आज एक बार फिर से यह प्रश्न सामने आया की क्या हम जैन धर्म की मूल भावना को समझ पा रहे हैं? जयपुर के विचक्षण भवन में पूज्या साध्वी श्री सुलोचना श्री जी का चातुर्मास है। आज वहां पढाते हुए एक बात सामने आइ। अद्यात्मा योगी श्री आनंदघन जी के नवे स्तवन का स्वाध्याय चल रहा था, जिसमे तीर्थंकर परमात्मा के दर्शन पूजन आदि की चर्चा है। स्वाध्याय के दौरान साध्वी प्रीतिसुधा जी ने पूछा की अलग अलग गाँव व शहर के नम के हिसाब से तीर्थंकर मन्दिर की स्थापना होती है।
अनेक लोग ऐसा कहते हैं की यदि राशी के हिसाब से मुलनायक भगवन की प्रतिष्ठा नहीं हो तो वस्ति को नुकसान होता है। गाँव या शहर उजड़ तक जाते हैं। वो कह रहीं थी की बड़े लोग यहाँ तक की कई आचार्य भगवंत भी ऐसा कहते हैं।
मैंने पलट कर पूछा की क्या आनंदघन जी, देवचंद जी या यशोविजय जी जैसे महँ पुरुषों ने भी ऐसा कहा है? उत्तर में उन्होंने कहा की नहीं उनलोगों ने तो ऐसा नहीं कहा।
मैंने कहा तो फिर ये बातें कैसे आई? उनने कहा की क्या ज्योतिष शास्त्र सही नही है? मैंने फिर से कहा की क्या ज्योतिष शास्त्र अरिहंत परमात्मा से बढ़ कर है?
ये एक गंभीर प्रश्न है। अरिहंत परमात्मा जगत के सर्व श्रेष्ठ कल्याणकारी तत्त्व हैं। वे सिद्धचक्र अर्थात नवपद के भी केन्द्र में हैं। अनेक भवों की साधना से ही कोई व्यक्ति जगत के इस सर्व श्रेष्ठ पड़ को प्राप्त कर सकता है। अपने पूर्व भवों में भी अरिहंत परमात्मा जगत के सभी जीवों के कल्याण की कामना करते हैं। उसी के परिणाम स्वरुप तीर्थंकर के भावः में उनके जन्म, दीक्षा आदि कल्याणक कहलाते हैं। उन कल्याणकों के समय में नारकी जीवों तक को सुख पहुँचता है। अब प्रश्न यह उठता है की जिनके रोम रोम में जगत के सभी जीवों की कल्याण की कामना वासी है ऐसे तीर्थंकर का मन्दिर किसी भी स्थिति में अमंगलकारी कैसे हो सकता है? शाश्त्राकारों का कहना है की सभी तीर्थंकर एक जैसे होते हैं उनमे कोई भेद नहीं। फिर यदि किसी शहर के लिए यदि एक तीर्थंकर कल्याण करी हों तो दुसरे तीर्थंकर कैसे अमंगलकारी हो सकते हैं? क्या तीर्थंकर परमात्मा इतने क्रूर हैं की मात्र राशी के अनुसार विराजमान नही करने मात्र से शहर उजड़ जाए? नहीं ऐसा नहीं हो सकता। तीर्थंकर परमात्मा अपने सभी रूपों में, सभी अवस्थाओं में कल्याणकारी ही होते हैं। किसी भी स्थिति में वे अमंगलकारी या अकल्याणकारी नही हो सकते।
इस प्रकार अरिहंत परमात्मा के संवंध में कहना की अमुक स्थान पर अमुक तीर्थंकर की प्रतिमा राशी के अनुसार नहीं होने से वसति उजड़ गई क्या तीर्थंकर परमात्मा के प्रति अश्रद्धा का द्योतक नहीं है? क्या यह तीर्थंकर परमात्मा का अवर्ण वाद नहीं है? क्या हम तीर्थंकर परमात्मा, उनके गुन, उनकी शक्ति, उनकी कल्याण करने की क्षमता को समझ पाए हैं?
क्या आज के तथा कथित आचार्य गण व अन्य मुनि गण इस बात की और ध्यान देंगे? सुविहित गीतार्थ आचार्य भगवंतों से प्रार्थना है की जैन धर्म व समाज में फैली इस भ्रान्ति को दूर करने की कृपा करें।
साथ ही सुज्ञान श्रावकों से भी गुजारिश है की हर किसी की बातों में आ कर जिनेश्वर देव अरिहंत परमात्मा (तीर्थंकर भगवन) की आशातना कर घोर पाप के भागी न बनें। ध्यान रखने योग्य बात ये है की अरिहंत परमात्मा के वचनों के अनुसार नही चलना ही सभी पापों के मूल में है। उनकी आशातन से बढ़ कर और क्या बड़ा पाप हो सकता है?
