ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में अनेक ऋषभ, वृषभ, अर्हत, अर्हन्त आदि वाचक ऋचाएं हैं. इन ऋचाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है की प्रथम तीर्थंकर एवं इस अवसर्पिणी काल में आर्हत निर्ग्रन्थ (जैन) धर्म के प्रथम उपदेशक ऋषभदेव ऋग्वेद काल में भी पूजनीय थे. परन्तु अनेक अर्वाचीन विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं और ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में प्राप्त ऋषभ, वृषभ, अर्हत, अर्हन्त आदि शब्दों को वैदिक देवों के विशेषण के रूप में व्याख्या करते हैं. इस प्रकार की व्याख्या समीचीन नहीं लगती.
इस हेतु यहाँ पर ऋग्वेद की एक ऋचा (मंत्र/सूक्त) का विशुद्ध व्याकरणिक दृष्टि से अर्थ किया गया है. इसके साथ ही वर्त्तमान में किये जानेवाले अर्थ का भी सन्दर्भ प्रस्तुत किया गया है. इस सम्पूर्ण व्याख्या से यह सिद्ध हो जायेगा की ऋग्वेद की ये ऋचाएं तीर्थंकर ऋषभदेव एवं अर्हन्त की और ही इंगित करती है न की किसी वैदिक देव की और.
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अरिहंत अर्हन्त तीर्थंकर |
अर्हन्तो ये युदानवो नरो असामिशंवसः।
प्र वर्क्ष बजिवेस्योन दियो अर्था मरुद्मयेः।। (ऋग्वेद 5.52.5)
इस सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरण, अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या), एवं विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है:
शब्दार्थ:
- अर्हन्तः – योग्य, पूजनीय, सिद्ध पुरुष।
- ये – जो (संबंधसूचक सर्वनाम)।
- युदानवः – योद्धा, युद्ध-कुशल व्यक्ति।
- नरः – मनुष्य।
- असामि-शंवसः – असामि (असम = बिना) + शंवसः (शुभ वासना रखने वाले) = जो बिना कल्याणकारी इच्छाओं के हैं, अथवा जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं।
- प्र – आगे, श्रेष्ठ रूप से।
- वर्क्ष – वृक्ष, प्रतीकात्मक रूप में आधार या शक्ति का स्रोत। वेदों में कुछ स्थानों पर वृक्ष के लिए वर्क्ष का प्रयोग हुआ है.
- बजिवेस्यः – बज (बल) + वेस्य (वेश, स्थान) = बल का निवास, अर्थात् शक्ति के स्रोत।
- उन – (संस्कृत व्याकरण में स्पष्ट नहीं, संभवतः उन्नत या विशेष अर्थ में प्रयुक्त)।
- दियः – बुद्धि, प्रकाश, ज्ञान।
- अर्थाः – उद्देश्य, ध्येय।
- मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।
अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या):
"ये नरः युदानवः (योद्धा) अर्हन्तः (योग्य, पूजनीय) असामिशंवसः (जो बिना किसी स्वार्थ के हैं), ते प्र (श्रेष्ठ रूप से) वृक्ष बजिवेस्यः (शक्ति के स्रोत) उन (उन्नत) दियः (बुद्धि) अर्थाः (उद्देश्य) मरुद्मयेः (मरुद्गण के समान व्यापक) भवति।।"
विस्तृत अर्थ:
जो मनुष्य योद्धा होते हैं, वे यदि अर्हन्त अर्थात् पूजनीय (गुणों से युक्त) हों, और बिना किसी स्वार्थ (शुभाशय की व्यक्तिगत अपेक्षा से रहित) के कार्य करें, तो वे श्रेष्ठ रूप से शक्ति के स्रोत (मूल आधार) बनते हैं। उनकी बुद्धि (प्रज्ञा) उन्नत और दिव्य हो जाती है, तथा उनके उद्देश्य वायुदेव (मरुत्) के समान व्यापक और गतिशील होते हैं, अर्थात् वे स्वतः ही समस्त लोक के कल्याण के लिए सक्रिय रहते हैं।
विशेष:
- मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं। इसे जैन दृष्टि से देखें तो तीर्थंकरों को वायु के सामान अप्रतिवद्ध बिहारी कहा गया है. यह अर्थ भी तीर्थंकर का ही एक विशेषण है.
