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Wednesday, January 25, 2012

अजीमगंज जियागंज में नीमस, पीठा और मेवा सलोनी खिचड़ी खाने का मौसम

 ये ठन्डे (सर्दी) का मौसम है. सबलोग निहाली (रजाई) ओढ़कर सो रहे हैं. ये मौसम अजीमगंज जियागंज  में नीमस, पीठा और मेवा सलोनी खिचड़ी खाने का मौसम होता है. शहरवाली रईस लोग खाने पीने के बहुत शौकीन थे और बढ़िया बढ़िया खाने की चीजें यहाँ पर बनती थी. ठन्डे के दिन में भोरे भोर नीमस खाने का मज़ा ही कुछ और है.

याद आता है जब भोरे भोर माँ या दादीमा सुते हुए को उठा देती थीं और बोलती थीं नीमस खा लो. जब हम बच्चे थे तब रात को औंटाया हुआ दूध रात को खुले छत में कपडे से बांध कर रख दिया जाता था. उस को ओस में रखा जाता था. सुबह उस दूध को घोंटा जाता था जिससे फेन निकलता था. उस फेन में इलाइची, केशर और गुलाबजल डाल कर कटोरे में दिया जाता था.

इसी तरह से खाने के समय पीठा बनता था. मीठा बनता था मावे से और नमकीन भापिया, दाल का. जब हूँ वहां रहते थे तब तो पीठे का न्योता भी होता था और उसमे बाई बेटी को जरूर बुलाया जाता था.

इसके साथ ही वहां मेवा सलोनी का खिचड़ी भी बनता था. मेवे का खिचड़ी मीठा होता था जिसमे बिदाम, पीसता, इलाइची और केशर डलता था. काजू और अखरोट नहीं डाला जाता था.  सलोनी का खिचड़ी मटर से बनता था. यह खिचड़ी सब जगह बन्ने वाले पुलाव से अलग था क्योंकि इसमें दही डाला जाता था. दही से इसमें थोडा खट्टापण भी आता था जो इसके स्वाद को बाधा देता था.

अब भी शहरवाली समाज में ये चीजें बनती है. जो लोग अब बहार रहने लग गए हैं वो लोग भी शायद बनाते होंगे. यहाँ जयपुर में मैंने लोगों को कई बार ये सब चीजें खिलाई है और वो लोग बहुत पसंद करते हैं.

(इस ब्लॉग में हम जान के थोडा बहोत शहरवाली बोली लिखा है. पूरा ठीक हिंदी में नहीं लिखा है)
अजीमगंज शहरवाली साथ का खाना
With regards,
Jyoti Kothari (N.B. Jyoti Kothari is proprietor of Vardhaman Gems, Jaipur, representing Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is a Non-resident Azimganjite.)

