प्राक्कथन
भारत का इतिहास केवल राजाओं और विजयों का नहीं है, यह भाषाओं के प्रभुत्व और उनके माध्यम से सांस्कृतिक नियंत्रण का इतिहास भी है। जब कोई विदेशी सत्ता भारत पर शासन करती है, तो वह केवल तलवार या तोप से नहीं, बल्कि भाषा के माध्यम से मन और समाज पर अधिकार स्थापित करती है। इस दृष्टिकोण से देखें तो भारत में इस्लामी शासन के काल में फारसी और ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ी, दोनों ने सत्ता की भाषा के रूप में कार्य किया, जो आम जनता की नहीं, बल्कि अभिजात वर्ग की भाषा बन गई।
भारत में फारसी भाषा का उदय
फारसी भाषा मूलतः ईरान (फारस) की भाषा थी। भारत में इसका प्रवेश विदेशी इस्लामिक आक्रमणों के साथ हुआ, किंतु इसका प्रभाव केवल एक धार्मिक भाषा के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक, न्यायिक, और सांस्कृतिक भाषा के रूप में स्थापित हुआ।
दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य के दौरान फारसी:
दरबारी कार्यवाहियों, फरमानों, भूमि अभिलेखों और न्याय प्रणाली की भाषा बनी।
इतिहास, तजकीरा, शायरी, दर्शन, और साहित्य का एक समृद्ध कोष फारसी में रचा गया।
यह आमजन की नहीं, बल्कि नवाबों, बादशाहों, अमीर-उमराहों, सूफियों और विद्वानों की भाषा रही।
इस काल में रचे गए ग्रंथ जैसे – आइन-ए-अकबरी, अकबरनामा, तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही, तुज़ुक-ए-जहाँगीरी और अमीर खुसरो की रचनाएँ इसकी साक्षी हैं। फारसी के माध्यम से सत्ता और ज्ञान को एक सीमित वर्ग में केंद्रीकृत किया गया।
ब्रिटिश काल: अंग्रेज़ी का आगमन और 'Elite Language' की पुनर्व्याख्या
1835 के Macaulay’s Minute on Education के जरिए युग की औपचारिक शिक्षा-नीति का यह निर्णय हुआ कि:
“We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern… a class of persons Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals, and in intellect.”
इस नीति का उद्देश्य था एक ऐसा मध्यवर्ती वर्ग तैयार करना जो अंग्रेज़ों और भारतीयों के बीच बौद्धिक सेतु बने — परंतु वह वर्ग अंग्रेज़ों की तरह सोचता हो। इसी क्षण से अंग्रेज़ी भाषा का उद्देश्य शिक्षा नहीं, बल्कि मानसिक उपनिवेशवाद बन गया।
अंग्रेज़ी अब सत्ता और पद का माध्यम बनती गई। भारतीय भाषाओँ के साथ साथ फारसी को भी प्रशासन से हटा दिया गया, और न्यायालय, दफ्तर, विद्यालय, विश्वविद्यालय सब अंग्रेज़ी के आधिपत्य में आ गए।
पाठशालाओं और टोलों का विस्थापन
ब्रिटिश आगमन से पहले भारत में हज़ारों की संख्या में देसी पाठशालाएँ, गुरुकुल, और टोल कार्यरत थे। इन संस्थानों में:
गणित, व्याकरण, नीति, धर्म, दर्शन, और स्थानीय ज्ञान सिखाया जाता था,
माध्यम था संस्कृत, प्राकृत, फारसी, अरबी, तमिल, तेलुगु, आदि – जो क्षेत्रीय थीं,
शिक्षा जीवन से जुड़ी हुई थी — नीतिपरक, आचरण-प्रधान और आध्यात्मिक।
अंग्रेज़ी स्कूलों के आगमन के साथ:
इन देसी पाठशालाओं को ‘गैर-व्यवस्थित, अर्धशिक्षित, और पुरानी व्यवस्था’ कहकर नष्ट किया गया,
पाठशाला, मदरसे और संस्कृत टोल हाशिए पर पहुँचे,
ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालयों को अनुदान देना शुरू किया, जिससे पारंपरिक विद्यालय वित्तहीन हो गए।
