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Wednesday, March 12, 2025

गणधरवाद मे वेदों की व्याख्या की विविध परंपराएँ


विशेषावश्यक भाष्य और गणधरवाद का महत्व

आवश्यक निर्युक्ति नामक प्राचीन ग्रन्थ के आधार पर उसकी विस्तृत व्याख्या के रूप में ७ वीं शताब्दी में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण द्वारा विशेषावश्यक भाष्य की रचना की गई. विशेषावश्यक भाष्य में "गणधरवाद" नामका एक विशिष्ट प्रकरण है. इस प्रकरण में भगवान् महावीर एवं उनके 11 गणधरों के बीच वार्तालाप को दर्शाया गया है.  

भगवान महावीर के ग्यारह गणधर: शंकाओं से शिष्यत्व तक

इन 11 महापंडित ब्राह्मणों को किसी न किसी गूढ़ दार्शनिक विषयों पर शंका थी. भगवान् महावीर त्रिकालदर्शी  सर्वज्ञ थे अतः उन्होंने उनकी शंकाओं को स्वतः ही जानकर उनका निराकरण कर दिया. गणधरवाद नामक ग्रन्थ में उन सभी 11 पंडितों के शंकाओं एवं भगवान् महावीर द्वारा किये गए समाधान का वाद-विवाद अर्थात तर्कशास्त्रीय शैली में विस्तृत निरूपण किया गया है. वार्तालाप/वाद-विवाद में अपनी शंकाओं का समाधान होने पर उन महा पंडितों ने भगवान् का शिष्यत्व अंगीकार किया और वे ही भगवान् के प्रधान शिष्य अर्थात गणधर बने.

इंद्रभूति गौतम और आत्मा का प्रश्न

इनमे प्रथम थे इंद्रभूति गौतम (जिन्हे सामान्य रूप से जैनों में गौतम स्वामी के रूप में जाना जाता है) जिन्हे "आत्मा है या नहीं" इस विषय पर शंका थी. इंद्रभूति गौतम ने अनुमान, प्रत्यक्ष, आगम आदि प्रमाणों के सम्बन्ध में  तत्कालीन तर्कशास्त्रीय प्रणाली के अनुसार भगवान् महावीर से वाद किया एवं भगवान ने उन सभी प्रकार से उसका समाधान किया। 

इस प्रसंग में एक रोचक तथ्य ये है की इंद्रभूति की शंकाओं का लगभग समाधान होने के बाद भी एक वेदवाक्य को लेकर उनके मन में दुविधा थी. इंद्रभूति ने जो अर्थ समझा था उसके अनुसार जीव (आत्मा) एक स्वतंत्र सत्ता न होकर पंचभूतों से उत्पन्न एवं उसीमे विलीन होनेवाली एक व्यवस्था थी. इंद्रभूति की समझ चार्वाक दर्शन में वर्णित आत्मा की व्याख्या के निकट थी साथ ही उसमे वेदान्तिक दर्शन का भी प्रभाव था. उस समय भगवान ने उसी वेदवाक्य का दूसरे तरीके से अर्थ किया एवं इंद्रभूति उससे संतुष्ट होकर महावीर के शिष्य बने और प्रथम गणधर के रूप में प्रतिष्ठित हुए. 

इस पुरे प्रकरण से यह समझ में आता है की प्राचीन काल (सायण से बहुत पहले) से ही वेदों के अर्थ करने की अनेक विधियां विकसित हो चुकी थी.  

संहिता पाठ एवं पदपाठ

संहिता पाठ:

विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तित्यरे व्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः।

(बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.12)

पदपाठ:

  • विज्ञानघनः एव – विज्ञान का सघन स्वरूप ही

  • एतेभ्यः भूतेभ्यः – इन भूतों (पंचभूतों) से

  • समुत्थाय – उत्पन्न होकर

  • तान्येवानु विनश्यति – उन्हीं में पुनः विलीन हो जाता है

  • न प्रेत्य संज्ञा अस्ति – मरने के बाद कोई संज्ञा नहीं होती

  • इति अरे व्रवीमि – "हे अरे! मैं यह कहता हूँ"

  • होवाच याज्ञवल्क्यः – ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा


व्याकरणीय विश्लेषण

(1) संज्ञा और विशेषण:

  • विज्ञानघनः (नपुंसकलिंग, एकवचन) – शुद्ध चेतना का घना स्वरूप

  • भूतेभ्यः (पंचमी विभक्ति, बहुवचन) – पंचमहाभूतों से

  • संज्ञा (स्त्रीलिंग, एकवचन) – चेतना, स्मृति, पहचान

(2) क्रिया और लकार:

  • समुत्थाय (कृदन्त, ल्यबन्त रूप) – उत्पन्न होकर

  • अनु विनश्यति (लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – पुनः नष्ट हो जाता है

  • व्रवीमि (लट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – "मैं कहता हूँ"

  • होवाच (लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – "ऐसा कहा"


अन्वय (वाक्य संरचना):

"विज्ञानघनः एव एतेभ्यः भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति। न प्रेत्य संज्ञा अस्ति। इति अरे व्रवीमि। होवाच याज्ञवल्क्यः।"

सरल हिन्दी अनुवाद:

याज्ञवल्क्य कहते हैं – "आत्मा (चेतना) केवल विज्ञानघन (शुद्ध ज्ञानस्वरूप) ही है। यह पंचभूतों से उत्पन्न होती है और उन्हीं में विलीन हो जाती है। मृत्यु के बाद कोई व्यक्तिगत संज्ञा या पहचान शेष नहीं रहती।"

