भूमिका
बंगाल का मध्यकालीन साहित्य एक ऐसी सांस्कृतिक परंपरा है, जिसमें लोक और शास्त्र, भक्ति और सामाजिक चेतना, तथा स्त्री शक्ति और धार्मिक संघर्ष का सुंदर संगम हुआ। इस परंपरा का प्रतिनिधि साहित्य है — मंगलकाव्य।
"मंगल" शब्द का अर्थ है शुभता, और यह परंपरा विशेषतः ग्राम्य देवी-देवताओं से जुड़ी हुई है। मंगलकाव्य न केवल पूजा की प्रतिष्ठा दिलाने वाले साहित्य हैं, बल्कि ये सामाजिक विमर्श, स्त्री पक्ष की मुखरता, और लोक से वैदिक शास्त्रों तक की यात्रा का दस्तावेज़ भी हैं।
मंगलकाव्य की ऐतिहासिक समयरेखा
शताब्दी प्रमुख काव्य और रचनाकार
प्रारंभिक
13वींमनसामंगल – बहराम खान 14वीं–15वीं मनसामंगल – कृष्णराम दास, रूपराम 16वीं चंडीमंगल – मुकुंदराम चक्रवर्ती, मुक्ताराम चक्रवर्ती 17वीं धर्ममंगल – विजय गुप्त, काशीराम दास 17वीं षष्ठीमंगल, शीतलामंगल – अज्ञात 18वीं अन्नदा मंगल – रायगुणाकर भारतचंद्र 18वीं चैतन्यमंगल, जगन्नाथमंगल – भक्तिकाव्य शैली में मंगल पद्य
शताब्दी | प्रमुख काव्य और रचनाकार | |
---|---|---|
| मनसामंगल – बहराम खान | |
14वीं–15वीं | मनसामंगल – कृष्णराम दास, रूपराम | |
16वीं | चंडीमंगल – मुकुंदराम चक्रवर्ती, मुक्ताराम चक्रवर्ती | |
17वीं | धर्ममंगल – विजय गुप्त, काशीराम दास | |
17वीं | षष्ठीमंगल, शीतलामंगल – अज्ञात | |
18वीं | अन्नदा मंगल – रायगुणाकर भारतचंद्र | |
18वीं | चैतन्यमंगल, जगन्नाथमंगल – भक्तिकाव्य शैली में मंगल पद्य |
प्रमुख मंगलकाव्य और उनकी कथावस्तु
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बेहुला की मृत पति के साथ यात्रा: मनसामंगल काव्य |
1. मनसामंगल
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रचनाकार: बहराम खान, कृष्णराम दास, रूपराम, कानाहरी दत्त
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देवी: मनसा – सर्पों की देवी, जो बंगाल के सुंदरवन जैसे नाग-प्रभावित क्षेत्रों में पूजनीय हैं।
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कथा:
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शिवभक्त चांद सौदागर मनसा की पूजा नहीं करता।
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मनसा उसके छह पुत्रों को मार डालती हैं, और अंतिम पुत्र लखिंदर को विवाह-रात्रि में नागदंश से मरवा देती हैं।
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बेहुला, लखिंदर की पत्नी, अपने मृत पति को नाव में रखकर स्वर्ग तक की प्रतीकात्मक यात्रा करती है।
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वह देवताओं को तप और भक्ति से प्रसन्न करती है और अपने पति को पुनर्जीवित करवा लेती है।
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अंततः चांद सौदागर को मनसा की पूजा स्वीकारनी पड़ती है।
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2. चंडीमंगल
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रचनाकार: मुकुंदराम चक्रवर्ती (धनपति की कथा), मुक्ताराम चक्रवर्ती (कालकेतु–फुल्लरा)
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देवी: चंडी – शक्ति की लोकस्वरूप देवी
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कथा:
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धनपति व्यापारी की कथा में देवी की शहरी प्रतिष्ठा
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कालकेतु और फुल्लरा की कथा में ग्रामीण जीवन, विपत्ति, और देवी की कृपा से पुनरुत्थान
मुख्य पात्र
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कालकेतु: एक निर्धन, निर्धारित भाग्य वाला युवक, जिसे समाज ने त्यागा है।
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फुल्लरा: एक सौम्य, भक्तिपरायण स्त्री जो कालकेतु की पत्नी बनती है।
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देवी चंडी: शक्ति और कल्याण की अधिष्ठात्री, जो अपनी कृपा से अछूतों और दलितों को भी समाज में प्रतिष्ठा दिलाती हैं।
कथा सारांश
