भूमिका
ऋग्वेद की ऋचाएँ गूढ़ रहस्यों से भरपूर हैं, जो विभिन्न अर्थ-व्याख्याओं के आधार पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद (70.74.22) की यह ऋचा, जिसका मुख्य विषय वृषभ (बैल) और ऋत (सत्य/व्यवस्था) है, विभिन्न दर्शनों में अलग-अलग प्रकार से व्याख्यायित की गई है। जहाँ वैदिक परंपरा में इस ऋचा को इन्द्र और जलचक्र से जोड़ा गया है, वहीं जैन परंपरा में इसे भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और समवसरण में प्रवचन से जोड़ा जाता है। इस लेख में, इस ऋचा का शुद्ध संहिता पाठ, पद पाठ, व्याकरण, अन्वय, शब्दार्थ एवं विभिन्न दर्शनों के अनुसार व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
निघंटु और सायण भाष्य के अनुसार, यह ऋचा वर्षा चक्र और इन्द्र की भूमिका को इंगित करती है। निघंटु में "वृषभ" का अर्थ इन्द्र तथा "गो" का अर्थ सूर्य किरणें बताया गया है। अतः यह ऋचा इन्द्र के जलनियंत्रण की शक्ति और वृष्टि-चक्र के संचालन का वर्णन करती है। सायण भाष्य के अनुसार, यहाँ "ऋतस्य सदसः" का तात्पर्य जलाशय (अंतरिक्ष) से है, जहाँ सूर्य की किरणें जल को वाष्पित कर वर्षा उत्पन्न करती हैं। इस दृष्टिकोण से, ऋचा का अर्थ इन्द्र के गरजने और जलवृष्टि करने से संबंधित है।
वहीं, जैन परंपरा में इस ऋचा की व्याख्या भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और समवसरण में प्रवचन देने की प्रक्रिया के रूप में की जाती है। जिस प्रकार एक युवा वृषभ अपने समूह में गर्जना करता है और अपनी उपस्थिति स्थापित करता है, उसी प्रकार अर्हत ऋषभदेव अपनी दिव्य वाणी के माध्यम से समवसरण में धर्म का प्रचार करते हैं, और उनकी वाणी पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होती है। जैन परंपरा के अनुसार, यह ऋचा भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और उनकी धर्मध्वनि की व्यापकता को इंगित करती है। इस लेख में, ऋग्वेद की इस महत्वपूर्ण ऋचा का संपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, जिससे इसके गूढ़ अर्थ को समझा जा सके।
शुद्ध संहिता पाठ:
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥ ऋग्वेद 70.74.22
पद पाठ:
- ऋतस्य
- हि
- सदसः
- धीतिः
- अरणौत्
- सः
- गाष्टेयः
- दृषमः
- गोमिः
- आनट्
- उत्
- अतिष्ठत्
- अविषेणः
- रवेण
- महायन्ति
- वित्सम्
- विव्याधा
- रजांसि
व्याकरण:
- ऋतस्य (षष्ठी विभक्ति, एकवचन) – "ऋत" का, सत्य का, धर्म का।
- हि (निश्चयार्थक अव्यय) – निश्चय ही।
- सदसः (षष्ठी विभक्ति, एकवचन) – सभा का, मंडल का।
- धीतिः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – धारणा, प्रज्ञा, बुद्धि।
- अरणौत् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – प्रकाशित करता है, फैलाता है।
- सः (संबंधवाचक सर्वनाम) – वह।
- गाष्टेयः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ।
- दृषमः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – तेजस्वी, चमकने वाला।
- गोमिः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – गव्यों से युक्त, गोमय।
- आनट् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – प्रविष्ट हुआ, शामिल हुआ।
- उत (समुच्चयार्थक अव्यय) – और, पुनः।
