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जैन धर्म में पर्युषण पर्व का विशेष महत्व है। यह सर्व श्रेष्ठ पर्व माना जाता है। पर्युषण आत्मशुद्धि का पर्व है, कोई लौकिक त्यौहार नहीं। इस पर्व में सम्यग दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना कर आत्मा को मिथ्यात्व, विषय व कषाय से मुक्त कराने का प्रयत्न पुरुषार्थ किया जाता है।*
जैन आगमों में वर्णित ६ अट्ठाई में से ये एक है। इसके अलावा ३ चातुर्मास व दो ओली की अट्ठाइयाँ होती है। इन में देवता गण भी नन्दीश्वर द्वीप में जा कर आठ दिन तक भगवान की भक्ति करते हैं। देवगण परमात्मा की भक्ति के अलावा जप तप अदि कोई धर्म कृत्य नहीं कर सकते, परंयु मनुष्य हर प्रकार की धर्मक्रिया कर सकता है। अतः पर्युषण में विशेष रूप से धर्म की आराधना करना कर्तव्य है।
पर्युषण में दान, शील, तप व भाव रूप चार प्रकार के धर्म की आराधना की जाती है। इस में भी भाव धर्म की विशेष महत्ता है। दान, शील व तप रूप धर्म क्रिया मात्र भाव धर्म को पुष्ट करने के साधन हैं। पर्युषण में अनुकम्पा दान, सुपात्र दान व अभय दान रूप दान धर्म; सदाचार, विषय त्याग, ब्रह्मचर्य अदि रूप शील धर्म; उपवास, आयम्बिल, बिगय त्याग, रस त्याग आदि रूप वाह्य धर्म व प्रायश्चित्त, विनय, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग रूप अभ्यंतर तप की आराधना करनी चाहिए।
परम पूज्य आचार्य श्री कलापूर्ण सुरिश्वरजी कहा करते थे की वाह्य तप अभ्यंतर तप के लक्ष्य पूर्वक करना चाहिए । इस बात का ख़ास ध्यान रखना चाहिए की बाह्य तप कहीं आडम्बर व अहंकार का निमित्त न बन जाए। बिना आत्मा ज्ञान व आत्म लक्ष्य के किए हुए वाह्य तप को शास्त्र कारों ने बाल तप कहा है। इस प्रकार के बाल तप से आत्मशुद्धि नही होती एवं यह मोक्ष में सहायक भी नही बनता है।
पर्युषण पर्व का महत्व भाग 2
यह भी देखें:
ज्योति कोठारी
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