    अभिजात भाषा का संक्रमण: इस्लामी काल की फारसी से ब्रिटिश युग की अंग्रेज़ी तक


    प्राक्कथन

    भारत का इतिहास केवल राजाओं और विजयों का नहीं है, यह भाषाओं के प्रभुत्व और उनके माध्यम से सांस्कृतिक नियंत्रण का इतिहास भी है। जब कोई विदेशी सत्ता भारत पर शासन करती है, तो वह केवल तलवार या तोप से नहीं, बल्कि भाषा के माध्यम से मन और समाज पर अधिकार स्थापित करती है। इस दृष्टिकोण से देखें तो भारत में इस्लामी शासन के काल में फारसी और ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ी, दोनों ने सत्ता की भाषा के रूप में कार्य किया, जो आम जनता की नहीं, बल्कि अभिजात वर्ग की भाषा बन गई।

    भारत में फारसी भाषा का उदय 

    फारसी भाषा मूलतः ईरान (फारस) की भाषा थी। भारत में इसका प्रवेश विदेशी इस्लामिक आक्रमणों के साथ हुआ, किंतु इसका प्रभाव केवल एक धार्मिक भाषा के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक, न्यायिक, और सांस्कृतिक भाषा के रूप में स्थापित हुआ। 

    दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के दौरान फारसी:

    • दरबारी कार्यवाहियों, फरमानों, भूमि अभिलेखों और न्याय प्रणाली की भाषा बनी।

    • इतिहास, तजकीरा, शायरी, दर्शन, और साहित्य का एक समृद्ध कोष फारसी में रचा गया।

    • यह आमजन की नहीं, बल्कि नवाबों, बादशाहों, अमीर-उमराहों, सूफियों और विद्वानों की भाषा रही।

    इस काल में रचे गए ग्रंथ जैसे – आइन-ए-अकबरी, अकबरनामा, तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही, तुज़ुक-ए-जहाँगीरी और अमीर खुसरो की रचनाएँ इसकी साक्षी हैं। फारसी के माध्यम से सत्ता और ज्ञान को एक सीमित वर्ग में केंद्रीकृत किया गया।

    ब्रिटिश काल: अंग्रेज़ी का आगमन और 'Elite Language' की पुनर्व्याख्या

    अंग्रेजों के आगमन एवं सत्ता में स्थापित होने के साथ ही देशी भाषाओँ एवं फारसी का प्रभुत्व कम होने लगा एवं धीरे धीरे अंग्रेजी सत्ता एवं आभिजात्यों की भाषा बनने लगी. 

    1835 के Macaulay’s Minute on Education के जरिए युग की औपचारिक शिक्षा-नीति का यह निर्णय हुआ कि:

    “We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern… a class of persons Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals, and in intellect.”

    इस नीति का उद्देश्य था एक ऐसा मध्यवर्ती वर्ग तैयार करना जो अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच बौद्धिक सेतु बने — परंतु वह वर्ग अंग्रेज़ों की तरह सोचता हो। इसी क्षण से अंग्रेज़ी भाषा का उद्देश्य शिक्षा नहीं, बल्कि मानसिक उपनिवेशवाद बन गया।

    अंग्रेज़ी अब सत्ता और पद का माध्यम बनती गई। भारतीय भाषाओँ के साथ साथ फारसी को भी प्रशासन से हटा दिया गया, और न्यायालय, दफ्तर, विद्यालय, विश्वविद्यालय सब अंग्रेज़ी के आधिपत्य में आ गए।

    पाठशालाओं और टोलों का विस्थापन

    ब्रिटिश आगमन से पहले भारत में हज़ारों की संख्या में देसी पाठशालाएँ, गुरुकुल, और टोल कार्यरत थे। इन संस्थानों में:

    • गणित, व्याकरण, नीति, धर्म, दर्शन, और स्थानीय ज्ञान सिखाया जाता था,

    • माध्यम था संस्कृत, प्राकृत, फारसी, अरबी, तमिल, तेलुगु, आदि – जो क्षेत्रीय थीं,

    • शिक्षा जीवन से जुड़ी हुई थी — नीतिपरक, आचरण-प्रधान और आध्यात्मिक।

    अंग्रेज़ी स्कूलों के आगमन के साथ:

    • इन देसी पाठशालाओं को ‘गैर-व्यवस्थित, अर्धशिक्षित, और पुरानी व्यवस्था’ कहकर नष्ट किया गया,

    • पाठशाला, मदरसे और संस्कृत टोल हाशिए पर पहुँचे,

    • ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों को अनुदान देना शुरू किया, जिससे पारंपरिक विद्यालय वित्तहीन हो गए।

    परिणामतः:

    • एक पूरी पीढ़ी अपनी भाषा, परंपरा और समाज से कटने लगी,

    • शिक्षा अब रोज़गार और पद के लिए होने लगी — आत्मविकास या सांस्कृतिक चेतना के लिए नहीं।