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Thursday, July 16, 2009

सत्रह भेदी पूजा

सत्रह भेदी पूजा १६ वीं सदी के जैन कवि श्री साधू कीर्ति की संगीतमय रचना है। भारतीय मार्ग संगीत की इतनी उत्कृष्ट कोटि की कोई दूसरी रचना जैन भक्ति साहित्य में उपलब्ध नहीं है। यह हिन्दी में लिखी गई सब से प्राचीन जैन पूजा भी है। साधू कीर्ति अकबर प्रतिवोधक चौथे दादा साहब श्री जिन चंद्र सूरी के आज्ञा अनुयायी थे। वे श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय के खरतर गच्छ आम्नाय के थे। संवत १६१८ ( ईश्वी सन १५६२) में अनहिलपुर में उन्होंने इस पूजा की रचना की थी। साधू कीर्ति प्रख्यात गायक हरिदास, बैजू बाबरा व तानसेन के समकालीन थे। तत्कालीन भारतीय मार्ग संगीत की उत्क्रिषटता सत्रह भेदी पूजा में परिलक्षित होती है। इस पूजा में अनेक रागों का प्रयोग किया गया है। पूजा की भूमिका राग सरपदी में है जबकि पहली न्हवन पूजा में राग देसाख, सारंग व मल्हार का प्रयोग हुआ है। दूसरी विलेपन पूजा राग रामगिरी एवं विलावल में है व इसका दोहा राग ललित में गाया जाता है। तीसरी वस्त्र युगल पूजा राग गौडी व वैराडी में है। चौथी वासक्षेप पूजा का दोहा भी राग गौडी में लिखा गया है। इस पूजा का प्रथम चरण राग सारंग में है तथा दूसरा चरण राग गौडी व पूर्वी का मिश्रण है। पांचवीं पुष्पारोहन पूजा राग कामोद व कानडा में गाया जाता है। छठी मलारोहन पूजा का दोहा राग आशावरी में तथा पूजा का प्रथम चरण रामगिरी गुर्जरी राग में है। दूसरा चरण फिर से राग आशावरी में ही है। सातवीं वर्ण पूजा केदारी गौडी व राग भैरवी में है। आठवीं गंधवटी पूजा का प्रारम्भ दोहे के स्थान पर सोरठे से किया है एवं पूजा में राग सोरठ व सामेरी का प्रयोग किया गया है। नवमी ध्वज पूजा में वस्तु छंद का उपयोग किया है जिसे राग मेघ गौडी में गाया गया है। पूजा का दूसरा चरण राग नटटनारायण में है। दसवीं आभरण पूजा का दोहा राग केदार में गाया जाता है व पूजा का प्रथम चरण राग अधवास या गूढ़ मल्हार में। पूजा का दूसरा चरण पुनः राग केदार में ही है। ग्यारहवीं फूलघर पूजा का पहला चरण रामगिरी कौतकिया में जबकि दूसरा चरण शुद्ध रामगिरी में है। वाराहवी पुष्प वर्षा के दोहे को वर्षा से संवंधित राग मल्हार में पिरोया गाया है तथा इसका पहला चरण गूढ़ मिश्र मल्हार का प्रतिनिधित्व करता है। पूजा का दूसरा चरण भी मल्हार की ही एक अन्य जाति भीम मल्हार में गुम्फित है। तेरहवीं अष्ट मांगलिक पूजा कल्याण कारक होने से इसका दोहा राग कल्याण में लिया है। पूजा का दूसरा चरण भी कल्याण राग में ही है जबकि पहला चरण वसंत राग में। चौदहवीं धुप पूजा राग विलावल व राग मालवी गौडी में है। पंद्रहवीं पूजा गीत पूजा है जिसमे पहले आर्यावृत्त छंद में संस्कृत की रचना है व दुसरे चरण को श्री राग में प्रस्तुत किया गया है। सोलहवीं नाटक पूजा प्राकृत भाषा के शार्दुल विक्रीडित छंद से प्रारम्भ होता है जिसे राग शुद्ध नट में गाने का निर्देशन है। पूजा का अगला चरण राग नट त्रिगुण में है। सत्रहवीं वाजित्र पूजा राग मधु माधवी में गाया जाता है। पूजा का अन्तिम कलश राग धन्या श्री में है। इस प्रकार भारतीय मार्ग संगीत के विशिष्ट रागों में गुम्फित यहाँ भक्ति व श्रृंगार रस प्रधान रचना कुल १०८ कवित्त की है। इसे पढने वाले अब कम रह गए है। अजीमगंज जियागंज में आज भी यहाँ पूजा प्रचलित है। आज इस दुर्लभ कृति के संरक्षण व पुनः प्रचालन की आवश्यकता है । इस दिशा में ठोस कदम उठाने की जरुरत है।

Presented by Vardhaman Gems

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Sunday, March 29, 2009

रीति रिवाज़: सिलामी व व्याह १

लड़का लड़की के बड़े होने पर लगभग माँ बाप या घर के बड़े शादी तय करते थे। अक़्सर लड़का या लड़की ख़ुद पसंद नही करते थे। शादी में खानदान को बहुत महत्व दिया जाता था पैसे को नहीं। खानदान के अलावा लड़की का चाल चलन और सुन्दरता को महत्व देते थे। अगर थोडी उमर होने के बाद व्याह होता था तब लड़के की कमाई देखी जाती थी। लड़के की सुन्दरता को ज्यादा महत्व नही दिया जाता था। व्याह के पहले लड़के लड़की की कुंडली जरूर मिलवाई जाती थी और कुंडली मिलने पर ही सम्बन्ध किया जाता था नही तो नहीं। अजीमगंज में खानदानी पंडित जी थे। कुछ समय पहले तक पंडित देव नारायण जी शर्मा थे, जो ज्योतिष के अच्छे जानकर थे। उस समय पंडित जी के खाते में अजीमगंज-जियागंज व आसपास के जैन, पांडे व नाइ के यहाँ होने वाले प्रत्येक व्यक्ति के जन्म का व्यौरा रखा जाता था।

व्याह पक्का होने के बाद किसी भी कारण से छोड़ा नहीं जाता था। पक्का होने के कुछ दिन बाद सगाई की जाती थी जिसे शहरवाली में सिलामी पड़ना बोलते थे। सिलामी में सवा मन दूध और मिश्री लड़की वाले लड़के वाले को भेजते थे जिसे पुरे समाज में बांटा जाता था। सिलामी में विशेष लेन देन का रिवाज़ नहीं था।

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