प्रारंभ: अपमान और त्याग
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कालकेतु एक अत्यंत निर्धन और दलित जाति का युवक है, जिसे समाज हेय दृष्टि से देखता है।
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वह देवी चंडी का भक्त है, परंतु मंदिरों में भी उसे प्रवेश नहीं मिलता।
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फुल्लरा, एक ग्रामीण ब्राह्मणकुल की स्त्री, कालकेतु से विवाह करती है – यह विवाह जाति, वर्ग, और सामाजिक मर्यादाओं के विरोध में है।
संघर्ष और भक्ति
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विवाह के पश्चात कालकेतु और फुल्लरा को समाज बहिष्कृत कर देता है।
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वे वनवासियों के साथ रहते हैं, जीवन में अनेक कष्ट सहते हैं।
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फुल्लरा निरंतर देवी चंडी की पूजा करती है और कालकेतु को धैर्य, धर्म और भक्ति का मार्ग दिखाती है।
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कालकेतु- फुल्लरा को देवी चंडी के दर्शन: चंडीमंगल काव्य |
चमत्कार और पुनः प्रतिष्ठा
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एक दिन देवी चंडी प्रकट होकर उन्हें वरदान देती हैं — वे कालकेतु को राजा बना देती हैं।
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समाज चौंकता है, कालकेतु को राजा कालकेतु के रूप में स्वीकार करना पड़ता है।
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फुल्लरा स्त्रीभक्ति, त्याग और श्रद्धा की प्रतीक बनती है।
कथा का सांस्कृतिक महत्व
पक्ष | विवेचन |
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सामाजिक स्तर | जातिवाद, अस्पृश्यता, और भेदभाव का विरोध |
धार्मिक स्तर | स्त्रीभक्ति और चंडी देवी की कृपाशक्ति |
नारी पक्ष | फुल्लरा का चरित्र नवमीरा, बिहुला, सावित्री के समकक्ष |
साहित्यिक शैली | ग्रामीण लोकसंवेदना, चमत्कारात्मक किंवदंती, भक्ति रस |
निष्कर्ष
कालकेतु और फुल्लरा की कथा बंगाल की मंगलकाव्य परंपरा में वंचित वर्गों की आवाज़ है। यह कथा केवल चमत्कार नहीं, बल्कि यह बताती है कि सच्ची भक्ति, नारी-संवेदना, और देवी की कृपा के सामने जाति, वर्ग और संकीर्ण सामाजिक रेखाएँ तिरोहित हो जाती हैं।
3. धर्ममंगल
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रचनाकार: विजय गुप्त, काशीराम दास, रूपचंद्र
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देवता: धर्म ठाकुर – ग्राम्य न्यायकर्ता देवता
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कथा:
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भवानंद, लहर, सुंदर जैसे पात्रों की कहानियों के माध्यम से धर्म ठाकुर न्याय और धर्म की रक्षा करते हैं।
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4. षष्ठीमंगल
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रचनाकार: अज्ञात
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देवी: षष्ठी – गर्भ, प्रसव और शिशु रक्षा की देवी
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कथा:
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एक स्त्री षष्ठी की पूजा नहीं करती, जिससे उसका बच्चा संकट में आ जाता है।
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पश्चाताप और भक्ति से देवी प्रसन्न होती हैं और संतान रक्षा करती हैं।
षष्ठीमंगल काव्य: पाणिनीय व्याकरण की लोकव्याख्या
पाणिनि सूत्र:
षष्ठी स्थानेयोगा (अष्टाध्यायी 2.3.50)
व्याख्या (कात्यायन, पतंजलि, भाष्यकार आदि द्वारा):
जहाँ अधिकरण, अवस्थान, या सम्बन्ध का बोध हो, वहाँ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।
विशेष रूप से सम्बन्ध के अर्थ में, जब कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु की होती है (जैसे: रामस्य पुस्तकं) — यहाँ राम और पुस्तक के बीच सम्बन्ध है — वहाँ षष्ठी लगती है।