- अतिष्ठत् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – स्थित हुआ, खड़ा हुआ।
- अविषेणः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – अविष (शत्रुता रहित), शांत।
- रवेण (तृतीया विभक्ति, एकवचन) – ध्वनि के द्वारा।
- महायन्ति (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन) – व्यापक होते हैं, फैलते हैं।
- वित्सम् (द्वितीया विभक्ति, एकवचन) – ज्ञान, समझ।
- विव्याधा (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन) – व्याप्त किया, फैलाया।
- रजांसि (अव्यय) – लोक, जगत्।
अन्वय:
ऋतस्य हि सदसः धीतिः अरणौत्।
सः गाष्टेयः दृषमः गोमिः आनट्।
उत अतिष्ठत् अविषेणः रवेण।
महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥
(अर्थात्)
ऋत (सत्य) की सभा (संसद) में धृति (प्रज्ञा) प्रकाशित होती है।
वह (वृषभ) तरुण गाय से उत्पन्न, तेजस्वी, गोमय (धर्म के वाहक) समूह में प्रवेश करता है।
वह अविष (शत्रुता रहित), गूढ़ ध्वनि से स्थित होता है।
महान ज्ञानी, अपने वाणी रूपी रव से ज्ञान को सम्पूर्ण लोक में व्याप्त कर देते हैं।
यह ऋचा एक प्राकृतिक दृश्य का वर्णन करती है जिसमें सत्य (ऋत) के प्रभाव से एक सभा में दिव्य ज्ञान (धीतिः) प्रकट होता है। जिस प्रकार एक युवा बैल (वृषभ), जो गायों के झुंड से उत्पन्न होता है, अपनी ध्वनि से झुंड में पहचान बनाता है, उसी प्रकार सत्य के प्रभाव से उत्पन्न दिव्य ज्ञान (धर्मवाणी) सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होता है और उसे प्रकाशित करता है।
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इन्द्र देव: जलचक्र के नियंत्रक, एक कलात्मक चित्रण |
निघंटु में "वृषभ" का अर्थ "इन्द्र" तथा "गो" का अर्थ "किरण" बताया गया है। अतः इस ऋचा का अर्थ होगा – "इन्द्र अपनी ध्वनि (गरज) के माध्यम से जलचक्र को नियंत्रित करता है और अपने प्रकाश से जलवृष्टि करवाता है।" इसे वर्षा और मौसम चक्र से संबंधित किया जाता है।
सायण इस ऋचा को जलचक्र और अंतरिक्ष से जोड़ते हैं। उनके अनुसार, "ऋतस्य सदसः" का अर्थ है जल का स्थान (अंतरिक्ष), और "धीतिः" का अर्थ है सूर्य की किरणें। यह सूर्य की ऊर्जा का वर्णन करता है, जो जल को अंतरिक्ष से वाष्पित कर वर्षा उत्पन्न करती है। "वृषभ" यहाँ जल का प्रतीक है, जो अंतरिक्ष में बादलों के रूप में गर्जना करता है और फिर वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर गिरता है।
डॉ सागरमल जैन की व्याख्या
जहाँ दयानन्द ने "ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्सं" का अर्थ किया – "ऋत की समान विचारधारा (भक्ति) प्रकाशित हो रही है," वहीं सायण भाष्य के आधार पर सातवेलकर ने इसे "जल स्थान (अंतरिक्ष) का धारक यह इन्द्र प्रकाशित करता है," इस रूप में प्रस्तुत किया। परन्तु, इन दोनों ही अर्थों को न तो पूर्णतः शब्दानुसार कहा जा सकता है और न ही पूर्णतः लाक्षणिक।
दयानन्द ने इसकी लाक्षणिकता को स्पष्ट करते हुए कहा कि "ईश्वर का प्रकाश फैला है।" परन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारतीय चिन्तन में ईश्वर की अवधारणा एक परवर्ती विकास है। ऋत की अवधारणा इससे प्राचीन है, और इसका अर्थ सत्य या व्यवस्था (cosmic order) होता है।
