प्रस्तावना:
भारत की धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक चेतना के वैश्विक प्रतिनिधित्व का इतिहास अनेक रंगों से भरा है। 1893 की शिकागो विश्व धर्म महासभा (World Parliament of Religions) न केवल भारत की आध्यात्मिक गरिमा का उद्घोष थी, बल्कि उस गौरव के दो स्वरूपों का प्रतिनिधित्व भी —
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एक ओर स्वामी विवेकानंद: एक सन्यासी, योगी, और वेदांत के ओजस्वी प्रवक्ता।
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दूसरी ओर वीरचंद राघवजी गांधी: एक गृहस्थ, जैन दर्शन के विद्वान, और धर्म–तर्क–अहिंसा के शांत किन्तु प्रभावशाली अधिवक्ता।
यह लेख इसी ऐतिहासिक द्वंद्व को नई दृष्टि से देखता है —
कि क्यों एक को ‘राष्ट्रपुरुष’ और दूसरा ‘भूल चुके दूत’ की छवि मिली?
क्यों एक की स्मृति मंदिरों, मठों, मूर्तियों और साहित्य से समृद्ध हुई, और दूसरा अपनी ही परंपरा में विमर्श से बाहर होता गया?
यह लेख न किसी की तुलना करता है, न किसी की महानता को कम करता है —
यह एक विनम्र प्रयास है वीरचंद गांधी की उस विराट भूमिका को पहचानने का, जिसे हमने युगों तक सीमित करके देखा।
यह इतिहास नहीं — पुनर्मूल्यांकन है।
यह आलोचना नहीं — आत्ममंथन है।
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डाक टिकट : वीरचंद राघवजी गाँधी |
भूमिका:
1893 की विश्व धर्म महासभा (World Parliament of Religions) — एक ऐतिहासिक क्षण। भारत से दो महान प्रतिनिधि:
स्वामी विवेकानंद — वेदांत और हिंदू धर्म के प्रवक्ता।
वीरचंद राघवजी गांधी — जैन धर्म के पहले अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता।
दोनों ने ही पश्चिमी जगत को भारत की आध्यात्मिकता से परिचित कराया, परन्तु इतिहास में प्रसिद्धि के स्तर पर बड़ा अंतर क्यों?
1. प्रतिनिधित्व और स्वर शैली का अंतर:
स्वामी विवेकानंद का वक्तृत्व भावप्रवण, ओजस्वी और प्रेरणात्मक था। उन्होंने "हिंदू धर्म" को एक सार्वभौमिक जीवनदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
वीरचंद गांधी का प्रस्तुतीकरण गंभीर, तात्त्विक और तर्कप्रधान था। उन्होंने जैन धर्म के गूढ़ सिद्धांतों — अहिंसा, कर्मवाद, अनेकांतवाद — को विद्वत्तापूर्वक रखा, जो आम जनता के लिए उतने सरस नहीं थे।
2. धार्मिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि:
विवेकानंद को एक विशाल धर्म (हिंदू धर्म) का प्रतिनिधित्व प्राप्त था, जिसे औपनिवेशिक भारत की बहुसंख्यक पहचान भी मिल चुकी थी।
वीरचंद गांधी जैन धर्म के प्रतिनिधि थे — जो यद्यपि अत्यंत प्राचीन और गूढ़ दर्शन वाला है, परंतु जनसंख्या और राजनीतिक दृष्टि से 'अल्प' रहा।
3. संस्थागत प्रभाव और प्रचार तंत्र:
विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी वैश्विक नेटवर्क के रूप में सक्रिय है।
वीरचंद गांधी के कार्य अधिक व्यक्तिगत रहे; उनके पीछे कोई दीर्घकालीन प्रचार संस्था या मिशन नहीं था।
4. जीवन की अल्पता और सामाजिक पहचान:
दोनों ही अल्पायु रहे — गांधी का निधन 1901 में 36 वर्ष की उम्र में हुआ और विवेकानंद का 1902 में, 39 वर्ष की उम्र में। यानी जीवनकाल का अंतर नहीं था।
परंतु स्वामी विवेकानंद एक संन्यासी थे, जो भारतीय परंपरा में स्वतः प्रतिष्ठा और आध्यात्मिक अधिकार का प्रतीक रहा है। उनके वस्त्र, जीवनशैली और आश्रमिक अनुशासन ने उन्हें साधना के पर्याय के रूप में स्थापित किया।
दूसरी ओर, वीरचंद गांधी एक गृहस्थ, वकील, व्यवसायी और प्रतिनिधि रूप में पश्चिम गए। पश्चिमी मानस और भारतीय परंपरा — दोनों में गृहस्थ को 'प्रतिनिधि' की तरह देखा गया, पर 'आध्यात्मिक महामानव' की तरह नहीं। यह प्रतीकात्मक अंतर भी प्रसिद्धि के स्तर में गहरा प्रभाव डालता है।
5. राजनीतिक और सांस्कृतिक विमर्श:
विवेकानंद का स्वर स्वतंत्रता संग्राम के पूर्वारंभिक 'आध्यात्मिक राष्ट्रवाद' से जुड़ गया।
