Search

Loading
Showing posts with label जैन धर्म. Show all posts
Showing posts with label जैन धर्म. Show all posts

Thursday, September 5, 2024

बेले तेले को छट्ठ अट्ठम क्यों कहते हैं? प्राकृत जैन पारिभाषिक शब्दावली


अभी एक व्हाट्सएप पोस्ट पर मैंने बेले के लिए छट्ठ एवं तेले के लिए अट्ठम शब्द का उपयोग किया था, उसके बाद लोगों के फोन आने लगे की इसका अर्थ क्या है? इसने मुझे ये पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित किया जिससे लोग प्राकृत भाषा के जैन पारिभाषिक शब्दों से परिचित हो सकें,  साथ ही प्राचीन भारतीय एवं जैन परम्पराओं को समझ सकें. 

त्याग प्रधान भारतीय एवं जैन संस्कृति

त्याग प्रधान भारतीय एवं जैन संस्कृति में एक-एक समय के भोजन त्याग का महत्व था. जैन परंपरा में भोजन त्याग को अनशन कहा जाता था, जो आज भी सामान्य भाषा में प्रचलित है. कालक्रम में इसे उपवास कहा जाने लगा और सामान्यतः पुरे दिन रात के भोजन त्याग को उपवास कहा गया. 

धारणा और पारणा

प्राचीन भारतीय संस्कृति में सामान्यतः एक दिन में दो बार भोजन लिया जाता था. इस हिसाब से दो वक्त के आहार त्याग को उपवास की संज्ञा दी गई. लेकिन जैन परंपरा की अपनी एक विशिष्टता है. इसमें उपवास के पूर्व दिवस मन को सम्पूर्ण आहार त्याग के लिए तैयार करने हेतु एक दिन पहले एक समय के भोजन त्याग कर उपवास की "धारणा" की जाती थी. उपवास की धारणा अर्थात मन में आहार त्याग की भावना से दृढ करना. इसी प्रकार 'पारणा' के दिन भी एकासन कर उपवास की अनुमोदना की जाती थी. 

उपवास, बेला, तेला: चउत्थ, छट्ठ और अट्ठम  

उपवास के पहले दिन एक समय का भोजन का त्याग, उपवास के दिन दो समय का भोजन त्याग, एवं एक दिन बाद भी एक समय का भोजन का त्याग- इस प्रकार कुल चार समय के भोजन का त्याग होता था. चार को प्राकृत भाषा में   चऊ और भोजन को भत्त कहते हैं इसलिए एक उपवास के लिए 'चउत्थ भत्त' शब्द का प्रयोग होता है, अर्थात चार बार के भोजन का त्याग. यहाँ ये भी जानने योग्य है की भत्त शब्द ही आगे चल कर भात और भाता में परिवर्तित हुआ. प्राचीन कल में भारतीयों का मुख्य भोजन चावल था था और उसे देशी भाषा में भट कहा जाता है. इसी प्रकार सफर में साथ ले जाये जाने वाले भोजन को भाता कहते हैं. 

इसी प्रकार दो दिन का उपवास अर्थात बेले में- दो दिन के चार बार और आगे पीछे के दिनों के दो बार ऐसे छह समय के भोजन का त्याग होता है और इसे 'छट्ठ भत्त' कहते हैं. तेले में तीन दिन के छ बार और आगे पीछे के दिनों के दो बार इस प्रकार आठ बार भोजन का त्याग होने से 'अट्ठम भत्त' कहते हैं. इन्हे ही संक्षेप में चउत्थ, छट्ठ और अट्ठम  कहा जाता है. 

कैसे करें गणना 

एक, दो और तीन उपवास की गणना ऊपर बताई गई. इससे ज्यादा उपवास को क्या कहा जायेगा? इसकी गणना का एक सरल नियम या फार्मूला है. जितने उपवास हों उसे दो से गुणा कर उसमे दो जोड़ दिया जाये तो सटीक जैन पारिभाषिक संख्या आ जाएगी. उसके अनुसार चार उपवास के लिए 4X2+2  अर्थात 10, ५ के लिए १२. 6 के लिए 14..... इस प्रकार आगे बढ़ते जाएँ. इन्ही संख्याओं को प्राकृत भाषामे दसम भत्त, दुवालसम भत्त, चउदसम भत्त ....... आदि कहा जाता है. पच्चक्खाण करते समय इसी प्रकार के शब्दों का उपयोग किया जाता है. 

