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बुधवार, 12 मार्च 2025

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण


भारत की अनादिकालीन सनातन संस्कृति में दो धाराएं सदा से सतत प्रवाहमान है जिन्हे वार्हत और आर्हत अथवा वैदिक व श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता है. जब दो धाराएं सामानांतर बहती है तो उनमे एक जैसे अनेक तत्व होते हैं तो अंतर्विरोध भी. अनेक स्थानों पर दोनों एक जैसे दिखते हैं, होते हैं और कई स्थानों पर मतभिन्नता भी होती है. यही इस सामानांतर धाराओं का वैशिष्ट्य भी है और सौंदर्य भी. और यही भारतवर्ष का, इस आर्यावर्त की पावन भूमि का शाश्वत उद्घोष है और यही इसे वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करनेवाला विश्वगुरु भी बनता है. 

पाश्चात्य विद्वान भारत की इस खूबी को पहचान ही नहीं पाए अथवा जानबूझ कर इसे अनदेखा किया. इन दोनों संस्कृतियों की विभाजक रेखा अत्यंत सूक्ष्म है और कब यह मिल जाती है और कब अलग हो जाती, यह पहचानना अत्यंत कठिन है. ये बात इन संस्कृतियों और इतिहास की गहराई में गोता लगानेवाले मर्मज्ञों को ही ज्ञात होता है. 

अर्हत, ऋषभ, भरत, अरिष्टनेमि, वातरसन जैसे श्रमण (आर्हत या जैन) संस्कृति में बहुप्रचलित शब्द वेदों, पुराणों, श्रीमद्भागवद आदि वैदिक ग्रंथों में बहुलता से मिलता है. इन शब्दों के अर्थ में मतभिन्नता भी है. इस लेखमाला का उद्देश्य समन्वित दृष्टिकोण से ऋग्वेद, यजुर्वेद, पुराण, श्रीमद्भागवद आदि ग्रंथों में पाए जानेवाले इन शब्दों के अर्थों का तार्किक विश्लेषण कर समन्वय के तत्व स्थापित करना है. 

वेद-विज्ञान लेखमाला के लेखों की सूचि 


1. यह लेख 'ऋषभाष्टकम्' स्तोत्र के मूल श्लोकों एवं उसका हिंदी अर्थ प्रदान करता है, जिससे पाठक भगवान ऋषभदेव की महिमा और गुणों को समझ सकते हैं। इस स्तोत्र में ऋग्वेद के आधार पर तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति की गई है. 

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post_28.html

2. इस लेख में ऋग्वेद की एक विशेष ऋचा का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'अर्हंत' शब्द का उल्लेख है, जो जैन धर्म में तीर्थंकरों के लिए प्रयुक्त होता है।

ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_81.html

3. यह लेख ऋग्वेद की एक ऋचा का शब्दार्थ, अन्वयार्थ और व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक उसकी गहराई से समझ प्राप्त कर सकें।

विभिन्न दृष्टिकोणों से ऋग्वेद की ऋचा का विश्लेषण – शब्दार्थ, अन्वयार्थ एवं विस्तृत व्याकरण सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_13.html

4. इस लेख में ऋग्वेद की ऋचा 70.74.22 का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'ऋत', 'वृषभ' और 'धर्मध्वनि' जैसे महत्वपूर्ण वैदिक अवधारणाओं की व्याख्या की गई है।

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/707422.html

5. यह लेख आचार्य कोत्स और आचार्य यास्क के वेदों पर विचारों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिससे वेदों की व्याख्या की प्राचीन परंपराओं की समझ मिलती है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_12.html

6. इस लेख में गणधरवाद में वेदों की व्याख्या की विभिन्न परंपराओं का विश्लेषण किया गया है, जो गणधरवाद ग्रन्थ में वेदों के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_62.html

7. यह लेख ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्रों का व्याकरणिक, भाषाशास्त्रीय और दार्शनिक विश्लेषण करता है। इसमें प्रचलित सामान्य अर्थ और समीचीन दृष्टि से व्याख्या प्रस्तुत की गई है, जो आत्मबल, संयम और विकारों के नाश को दर्शाती है।

ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्र: व्याकरण, अर्थ एवं जैन दृष्टिकोण