    ‘सेकालेर इंगरेजी शिक्षा’: आत्म-संघर्ष की व्यंग्यात्मक गवाही

    सत्येंद्रनाथ टैगोर की रचना ‘সেকালের ইংরেজি শিক্ষা’ (सेकालेर इंगरेजी शिक्षा) इस संक्रमण काल का सर्वाधिक प्रामाणिक, आत्मीय और व्यंग्यपूर्ण दस्तावेज़ है।

    वह बताते हैं कि:

    • किस प्रकार अंग्रेज़ी भाषा स्कूलों में ‘Jack and Jill went up the hill’ के रूप में प्रवेश करती है,

    • बच्चे रामायणनीतिशतक ,अलिफ़ लैला के स्थान पर अंग्रेज़ी कविता रटने लगते हैं,

    • और एक समय ऐसा आता है कि वह अपने पिता को मूर्ख, दादा को सनकी, और अपने शास्त्रों को अंधविश्वास मानने लगता है।

    यहाँ स्वामी विवेकानंद की उक्ति अत्यंत उपयुक्त बैठती है:

    “The child is taken to school and the first year he learns his father is a fool, the second year he learns his grandfather is a lunatic, the third year he learns all our scriptures are lies, and the fourth year he is a perfect atheist.”

    यह शिक्षा प्रणाली एक intellectual conversion थी — जहाँ ज्ञान के नाम पर जड़ों से काटा जाता था।

    राजा राममोहन राय (1772–1833): अंग्रेज़ी शिक्षा के समर्थक परंतु सार्थक विषयों तक सीमित रखने के पक्षधर।

    ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820–1891): अंग्रेज़ी स्कूलों के औपनिवेशिक मूल्यों की आलोचना; मातृभाषा में शिक्षा की वकालत।
    रमेशचंद्र दत्त (1848–1909): ICS अधिकारी; अंग्रेज़ी शिक्षा को Elitist Filter मानते थे जो वर्गीय विभाजन को बढ़ाता है।
    रवींद्रनाथ ठाकुर – ‘छेलेबेला’: स्कूलों की अंग्रेज़ी शिक्षा को कृत्रिम और भावना-विरोधी बताया।

    बंगाल के अतिरिक्त भारत के अन्य क्षेत्रों से विचारधाराएँ

    • बाल गंगाधर तिलक: भारतीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा के समर्थक

    • लाला लाजपत राय: अंग्रेज़ी शिक्षा को मानसिक गुलामी का औजार मानते थे

    • मोहनदास करमचंद गांधी – हिंद स्वराज (1909): अंग्रेज़ी शिक्षा को बौद्धिक दासता का माध्यम बताया।

      “They have enslaved us not by the sword, but by the school.” 

    • मदनमोहन मालवीय: BHU की स्थापना — संस्कृति और आधुनिकता का संगम

    • सर सैयद अहमद ख़ान: मुस्लिम समाज में अंग्रेज़ी शिक्षा को आवश्यक माना, पर धार्मिक परंपराओं से संतुलन बनाए रखने पर बल दिया।

    तुलना: फारसी बनाम अंग्रेज़ी — सत्ता की भाषा, जन से दूर

    पहलूफारसीअंग्रेज़ी
    उत्पत्तिइस्लामी शाही शासनब्रिटिश उपनिवेशवाद
    उपयोगदरबार, प्रशासन, साहित्यन्याय, शिक्षा, प्रशासन
    जनता से संबंधबहुत सीमितकेवल अभिजात वर्ग तक
    संस्कृति पर प्रभावफारसी कविता, तजकीरा, सूफी दर्शनपाश्चात्य नैतिकता, तर्कवाद, आत्महीनता
    शिक्षा पर असरमदरसे व फारसी स्कूलपाठशालाओं, टोलों का विनाश; मिशनरी और गवर्नमेंट स्कूल

    दोनों भाषाएँ शासन और प्रभुत्व के साधन बनीं, न कि जनसमूह को शिक्षित या सशक्त करने का माध्यम।

    निष्कर्ष: भाषा, सत्ता और आत्मचेतना का युद्ध

    भारत में फारसी से अंग्रेज़ी तक का संक्रमण केवल भाषा का परिवर्तन नहीं था — यह सांस्कृतिक सत्ता के हस्तांतरण का भी प्रतीक था।

    ‘सेकालेर इंगरेजी शिक्षा’ इस संक्रमण को हास्य और व्यथा दोनों के साथ चित्रित करती है, और विवेकानंद की उक्ति इसकी दार्शनिक गहराई को प्रकट करती है।

    यह आवश्यक है कि हम आज भी भाषा को केवल माध्यम नहीं, बल्कि आत्म-गौरव और सांस्कृतिक स्वायत्तता का स्तंभ मानें।

    भाषा अगर अपनी न हो, तो ज्ञान भी पराया लगता है — और व्यक्ति केवल पदाधिकारी बन सकता है, नागरिक नहीं।

    2025: एक ऐतिहासिक संतुलन का वर्ष – भाषिक पुनर्जागरण का आह्वान



    Thanks, 

    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur, represents the Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional.