जैन दृष्टिकोण से व्याख्या
यदि इस ऋचा को वृषभ से संबद्ध मानें, तो इसका अर्थ इस प्रकार होगा – जिस प्रकार तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ गौ-समूह के बीच अपनी ध्वनि से सुशोभित होता है, उसी प्रकार ऋषभदेव के केवलज्ञान से उत्पन्न सम्यक्वाणी से सत्य की सभा (समवसरण) सुशोभित होती है।
ऋषभदेव समवसरण में ऊपर आसीन होकर जिस धर्मध्वनि का उद्घोष करते हैं, वह अपनी तीव्र रव ध्वनि के द्वारा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होती है।
इस प्रकार, उपर्युक्त ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
जैन दर्शन के अनुसार शब्दार्थ:
- ऋतस्य सदसः – सत्य की सभा, समवसरण, जहां सत्य प्रतिपादित होता है।
- धीतिः – धारण शक्ति, प्रज्ञा, केवलज्ञान का प्रकाश।
- अरणौत् – प्रसारित करता है, प्रकाशित करता है।
- गाष्टेयः – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ।
- गोमिः – गौओं से युक्त, धर्म-समाज से जुड़ा हुआ।
- अविषेणः – बिना शत्रुता के, शांत, करुणामयी।
- रवेण – ध्वनि के द्वारा, दिव्य वाणी से।
- महायन्ति – व्यापक होते हैं, सर्वत्र गूंजते हैं।
- वित्सं – ज्ञान, समझ।
- विव्याधा रजांसि – पूरे लोक में व्याप्त होना।
विस्तृत व्याख्या (जैन दृष्टिकोण से):
इस ऋचा में ऋत (सत्य) की सभा (संसद) में प्रज्ञा का प्रकाश होने की बात कही गई है। यदि इसे वृषभ (बैल) के रूप में लिया जाए, तो यह प्रतीकात्मक रूप से भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और उनकी धर्मवाणी की ओर संकेत करता है।
🔹 ऋतस्य हि सदसः धीतिरणौत्सं – सत्य की सभा में, जहां धर्म और ज्ञान का प्रकाश होता है, वहां केवलज्ञान रूपी प्रज्ञा प्रकाशित होती है। यह समवसरण का ही प्रतीक है, जहां भगवान ऋषभदेव सम्यक्ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।
🔹 गाष्टेयों दृषमों गोमिरानट – जिस प्रकार तरुण गाय (गौओं के झुंड) से उत्पन्न वृषभ अपनी वाणी के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाता है, वैसे ही भगवान ऋषभदेव अपने समवसरण में धर्मध्वनि का उद्घोष करते हैं, जो चारों दिशाओं में फैलती है।
🔹 उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण – वे (ऋषभदेव) समवसरण में उपविशित होते हैं और उनकी दिव्य वाणी (ध्वनि) संसार में व्याप्त होती है।
🔹 महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि – उनकी तीव्र धर्मध्वनि पूरे लोक में व्याप्त होती है और समस्त संसार को धर्म के प्रकाश से आलोकित करती है।
यहाँ "वृषभ" का अर्थ केवल बैल नहीं है, बल्कि यह भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान की गूंजने वाली वाणी को भी दर्शाता है, जो सत्य और धर्म को प्रकट करती है।
निष्कर्ष:
यह ऋचा केवल एक सामान्य प्राकृतिक दृश्य का वर्णन नहीं करती, बल्कि एक गूढ़ आध्यात्मिक भाव को प्रकट करती है। ऋषभदेव के केवलज्ञान से उत्पन्न दिव्य वाणी (धर्मध्वनि) सत्य की सभा (समवसरण) को सुशोभित करती है और उनकी दिव्य ध्वनि पूरे संसार में गूंजती है, जिससे ज्ञान का प्रकाश फैलता है।
इस प्रकार, इस ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है।
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