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मंगलवार, 18 जून 2013

जैन साधू साध्वी एवं बाहन प्रयोग


                                                                                                                     लेखक: ज्योति कुमार कोठारी 

जैन साधू साध्वी एवं बाहन प्रयोग 

अभी तीन दिन पहले श्री जैन श्वेताम्बर खरतर गच्छ संघ की साध्वी श्री प्रगुणा श्री जी महाराज का सड़क दुर्घटना में स्वर्गवास हो गया। इन दिनों जैन साधू साध्विओं की सड़क दुर्घटना की दुखद घटनाएँ आये दिन सुनने में आती है। इन घटनाओं ने एक नई बहस को जन्म दिया है. जैन समाज के सामान्य  लोग यह कहते हैं की जैन साधू साध्विओं को अब बाहनो का प्रयोग प्रारंभ कर देना चहिये। परन्तु हमें यह विचार करना होगा की यह चिंतन कितना उचित है.

सबसे पहली बात तो ये है की क्या बाहन दुर्घटना नहीं होती है? बाहन प्रयोग मात्र क्या दुर्घटना नहीं घटने की गारंटी है?

 हमें यह भी जानना चाहिए की जैन साधू साध्वी बाहन का उपयोग क्यों नहीं करते? जैन आगम एवं शास्त्रों के अनुसार इसके कई कारण है। बाहन प्रयोग से हिंसा तो होतो ही है साथ ही प्रमाद भी  होता है। जैन साधू एक सैनिक की तरह होते हैं जो अरिहंत परमात्मा के उपदेशों को जीवन में उतारने के साथ  जन जन तक पहुचाते हैं। यदि वे बाहन का प्रयोग करें तो उन्हें इसके लिए धन की भी आवश्यकता होगी तब परिग्रह का भी दोष लगेगा।

पैदल चलने से छोटे छोटे गाँव ढानियो तक जन जन से संपर्क होता है बाहन का प्रयोग करने से उसकी सम्भावना भी सीमित हो जायेगी।  ऐसी स्थिति में अधिक सम्भावना यही है की जैन साधू साध्वी एक बड़े शहर से  दुसरे शहर में सीधे चले जायेंगे एवं छोटे स्थानों के लोग वंचित ही रह जायेंगे। वाहन प्रयोग से उनकी गृहस्थों पर निर्भरता भी बढ़ेगी एवं वे निष्पक्ष बात नहीं कर पायेंगें।

लोग ये भी कहते हैं की पुराने समय में पशु चालित बाहन होने से हिंसा होती थी पर अब तो यंत्र चालित बाहन हैं अतः हिंसा नहीं होती। यह विचार भ्रामक है। वस्तुतः जैन साधू मन,वचन काया से त्रस स्थावर जीवों की हिंसा के त्यागी होते हैं। यंत्र चालित बाहन में भी स्थावर जीवों की प्रभूत हिंसा होती ही है.

एक तर्क ये भी है की समय के साथ हमें बदलना चाहीये। लेकिन यह प्रश्न भी विचारणीय है. जैन अपने तीर्थंकरों को केवल ज्ञानी मानते हैं। इसका अर्थ ये हुआ की आज की परिस्थिति से भगवान महावीर अवगत थे फिर भी उन्होंने पैदल विहार का ही नियम बनाया. जैन आगमों के अनुसार यह पांचवां आरा है जो की इक्कीस हज़ार वर्ष का है। भगवान महावीर के निर्वाण को अभी मात्र ढाई हज़ार वर्ष हुए हैं और साढ़े अठारह हज़ार वर्ष इस आरे के अभी बाकी हैं। भगवान् ने यह नियम पुरे पांचवें आरे के लिए बनाया था।  किसी बात को कहने से पहले हमें इस बात पर भी अवश्य विचार कर लेना चाहिये.

समाधान

तो फिर इस समस्या का समाधान क्या है? क्या साधू साध्वी इसी प्रकार सड़क दुर्घटनाओं का शिकार होते रहेंगे? नहीं.  आगमों के अध्येता जानते हैं की इस समस्या का समाधान शास्त्रों में उपलब्ध है. सर्व प्रथम बात तो ये है की जैन साधू साध्वियों को कहीं भी जाने आने की कोई जल्दी नहीं होती। वे जहाँ भी रहते हैं वहीँ धर्म की आराधना करते हैं एवं श्रद्धालु जन को उस मार्ग में प्रेरित करते है.

कल्पसूत्र समाचारी के अनुसार जैन साधू साध्वीगण चातुर्मास भी पहले से निश्चित नहीं करते न ही अपने बिहार की कोई निश्चित योजना बनाते हैं। वे तो रमते राम हैं। चलते चलते जहाँ पहुँच जाएँ वही उनका वसेरा होता है।  इसलिए उन्हें किसी हाई वे पर जाने की जरुरत ही नहीं है। फिर दुर्घटना का सवाल ही कहाँ रह जाता है?

साधू साध्वी जिस भी गाँव या शहर में पहुचे वहां से नज़दीक के किसी भी स्थान तक बिहार करें तो दुर्घटना का भय कम हो जायेगा. श्रावकगण अपना कर्तव्य समझ कर उन्हें  नजदीक के गंतव्य तक साथ छोड़ सकते हैं।

उपसंहार

यह एक ज्वलंत समस्या है एवं इस पर विभिन्न विन्दूओं से विचार अपेक्षित है। परन्तु सभी विचार चिंतन से पहले यह जानना जरूरी है की समस्या का  क्या है? समस्या का मूल है आगम शास्त्रों की उपेक्षा कर मन मर्जी  से  सुविधानुसार नियम बनाना एवं सामान्य जन को उसके लिए सहमत करना। इसी तरह से आगमो की उपेक्षा कर चातुर्मास निश्चित किया जाने लगा है  विहार क्रम भी निश्चित हो गया। अनियत विहारी साधू गृहस्थों की तरह नियत बिहारी बन गये.

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