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_7.html

8. वातरशनाः शब्द ऋग्वेद में नग्न मुनियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है "जो वायु को ही वस्त्र मानते हैं।" यह दिगंबर जैन मुनियों से मेल खाता है, जो पूर्ण संयम और आत्मबल के प्रतीक हैं। यह लेख वैदिक और जैन संदर्भ में इसकी व्याख्या करता है।

ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 136 के 7 मंत्रों का जैन दृष्टिकोण से विश्लेषण

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/10-136-7.html

9. स्वस्ति मंत्र केवल लौकिक मंगलकामना नहीं, बल्कि आत्मोत्थान और मोक्षमार्ग की प्रेरणा है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि, अहिंसा और वैराग्य के प्रतीक हैं, जिनकी वाणी अज्ञान व राग-द्वेष को समाप्त करती है। यह लेख स्वस्तिवाचन के आध्यात्मिक रहस्य और आत्मकल्याण की गूढ़ प्रेरणा को उजागर करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_14.html

10. ऋग्वेद 7.18.22 की यह ऋचा केवल दशराज्ञ युद्ध का विवरण नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रियों के बीच संघर्ष का आध्यात्मिक संकेत भी देती है। "अर्हन्नग्ने" केवल लौकिक अग्नि नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि की ज्वाला है। "पर्येमि रेभन्" में दिव्यध्वनि का प्रसार छुपा है, जो मोक्षमार्ग की दिशा में प्रेरित करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_16.html

11. ​यजुर्वेद (18.27) में उत्तम बैल, गाय और अन्य पशुओं की प्रार्थना की गई है, जो वैदिक समाज की आर्थिक और आध्यात्मिक समृद्धि के प्रतीक थे। 'ऋषभ' शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से संबंधित है। उन्होंने कृषि, पशुपालन और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी।
यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ                                                                            https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/1827.html

12. भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को असि (शस्त्रविद्या), मसि (लेखन कला), कृषि (खेती और पशुपालन) और शिल्प (कला एवं विज्ञान) की शिक्षा दी। उन्होंने पुरुषों को 72 और स्त्रियों को 64 कलाएँ सिखाईं, जिससे समाज का बहुआयामी विकास हुआ। इससे मा नव सभ्यता संगठित हुई और समाज निर्माण के आधारस्तंभ स्थापित हुए।

13. यहाँ प्रस्तुत यजुर्वेदीय मंत्रों में 'ऋषभ' शब्द का उल्लेख करते हुए भगवान ऋषभदेव की वैदिक संस्कृति में प्रतिष्ठा को दर्शाया गया है। यजुर्वेद के मन्त्रों का यह संकलन जैन और वैदिक परंपराओं के समन्वय का महत्वपूर्ण प्रयास है, जो ऋग्वेद और यजुर्वेद के ऋषभवाची मंत्रों के माध्यम से इस संबंध को उजागर करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_18.html

14. ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम केवल एक ऐतिहासिक युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के संघर्ष का अद्भुत प्रतीक है। यह लेख सुदास की विजयगाथा के माध्यम से आत्मबल, सत्य और धर्म की स्थापना का ऋग्वेदीय संदेश सामने लाता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_20.html

15. 'भरत' शब्द वैदिक, पौराणिक और जैन साहित्य में भिन्न अर्थों में प्रतिष्ठित है। ऋग्वेद भाष्य में 'भरत' वीर क्षत्रिय गण है, वहीं पुराणों व जैन परंपरा में वह ऋषभदेव पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं। यह लेख इन दोनों दृष्टियों का ऐतिहासिक और दार्शनिक विश्लेषण करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_11.html

16. क्या आप जानते हैं भारत का नाम कैसे पड़ा? यह लेख वेद, पुराण और जैन आगमों से प्रमाणित करता है कि 'भारतवर्ष' का नामकरण दुष्यंत पुत्र भरत से नहीं, बल्कि ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत से हुआ। जानिए इस गौरवशाली इतिहास की सच्चाई।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_22.html

17. यह आलेख वैदिक परंपरा में अग्नि पुराण की महत्ता को रेखांकित करता है। ऋक् और यजुः संपदा से समृद्ध यह पुराण धर्म, नीति, आयुर्वेद, वास्तु, धनुर्वेद, ज्योतिष और तंत्र सहित विविध विषयों का गहन संगम है, जो वैदिक मूल्यों का व्यवहारिक रूप में अनुपम प्रस्तुतीकरण करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_2.html