दार्शनिक व्याख्या

(1) सामान्य अर्थ:

यह श्लोक आत्मा की प्रकृति और मृत्यु के पश्चात उसकी स्थिति को दर्शाता है। इसमें बताया गया है कि जीव पंचभूतों से उत्पन्न होता है और मृत्यु के बाद उन्हीं में विलीन हो जाता है। यह विचार अद्वैत वेदान्त के ब्रह्मवाद से मेल खाता है, जिसमें आत्मा और ब्रह्म को एक ही तत्व माना गया है।

(2) वेदान्तिक व्याख्या:

  • अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से यह आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है।

  • मृत्यु के बाद जीव पंचभूतों में विलीन हो जाता है, और संज्ञा (व्यक्तिगत अहं) समाप्त हो जाती है।

  • ब्रह्म-ज्ञान प्राप्ति के बाद जीव मुक्त होकर ब्रह्म में विलीन हो जाता है।

(3) चार्वाक दर्शन की व्याख्या:

  • चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म या मोक्ष को नहीं मानता।

  • इस श्लोक को भौतिकवादी दृष्टि से देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन केवल पंचभूतों का संयोजन है।

  • "न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का सीधा अर्थ यह है कि मृत्यु के बाद कोई भी चेतन तत्व नहीं बचता, क्योंकि आत्मा कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।

(4) गणधरवाद की व्याख्या:

गणधरवाद में भगवान महावीर और उनके गणधर इन्द्रभूति गौतम के मध्य हुआ संवाद आत्मा के स्वरूप और उसके अस्तित्व को स्पष्ट करने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस श्लोक में प्रयुक्त "विज्ञानघन" शब्द का अर्थ जैन गणधरवाद के अनुसार केवल भूतों से उत्पन्न चेतना नहीं है, बल्कि अनंत ज्ञान-पर्यायों से युक्त जीव को दर्शाता है।

गणधरवाद की प्रमुख अवधारणाएँ:

  1. आत्मा विज्ञानघन है: आत्मा केवलज्ञान का स्रोत है। यह भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अनादि और शाश्वत सत्ता है।

  2. "समुत्थाय" का अर्थ: आत्मा पंचभूतों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि भूतों के साथ शरीर संबंध जोड़ती है।

  3. "तान्येवानु विनश्यति" का अर्थ: आत्मा स्वयं नष्ट नहीं होती, बल्कि उसका लौकिक संज्ञान (स्थूल संज्ञा) समाप्त होता है।

  4. "न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का अर्थ: मृत्यु के बाद व्यक्ति विशेष की भौतिक पहचान समाप्त हो जाती है, लेकिन आत्मा अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म धारण करती है।

  5. नित्य-अनित्य सिद्धांत: आत्मा नित्य है, लेकिन उसकी विशेष पर्यायें (स्थिति) नष्ट होती रहती हैं।

  6. कर्म-बंधन का सिद्धांत: आत्मा अपने कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करती है और केवल कर्मों के क्षय के बाद मोक्ष प्राप्त कर सकती है।

(5) जैन दृष्टिकोण:

  • आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप है और पंचभूतों से स्वतंत्र है।

  • पंचभौतिक शरीर धारण करता और छोड़ता है, परंतु आत्मा स्वयं अविनाशी होती है।

  • मृत्यु के बाद पुराना नाम-रूप समाप्त होता है, लेकिन आत्मा नए शरीर में जन्म लेती है।

  • कर्मों के बंधन के कारण आत्मा संसार में भ्रमण करती रहती है, लेकिन जब कर्मों का क्षय होता है, तब वह मोक्ष प्राप्त कर लेती है।

निष्कर्ष:

  • वेदांत के अनुसार – आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है और व्यक्तिगत संज्ञा समाप्त हो जाती है।

  • चार्वाक दर्शन के अनुसार – आत्मा जैसी कोई सत्ता नहीं होती, केवल पंचभूतों का संयोजन ही जीवन है।

  • गणधरवाद के अनुसार – आत्मा अविनाशी है, पंचभौतिक शरीर को त्यागकर पुनर्जन्म लेती है।

  • जैन दर्शन के अनुसार – आत्मा स्वतंत्र सत्ता है, कर्मों के अनुसार शरीर धारण करती है और मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) का पालन करना आवश्यक है।

अंतिम निष्कर्ष:

यह श्लोक आत्मा के स्वरूप पर गहन दार्शनिक चिंतन को प्रस्तुत करता है। जैन दृष्टिकोण में इसे इस प्रकार समझा जाता है कि मृत्यु के बाद केवल पंचभौतिक शरीर समाप्त होता है, लेकिन आत्मा कर्मों के अनुरूप नए जन्म में प्रवेश करती है। आत्मा की नित्यता, कर्मबंधन और मोक्ष का सिद्धांत जैन दर्शन की आधारभूत मान्यताओं में आता है, जिसे गणधरवाद ने प्रमाणित किया।

यह श्लोक जैन दर्शन के अनुसार कर्मबंध, पुनर्जन्म और आत्मा की शाश्वतता को दर्शाता है।

आभार: 

दर्शन शास्त्र के प्रकांड पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने गणधरवाद का विस्तृत अनुवाद किया है. यह ग्रन्थ प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुआ है. इस ग्रन्थ के पृष्ठ २३ से २८ तक वृहदारण्यक के अर्थ को लेकर इंद्रभूति गौतम की शंका एवं भगवान महावीर द्वारा प्रस्तुत समाधान पर विस्तृत चर्चा की गई है. गणधरवाद से सम्बंधित व्याख्या के लिए इसी ग्रन्थ को आधार माना गया है. 


ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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