वीरचंद गांधी धार्मिक शुद्धता और अंतरधार्मिक संवाद के पक्षधर थे, परंतु उनका योगदान मुख्यतः 'धार्मिक संवाद' तक सीमित रहा — जिससे उन्हें 'राष्ट्रवादी विमर्श' में पर्याप्त स्थान नहीं मिला।
6. औपनिवेशिक मानसिकता और पश्चिमी अभिरुचि:
पश्चिमी जगत को विवेकानंद की शैली और 'योग–वेदांत' का भाष्य अधिक आकर्षित करता था।
वीरचंद गांधी का चिंतन विशुद्ध रूप से दर्शनिक था — जिसे तात्कालिक पश्चिमी जनमानस में समझने और सराहने की क्षमता सीमित थी।
7. शिकागो भाषणों का तुलनात्मक स्वरूप:
विवेकानंद ने आत्मा, ईश्वर, वेदांत और सहिष्णुता की बात करते हुए हिंदू धर्म को 'विश्वधर्म' के रूप में प्रस्तुत किया। उनका उद्घाटन भाषण ही ऐतिहासिक बन गया।
वीरचंद गांधी ने 'जैन धर्म और इसकी वैज्ञानिकता' पर 500 से अधिक भाषण दिए, परंतु उनके पहले भाषण को मीडिया या आयोजकों ने उतनी महत्ता नहीं दी जितनी विवेकानंद के भाषण को।
विवेकानंद के भाषणों में राष्ट्रीयता, ऊर्जा और साहस का स्वर था; वीरचंद के भाषणों में दार्शनिक तटस्थता, आत्मसंयम और अहिंसा का सूक्ष्म विमर्श।
8. मीडिया और ब्रिटिश दृष्टिकोण:
स्वामी विवेकानंद को ब्रिटिश और अमेरिकी मीडिया ने एक रहस्यमयी और आध्यात्मिक सन्यासी के रूप में प्रस्तुत किया। उनका पहनावा, उनकी ओजस्वी वाणी, और 'योग' की रहस्यमयता — यह सब मीडिया के लिए एक 'ईस्टर्न मिस्टिक' का प्रतीक बन गया।
उन्हें मीडिया में "The Mystic Monk of the East", "Hindu Yogi", और "Messenger of Vedanta" जैसे शीर्षकों से संबोधित किया गया। उनके चित्र, पोस्टकार्ड और भाषण-पुस्तिकाएं तक छपती रहीं।
जबकि वीरचंद गांधी को "Educated Indian", "Gentle Jain Lawyer" या अधिक से अधिक एक 'Oriental Scholar' कहकर सीमित दायरे में रखा गया।
मीडिया की प्रवृत्ति रहस्यमयता, दृश्य प्रभाव और प्रतीकात्मकता को अधिक तवज्जो देती है। सन्यासी का लुक और योग-ध्यान का रहस्य, पश्चिमी फैंटेसी से मेल खाता था।
वहीं वीरचंद गांधी के सूट-बूट, सुसंस्कृत उच्चारण, और दार्शनिक विषयों पर अकादमिक प्रस्तुतियाँ — पश्चिमी मीडिया को अधिक 'सामान्य' और 'ज्ञात' लगीं।
एक भारतीय गृहस्थ जो अंग्रेज़ी बोलता है, तार्किक है — वह वहाँ के विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों जैसा लगता था, न कि एक दिव्यात्मा जैसा। यही मीडिया छवि निर्माण में बाधा बनी।
9. विरासत और संस्थागत पुनरुत्थान:
विवेकानंद की स्मृति को रामकृष्ण मिशन, बेलूर मठ, युवाशक्तियों के प्रशिक्षण केंद्रों, और भारत के आध्यात्मिक पुनर्जागरण आंदोलन से जोड़ा गया। उनके जीवन पर सैकड़ों पुस्तकें, फिल्में, चित्रकथाएँ बनीं। उनके संदेश को विद्यालयों, महाविद्यालयों और भाषण-मंचों पर दोहराया जाता है।
वहीं वीरचंद गांधी का योगदान यद्यपि समान रूप से ऐतिहासिक था, परंतु:
जैन समाज ने उनकी स्मृति को अपेक्षाकृत संकुचित रूप में देखा;
उनकी जीवनगाथा, विचार, भाषण आज भी सार्वजनिक चेतना से बाहर हैं;
न तो कोई राष्ट्रव्यापी मिशन बना, न कोई समर्पित संस्थान उनकी स्मृति को आगे बढ़ाने हेतु स्थापित हुआ।
🔹 आज आवश्यकता है कि वीरचंद गांधी को:
एक जैन आध्यात्मिक राजदूत,
भारत के धार्मिक संवाद के अग्रदूत, और
प्राचीन अहिंसा परंपरा के वैश्विक प्रतिनिधि के रूप में पुनर्स्थापित किया जाए।
उनके नाम से:
भाषण-मंच,
शोध-वृत्तियाँ,
जैन शिक्षा मिशन,
और एक डिजिटल आर्काइव (उनके भाषणों, पत्रों, दस्तावेज़ों का) स्थापित किया जाना चाहिए।
यह काम केवल श्रद्धांजलि नहीं, भारत की बहुधार्मिक, बहुदार्शनिक विरासत का सम्मान होगा।
निष्कर्ष:
वीरचंद गांधी किसी भी प्रकार से विवेकानंद से कम नहीं थे — बल्कि:
वे 14 भाषाओं के ज्ञाता थे,
अमेरिका में 500+ व्याख्यान दिए,
जैन धर्म के अतिरिक्त भारतीय दर्शन, योग, वेदांत, और बौद्ध धर्म पर भी भाषण दिए,
इंग्लैंड और अमेरिका में जैन साहित्य का अनुवाद करवाया।
लेकिन...