18. पुराण भारतीय संस्कृति और धर्म का जीवंत दर्पण हैं। जानिए पुराण शब्द का अर्थ, शास्त्रीय लक्षण, रचनाकाल, 18 महापुराण और उपपुराणों की विस्तृत सूची, प्रमुख विषयवस्तु और ऐतिहासिक महत्व। यह लेख वेदों के पूरक इन ग्रंथों का सार प्रस्तुत करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_23.html

Thanks, 

भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)



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सोमवार, 10 मार्च 2025

ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ

 

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में अनेक ऋषभ, वृषभ, अर्हत, अर्हन्त आदि वाचक ऋचाएं हैं. इन ऋचाओं के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है की प्रथम तीर्थंकर एवं इस अवसर्पिणी काल में आर्हत निर्ग्रन्थ (जैन) धर्म के प्रथम उपदेशक ऋषभदेव ऋग्वेद काल में भी पूजनीय थे. परन्तु अनेक अर्वाचीन विद्वान इस बात से सहमत नहीं हैं और ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में प्राप्त ऋषभ, वृषभ, अर्हत, अर्हन्त आदि शब्दों को वैदिक देवों के विशेषण के रूप में व्याख्या करते हैं. इस प्रकार की व्याख्या समीचीन नहीं लगती. 

इस हेतु यहाँ पर ऋग्वेद की एक ऋचा (मंत्र/सूक्त) का विशुद्ध व्याकरणिक दृष्टि से अर्थ किया गया है. इसके साथ ही वर्त्तमान में किये जानेवाले अर्थ का भी सन्दर्भ प्रस्तुत किया गया है. इस सम्पूर्ण व्याख्या से यह सिद्ध हो जायेगा की ऋग्वेद की ये ऋचाएं तीर्थंकर ऋषभदेव एवं अर्हन्त की और ही इंगित करती है न की किसी वैदिक देव की और. 

अरिहंत अर्हन्त तीर्थंकर 

अर्हन्तो ये युदानवो नरो असामिशंवसः।

प्र वर्क्ष बजिवेस्योन दियो अर्था मरुद्मयेः।। (ऋग्वेद 5.52.5)

इस सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरण, अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या), एवं विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है: 


शब्दार्थ: 

  1. अर्हन्तः – योग्य, पूजनीय, सिद्ध पुरुष।
  2. ये – जो (संबंधसूचक सर्वनाम)।
  3. युदानवः – योद्धा, युद्ध-कुशल व्यक्ति।
  4. नरः – मनुष्य।
  5. असामि-शंवसःअसामि (असम = बिना) + शंवसः (शुभ वासना रखने वाले) = जो बिना कल्याणकारी इच्छाओं के हैं, अथवा जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं।
  6. प्र – आगे, श्रेष्ठ रूप से।
  7. वर्क्ष – वृक्ष, प्रतीकात्मक रूप में आधार या शक्ति का स्रोत। वेदों में कुछ स्थानों पर वृक्ष के लिए वर्क्ष का प्रयोग हुआ है. 
  8. बजिवेस्यः – बज (बल) + वेस्य (वेश, स्थान) = बल का निवास, अर्थात् शक्ति के स्रोत।
  9. उन – (संस्कृत व्याकरण में स्पष्ट नहीं, संभवतः उन्नत या विशेष अर्थ में प्रयुक्त)।
  10. दियः – बुद्धि, प्रकाश, ज्ञान।
  11. अर्थाः – उद्देश्य, ध्येय।
  12. मरुद्मयेःमरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।

अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या):

"ये नरः युदानवः (योद्धा) अर्हन्तः (योग्य, पूजनीय) असामिशंवसः (जो बिना किसी स्वार्थ के हैं), ते प्र (श्रेष्ठ रूप से) वृक्ष बजिवेस्यः (शक्ति के स्रोत) उन (उन्नत) दियः (बुद्धि) अर्थाः (उद्देश्य) मरुद्मयेः (मरुद्गण के समान व्यापक) भवति।।"


विस्तृत अर्थ:

जो मनुष्य योद्धा होते हैं, वे यदि अर्हन्त अर्थात् पूजनीय (गुणों से युक्त) हों, और बिना किसी स्वार्थ (शुभाशय की व्यक्तिगत अपेक्षा से रहित) के कार्य करें, तो वे श्रेष्ठ रूप से शक्ति के स्रोत (मूल आधार) बनते हैं। उनकी बुद्धि (प्रज्ञा) उन्नत और दिव्य हो जाती है, तथा उनके उद्देश्य वायुदेव (मरुत्) के समान व्यापक और गतिशील होते हैं, अर्थात् वे स्वतः ही समस्त लोक के कल्याण के लिए सक्रिय रहते हैं।

विशेष: 

अरिहंत एक गुणवाची शब्द है जिसका अर्थ होता है शत्रुओं को नष्ट करनेवाला. जैन दर्शन में अरिहंत शब्द का व्यापक प्रयाग है जहाँ उसका अर्थ "आतंरिक शत्रुओं को नष्ट करनेवाले" रूढ़ है. इसी प्रकार अर्हन्त को अरिहंत का पर्यायवाची भी माना गया है. यहाँ पर इन दोनों ही अर्थों का सामंजस्य बैठता है.  इसी प्रकार 
  1. मरुद्मयेः – मरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।  इसे जैन दृष्टि से देखें तो तीर्थंकरों को वायु के सामान अप्रतिवद्ध बिहारी कहा गया है. यह अर्थ भी तीर्थंकर का ही एक विशेषण है. 

भावार्थ:

इस ऋचात्मक वाक्य का संकेत यह है कि सच्चे योद्धा वे हैं जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। जब मनुष्य अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, सच्ची अर्हत्ता (योग्यता) और धर्म का पालन करता है, तो वह एक प्रबुद्ध (ज्ञानयुक्त) शक्तिस्वरूप बन जाता है और उसका उद्देश्य संपूर्ण लोक-कल्याण के लिए हो जाता है। ऐसे लोग प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु) के समान स्वतंत्र, तेजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।


विशेष टिप्पणी:

यह ऋचात्मक वाक्य वैदिक या काव्यात्मक शैलियों से प्रभावित प्रतीत होता है। इसमें नायक (श्रेष्ठ पुरुष) के गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा योद्धा वही है जो न केवल बाहरी युद्ध में बल्कि आंतरिक रूप से भी शुद्ध, निःस्वार्थ और ज्ञानयुक्त हो।


इस सूत्र के प्रत्येक शब्द का व्याकरण, अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या), एवं विस्तृत अर्थ निम्न प्रकार से दिया गया है:


सायण भाष्य अनुसार इस श्लोक में वर्णित पुरुष का कलात्मक चित्र 

शब्दार्थ:

  1. अर्हन्तः – योग्य, पूजनीय, सिद्ध पुरुष।
  2. ये – जो (संबंधसूचक सर्वनाम)।
  3. युदानवः – योद्धा, युद्ध-कुशल व्यक्ति।
  4. नरः – मनुष्य।
  5. असामि-शंवसःअसामि (असम = बिना) + शंवसः (शुभ वासना रखने वाले) = जो बिना कल्याणकारी इच्छाओं के हैं, अथवा जिनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं।
  6. प्र – आगे, श्रेष्ठ रूप से।
  7. वृक्ष – वृक्ष, प्रतीकात्मक रूप में आधार या शक्ति का स्रोत।
  8. बजिवेस्यः – बज (बल) + वेस्य (वेश, स्थान) = बल का निवास, अर्थात् शक्ति के स्रोत।
  9. उन – (संस्कृत व्याकरण में स्पष्ट नहीं, संभवतः उन्नत या विशेष अर्थ में प्रयुक्त)।
  10. दियः – बुद्धि, प्रकाश, ज्ञान।
  11. अर्थाः – उद्देश्य, ध्येय।
  12. मरुद्मयेःमरुत् (वायु, देवता) + मयेः (व्याप्त) = जो मरुद्गण (वायुदेवता) के समान व्यापक या स्वच्छंद गति वाले हैं।

अन्वय (क्रमबद्ध व्याख्या):