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    शनिवार, 14 जून 2025

    2025: एक ऐतिहासिक संतुलन का वर्ष – भाषिक पुनर्जागरण का आह्वान

    प्रस्तावना

    भाषा, स्व, और स्वराज का संबंध

    कोई भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र जब तक अपने ‘स्व’ को नहीं पहचानता, तब तक उसमें स्वाभिमान, आत्मबल और आत्मनिर्भरता नहीं आ सकती। और यह ‘स्व’ — केवल भौगोलिक या राजनीतिक नहीं — सांस्कृतिक, भाषिक और बौद्धिक पहचान का नाम है। भारत में यह स्व उस भाषा से जुड़ा है जिसमें हमने हजारों वर्षों तक ज्ञान, धर्म, दर्शन, गणित, खगोल, शिल्प और न्याय का निर्माण किया।

    संस्कृत, प्राकृत, तमिल, पाली, और फिर हिंदी, बंगाली, मराठी, ओड़िया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, असमिया, पंजाबी — ये सब भारत की आत्मा की भाषाएँ हैं, परंतु औपनिवेशिक आक्रमणों और सत्ता परिवर्तन के साथ इनका स्थान धीरे-धीरे हाशिये पर चला गया।

    1757 – 1835 – 2025 : तीन बिंदुओं से खिंचती एक ऐतिहासिक रेखा

    यह संयोग मात्र नहीं, बल्कि इतिहास का गंभीर सांकेतिक संतुलन है:

    वर्षघटनाभाषाई असर
    1757पलाशी का युद्ध: अंग्रेजों द्वारा बंगाल विजयभारतीय सत्ता और स्वाभिमान का पहला पतन
    1835लार्ड मैकाले द्वारा अंग्रेज़ी शिक्षा नीतिभारतीय भाषाओं को 'अयोग्य' घोषित कर दिया गया
    1947भारत की स्वतंत्रतापरंतु मानसिक दासता बनी रही
    20251947 से ठीक 78 वर्ष बादअब समय है — भारतीय भाषाओं को वह स्थान दिलाने का जो अंग्रेज़ी को मिला

    यही है '78 वर्ष सिद्धांत' — भारत के भाषिक स्वराज का निर्णायक क्षण।

    औपनिवेशिक मानसिकता की गहराई: “हिंदी हो गई” और अन्य अपमान

    आज भी हम सुनते हैं —
    “उसकी तो हिंदी हो गई”,
    “क्यों अपनी हिंदी करवा रहे हो?”

    यह केवल वाक्य नहीं, सांस्कृतिक आत्महीनता का नंगा प्रदर्शन है।

    जब एक साधारण अंग्रेज़ी बोलनेवाला व्यक्ति एक संस्कृतज्ञ या हिंदी साहित्यकार को ‘गंवार’ कह देता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा को ज्ञान का नहीं, हैसियत का मापदंड बना दिया गया है।

    यह मैकाले निष्ठ मानसिकता का ही दुष्परिणाम है, जिसने ज्ञान की परिभाषा को केवल अंग्रेज़ी भाषा तक सीमित कर दिया।

    सत्ता, भाषा और संस्कृति — त्रिकोणीय संबंध

    इतिहास साक्षी है कि जिसके पास सत्ता होती है, उसी की भाषा को 'श्रेष्ठ' माना जाता है।

    • जब भारत की सत्ता वैदिक, बौद्ध या जैन परंपरा में थी, तब संस्कृत और प्राकृत उच्च भाषा थीं।

    • इस्लामी शासन में फारसी,

    • ब्रिटिश राज में अंग्रेज़ी ‘भद्र’ भाषा बन गई।

    अब जबकि सत्ता भारत के हाथ में है — हमें यह तय करना होगा कि क्या हमारी भाषाएं सत्ता की भाषा बनेंगी, या सत्ता अब भी मानसिक रूप से पराधीन रहेगी?

    भाषा केवल संवाद नहीं, संस्कृति की आत्मा है

    भाषा = संस्कृति = आत्मबोध = स्वराज

    जिस राष्ट्र की शिक्षा, न्याय, प्रशासन और तकनीक — सब कुछ परायी भाषा में हो, वह राष्ट्र कभी संपूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता।

    हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि —

    "स्वराज की पहली सीढ़ी स्वभाषा है।"महात्मा गांधी
    "एक राष्ट्र तभी तक स्वतंत्र है, जब तक उसकी भाषा स्वतंत्र है।"कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

    2025: भाषिक पुनर्जागरण का ऐतिहासिक अवसर

    भारत को चाहिए कि वह 2025 को “भारतीय भाषा पुनर्स्थापना वर्ष” घोषित करे और निम्नलिखित ठोस कदम उठाए:

    🔹 1. शिक्षा में भाषा-स्वराज

    • प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन अनिवार्य हो।

    • मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून, प्रशासन — हर क्षेत्र में मूल पाठ्यसामग्री भारतीय भाषाओं में तैयार की जाए।

    🔹 2. प्रशासन और न्याय में मातृभाषा का उपयोग

    • संसद, विधानसभा और न्यायालयों में प्रादेशिक भाषाओं का उपयोग हो।

    • सरकारी कार्यालयों की फाइलें अंग्रेज़ी में नहीं, हिंदी या प्रादेशिक भाषा में बनें।

    🔹 3. अनुवाद संस्थान और तकनीकी विकास

    • एक राष्ट्रीय अनुवाद आयोग की स्थापना हो, जो ज्ञान-विज्ञान को भारतीय भाषाओं में लाए।

    • AI, Machine Translation और भाषाई डेटाबेस के ज़रिए डिजिटल भारत = भाषाई भारत बने।

    🔹 4. सांस्कृतिक विमर्श में भाषा का सम्मान

    • मीडिया, OTT, सिनेमा, यूट्यूब आदि पर भारतीय भाषाओं में उच्च गुणवत्ता वाला, गहन और प्रेरणादायक कंटेंट बने।

    • “हिंदी हो गई” जैसे मुहावरों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए।

    अंग्रेज़ी का सम्मान, प्रभुता नहीं

    हम अंग्रेज़ी के विरोधी नहीं हैं।

    • अंग्रेज़ी एक संपर्क भाषा है — उसका उपयोग वैश्विक मंचों पर होता है।

    • लेकिन भारत में अंग्रेज़ी ज्ञान, प्रतिष्ठा और प्रशासन की एकमात्र सीढ़ी न बने।

    अंग्रेज़ी हो — लेकिन मानसिकता भारतीय हो।

    निष्कर्ष: भाषिक नवजागरण = आत्म-प्रबुद्ध भारत

    यदि भारत को विश्वगुरु बनना है, तो उसे अपनी भाषाओं में ही बोलना होगा।
    हिंदी, तमिल, बंगाली, मराठी, तेलुगु, ओड़िया — इन भाषाओं में ज्ञान भी है, दृष्टि भी, और भविष्य भी।

    2025 केवल एक और वर्ष नहीं —
    यह है "भाषिक स्वतंत्रता के 78 वर्षों के बंधन से मुक्ति" का काल। 


    यह है भारतीय ज्ञान परम्परा  को पुनः स्थापित करने का संकल्प-वर्ष।

     यह है "भारत के स्व का पुनर्स्थापन"

    पढ़े-लिखे को फारसी क्या: दरबार की बोली, विद्वानों की कलम


    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
     (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur, represents the Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional.

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    पढ़े-लिखे को फारसी क्या: दरबार की बोली, विद्वानों की कलम

     सारांश:

    "पढ़े-लिखे को फारसी क्या: दरबार की बोली, विद्वानों की कलम" आलेख भारत में फारसी भाषा के आगमन, शाही संरक्षण, और साहित्यिक प्रभाव का विश्लेषण करता है। यह दर्शाता है कि फारसी इस्लाम की नहीं, बल्कि दिल्ली सल्तनत और मुग़लकालीन संभ्रांत वर्ग की राजकीय व विद्वत्तापूर्ण भाषा थी। आलेख में प्रमुख फारसी  और कहावत के सामाजिक निहितार्थ का भी विवेचन किया गया है।

    प्रस्तावना  

    "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या" – यह कहावत भारत के एक ऐसे कालखंड की ओर संकेत करती है जब फारसी भाषा केवल संवाद या लेखन का माध्यम नहीं, बल्कि राजसत्ता, शिक्षावाद और सांस्कृतिक शिष्टता का प्रतीक बन चुकी थी। यह भाषा विद्वानों, नवाबों, शासकों और दरबारियों की अभिजात वर्गीय पहचान बन गई थी।

    1. कहावत का निहितार्थ: पढ़े-लिखे और फारसी

    इस कहावत में दो बिंदु दर्शनीय हैं:

    • "हाथ कंगन को आरसी क्या" – प्रत्यक्ष वस्तु को प्रमाण की आवश्यकता नहीं।

    • "पढ़े-लिखे को फारसी क्या" – शिक्षित व्यक्ति के लिए कठिन भाषा भी सरल।

    यह कहावत स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि फारसी को उस काल में शिक्षित और प्रतिष्ठित व्यक्ति ही समझ सकता था, साधारण जन नहीं।

    2. फारसी: जनभाषा नहीं, संभ्रांत वर्ग की भाषा

    फारसी मूलतः ईरान (फारस) की भाषा है, जो भारत में तुर्क-अफगान और मध्य एशियाई शासकों के साथ आई। यह भाषा:

    • आम जनता या मुस्लिम समाज की बोलचाल की भाषा नहीं थी।

    • बल्कि बादशाहों, नवाबों, अमीर-उमराहों और शिक्षित वर्ग की भाषा बन गई।

    • आम मुसलमान अरबी, पश्तो, पंजाबी, ब्रज, अवधी जैसी भाषाएँ बोलते थे, लेकिन फारसी का उपयोग केवल राजकीय और साहित्यिक उद्देश्यों से किया जाता था।

    3. भारत में फारसी भाषा की प्रतिष्ठा

    भारत में फारसी का आगमन केवल एक भाषा के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के रूप में हुआ। यह प्रतिष्ठा निम्न ऐतिहासिक चरणों में विकसित हुई:

    4. भारत में फारसी का महत्व क्यों और कैसे बढ़ा?

    (i) अब्बासी साम्राज्य और फारसी संस्कृति का पुनरुत्थान

    अब्बासी खलीफा (750–1258 ई.) के काल में ईरानी प्रशासकों, विद्वानों, और कवियों को विशेष महत्व मिला।
    बग़दाद में फारसी साहित्य, दर्शन और कला का पुनरुद्धार हुआ, जिसने आगे चलकर पूरे इस्लामी विश्व को प्रभावित किया।

    (ii) ग़ज़नी और ग़ोरी शासकों की भूमिका

    महमूद ग़ज़नवी और मुहम्मद ग़ोरी ने फारसी को दरबार और प्रशासन की भाषा बनाया।
    इनके दरबार में फारसी दस्तावेज़, पत्र, और फरमानों का प्रचलन हुआ।

    (iii) दिल्ली सल्तनत (1206–1526)

    गुलाम वंश, खिलजी, तुगलक और लोधी वंश – सभी ने फारसी को राजकीय भाषा के रूप में स्थिर किया।
    न्याय, शिक्षा, साहित्य – सभी क्षेत्रों में फारसी का प्रचलन हुआ।

    (iv) मुग़ल साम्राज्य (1526–1857)

    मुग़ल शासनकाल में फारसी को उच्च साहित्यिक और प्रशासनिक भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ।
    अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ आदि के दरबारों में फारसी में लिखित इतिहास, तज़किरा, जीवनी, और काव्य की भरमार हुई।

    अबुल फ़ज़ल, फैज़ी, बदलुरहमान जैसे विद्वानों ने फारसी में बहुमूल्य कृतियाँ रचीं।

    5. भारत में फारसी का प्रभाव – विविध क्षेत्रों में विस्तार

    क्षेत्रप्रभाव
    प्रशासनफ़रमान, दस्तावेज़, राजकीय पत्राचार, भूमि रिकॉर्ड सभी फारसी में
    साहित्यफारसी कविता, ग़ज़ल, मसनवी, इतिहास-लेखन
    हिंदी भाषाहजारों फारसी शब्द हिंदी-उर्दू में समाहित हुए: दस्तूर, फरमान, इंसाफ़, किताब, वक़्त, तारीख़, मर्ज़
    संस्कृतिदरबारी शिष्टाचार, पोशाक, स्थापत्य, संगीत आदि पर फारसी प्रभाव
    शिक्षाफारसी पढ़ना-लिखना शिक्षित होने का प्रतीक बन गया

    6. क्या यह सब इस्लाम के कारण हुआ?

    नहीं, पूर्णतः नहीं।

    • इस्लाम का धार्मिक पक्ष सदा अरबी भाषा से जुड़ा रहा – कुरान, हदीस, नमाज़ आदि।

    • लेकिन फारसी भाषा का उभार एक राजनीतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक नीति का हिस्सा था।

    • फारसी को इस्लाम प्रचार के लिए नहीं, बल्कि शासन के सुचारु संचालन, दरबारी संस्कृति और साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए बढ़ावा मिला।

    7. भारत में रचा गया फारसी साहित्य

    प्रसिद्ध साहित्यकार और कृतियाँ:

    साहित्यकारकृति या विशेष योगदान
    अमीर खुसरोहिंदी और फारसी का संगम, सूफी प्रेमकाव्य
    अबुल फ़ज़लआइन-ए-अकबरी, अकबरनामा
    फैज़ीमसनवी और कविता
    बदलुरहमानदरबारी इतिहास लेखन
    जियाउद्दीन बरनीतारीख़-ए-फ़िरोज़शाही
    सिराज अफीफतुगलक काल का इतिहास
    मुल्ला दौप्याज़दाव्यंग्यात्मक फारसी साहित्य

    साहित्य की विधाएँ:

    • तज़किरा (जीवनी)

    • मसनवी (नैतिक और रहस्यकाव्य)