मुझे विश्वाश है की मेरी इस बात पर ध्यान दे कर योग्य निर्णय किया जाएगा एवं हम जैन धर्म की मूल भावना के अनुसार चल सकेंगे।
जैन धर्म की मूल भावना भाग 1
जैन धर्म की मूल भावना भाग 2
जैन धर्म की मूल भावना भाग 3
जिन मंदिर एवं वास्तु
प्रस्तुति:
ज्योति कोठारी
*
Thanks,
Posted by
Jyoti Kothari
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is also ISO 9000 professional).
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Monday, September 21, 2009
Sunday, September 6, 2009
जैन धर्म की मूल भावना भाग १
जैन समाज में इन दिनों कुछ ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ रही है जो की जैन धर्म की मूल भावनाओं के विरुद्ध है। इन प्रवृत्तिओं के बढ़ने से जिन शाशन की हानि हो रही है। समय रहते पूज्य आचार्य भगवंतों, गीतार्थ मुनिओं, विद्वानों एवं संघ के वरिष्ठ लोगों को इन प्रवृत्तिओं पर अंकुश लगाने के लिए प्रयत्न करना होगा अन्यथा यह जैन शाशन, धर्म व समाज के लिए घातक हो जाएगा.
पूर्व में भी समर्थ आचार्यों ने इस प्रकार सुधर किया है। साधू साध्विओं में भी जब जब शिथिलाचार बढ़ा है तब तब उन आचार्यों व गीतार्थ मुनि भगवंतों ने क्रियोद्धार कर पुनः संघ को व्यवस्थित किया है। इस संवंध में सूरी पुरंदर हरिभद्र सूरी, नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी, दादा जिन दत्त सूरी, अकवर प्रतिवोधक दादा जिन चंद्र सूरी, उपाध्याय क्षमा कल्याण जी, आत्माराम जी महाराज अदि का नाम उल्लेखनीय है। इस समय फिर से किसी ऐसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है।
आज साधू साध्विओं में भी शिथिलाचार व जिन वाणी के विरुद्ध प्रवृत्ति करने का प्रचालन बढ़ता जा रहा है। सुविहित मार्ग में चलने वाले कम होते जा रहे हैं। तत्त्व रसिक श्रावक भी कम हैं और अधिकांश लोग मन मर्जी की प्रवृत्ति में लगे हैं। ऐसी स्थिति में शिथिलाचारी मुनिओं का बोलबाला होता जा रहा है और भोले लोग मात्र वेश देख कर उनका अनुकरण कर रहे हैं।
इस संवंध में विचार मंथन आज के युग की आवश्यकता है। इस लेख के माध्यम से मैं इस विषय पर संघ के सुज्ञ जनों का ध्यान इस और आकर्षित करना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है की आप लोग इस विषय पर विचार मंथन कर कुछ ठोस कदम उठाएंगे।
जैन धर्म की मूल भावना भाग 1
जैन धर्म की मूल भावना भाग 2
जैन धर्म की मूल भावना भाग 3
जिन मंदिर एवं वास्तुप्रस्तुति:
ज्योति कोठारी
पूर्व में भी समर्थ आचार्यों ने इस प्रकार सुधर किया है। साधू साध्विओं में भी जब जब शिथिलाचार बढ़ा है तब तब उन आचार्यों व गीतार्थ मुनि भगवंतों ने क्रियोद्धार कर पुनः संघ को व्यवस्थित किया है। इस संवंध में सूरी पुरंदर हरिभद्र सूरी, नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी, दादा जिन दत्त सूरी, अकवर प्रतिवोधक दादा जिन चंद्र सूरी, उपाध्याय क्षमा कल्याण जी, आत्माराम जी महाराज अदि का नाम उल्लेखनीय है। इस समय फिर से किसी ऐसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है।
आज साधू साध्विओं में भी शिथिलाचार व जिन वाणी के विरुद्ध प्रवृत्ति करने का प्रचालन बढ़ता जा रहा है। सुविहित मार्ग में चलने वाले कम होते जा रहे हैं। तत्त्व रसिक श्रावक भी कम हैं और अधिकांश लोग मन मर्जी की प्रवृत्ति में लगे हैं। ऐसी स्थिति में शिथिलाचारी मुनिओं का बोलबाला होता जा रहा है और भोले लोग मात्र वेश देख कर उनका अनुकरण कर रहे हैं।
इस संवंध में विचार मंथन आज के युग की आवश्यकता है। इस लेख के माध्यम से मैं इस विषय पर संघ के सुज्ञ जनों का ध्यान इस और आकर्षित करना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है की आप लोग इस विषय पर विचार मंथन कर कुछ ठोस कदम उठाएंगे।
जैन धर्म की मूल भावना भाग 1
जैन धर्म की मूल भावना भाग 2
जैन धर्म की मूल भावना भाग 3
जिन मंदिर एवं वास्तुप्रस्तुति:
ज्योति कोठारी
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