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Wednesday, September 9, 2009

जिन मन्दिर एवं वास्तु

प्राचीन काल से जिन मन्दिर का कोई निर्दिष्ट वास्तु नही होता था युग के अनुसार उसमे परिवर्तन होता रहता था। साथ ही अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग प्रकार से मंदिरों का निर्माण होता था। मन्दिर निर्माण कराने वाले की भावना एवं सामर्थ्य के अनुसार भी उसमे परिवर्तन होता था।

आज जो भी जिन मन्दिर देखने में आता है उनमे से अधिकांश १००० वर्ष के अन्दर बने हुए हैं। उससे प्राचीन जिन मन्दिर प्रायः देखने में नही आता है। भागवान महावीर के समय विभिन्न प्रकार के जिन मन्दिर बनते थे। जिनमे कुछ गुफा मन्दिर भी थे। ऐसा ही एक गुफा मन्दिर राजगीर के स्वर्ण भंडार में भी है एवं संभवतः यह सबसे प्राचीन जिन मन्दिर हैपरन्तु आज इसे जिन मन्दिर नही मन जा रहा है, यह दुर्भाग्य का विषय है स्वर्ण भंडार के जिन मन्दिर होने का प्रमाण उसमे प्राचीन ब्राह्मी लिपि में लिखे गए शिलालेख से स्पष्ट रूप से मिलता है। उस लेख में प्रतिष्ठाता आचार्य का नाम भी है। यह मन्दिर लगभग भगवान महावीर के समय का है।

महाराजा सम्प्रति (लगभग २२०० वर्ष पूर्व) ने बहुत बड़ी संख्या में जिन मन्दिर बनवाई थी एवं जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी परन्तु उनके समय के मन्दिर आज नही मिलते यद्यपि बड़ी संख्या में प्रतिमाएँ आज भी मौजूद है।

महाराजा सम्प्रति के वाद गुजरात के महाराजा परम आर्हत कुमारपाल ने अनेकों जिन मन्दिर की प्रतिस्थाएं करवाई। उस समय गुजरात में मन्दिर निर्माण की  राष्ट्रकूट प्रतिहार शैली विकसित हो चुकी थी। प्रसिद्द सोमनाथ का मन्दिर उसी शैली में बना हुआ है। महाराजा कुमारपाल ने अपने समय की प्रसिद्द शैली में ही जिन मंदिरों का निर्माण करवाया। उन्होंने इतनी अधिक संख्या में मंदिरों का निर्माण करवाया की कालक्रम से गुजरात में वही शैली रुढ़ हो गई। बाद में जिन लोगों ने भी गुजरात में जिन मंदिरों का निर्माण करवाया अधिकांशतः उसी शैली में करवाया। वर्त्तमान राजस्थान का कुछ हिस्सा भी उस समय गुजरात राज्य में ही था। उन अंचलों में भी वही शैली प्रसिद्द रही एवं वस्तुपाल तेजपाल जैसे युगपुरुषों ने आबू एवं अन्य स्थानों पर उसी शैली में मंदिरों का निर्माण करवाया। परन्तु इसका अर्थ ये नही था की उन दिनों सभी स्थानों पर वैसे ही मन्दिर बनते थे उस युग में भी मालव प्रदेश के अन्दर अन्य शैली में जिन मन्दिर बनते थे। मांडव गढ़ का प्रसिद्द मन्दिर, जिसे बाद में मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तोड़ कर मस्जिद में बदल दिया, इस बात का श्रेष्ठ उदहारण है।

राजस्थान के अन्य हिस्सों के साथ दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि में भिन्न प्रकार के मन्दिर बनते थे। सम्मेत शिखर, पावापुरी, क्षत्रियाकुंद अदि तीर्थ स्थानों के प्राचीन मन्दिर, कलकत्ता का विश्व प्रसिद्द पारसनाथ मन्दिर व अन्य प्राचीन मन्दिर, दिल्ली चांदनी चौक के मन्दिर, लखनऊ के मन्दिर, अजीमगंज जियागंज के मन्दिर माहिमापुर का कसौटी मन्दिर इस श्रेणी के उत्कृष्ट उदहारण हैराजस्थान के बीकानेर एवं जयपुर के अनेकों मन्दिर भी इसी श्रेणी में आते है।