    • ग़ज़ल, रुबाई, क़सीदा

    • इतिहास-लेखन और आत्मकथाएँ

    8. निष्कर्ष: एक ऐतिहासिक प्रतीक बन चुकी कहावत

    "पढ़े-लिखे को फारसी क्या" – यह कहावत मात्र भाषा को लेकर नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक युग की ओर संकेत करती है जब फारसी:

    • शासक वर्ग की अधिकारिक भाषा थी,

    • साहित्यिक सृजन का प्रमुख माध्यम थी,

    • और शिक्षित वर्ग की योग्यता का सूचक बनी हुई थी।

    इस कहावत के दोनों भागों में प्रत्यय और बौद्धिकता की जो प्रतीकात्मकता है, वह भारत में फारसी के राजनीतिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक प्रभाव की गहरी छाया को दर्शाती है।

    Tags: 

    #फारसी_भाषा, #भारतीय_इतिहास, #मुग़ल_काल, #दिल्ली_सल्तनत, #फारसी_साहित्य, #भारत_में_फारसी, #प्रशासनिक_भाषा,  #विद्वानों_की_भाषा, #संस्कृति_और_भाषा, #ऐतिहासिक_कहावतें, #अमीर_खुसरो, #अबुल_फ़ज़ल, #गालिब, #राजकीय_भाषा, #कहावत_का_इतिहास


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    शुक्रवार, 16 मई 2025

    IMCTF: मूल्य निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर


    IMCTF

    INITIATIVE  FOR  MORAL  AND  CULTURAL  TRAINING  FOUNDATION  
    नैतिक-सांस्कृतिक प्रशिक्षण प्रवर्तन संस्थान

    Meta Description 

    IMCTF युवाओं में संस्कार, कर्तव्यबोध व राष्ट्रभक्ति को जागृत कर राष्ट्र निर्माण हेतु प्रेरित एक नैतिक-सांस्कृतिक प्रशिक्षण अभियान है।

     परिकल्पना – “सर्वे भवन्तु सुखिनः...”

    "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
    सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।"

    (सभी सुखी हों, सभी निरोग रहें, सभी मंगलमय दृष्टिकोण से युक्त हों, कोई भी दुःख का भागी बने)

    यही प्रार्थना IMCTF (Initiative for Moral and Cultural Training Foundation) की नींव है। यह प्रयास भारत की सांस्कृतिक चेतना को आधार बनाकर भावी पीढ़ी को संस्कारकर्तव्यबोध, और राष्ट्रीय गौरव से जोड़ता है।

    IMCTF Themes
    समकालीन संकट

    आज हम आधुनिकता, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों की बात करते हैं
    किन्तु इस एकपक्षीय चिंतन से उत्पन्न हो रहे हैं:

    • हमारी संस्कृति और मूल्यों में गिरावट
    • युवाओं में पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण
    • भारतीय विरासत के प्रति गर्व का अभाव

    जिसके परिणामस्वरूप हो रहा है:

    🔻 विचारों का प्रदूषण
    🔻 वाणी का अशुद्धिकरण
    🔻 आचरण में पतन

    यदि इस संकट को शीघ्र समझा गया, तो भारत को भी पश्चिम जैसी सांस्कृतिक विघटन की स्थिति का सामना करना पड़ेगा।

    भारत की भूमिका – Spiritual Soft Power

    अमेरिका की National Intelligence Council की रिपोर्ट के अनुसार“India will be looked upon to lead the world with its soft power – Spiritualism.”

    भारत को वैश्विक दिशा देने के लिए अपनी नैतिकआध्यात्मिक शक्ति को पुनर्जीवित करना होगा। यही IMCTF का लक्ष्य है।

    उद्देश्य

    • युवाओं का चरित्र निर्माण
    • भारत के सांस्कृतिक आत्मविश्वास का पुनर्जीवन
    • राष्ट्र को एक आध्यात्मिक विकल्प के रूप में खड़ा करना
    • समाज, संस्कृति, राष्ट्र और प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विकसित करना

    दर्शनवसुधैव कुटुम्बकम्

    IMCTF एक ऐसे विश्व की कल्पना करता है जिसमें

    • मनुष्य और मनुष्य के बीच करुणा
    • मनुष्य और जीव के बीच सह-अस्तित्व
    • मनुष्य और प्रकृति के बीच संतुलन
    • मनुष्य और राष्ट्र के बीच समर्पण हो

    1.  वन एवं वन्यजीव संरक्षण

    Conserve Forest & Protect Wildlife

    🔸 उद्देश्य:

    • प्रकृति की रक्षा का संस्कार बाल एवं युवा मन में रोपण करना 
    • जैव विविधता के प्रति श्रद्धा और सह-अस्तित्व की भावना जगाना

    भाव: “वनम् देवालयः इव” — वन को देवालय के समान पवित्र मानना।

    🔸  संस्कार:

    • वृक्ष वंदना: वृक्षों को जीवनदायिनी देवता मानकर पूजा करना
    • नाग वंदना: नागों को धरती के रक्षक, पारिस्थितिकीय संतुलन के प्रतीक के रूप में सम्मान देना

