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गुरुवार, 17 जून 2010

जैन साधू साध्वियों के चातुर्मास की शास्त्रीय (आगमिक) विधि

                                                                                                                  लेखक: ज्योति कुमार कोठारी

चातुर्मास का समय नजदीक आ रहा है. विभिन्न स्थानों के जैन संघ पूज्य साधू साध्विओं के चातुर्मास की व्यवस्था में लगे हैं. लगभग सभी जैन साधू साध्विओं के चातुर्मास तय हो चुके हैं. इसमें जैन धर्मं के सभी समुदाय श्वेताम्बर, दिगंबर, मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी सम्मिलित हैं.

ऐसे समय में यह जानना बेहद जरुरी है की जैन साधू साध्विओं के चातुर्मास की शास्त्रीय (आगमिक) विधि क्या है? क्या जो कुछ परंपरागत रूप से हो रहा है वह शास्त्र सम्मत है? अथवा सब कुछ मनमाने तरीके से चल रहा है?

दिगंबर परंपरा एवं शास्त्रों के संवंध में मुझे ठीक से पता नहीं है परन्तु श्वेताम्बर समुदाय के सभी वर्गों के लिए शास्त्र आज्ञा  स्पष्ट है. जैन आगमों के अनुसार साधू साध्विओं का चातुर्मास पहले से तय नहीं हो सकता है. कल्पसूत्र के अनुसार साधू साध्वी गण अपना चातुर्मास संवत्सरी प्रतिक्रमण करने के बाद ही घोषित करते हैं.
पहले से चातुर्मास तय होने पर श्रावक गण उपाश्रय  या तत्सम्वंधित स्थानों पर मरम्मत, रंगाई, पुताई आदि जो भी काम करते हैं वो चातुर्मास के निमित्त होता है. ऐसे में उन सभी आरंभ समारंभ का दोष चातुर्मास करने वाले साधू साध्विओं को लगता है. ऐसी स्थिति में उनका प्रथम प्राणातिपात विरमण (अहिंसा) व्रत  खंडित होता है.

अतः शास्त्र आज्ञा स्पष्ट है की साधू साध्वी गण अपना चातुर्मास पहले से घोषित न करें.

जैन आगमों के अनुसार साधू साध्वी गण चातुर्मास काल में एक स्थान पर रहने के लिए श्रावक संघ से प्रार्थना करते हैं. श्रावक संघ अथवा कोई व्यग्तिगत रूप से साधू साध्विओं की प्रार्थना स्वीकार कर उन्हें रहने का स्थान उपलब्ध करवा दे तो साधू साध्वी वहां पर ठहर सकते हैं एवं अपना चातुर्मास व्यतीत कर सकते हैं. यदि गृहस्थ उन्हें स्थान देना स्वीकार न करे तो वे अन्यत्र विहार कर जाते हैं.

आज इस शास्त्र आज्ञा से विपरीत स्थिति प्रचलन में आ चुकी है.  आज श्रावक संघ साधू साध्विओं से चातुर्मास हेतु प्रार्थना करते हैं. प्रायः संघ के सैंकड़ों लोग एकत्रित हो कर बस , ट्रेन या हवाई जहाज से दूर दराज क्षेत्र में रहे हुए साधू साध्विओं से चातुर्मास की विनती करने जाते हैं. ऐसा देखने में आता है की साधू साध्वी गण भी बहुत बार ऐसी स्थिति को प्रोत्साहित करते हैं. प्रायः बहुत मन मनुहार एवं अनेको वार विनती करने पर ही साधू साध्वी गण चातुर्मास की स्वीकृति देते हैं. इस तरह से संघ का बहुत समय व धन का अपव्यय होता है, साथ ही आरम्भ समारंभ भी होता है.

विचारणीय बिंदु ये है की  जब शास्त्र का स्पष्ट निर्देश है की साधू साध्वी गण चातुर्मास में ठहरने के स्थान के लिए गृहस्थों से स्थान की याचना करे, तब उससे विपरीत क्यों श्रावक संघ उनसे प्रार्थना करने जाता है? साधू साध्वी गण भी क्यों निरंतर इस स्थिति को प्रोत्साहित करते हैं?

जैन आगमों के अध्ययन से ये बात स्पष्ट रूप से सामने आती है की साधू साध्विओं का चातुर्मास पहले से तय होना शिथिलाचार को बढाने में मुख्य हेतु है.

समस्त आचार्य एवं उपाध्याय भगवंतों एवं पूज्य साधू साध्विओं से निवेदन है की इस स्थिति के संवंध में पुनर्विचार करें एवं शास्त्र (आगम) आज्ञा के अनुसार व्यवस्था को पुनर्प्रतिष्ठित करें. श्रावक संघ भी जागरूक बन  कर इस पूरी प्रक्रिया पर पुनर्विचार करे. 