अब सभी को समझ आ गया होगा की बेले तेले को छट्ठ अट्ठम क्यों कहते हैं.

धन्यवाद, 
ज्योति कोठारी 

Tags बेला, तेला, छट्ठ, अट्ठम,  प्राकृत भाषा, जैन धर्म, उपवास, 

allvoices

Wednesday, September 1, 2021

महापर्व पर्युषण ३ से ११ सितम्बर, २०२१

महापर्व पर्युषण ३ से ११ सितम्बर, २०२१

शुक्रवार ३ सितम्बर से जैन धर्म का महापर्व पर्युषण प्रारम्भ हो रहा है। श्वेताम्बर जैन समाज के अलग अलग समुदायों में कहीं यह  सितम्बर से प्रारम्भ हो कर १० को समाप्त होगा, कहीं ४ को प्रारम्भ हो कर ११ सितम्बर को समापन होगा।यह आत्मशुद्धि एवं आत्मविकास का महापर्व  है. यह कोई लौकिक त्यौहार नहीं, जिसमे राग रंग मौज मजा किया जाए।  यह भौतिक कामनाओं से दूर, संयम साधना पूर्वक अपने स्वयं के आत्मविकास के लिए आत्मसाधना करने का पर्व है।  प्रतिवर्ष भाद्र मॉस की कृष्णा द्वादशी अथवा त्रयोदशी से प्रारम्भ हो कर यह महापर्व भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी अथवा पंचमी को समाप्त होता है।  


चित्र: प्राचीन कल्पसूत्र पाण्डुलिपि 

इस अवसर पर महान आगम ग्रन्थ कल्पसूत्र का वांचन होता है, मंदिरों में भव्य पूजा अर्चना होती है, साधु भगवंतों के प्रवचन होते हैं, लोग तपस्या कर जीवन सफल बनाते हैं. स्थानकवासी परंपरा में कल्पसूत्र के अतिरिक्त अंतगढ़ दसांग सूत्र वाचन की भी परिपाटी है। पर्युषण पर्व के पांचवें दिन भगवान् महावीर का जन्म वाचन होता है।  सभी जैन धर्मावलम्बी इसे बड़े उत्साह एवं धूमधाम से मनाते हैं. यह महान पर्व पर्युषण आत्मसाधना के साथ जिनशासन की प्रभावना का भी पर्व है।  

आठ दिन के इस पर्युषण महापर्व का अंतिम दिन संवत्सरी पर्व होता है।  इस दिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षभर में किये गए पापों/ दुष्कृत्यों की आलोचना की जाती है। आलोचना स्वरुप अतिचार का पाठ बोल कर सभी पापों का मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है। इसके बाद ८४ लाख जीवयोनि से खमत खामना की जाती है अर्थात सभी जीवों को क्षमा करते हैं एवं सभी से क्षमा याचना भी करते हैं।  क्षमा याचना के बाद संवत्सरी प्रतिक्रमण के माध्यम से पापों का प्रायश्चित्त कर कर्मों के बोझ को हल्का किया जाता है।  

#महापर्व #पर्युषण, #जैनधर्म #कल्पसूत्र #संवत्सरी #प्रतिक्रमण #क्षमापना 

Thanks, 
Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a top IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

allvoices

Wednesday, September 9, 2009

जिन मन्दिर एवं वास्तु

प्राचीन काल से जिन मन्दिर का कोई निर्दिष्ट वास्तु नही होता था युग के अनुसार उसमे परिवर्तन होता रहता था। साथ ही अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग प्रकार से मंदिरों का निर्माण होता था। मन्दिर निर्माण कराने वाले की भावना एवं सामर्थ्य के अनुसार भी उसमे परिवर्तन होता था।