    🔸 प्रतीक:

    • वृक्ष, वन, नाग, वन्य पशु-पक्षी

    2. पारिस्थितिकी संरक्षण

    Preserve Ecology

    🔸 उद्देश्य:

    • पारिस्थितिकी में संतुलन के लिए सभी प्राणियों और वनस्पतियों की महत्ता समझाना

    भाव: “प्रकृति रक्षति रक्षितम्” — जो प्रकृति की रक्षा करता हैप्रकृति उसकी रक्षा करती है।

    🔸 संस्कार:

    • गौ वंदना – गौमाता को पालनकर्ता के रूप में देखना
    • गज वंदना – गज (हाथी) को वन-समृद्धि का प्रतीक मानना
    • तुलसी वंदना – औषधीय पौधों के प्रति श्रद्धा का भाव

    🔸 प्रतीक:

    • गौ, गज, तुलसी, समस्त वनस्पति और प्राणी-जगत

    3. पर्यावरण संरक्षण

    Sustain Environment

    🔸 उद्देश्य:

    • पर्यावरण के तत्वों के प्रति कृतज्ञतासंरक्षणऔर स्वच्छता का भाव उत्पन्न करना

    भाव: “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” — यह पृथ्वी मेरी जननी हैमैं उसका पुत्र हूँ।

    🔸संस्कार:

    • भूमि वंदना – धरती को जननी के रूप में पूजना
    • गंगा वंदना – नदियों को पवित्र जीवनधारा मानकर उनका संरक्षण

    🔸 प्रतीक:

    • पृथ्वी, नदियाँ, जल स्रोत, पर्वत, आकाश

    4. पारिवारिक एवं मानवीय मूल्य स्थापना

    Inculcate Family & Human Values

    🔸 उद्देश्य:

    • कृतज्ञतासेवानम्रताऔर अनुशासन का भाव बालकों में उत्पन्न करना

    भाव: “पितृदेवो भवमातृदेवो भवआचार्यदेवो भवअतिथि देवो भव

    🔸 संस्कार:

    • मातृ-पितृ वंदना – माता-पिता को ईश्वर के तुल्य मानकर श्रद्धा
    • आचार्य वंदना – गुरुजनों के प्रति सम्मान
    • अतिथि वंदना – अतिथि को देव मानना

    🔸 प्रतीक:

    • माता-पिता, गुरु, अतिथि, वृद्धजन

    5. नारी सम्मान की पुनर्स्थापना

    Foster Women’s Honour

    🔸 उद्देश्य:

    • स्त्री को उपभोग की वस्तु नहींसम्माननीय शक्ति के रूप में देखना
    • समाज में स्त्री-पुरुष समत्वगरिमा और सुरक्षा को पुनर्स्थापित करना

    भाव: “या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता...”

    🔸 संस्कार:

    • कन्या वंदना – कन्या को देवी रूप मानकर सम्मान
    • सुवासिनी वंदना – मातृत्व और स्त्री गरिमा का आदर

    🔸  प्रतीक:

    • कन्याएँ, मातृत्व, गृहलक्ष्मी, वधू

    6. राष्ट्रभक्ति की भावना का जागरण

    Instill Patriotism

    🔸 उद्देश्य:

    • देशभक्तिराष्ट्र सेवाऔर आत्म-बलिदान के प्रति प्रेरणा देना
    • भारत को "विष्वगुरु" के रूप में पुनर्स्थापित करने का भाव

    भाव: “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

    🔸 संस्कार

    • भारत माता वंदना – देश को माता रूप में देखना
    • परमवीर वंदना – शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि

    🔸 प्रतीक:

    • भारतमाता, राष्ट्रध्वज, शहीद सैनिक, स्वतंत्रता सेनानी

    त्रिकोणीय कार्यनीतिउद्देश्यसंस्कार और प्रतीक

    IMCTF प्रत्येक सांस्कृतिक विषय को एक त्रिकोणीय संरचना में समझाता है:

    • थीम (Theme): उद्देश्य
    • संस्कार (Sanskara): भावनात्मक प्रेरणा
    • प्रतीक (Symbol): दृश्य प्रभाव

    विषय (Theme)

    संस्कार (Sanskara)

    प्रतीक (Symbol)

    वन एवं वन्यजीव संरक्षण

    वृक्ष वंदना, नाग वंदना

    वृक्ष, पशु, नाग

    पारिस्थितिकी संरक्षण

    गौ, गज, तुलसी वंदना

    गाय, हाथी, तुलसी, वनस्पति जगत

    पर्यावरण संरक्षण

    भूमि वंदना, गंगा वंदना

    पृथ्वी, नदियाँ, जलस्रोत

    पारिवारिक मानवीय मूल्य

    मातृ-पितृ, आचार्य, अतिथि वंदना

    माता-पिता, गुरु, अतिथि, वृद्धजन

    नारी सम्मान

    कन्या वंदना, सुवासिनी वंदना

    कन्या, मातृत्व

    राष्ट्रभक्ति

    भारतमाता वंदना, परमवीर वंदना

    भारतमाता, शहीद सैनिक

     किसके लिए?

