विशेषावश्यक भाष्य और गणधरवाद का महत्व
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर: शंकाओं से शिष्यत्व तक
इंद्रभूति गौतम और आत्मा का प्रश्न
संहिता पाठ एवं पदपाठ
संहिता पाठ:
विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तित्यरे व्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः।
(बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.12)
पदपाठ:
विज्ञानघनः एव – विज्ञान का सघन स्वरूप ही
एतेभ्यः भूतेभ्यः – इन भूतों (पंचभूतों) से
समुत्थाय – उत्पन्न होकर
तान्येवानु विनश्यति – उन्हीं में पुनः विलीन हो जाता है
न प्रेत्य संज्ञा अस्ति – मरने के बाद कोई संज्ञा नहीं होती
इति अरे व्रवीमि – "हे अरे! मैं यह कहता हूँ"
होवाच याज्ञवल्क्यः – ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा
व्याकरणीय विश्लेषण
(1) संज्ञा और विशेषण:
विज्ञानघनः (नपुंसकलिंग, एकवचन) – शुद्ध चेतना का घना स्वरूप
भूतेभ्यः (पंचमी विभक्ति, बहुवचन) – पंचमहाभूतों से
संज्ञा (स्त्रीलिंग, एकवचन) – चेतना, स्मृति, पहचान
(2) क्रिया और लकार:
समुत्थाय (कृदन्त, ल्यबन्त रूप) – उत्पन्न होकर
अनु विनश्यति (लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – पुनः नष्ट हो जाता है
व्रवीमि (लट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – "मैं कहता हूँ"
होवाच (लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – "ऐसा कहा"
अन्वय (वाक्य संरचना):
"विज्ञानघनः एव एतेभ्यः भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति। न प्रेत्य संज्ञा अस्ति। इति अरे व्रवीमि। होवाच याज्ञवल्क्यः।"
सरल हिन्दी अनुवाद:
याज्ञवल्क्य कहते हैं – "आत्मा (चेतना) केवल विज्ञानघन (शुद्ध ज्ञानस्वरूप) ही है। यह पंचभूतों से उत्पन्न होती है और उन्हीं में विलीन हो जाती है। मृत्यु के बाद कोई व्यक्तिगत संज्ञा या पहचान शेष नहीं रहती।"
दार्शनिक व्याख्या
(1) सामान्य अर्थ:
यह श्लोक आत्मा की प्रकृति और मृत्यु के पश्चात उसकी स्थिति को दर्शाता है। इसमें बताया गया है कि जीव पंचभूतों से उत्पन्न होता है और मृत्यु के बाद उन्हीं में विलीन हो जाता है। यह विचार अद्वैत वेदान्त के ब्रह्मवाद से मेल खाता है, जिसमें आत्मा और ब्रह्म को एक ही तत्व माना गया है।
(2) वेदान्तिक व्याख्या:
अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से यह आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है।
मृत्यु के बाद जीव पंचभूतों में विलीन हो जाता है, और संज्ञा (व्यक्तिगत अहं) समाप्त हो जाती है।
ब्रह्म-ज्ञान प्राप्ति के बाद जीव मुक्त होकर ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
(3) चार्वाक दर्शन की व्याख्या:
चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म या मोक्ष को नहीं मानता।
इस श्लोक को भौतिकवादी दृष्टि से देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन केवल पंचभूतों का संयोजन है।
"न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का सीधा अर्थ यह है कि मृत्यु के बाद कोई भी चेतन तत्व नहीं बचता, क्योंकि आत्मा कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।
(4) गणधरवाद की व्याख्या:
गणधरवाद में भगवान महावीर और उनके गणधर इन्द्रभूति गौतम के मध्य हुआ संवाद आत्मा के स्वरूप और उसके अस्तित्व को स्पष्ट करने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस श्लोक में प्रयुक्त "विज्ञानघन" शब्द का अर्थ जैन गणधरवाद के अनुसार केवल भूतों से उत्पन्न चेतना नहीं है, बल्कि अनंत ज्ञान-पर्यायों से युक्त जीव को दर्शाता है।
गणधरवाद की प्रमुख अवधारणाएँ:
आत्मा विज्ञानघन है: आत्मा केवलज्ञान का स्रोत है। यह भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अनादि और शाश्वत सत्ता है।
"समुत्थाय" का अर्थ: आत्मा पंचभूतों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि भूतों के साथ शरीर संबंध जोड़ती है।
"तान्येवानु विनश्यति" का अर्थ: आत्मा स्वयं नष्ट नहीं होती, बल्कि उसका लौकिक संज्ञान (स्थूल संज्ञा) समाप्त होता है।
"न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का अर्थ: मृत्यु के बाद व्यक्ति विशेष की भौतिक पहचान समाप्त हो जाती है, लेकिन आत्मा अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म धारण करती है।
नित्य-अनित्य सिद्धांत: आत्मा नित्य है, लेकिन उसकी विशेष पर्यायें (स्थिति) नष्ट होती रहती हैं।
कर्म-बंधन का सिद्धांत: आत्मा अपने कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करती है और केवल कर्मों के क्षय के बाद मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
(5) जैन दृष्टिकोण:
आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप है और पंचभूतों से स्वतंत्र है।
पंचभौतिक शरीर धारण करता और छोड़ता है, परंतु आत्मा स्वयं अविनाशी होती है।
मृत्यु के बाद पुराना नाम-रूप समाप्त होता है, लेकिन आत्मा नए शरीर में जन्म लेती है।
कर्मों के बंधन के कारण आत्मा संसार में भ्रमण करती रहती है, लेकिन जब कर्मों का क्षय होता है, तब वह मोक्ष प्राप्त कर लेती है।
निष्कर्ष:
वेदांत के अनुसार – आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है और व्यक्तिगत संज्ञा समाप्त हो जाती है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार – आत्मा जैसी कोई सत्ता नहीं होती, केवल पंचभूतों का संयोजन ही जीवन है।
गणधरवाद के अनुसार – आत्मा अविनाशी है, पंचभौतिक शरीर को त्यागकर पुनर्जन्म लेती है।
जैन दर्शन के अनुसार – आत्मा स्वतंत्र सत्ता है, कर्मों के अनुसार शरीर धारण करती है और मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) का पालन करना आवश्यक है।
अंतिम निष्कर्ष:
यह श्लोक आत्मा के स्वरूप पर गहन दार्शनिक चिंतन को प्रस्तुत करता है। जैन दृष्टिकोण में इसे इस प्रकार समझा जाता है कि मृत्यु के बाद केवल पंचभौतिक शरीर समाप्त होता है, लेकिन आत्मा कर्मों के अनुरूप नए जन्म में प्रवेश करती है। आत्मा की नित्यता, कर्मबंधन और मोक्ष का सिद्धांत जैन दर्शन की आधारभूत मान्यताओं में आता है, जिसे गणधरवाद ने प्रमाणित किया।
यह श्लोक जैन दर्शन के अनुसार कर्मबंध, पुनर्जन्म और आत्मा की शाश्वतता को दर्शाता है।