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गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

अजीमगंज श्री नेमी नाथ स्वामी स्तवन

जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समुदाय के खरतर गच्छ परम्परा में, श्री सुख सागर सूरी के समुदाय में पूज्य श्री हरी सागर सूरी  आचार्य बने. उन्हें अजीमगंज में महोत्सव पूर्वक आचार्य पद प्रदान किया गया. उस समय अजीमगंज श्री नेमी नाथ स्वामी के मंदिर में अस्टान्हिका  (अट्ठाई) महोत्सव का आयोजन किया गया. उस अवसर पर मंदिर की शोभा का वर्णन करते हुए श्री जगन्नाथ पटावरी ने एक स्तवन लिखा था. यह स्तवन स्तवनावली एवं प्रभु भजनावली में भी मुद्रित है. यह भजन एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है.
स्तवन


उत्सव की आई बहार,  बहार मेरे प्यारे, उत्सव की आई बहार. 
मंगलमय धन बंगाल देशे,  अजीमगंज उदार,  उदार मेरे प्यारे, उत्सव की आई बहार. १
नेमी प्रभु जिन मंदिर सुन्दर,  देव विमान आकार,  आकार मेरे प्यारे....  २
भाविक भक्त जन पूजा रचावे,  आठ अनेक प्रकार,  प्रकार मेरे प्यारे ..३.
भाव नन्दीश्वर तीरथ राजे, पावापुरी है श्रीकार, श्रीकर मेरे प्यारे ...४
चम्पापुरी वर तीरथ अष्टापद, भव जल से तारनहार, हार मेरे प्यारे... .5
सम्मेत शिखर समवशरण की, रचना है आनंद्कार, कार मेरे प्यारे..६.
पूज्य हरी सागर सूरी पदोत्सव, संघ रचावे जयकार,  कार मेरे प्यारे ...७
साधर्मी आवे देश देश के, दर्शन वंदन कार, कार मेरे प्यारे...८
स्वर्ग निवासी देव देवी गण, आने को उत्सुक अपार, अपार  मेरे प्यारे...९
गंगा नदी जल धारा ले आवे, पाप पखालन हार, हार मेरे प्यारे...१० 
जगन्नाथ प्रभु पुण्य कृपाते, घर घर मंगलाचार, चार मेरे प्यारे...११

अजीमगंज में पूजा
सत्रह भेदी पूजा

Thanks,
Jyoti Kothari

Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is also a ISO 9000 professional.

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रविवार, 6 सितंबर 2009

जैन धर्म की मूल भावना भाग १

जैन समाज में इन दिनों कुछ ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ रही है जो की जैन धर्म की मूल भावनाओं के विरुद्ध है। इन प्रवृत्तिओं के बढ़ने से जिन शाशन की हानि हो रही है। समय रहते पूज्य आचार्य भगवंतों, गीतार्थ मुनिओं, विद्वानों एवं संघ के वरिष्ठ लोगों को इन प्रवृत्तिओं पर अंकुश लगाने के लिए प्रयत्न करना होगा अन्यथा यह जैन शाशन, धर्म व समाज के लिए घातक हो जाएगा.

पूर्व में भी समर्थ आचार्यों ने इस प्रकार सुधर किया है। साधू साध्विओं में भी जब जब शिथिलाचार बढ़ा है तब तब उन आचार्यों व गीतार्थ मुनि भगवंतों ने क्रियोद्धार कर पुनः संघ को व्यवस्थित किया है। इस संवंध में सूरी पुरंदर हरिभद्र सूरी, नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी, दादा जिन दत्त सूरी, अकवर प्रतिवोधक दादा जिन चंद्र सूरी, उपाध्याय क्षमा कल्याण जी, आत्माराम जी महाराज अदि का नाम उल्लेखनीय है। इस समय फिर से किसी ऐसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है।

आज साधू साध्विओं में भी शिथिलाचार व जिन वाणी के विरुद्ध प्रवृत्ति करने का प्रचालन बढ़ता जा रहा है। सुविहित मार्ग में चलने वाले कम होते जा रहे हैं। तत्त्व रसिक श्रावक भी कम हैं और अधिकांश लोग मन मर्जी की प्रवृत्ति में लगे हैं। ऐसी स्थिति में शिथिलाचारी मुनिओं का बोलबाला होता जा रहा है और भोले लोग मात्र वेश देख कर उनका अनुकरण कर रहे हैं।

इस संवंध में विचार मंथन आज के युग की आवश्यकता है। इस लेख के माध्यम से मैं इस विषय पर संघ के सुज्ञ जनों का ध्यान इस और आकर्षित करना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है की आप लोग इस विषय पर विचार मंथन कर कुछ ठोस कदम उठाएंगे।
जैन धर्म की मूल भावना भाग 1
जैन धर्म की मूल भावना भाग 2
जैन धर्म की मूल भावना भाग 3
जिन मंदिर एवं वास्तुप्रस्तुति:
ज्योति कोठारी

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