    IMCTF का आह्वान समाज के हर जागरूक नागरिक से है:

    • स्कूल प्रबंधन, प्राचार्य, शिक्षक
    • अभिभावक
    • सामाजिक नेता
    • राष्ट्र निर्माण में रुचि रखने वाले युवा

    कार्यक्रमों की विशेषताएँ

    • सांस्कृतिक पुनर्जागरण के माध्यम से युवा मन का निर्माण
    • भारतीय प्रतीकों के माध्यम से संस्कारों की गहराई
    • जीवनशैली और आचरण में मूल्यों की प्रतिष्ठा
    • संवेदनशील नागरिकता, पर्यावरणीय उत्तरदायित्व और देशभक्ति का बोध

    आदर्श वाक्य

    "Value Building is Nation Building"
    मूल्य-निर्माण ही राष्ट्र-निर्माण है।

    समर्पण और आह्वान

    भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए हम सबका यह साझा संकल्प है।
    हम आमंत्रित करते हैंआइए, इस यज्ञ में सहभागी बनें।

    प्रगति की राह पर अग्रसर आप और हमजय हिन्द।
    वन्दे मातरम्।

    आह्वानएक पवित्र यज्ञ में सहभागी बनने का

    1. हम आपसे आग्रह करते हैं कि आप IMCTF के साथ एक प्राचार्य, प्रबंधन सदस्य, शिक्षक या अभिभावक के रूप में जुड़ें।

    2. समाज आपसे अपेक्षा करता है
    आप मात्र शिक्षक या पालक नहीं...
    आप हैं:

    • धरोहर के दीपधारक — Torchbearer of our Cultural Heritage
    • माटी को आकार देने वाले मृत्तिका-शिल्पी — Ceramist or Potter of Young Minds
    • आदर्श प्रेरक व्यक्तित्व — Role Model
    • मार्गदर्शक और पथप्रदर्शक नेता — Path-Founder & Inspiring Leader
    • कर्तव्यनिष्ठ नागरिक — Responsible Citizen of Bharat

    3. IMCTF क्यों?


    आज के युवाओं को संस्कार, संस्कृति और आत्मचेतना की आवश्यकता है।
    जो बालक-बालिकाएं भारतीय आध्यात्मिक परंपरा से दूर होते जा रहे हैं और जिन पर पाश्चात्य जीवनशैली का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, उनके लिए IMCTF एक संरक्षक बनकर उभरता है।

    • हम प्रतीकों और संस्कारों के माध्यम से मूल्यनिष्ठ और सांस्कृतिक प्रशिक्षण प्रदान करते हैं।
    • हम उनके मन, आचरण, चरित्र और जीवनशैली को भारतीय जीवन मूल्यों के अनुरूप आकार देते हैं।
    • हम उन्हें सिखाते हैं — मातृ-पितृ-गुरु वंदनस्त्री-सम्मानप्रकृति और राष्ट्र आराधना।

    4. हमारा दृढ़ विश्वास है
    "
    मूल्य निर्माण ही राष्ट्र निर्माण है"

    IMCTF का मूल मंत्र:
    “Value Building is Nation Building”

    5. आइए, हम सब मिलकर इस पुण्य कार्य में सहभागी बनें।
    भारत को फिर सेविश्वगुरुबनाने के इस महान प्रयास में आपकी सहभागिता स्वागतयोग्य है।

    IMCTF एक नैतिक-सांस्कृतिक प्रशिक्षणअभियान है जो भारतीय युवाओं में संस्कार, कर्तव्यबोध और राष्ट्रभक्ति को पुनर्स्थापित करता है। “मूल्य निर्माण ही राष्ट्र निर्माण है” — इसी सिद्धांत पर आधारित यह पहल भावी पीढ़ी को भारतीय संस्कृति, पर्यावरण, परिवार और राष्ट्र के प्रति जागरूक एवं कर्मशील बनाती है।

    वन्दे मातरम्

    प्रगति की राह पर अग्रसर आप और हम – जय हिन्द

    टैग्स: #IMCTF #Value Building, #Nation Building, #Spiritual India, #Cultural Renaissance, #नैतिक शिक्षा, #सांस्कृतिक मूल्य, #राष्ट्र निर्माण, #संस्कार निर्माण, #भारतीय संस्कृति, #भारतीय जीवन मूल्य, #पर्यावरण संरक्षण, #परिवार और समाज,#नारी सम्मान, #राष्ट्रभक्ति, #संस्कार और प्रतीक, #वसुधैव कुटुम्बकम् 



    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur, represents the Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional.

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