रत्न पारखी, चलत जे , सोलह वचन प्रमाण ।
मान धर्म परतीत वश, रहे सर्व सुख जान॥
गुरु पद पद्मा सदा उर धरे, जाय जहाँ सब कारज सरे ॥
सत्य रत्न कह बेचे झूँठा, देत कष्ट तेहि ग्रह सब रूठा ॥
खोट मिला कर बेचे सच्चा, दगाबाज़ वो जौहरी कच्चा ॥
बड निकाल बदले घट डारी, अंग दुःखी वा सुत धन हारी ॥
सत्य खरीद नफे नहिं कहे, सो पापी वृथा जौहरी रहे ॥
मांगनी फरक झूठ कह साई, दगा दोष परतीत घटाई ॥
साईं दे लेकर फ़िर जाई, बात तजे बड़ दोष हँसाई ॥
बिका रत्न कम तोल न तोली, न्याई बन लैं पाप न मोली ॥
लेहि भेद पर कर चतुराई, समझ वक्त निज काज बनाई ॥
अति प्रिय मित्र देही नदिं भेदा, काज हानि मूरख बन खेदा ॥
सभा काहु की सच मणि खोटी, कह निज करे बात नहिं छोटी ॥
सभा बीच बड़ बोल न बोले, निज हित काज प्रतिष्ठा डोले ॥
वचन बनाय सत्य अस कहे, गाहक सभा नृपति खुश रहे ॥
नहिं कर दगा घात विश्वासा , प्रथम लाभ अंतहि सब नासा ॥
तज बदनीत कुकर्म अभिमाना, सब सुख काज सिध्द जग माना ॥
निज मत धर्म नहिं तजे, सुख सब अंत मोक्ष हरि भजे ॥
रत्न प्रकाश, श्री राजरूप टांक से सादर उद्धृत
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