आज जो भी जिन मन्दिर देखने में आता है उनमे से अधिकांश १००० वर्ष के अन्दर बने हुए हैं। उससे प्राचीन जिन मन्दिर प्रायः देखने में नही आता है। भागवान महावीर के समय विभिन्न प्रकार के जिन मन्दिर बनते थे। जिनमे कुछ गुफा मन्दिर भी थे। ऐसा ही एक गुफा मन्दिर राजगीर के स्वर्ण भंडार में भी है एवं संभवतः यह सबसे प्राचीन जिन मन्दिर हैपरन्तु आज इसे जिन मन्दिर नही मन जा रहा है, यह दुर्भाग्य का विषय है स्वर्ण भंडार के जिन मन्दिर होने का प्रमाण उसमे प्राचीन ब्राह्मी लिपि में लिखे गए शिलालेख से स्पष्ट रूप से मिलता है। उस लेख में प्रतिष्ठाता आचार्य का नाम भी है। यह मन्दिर लगभग भगवान महावीर के समय का है।

महाराजा सम्प्रति (लगभग २२०० वर्ष पूर्व) ने बहुत बड़ी संख्या में जिन मन्दिर बनवाई थी एवं जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा भी करवाई थी परन्तु उनके समय के मन्दिर आज नही मिलते यद्यपि बड़ी संख्या में प्रतिमाएँ आज भी मौजूद है।

महाराजा सम्प्रति के वाद गुजरात के महाराजा परम आर्हत कुमारपाल ने अनेकों जिन मन्दिर की प्रतिस्थाएं करवाई। उस समय गुजरात में मन्दिर निर्माण की  राष्ट्रकूट प्रतिहार शैली विकसित हो चुकी थी। प्रसिद्द सोमनाथ का मन्दिर उसी शैली में बना हुआ है। महाराजा कुमारपाल ने अपने समय की प्रसिद्द शैली में ही जिन मंदिरों का निर्माण करवाया। उन्होंने इतनी अधिक संख्या में मंदिरों का निर्माण करवाया की कालक्रम से गुजरात में वही शैली रुढ़ हो गई। बाद में जिन लोगों ने भी गुजरात में जिन मंदिरों का निर्माण करवाया अधिकांशतः उसी शैली में करवाया। वर्त्तमान राजस्थान का कुछ हिस्सा भी उस समय गुजरात राज्य में ही था। उन अंचलों में भी वही शैली प्रसिद्द रही एवं वस्तुपाल तेजपाल जैसे युगपुरुषों ने आबू एवं अन्य स्थानों पर उसी शैली में मंदिरों का निर्माण करवाया। परन्तु इसका अर्थ ये नही था की उन दिनों सभी स्थानों पर वैसे ही मन्दिर बनते थे उस युग में भी मालव प्रदेश के अन्दर अन्य शैली में जिन मन्दिर बनते थे। मांडव गढ़ का प्रसिद्द मन्दिर, जिसे बाद में मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तोड़ कर मस्जिद में बदल दिया, इस बात का श्रेष्ठ उदहारण है।

राजस्थान के अन्य हिस्सों के साथ दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल आदि में भिन्न प्रकार के मन्दिर बनते थे। सम्मेत शिखर, पावापुरी, क्षत्रियाकुंद अदि तीर्थ स्थानों के प्राचीन मन्दिर, कलकत्ता का विश्व प्रसिद्द पारसनाथ मन्दिर व अन्य प्राचीन मन्दिर, दिल्ली चांदनी चौक के मन्दिर, लखनऊ के मन्दिर, अजीमगंज जियागंज के मन्दिर माहिमापुर का कसौटी मन्दिर इस श्रेणी के उत्कृष्ट उदहारण हैराजस्थान के बीकानेर एवं जयपुर के अनेकों मन्दिर भी इसी श्रेणी में आते है।