इन दिनों  राष्ट्रकूट प्रतिहार शैली (गुजरात में प्रसिद्द) से भिन्न मंदिरों को नकारे जाने का प्रचलन हुआ है ऐसा कह कर भ्रान्ति फैलाई जा रही है की ये मन्दिर विधि पूर्वक बने हुए नही है तथा ये जैन वास्तु के अनुरूप नही हैपरन्तु यह बात पुरी तरह से ग़लत है वस्तुतः जैन मंदिरों का कोई एक ही प्रकार का स्वरुप नही होता था न होता है।
आज मन्दिर निर्माण में सोमपुराओं का वर्चस्व है। ये सोमपुरा जैन नही हैये लोग सोमनाथ मन्दिर (शिव मन्दिर) के शिल्प के अनुसार जिन मंदिरों का निर्माण करवाते हैआश्चर्य का विषय है की पूज्य आचार्य भगवन्तो एवं साधू साध्वी गण भी इन्हिके द्वारा बनाये गए मंदिरों को सही ठहराने लगे हैं।

दुःख तो तब होता है जब विधि से बनवाने के नाम पर अनेकों प्राचीन मंदिरों को मिटटी में मिला दिया जाता है एवं उसके स्थान पर  राष्ट्रकूट प्रतिहार शैली के मन्दिर बनवा दिए जाते हैं। कई बार यह काम तथाकथित आचार्यों के अहम् को संतुष्ट करने के लिए भी किया जाता है। प्राचीन मंदिरों को अनावश्यक रूप से तुड़वा कर उसके स्थान पर नया मन्दिर बनवा कर उस में अपने नाम का लेख लिखवा कर क्या ये लोग धर्म का काम कर रहे हैं


बिगत कुछ दसकों से जैन धर्म में गुजरतीओं का वर्चस्व बढ़ा है। अधिकांश आचार्य, साधू, साध्वी भी वहीँ से हैं। अतः गुजरती शैली को ही वे ठीक मानते हैंइस कारण भी अन्य शैलियों  के मंदिरों को तोडा जा रहा है

इस प्रकरण में गच्छ का राग-द्वेष भी सम्मिलित हो गया है। गुजरात में अधिकांश आचार्य aadi  तपागच्छ से हैं जबकि गुजरात के बाहर अन्य स्थानों पर खरतर गच्छ एवं अन्य गच्छों का भी वर्चस्व रहा है। उन स्थानों पर निर्मित अधिकांश मन्दिर खरतर गच्छ, पायचन्न गच्छ, विजय गच्छ आदि के आचार्यो द्वारा प्रतिष्ठित है। ऐसी स्थिति में उन्हें ग़लत बता कर नए मन्दिर का निर्माण करवाया जाता है। इन नव निर्मित मंदिरों की प्रतिष्ठा प्रायः तपागच्छ के आचार्यों के हाथों से ही होती है। इस तरह पूर्व के अन्य गच्छों के ऐतिहासिक साक्ष्यों को मिटा दिया जाता है।

अब तो ये प्रचालन इतना अदिक बढ़ गया है की खरतर गच्छ के अनेक साधू साध्वी भी उनका अनुसरण कर अपने ही पूर्वज आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित मंदिरों को अविधि से निर्मित कह कर उन्हें तुड़वा रहे हैं। कुच्छा के मुंद्रा में इसी प्रकार एक प्राचीन मंदिर को तुड़वा कर खरतर गच्छ के एक साधू द्वारा नव निर्माण करवाया जा रहा है.  यह कहा जा रहा है की भूकंप के कारन हिल जाने से मंदिर दोषपूर्ण हो गया है.

तथाकथित विधि कारक एवं सोमपुरा भी इनका साथ देते हैं। श्रावक गण भी अपनी अज्ञानता के कारण अथवा साधू साध्विओं के प्रति भक्ति के कारण इस में सम्मिलित हो जाते हैं।

अज हमें इस विषय में सावधान होना चाहिए एवं विवेक पूर्वक इस विषय पर विचार करना चाहिए। अन्यथा हम सिर्फ़ करोड़ों रुपये का दुरूपयोग करेंगे वल्कि अपनी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने के पाप के भागी भी होंगे


जैन धर्म की मूल भावना भाग 1
जैन धर्म की मूल भावना भाग 2
जैन धर्म की मूल भावना भाग 3
जिन मंदिर एवं वास्तु
प्रस्तुति:
ज्योति कोठारी

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