अल्पजीवन,
संस्थागत प्रचार की कमी,
जैन धर्म की सीमित राजनीतिक और सामाजिक पहुँच,
स्वतंत्रता आंदोलन से सीधा जुड़ाव न होना,
और गृहस्थ होते हुए भी साधु-समान कर्तव्य करने के बावजूद प्रतीकात्मक मान्यता का अभाव
...इन सभी कारणों से वे विवेकानंद जितनी व्यापक प्रसिद्धि प्राप्त नहीं कर पाए।
पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता:
आज की आवश्यकता है:
वीरचंद गांधी के भाषणों का प्रकाशन,
उनके जीवन पर शोध,
शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में समावेश,
और एक स्वतंत्र भारत की बहुधार्मिक विरासत में उनके योगदान का मूल्यांकन।
वे केवल जैन समाज के नहीं, पूरे भारत के आध्यात्मिक–दार्शनिक दूत थे।
संदर्भ सूची (References)
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The World's Parliament of Religions (1893) – Official Proceedings, Chicago.
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Jaini, Padmanabh S. The Jaina Path of Purification. University of California Press, 1979.
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Cort, John E. Jains in the World: Religious Values and Ideology in India. Oxford University Press, 2001.
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Flügel, Peter. Studies in Jaina History and Culture: Disputes and Dialogues. Routledge, 2006.
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Vivekananda, Swami. Complete Works of Swami Vivekananda. Advaita Ashrama, Kolkata.
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Gandhi, V.R. Speeches and Writings of Virchand Raghavji Gandhi. Compiled Lectures (Digitized Archive).
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Laidlaw, James. Riches and Renunciation: Religion, Economy, and Society among the Jains. Clarendon Press, 1995.
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Upadhye, A.N. – Jain Literature and Culture, Jain Sahitya Sansthan.
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Jain, Jyoti Kumar. History of Jainism. Bharatiya Vidya Bhavan Series, Mumbai.
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BBC Archives and Indian Express Archives – Reports on the 1893 Chicago Parliament of Religions.
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Jainpedia.org – Digitized Manuscripts and Biographical Data of V.R. Gandhi.
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Harvard University Archives – Jain Delegation Notes and Correspondence (1890s).
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Samani Chaitanya Pragya – Jain Contributions to Interfaith Dialogue, Jain Vishva Bharati Institute.
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Ramakrishna Mission Publications – Legacy of Vivekananda, Cultural Studies Division.
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Newspapers: The Chicago Tribune, The New York Times (1893–1902) – Coverage of Parliament and Indian delegates.
2 टिप्पणियां:
Only one Gandhi was to be recognised and the limelight was taken away by M.K.Gandhi.Even Srimad Rajchandra would not have succeeded the ovation of the world though he was more than just a scholar, for Vedant phylosophy was based on one GOD whereas the Jain Darshan is an eithist one so this concept of NO GOD did not resonate with Christians and other Abhrahamic schools of thought hence the diminished popularity.
But for Jains, world around Sri Veerchand Raghavji Gandhi should be a cult figure as Sri Todarmal or say, Bharrillji.As Sri Veerchandji would not have said anything 'new' for Jains, Jains are more likely to follow Srimadji or Anandghanji or Adhyaymayogi Srimad Devchandraji m.s. who elucidated Jainism in "Chayavaad" style.
Yes, Vedanta suited to colonial powers even among all Vedic philosophy. They found one God theory nearer to Christianity and deliberately propagate that.
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