इन दिनों  राष्ट्रकूट प्रतिहार शैली (गुजरात में प्रसिद्द) से भिन्न मंदिरों को नकारे जाने का प्रचलन हुआ है ऐसा कह कर भ्रान्ति फैलाई जा रही है की ये मन्दिर विधि पूर्वक बने हुए नही है तथा ये जैन वास्तु के अनुरूप नही हैपरन्तु यह बात पुरी तरह से ग़लत है वस्तुतः जैन मंदिरों का कोई एक ही प्रकार का स्वरुप नही होता था न होता है।
आज मन्दिर निर्माण में सोमपुराओं का वर्चस्व है। ये सोमपुरा जैन नही हैये लोग सोमनाथ मन्दिर (शिव मन्दिर) के शिल्प के अनुसार जिन मंदिरों का निर्माण करवाते हैआश्चर्य का विषय है की पूज्य आचार्य भगवन्तो एवं साधू साध्वी गण भी इन्हिके द्वारा बनाये गए मंदिरों को सही ठहराने लगे हैं।

दुःख तो तब होता है जब विधि से बनवाने के नाम पर अनेकों प्राचीन मंदिरों को मिटटी में मिला दिया जाता है एवं उसके स्थान पर  राष्ट्रकूट प्रतिहार शैली के मन्दिर बनवा दिए जाते हैं। कई बार यह काम तथाकथित आचार्यों के अहम् को संतुष्ट करने के लिए भी किया जाता है। प्राचीन मंदिरों को अनावश्यक रूप से तुड़वा कर उसके स्थान पर नया मन्दिर बनवा कर उस में अपने नाम का लेख लिखवा कर क्या ये लोग धर्म का काम कर रहे हैं


बिगत कुछ दसकों से जैन धर्म में गुजरतीओं का वर्चस्व बढ़ा है। अधिकांश आचार्य, साधू, साध्वी भी वहीँ से हैं। अतः गुजरती शैली को ही वे ठीक मानते हैंइस कारण भी अन्य शैलियों  के मंदिरों को तोडा जा रहा है

इस प्रकरण में गच्छ का राग-द्वेष भी सम्मिलित हो गया है। गुजरात में अधिकांश आचार्य aadi  तपागच्छ से हैं जबकि गुजरात के बाहर अन्य स्थानों पर खरतर गच्छ एवं अन्य गच्छों का भी वर्चस्व रहा है। उन स्थानों पर निर्मित अधिकांश मन्दिर खरतर गच्छ, पायचन्न गच्छ, विजय गच्छ आदि के आचार्यो द्वारा प्रतिष्ठित है। ऐसी स्थिति में उन्हें ग़लत बता कर नए मन्दिर का निर्माण करवाया जाता है। इन नव निर्मित मंदिरों की प्रतिष्ठा प्रायः तपागच्छ के आचार्यों के हाथों से ही होती है। इस तरह पूर्व के अन्य गच्छों के ऐतिहासिक साक्ष्यों को मिटा दिया जाता है।

अब तो ये प्रचालन इतना अदिक बढ़ गया है की खरतर गच्छ के अनेक साधू साध्वी भी उनका अनुसरण कर अपने ही पूर्वज आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित मंदिरों को अविधि से निर्मित कह कर उन्हें तुड़वा रहे हैं। कुच्छा के मुंद्रा में इसी प्रकार एक प्राचीन मंदिर को तुड़वा कर खरतर गच्छ के एक साधू द्वारा नव निर्माण करवाया जा रहा है.  यह कहा जा रहा है की भूकंप के कारन हिल जाने से मंदिर दोषपूर्ण हो गया है.

तथाकथित विधि कारक एवं सोमपुरा भी इनका साथ देते हैं। श्रावक गण भी अपनी अज्ञानता के कारण अथवा साधू साध्विओं के प्रति भक्ति के कारण इस में सम्मिलित हो जाते हैं।

अज हमें इस विषय में सावधान होना चाहिए एवं विवेक पूर्वक इस विषय पर विचार करना चाहिए। अन्यथा हम सिर्फ़ करोड़ों रुपये का दुरूपयोग करेंगे वल्कि अपनी प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने के पाप के भागी भी होंगे


जैन धर्म की मूल भावना भाग 1
जैन धर्म की मूल भावना भाग 2
जैन धर्म की मूल भावना भाग 3
जिन मंदिर एवं वास्तु
प्रस्तुति:
ज्योति कोठारी

allvoices