प्रस्तावना
भाषा, स्व, और स्वराज का संबंध
कोई भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र जब तक अपने ‘स्व’ को नहीं पहचानता, तब तक उसमें स्वाभिमान, आत्मबल और आत्मनिर्भरता नहीं आ सकती। और यह ‘स्व’ — केवल भौगोलिक या राजनीतिक नहीं — सांस्कृतिक, भाषिक और बौद्धिक पहचान का नाम है। भारत में यह स्व उस भाषा से जुड़ा है जिसमें हमने हजारों वर्षों तक ज्ञान, धर्म, दर्शन, गणित, खगोल, शिल्प और न्याय का निर्माण किया।
संस्कृत, प्राकृत, तमिल, पाली, और फिर हिंदी, बंगाली, मराठी, ओड़िया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, असमिया, पंजाबी — ये सब भारत की आत्मा की भाषाएँ हैं, परंतु औपनिवेशिक आक्रमणों और सत्ता परिवर्तन के साथ इनका स्थान धीरे-धीरे हाशिये पर चला गया।
1757 – 1835 – 2025 : तीन बिंदुओं से खिंचती एक ऐतिहासिक रेखा
यह संयोग मात्र नहीं, बल्कि इतिहास का गंभीर सांकेतिक संतुलन है:
वर्ष | घटना | भाषाई असर |
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1757 | पलाशी का युद्ध: अंग्रेजों द्वारा बंगाल विजय | भारतीय सत्ता और स्वाभिमान का पहला पतन |
1835 | लार्ड मैकाले द्वारा अंग्रेज़ी शिक्षा नीति | भारतीय भाषाओं को 'अयोग्य' घोषित कर दिया गया |
1947 | भारत की स्वतंत्रता | परंतु मानसिक दासता बनी रही |
2025 | 1947 से ठीक 78 वर्ष बाद | अब समय है — भारतीय भाषाओं को वह स्थान दिलाने का जो अंग्रेज़ी को मिला |
यही है '78 वर्ष सिद्धांत' — भारत के भाषिक स्वराज का निर्णायक क्षण।
औपनिवेशिक मानसिकता की गहराई: “हिंदी हो गई” और अन्य अपमान
आज भी हम सुनते हैं —
“उसकी तो हिंदी हो गई”,
“क्यों अपनी हिंदी करवा रहे हो?”
यह केवल वाक्य नहीं, सांस्कृतिक आत्महीनता का नंगा प्रदर्शन है।
जब एक साधारण अंग्रेज़ी बोलनेवाला व्यक्ति एक संस्कृतज्ञ या हिंदी साहित्यकार को ‘गंवार’ कह देता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषा को ज्ञान का नहीं, हैसियत का मापदंड बना दिया गया है।
यह मैकाले निष्ठ मानसिकता का ही दुष्परिणाम है, जिसने ज्ञान की परिभाषा को केवल अंग्रेज़ी भाषा तक सीमित कर दिया।
सत्ता, भाषा और संस्कृति — त्रिकोणीय संबंध
इतिहास साक्षी है कि जिसके पास सत्ता होती है, उसी की भाषा को 'श्रेष्ठ' माना जाता है।
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जब भारत की सत्ता वैदिक, बौद्ध या जैन परंपरा में थी, तब संस्कृत और प्राकृत उच्च भाषा थीं।
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इस्लामी शासन में फारसी,
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ब्रिटिश राज में अंग्रेज़ी ‘भद्र’ भाषा बन गई।
अब जबकि सत्ता भारत के हाथ में है — हमें यह तय करना होगा कि क्या हमारी भाषाएं सत्ता की भाषा बनेंगी, या सत्ता अब भी मानसिक रूप से पराधीन रहेगी?
भाषा केवल संवाद नहीं, संस्कृति की आत्मा है
भाषा = संस्कृति = आत्मबोध = स्वराज
जिस राष्ट्र की शिक्षा, न्याय, प्रशासन और तकनीक — सब कुछ परायी भाषा में हो, वह राष्ट्र कभी संपूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि —
"स्वराज की पहली सीढ़ी स्वभाषा है।" — महात्मा गांधी
"एक राष्ट्र तभी तक स्वतंत्र है, जब तक उसकी भाषा स्वतंत्र है।" — कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी
2025: भाषिक पुनर्जागरण का ऐतिहासिक अवसर
भारत को चाहिए कि वह 2025 को “भारतीय भाषा पुनर्स्थापना वर्ष” घोषित करे और निम्नलिखित ठोस कदम उठाए:
🔹 1. शिक्षा में भाषा-स्वराज
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प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन अनिवार्य हो।
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मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून, प्रशासन — हर क्षेत्र में मूल पाठ्यसामग्री भारतीय भाषाओं में तैयार की जाए।
🔹 2. प्रशासन और न्याय में मातृभाषा का उपयोग
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संसद, विधानसभा और न्यायालयों में प्रादेशिक भाषाओं का उपयोग हो।
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सरकारी कार्यालयों की फाइलें अंग्रेज़ी में नहीं, हिंदी या प्रादेशिक भाषा में बनें।
🔹 3. अनुवाद संस्थान और तकनीकी विकास
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एक राष्ट्रीय अनुवाद आयोग की स्थापना हो, जो ज्ञान-विज्ञान को भारतीय भाषाओं में लाए।
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AI, Machine Translation और भाषाई डेटाबेस के ज़रिए डिजिटल भारत = भाषाई भारत बने।
🔹 4. सांस्कृतिक विमर्श में भाषा का सम्मान
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मीडिया, OTT, सिनेमा, यूट्यूब आदि पर भारतीय भाषाओं में उच्च गुणवत्ता वाला, गहन और प्रेरणादायक कंटेंट बने।
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“हिंदी हो गई” जैसे मुहावरों का सामाजिक बहिष्कार किया जाए।
अंग्रेज़ी का सम्मान, प्रभुता नहीं
हम अंग्रेज़ी के विरोधी नहीं हैं।
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अंग्रेज़ी एक संपर्क भाषा है — उसका उपयोग वैश्विक मंचों पर होता है।
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लेकिन भारत में अंग्रेज़ी ज्ञान, प्रतिष्ठा और प्रशासन की एकमात्र सीढ़ी न बने।
अंग्रेज़ी हो — लेकिन मानसिकता भारतीय हो।
निष्कर्ष: भाषिक नवजागरण = आत्म-प्रबुद्ध भारत
यदि भारत को विश्वगुरु बनना है, तो उसे अपनी भाषाओं में ही बोलना होगा।
हिंदी, तमिल, बंगाली, मराठी, तेलुगु, ओड़िया — इन भाषाओं में ज्ञान भी है, दृष्टि भी, और भविष्य भी।
2025 केवल एक और वर्ष नहीं —
यह है "भाषिक स्वतंत्रता के 78 वर्षों के बंधन से मुक्ति" का काल।
यह है भारतीय ज्ञान परम्परा को पुनः स्थापित करने का संकल्प-वर्ष।
यह है "भारत के स्व का पुनर्स्थापन"।
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