"ये नरः युदानवः (योद्धा) अर्हन्तः (योग्य, पूजनीय) असामिशंवसः (जो बिना किसी स्वार्थ के हैं), ते प्र (श्रेष्ठ रूप से) वृक्ष बजिवेस्यः (शक्ति के स्रोत) उन (उन्नत) दियः (बुद्धि) अर्थाः (उद्देश्य) मरुद्मयेः (मरुद्गण के समान व्यापक) भवति।।"


विस्तृत अर्थ:

जो मनुष्य योद्धा होते हैं, वे यदि अर्हन्त अर्थात् पूजनीय (गुणों से युक्त) हों, और बिना किसी स्वार्थ (शुभाशय की व्यक्तिगत अपेक्षा से रहित) के कार्य करें, तो वे श्रेष्ठ रूप से शक्ति के स्रोत (मूल आधार) बनते हैं। उनकी बुद्धि (प्रज्ञा) उन्नत और दिव्य हो जाती है, तथा उनके उद्देश्य वायुदेव (मरुत्) के समान व्यापक और गतिशील होते हैं, अर्थात् वे स्वतः ही समस्त लोक के कल्याण के लिए सक्रिय रहते हैं।


भावार्थ:

इस ऋचात्मक वाक्य का संकेत यह है कि सच्चे योद्धा वे हैं जो निःस्वार्थ भाव से कार्य करते हैं। जब मनुष्य अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, सच्ची अर्हत्ता (योग्यता) और धर्म का पालन करता है, तो वह एक प्रबुद्ध (ज्ञानयुक्त) शक्तिस्वरूप बन जाता है और उसका उद्देश्य संपूर्ण लोक-कल्याण के लिए हो जाता है। ऐसे लोग प्राकृतिक शक्तियों (जैसे वायु) के समान स्वतंत्र, तेजस्वी और प्रभावशाली होते हैं।


विशेष टिप्पणी:

यह ऋचात्मक वाक्य वैदिक या काव्यात्मक शैलियों से प्रभावित प्रतीत होता है। इसमें नायक (श्रेष्ठ पुरुष) के गुणों का वर्णन किया गया है। इसकी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा योद्धा वही है जो न केवल बाहरी युद्ध में बल्कि आंतरिक रूप से भी शुद्ध, निःस्वार्थ और ज्ञानयुक्त हो।


सायण की व्याख्या:
"जो पूज्य, दानशील, संपूर्ण बल से युक्त तथा तेजस्वी ज्योतिर्मय नेता हैं, उन पूज्य वीर मरुतों के लिए यज्ञ करो और उनकी पूजा करो।"

यहाँ ध्यान देने योग्य बात है की सायण भाष्य वेदों के बहुत बाद की रचना है मात्र ६-७ सौ वर्ष पहले का.  सायण भाष्य की व्याख्या को ही अंतिम नहीं माना जा सकता।  इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए सायण को समझना आवश्यक है. 

भाषा: संस्कृत।

काल: १४ वीं शताब्दी 

विषयवस्तु: चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद) पर एक विस्तृत भाष्य।

दृष्टिकोण: मुख्यतः याज्ञिक (कर्मकांड प्रधान), जिसमें वैदिक ऋचाओं की व्याख्या यज्ञों (वैदिक अनुष्ठानों) के संदर्भ में की गई है।

प्रभाव: यह पूर्ववर्ती विद्वानों भट्ट भास्कर, उवट और स्कंदस्वामिन की व्याख्याओं पर आधारित है।

महत्व: यह वेदों पर लिखे गए सबसे विस्तृत और व्यापक रूप से संदर्भित भाष्यों में से एक है।

सायण का कार्य वेदों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बना हुआ है, विशेष रूप से कर्मकांड और पारंपरिक ब्राह्मणीय दृष्टिकोण से। हालांकि, विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद है कि क्या उनकी व्याख्या वेदों के दार्शनिक और आध्यात्मिक पक्षों को पूरी तरह से समाहित करती है या नहीं।

जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान डॉ।  सागरमल जैन ने इस ऋचा की जैन दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार से व्याख्या की है.

जैन दृष्टि से व्याख्या:
"जो दानवीर, तेजस्वी, संपूर्ण वीर्य से युक्त, नरश्रेष्ठ अर्हन्त हैं, वे याज्ञिकों के लिए वंदनीय और मुनियों के लिए पूजनीय हैं।"


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Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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