"सम्बन्धे षष्ठी"
यह पाणिनि के सूत्र का एक व्याख्यात्मक संक्षेप है, जिसे कई संस्कृत शिक्षकों, भाष्यकारों और टीकाकारों ने स्मृति-वाक्य के रूप में प्रयोग किया है।
षष्ठीमंगल काव्य और सम्बन्ध का प्रतीकत्व
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि संतान का जन्म स्त्री–पुरुष के सम्बन्ध से ही होता है, अर्थात् संतान का अस्तित्व सम्बन्ध पर आधारित है।
षष्ठीमंगल काव्य में इसी सम्बन्ध को माता षष्ठी अथवा देवी षष्ठी के रूप में व्यंजनात्मक (symbolic) रूप में प्रस्तुत किया गया है।
इस प्रकार, इस नामकरण के पीछे एक गहन आध्यात्मिक और व्याकरणिक प्रतीकात्मकता छिपी हुई है, जो षष्ठी विभक्ति के मूलार्थ — सम्बन्धबोध — को साहित्य और लोकविश्वास में मूर्त रूप प्रदान करती है।
समन्वय की प्रक्रिया: जब शास्त्र लोक से झुकता है
पहले देवी पूजा न होने पर संकट लाती हैं।
फिर भक्त पश्चाताप करता है, और सच्चे हृदय से पूजा करता है।
देवी प्रसन्न होती हैं और वरदान देती हैं।
इस प्रक्रिया में लोकदेवियाँ वैदिक प्रणाली में सम्मिलित हो जाती हैं।
यह एक सांस्कृतिक-साहित्यिक प्रणाली है, जिसमें लोक की शक्ति को शास्त्र धीरे-धीरे आत्मसात करता है।
5. शीतलामंगल
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रचनाकार: शंकर (कुछ संस्करणों में); अधिकांश में अज्ञात
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देवी: शीतला – रोग निवारक देवी, विशेषकर चेचक की
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कथा:
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जो लोग पूजा नहीं करते, वे रोगों से ग्रस्त होते हैं।
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पूजा से रोगनिवारण होता है।
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6. अन्नदा मंगल
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रचनाकार: रायगुणाकर भारतचंद्र
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देवी: अन्नदा – दुर्गा का एक लोकस्वरूप
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कथा:
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एक राजा देवी की पूजा नहीं करता, जिससे राज्य पर संकट आता है।
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अंततः पूजा और भक्ति से राज्य सुख-शांति प्राप्त करता है।
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साहित्यिक प्रकृति और शैलीगत टिप्पणी
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इन काव्यों में से कई मूल मौलिक रचनाएँ नहीं हैं।
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ये मुख्यतः लोककथाओं, पूजा-विधियों, जनश्रुतियों और सामाजिक प्रथाओं का काव्यात्मक संकलन हैं।
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लेखकों ने इन्हें साहित्यबद्ध कर ब्राह्मण परंपरा के समीप लाने का प्रयत्न किया ताकि ग्राम्य देवी-देवताओं को धार्मिक वैधता मिल सके।
ये काव्य लोक और शास्त्र के बीच सेतु हैं।
लोकदेवियाँ बनाम वैदिक देवता: संघर्ष और समन्वय
मुख्य संघर्ष: मनसा बनाम शिव
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मनसा – ग्राम्य नागदेवी, जिन्हें वैदिक धर्म ने आरंभ में स्वीकार नहीं किया।
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शिव – वैदिक और पुराणिक मुख्यधारा के देवता, जिनके भक्त मनसा की पूजा नहीं मानते।
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कथा में यह संघर्ष बेहुला की भक्ति, साहस और तपस्या से समन्वय में परिवर्तित होता है।
यह संघर्ष अन्य मंगलकाव्यों में भी है:
काव्य | लोकदेवी | संघर्ष / स्वीकृति का रूप |
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मनसामंगल | मनसा | शिवभक्तों से टकराव; अंततः पूजा स्वीकार्य होती है। |
चंडीमंगल | चंडी | लोक शक्ति को शास्त्र में स्थान |
धर्ममंगल | धर्म ठाकुर | न्याय के प्रतीक लोकदेवता को धार्मिक स्वीकार्यता |