भावार्थ:
इस ऋचात्मक वाक्य का संकेत यह है कि सच्चे योद्धा वे हैं जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। जब मनुष्य अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, सच्ची अर्हत्ता (योग्यता) और धर्म का पालन करता है, तो वह एक प्रबुद्ध (ज्ञानयुक्त) शक्तिस्वरूप बन जाता है और उसका उद्देश्य संपूर्ण लोक-कल्याण के लिए हो जाता है। ऐसे लोग प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु) के समान स्वतंत्र, तेजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।
विशेष टिप्पणी:
यह ऋचात्मक वाक्य वैदिक या काव्यात्मक शैलियों से प्रभावित प्रतीत होता है। इसमें नायक (श्रेष्ठ पुरुष) के गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा योद्धा वही है जो न केवल बाहरी युद्ध में बल्कि आंतरिक रूप से भी शुद्ध, निःस्वार्थ और ज्ञानयुक्त हो।
इस सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरण, अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या), एवं विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है:
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सायण भाष्य अनुसार इस श्लोक में वर्णित पुरुष का कलात्मक चित्र |
शब्दार्थ:
- अर्हन्तः – योग्य, पूजनीय, सिद्ध पुरुष।
- ये – जो (संबंधसूचक सर्वनाम)।
- युदानवः – योद्धा, युद्ध-कुशल व्यक्ति।
- नरः – मनुष्य।
- असामि-शंवसः – असामि (असम = बिना) + शंवसः (शुभ वासना रखने वाले) = जो बिना कल्याणकारी इच्छाओं के हैं, अथवा जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं।
- प्र – आगे, श्रेष्ठ रूप से।
- वृक्ष – वृक्ष, प्रतीकात्मक रूप में आधार या शक्ति का स्रोत।
- बजिवेस्यः – बज (बल) + वेस्य (वेश, स्थान) = बल का निवास, अर्थात् शक्ति के स्रोत।
- उन – (संस्कृत व्याकरण में स्पष्ट नहीं, संभवतः उन्नत या विशेष अर्थ में प्रयुक्त)।
- दियः – बुद्धि, प्रकाश, ज्ञान।
- अर्थाः – उद्देश्य, ध्येय।
- मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।
अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या):
"ये नरः युदानवः (योद्धा) अर्हन्तः (योग्य, पूजनीय) असामिशंवसः (जो बिना किसी स्वार्थ के हैं), ते प्र (श्रेष्ठ रूप से) वृक्ष बजिवेस्यः (शक्ति के स्रोत) उन (उन्नत) दियः (बुद्धि) अर्थाः (उद्देश्य) मरुद्मयेः (मरुद्गण के समान व्यापक) भवति।।"
विस्तृत अर्थ:
जो मनुष्य योद्धा होते हैं, वे यदि अर्हन्त अर्थात् पूजनीय (गुणों से युक्त) हों, और बिना किसी स्वार्थ (शुभाशय की व्यक्तिगत अपेक्षा से रहित) के कार्य करें, तो वे श्रेष्ठ रूप से शक्ति के स्रोत (मूल आधार) बनते हैं। उनकी बुद्धि (प्रज्ञा) उन्नत और दिव्य हो जाती है, तथा उनके उद्देश्य वायुदेव (मरुत्) के समान व्यापक और गतिशील होते हैं, अर्थात् वे स्वतः ही समस्त लोक के कल्याण के लिए सक्रिय रहते हैं।
भावार्थ:
इस ऋचात्मक वाक्य का संकेत यह है कि सच्चे योद्धा वे हैं जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। जब मनुष्य अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, सच्ची अर्हत्ता (योग्यता) और धर्म का पालन करता है, तो वह एक प्रबुद्ध (ज्ञानयुक्त) शक्तिस्वरूप बन जाता है और उसका उद्देश्य संपूर्ण लोक-कल्याण के लिए हो जाता है। ऐसे लोग प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु) के समान स्वतंत्र, तेजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।
विशेष टिप्पणी:
यह ऋचात्मक वाक्य वैदिक या काव्यात्मक शैलियों से प्रभावित प्रतीत होता है। इसमें नायक (श्रेष्ठ पुरुष) के गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा योद्धा वही है जो न केवल बाहरी युद्ध में बल्कि आंतरिक रूप से भी शुद्ध, निःस्वार्थ और ज्ञानयुक्त हो।
सायण की व्याख्या:
"जो पूज्य, दानशील, संपूर्ण बल से युक्त तथा तेजस्वी ज्योतिर्मय नेता हैं, उन पूज्य वीर मरुतों के लिए यज्ञ करो और उनकी पूजा करो।"
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है की सायण भाष्य वेदों के बहुत बाद की रचना है मात्र ६-७ सौ वर्ष पहले का. सायण भाष्य की व्याख्या को ही अंतिम नहीं माना जा सकता। इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए सायण को समझना आवश्यक है.
भाषा: संस्कृत।
काल: १४ वीं शताब्दी
विषयवस्तु: चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) पर एक विस्तृत भाष्य।
दृष्टिकोण: मुख्यतः याज्ञिक (कर्मकांड प्रधान), जिसमें वैदिक ऋचाओं की व्याख्या यज्ञों (वैदिक अनुष्ठानों) के संदर्भ में की गई है।
प्रभाव: यह पूर्ववर्ती विद्वानों भट्ट भास्कर, उवट और स्कंदस्वामिन की व्याख्याओं पर आधारित है।
महत्व: यह वेदों पर लिखे गए सबसे विस्तृत और व्यापक रूप से संदर्भित भाष्यों में से एक है।
सायण का कार्य वेदों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बना हुआ है, विशेष रूप से कर्मकांड और पारंपरिक ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से। हालांकि, विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद है कि क्या उनकी व्याख्या वेदों के दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्षों को पूरी तरह से समाहित करती है या नहीं।
जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान डॉ। सागरमल जैन ने इस ऋचा की जैन दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार से व्याख्या की है.
जैन दृष्टि से व्याख्या:
"जो दानवीर, तेजस्वी, संपूर्ण वीर्य से युक्त, नरश्रेष्ठ अर्हन्त हैं, वे याज्ञिकों के लिए वंदनीय और मुनियों के लिए पूजनीय हैं।"