परिणामतः:
एक पूरी पीढ़ी अपनी भाषा, परंपरा और समाज से कटने लगी,
शिक्षा अब रोज़गार और पद के लिए होने लगी — आत्मविकास या सांस्कृतिक चेतना के लिए नहीं।
‘सेकालेर इंगरेजी शिक्षा’: आत्म-संघर्ष की व्यंग्यात्मक गवाही
सत्येंद्रनाथ टैगोर की रचना ‘সেকালের ইংরেজি শিক্ষা’ (सेकालेर इंगरेजी शिक्षा) इस संक्रमण काल का सर्वाधिक प्रामाणिक, आत्मीय और व्यंग्यपूर्ण दस्तावेज़ है।
वह बताते हैं कि:
किस प्रकार अंग्रेज़ी भाषा स्कूलों में ‘Jack and Jill went up the hill’ के रूप में प्रवेश करती है,
बच्चे रामायण, नीतिशतक ,अलिफ़ लैला के स्थान पर अंग्रेज़ी कविता रटने लगते हैं,
और एक समय ऐसा आता है कि वह अपने पिता को मूर्ख, दादा को सनकी, और अपने शास्त्रों को अंधविश्वास मानने लगता है।
यहाँ स्वामी विवेकानंद की उक्ति अत्यंत उपयुक्त बैठती है:
“The child is taken to school and the first year he learns his father is a fool, the second year he learns his grandfather is a lunatic, the third year he learns all our scriptures are lies, and the fourth year he is a perfect atheist.”
यह शिक्षा प्रणाली एक intellectual conversion थी — जहाँ ज्ञान के नाम पर जड़ों से काटा जाता था।
बंगाल के अतिरिक्त भारत के अन्य क्षेत्रों से विचारधाराएँ
बाल गंगाधर तिलक: भारतीय मूल्यों पर आधारित शिक्षा के समर्थक
लाला लाजपत राय: अंग्रेज़ी शिक्षा को मानसिक गुलामी का औजार मानते थे
- मोहनदास करमचंद गांधी – हिंद स्वराज (1909): अंग्रेज़ी शिक्षा को बौद्धिक दासता का माध्यम बताया।
“They have enslaved us not by the sword, but by the school.”
मदनमोहन मालवीय: BHU की स्थापना — संस्कृति और आधुनिकता का संगम
- सर सैयद अहमद ख़ान: मुस्लिम समाज में अंग्रेज़ी शिक्षा को आवश्यक माना, पर धार्मिक परंपराओं से संतुलन बनाए रखने पर बल दिया।
तुलना: फारसी बनाम अंग्रेज़ी — सत्ता की भाषा, जन से दूर
पहलू | फारसी | अंग्रेज़ी |
---|---|---|
उत्पत्ति | इस्लामी शाही शासन | ब्रिटिश उपनिवेशवाद |
उपयोग | दरबार, प्रशासन, साहित्य | न्याय, शिक्षा, प्रशासन |
जनता से संबंध | बहुत सीमित | केवल अभिजात वर्ग तक |
संस्कृति पर प्रभाव | फारसी कविता, तजकीरा, सूफी दर्शन | पाश्चात्य नैतिकता, तर्कवाद, आत्महीनता |
शिक्षा पर असर | मदरसे व फारसी स्कूल | पाठशालाओं, टोलों का विनाश; मिशनरी और गवर्नमेंट स्कूल |
दोनों भाषाएँ शासन और प्रभुत्व के साधन बनीं, न कि जनसमूह को शिक्षित या सशक्त करने का माध्यम।
निष्कर्ष: भाषा, सत्ता और आत्मचेतना का युद्ध
भारत में फारसी से अंग्रेज़ी तक का संक्रमण केवल भाषा का परिवर्तन नहीं था — यह सांस्कृतिक सत्ता के हस्तांतरण का भी प्रतीक था।
‘सेकालेर इंगरेजी शिक्षा’ इस संक्रमण को हास्य और व्यथा दोनों के साथ चित्रित करती है, और विवेकानंद की उक्ति इसकी दार्शनिक गहराई को प्रकट करती है।
यह आवश्यक है कि हम आज भी भाषा को केवल माध्यम नहीं, बल्कि आत्म-गौरव और सांस्कृतिक स्वायत्तता का स्तंभ मानें।
भाषा अगर अपनी न हो, तो ज्ञान भी पराया लगता है — और व्यक्ति केवल पदाधिकारी बन सकता है, नागरिक नहीं।
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