षष्ठीमंगल | षष्ठी | मातृत्व शक्ति का लोक से धर्म में प्रवेश |
चैतन्यमंगल और जगन्नाथमंगल: शैली का विस्तार
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चैतन्यमंगल – लोचनदास द्वारा रचित, श्री चैतन्य महाप्रभु की भक्ति कथा; मंगल पद्यशैली में।
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जगन्नाथमंगल – विशंभर दास द्वारा; भगवान जगन्नाथ की महिमा।
🔸 ये दर्शाते हैं कि मंगलकाव्य शैली केवल ग्राम्य देवी कथाओं तक सीमित नहीं रही — इसका उपयोग भक्तिकाव्य में भी हुआ।
तुलना: बेहुला–लखिंदर और सावित्री–सत्यवान
तत्व | बेहुला–लखिंदर | सावित्री–सत्यवान |
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क्षेत्र | सुंदरवन, बंगाल | वन प्रदेश (महाभारत) |
देवता से संघर्ष | देवी मनसा | यमराज |
स्त्री की भूमिका | मृत पति की रक्षा हेतु यात्रा | यम से तर्क द्वारा जीवनदान |
समापन | पति पुनर्जीवित, पूजा स्वीकृति | पति पुनर्जीवित, धर्म-विजय |
उपसंहार:
लोकदेवियों की साहित्य में प्रतिष्ठा की यात्रा
बंगाल का मंगलकाव्य साहित्य न केवल भक्ति का साहित्य है, बल्कि यह लोक चेतना की विजय गाथा है।
यह वह साहित्य है, जिसने लोक में उपजी आस्था को शास्त्र के विधान में प्रतिष्ठित किया।
बेहुला, मनसा, चंडी, षष्ठी, शीतला, अन्नदा — ये सब मात्र पात्र नहीं, सांस्कृतिक संकल्पनाएँ हैं, जिन्होंने धर्म, स्त्री, समाज और परंपरा के बीच सेतु का कार्य किया।
इन काव्यों ने लोक को वैदिक मंच पर प्रतिष्ठा दी — यही इनकी सबसे बड़ी साहित्यिक और सांस्कृतिक विजय है।
ग्रंथ-सूची (संदर्भ सूची)
व्याकरण और शास्त्रीय ग्रंथ
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पाणिनि – अष्टाध्यायी, सम्पादक: श्रीराम शास्त्री, चौखम्बा संस्कृत सीरीज
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कात्यायन – वर्तिक-सम्पुट, षष्ठी स्थानेयोगा पर टिप्पणी
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पतंजलि – महाभाष्य, भाग 2.3.50 पर टीका
मंगलकाव्य की मूल और लोकप्रिय कृतियाँ
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बहराम खान – मनसामंगल, सम्पादन: बंगीय साहित्य परिषद्, कोलकाता
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कृष्णराम दास – मनसामंगल (कृष्णराम संस्करण), प्रकाशक: विश्वभारती प्रकाशन
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मुकुंदराम चक्रवर्ती – चंडीमंगल (कविकंकण), सम्पादन: डॉ. अशोक मजूमदार
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मुक्ताराम चक्रवर्ती – चंडीमंगल (ग्रामीण संस्करण), शिल्पा पब्लिकेशन
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रायगुणाकर भारतचंद्र – अन्नदा मंगल, बंगीय ग्रंथ परिषद् संस्करण
शोध और आलोचना
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डॉ. सुकुमार सेन – बंगला साहित्य का इतिहास, भाग 1, नबान्न प्रकाशन
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डॉ. श्यामाचरण गांगुली – मंगलकाव्य: उत्पत्ति, शैली और समाज, कोलकाता विश्वविद्यालय
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डॉ. गीता भट्टाचार्य – देवी परंपरा और स्त्री विमर्श: मनसामंगल के सन्दर्भ में, शोधपत्र, कलकत्ता यूनिवर्सिटी
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Hitesranjan Sanyal – Social Mobility in Bengal, K.P. Bagchi & Co.
लोककथा, संस्कृति और समाजशास्त्रीय सन्दर्भ
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Dinesh Chandra Sen – The Folk Literature of Bengal, Indian Studies Series
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Sukumar Dutt – Religion and Society in Eastern India, Calcutta University Press
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John Boulton – Folk Deities of Bengal and Their Cults, Cambridge South Asian Series
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