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महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा (मूल) एवं अर्थ
लेखक/ अनुवादक : ज्योति कुमार कोठारी
महान विद्वान खरतर गच्छीय महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि ने साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व सम्वत १६१८ (ईस्वी सन 1561) में परमात्म भक्ति स्वरुप सतरह भेदी पूजा की रचना की. श्री साधुकीर्ति गणि अकबर प्रतिबोधक चौथे दादा साहब श्री जिन चंद्र सूरी के विद्यागुरु थे एवं उन्होंने ही दादा साहब को अकबर से मिलवाया था. आप संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओँ के साथ संगीत शास्त्र में भी निष्णात थे. वह युग भक्तियुग था एवं भारतीय शास्त्रीय संगीत भी अपने शीर्ष अवस्था पर था. संत हरिदास, बैजू बावरा, तानसेन आदि दिग्गज संगीतज्ञों की उपस्थिति उस युग को संगीत क्षेत्र में विशिष्टता प्रदान कर रही थी.
महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा में जहाँ जैन आगमों एवं शास्त्रों की बारीकियों की झलक मिलती है वहीँ भक्ति रस के साथ श्रृंगार रसात्मक रचना का रसास्वादन भी होता है. इस पूजा में भारतीय शास्त्रीय संगीत (मार्ग संगीत) के विभिन्न प्रकार के राग-रागिनियों एवं तालों का प्रयोग हुआ है. नृत्य, गीत, एवं वाजित्र तीनों विधाओं का समावेश भी इस पूजा में देखने को मिलता है. सभी राग रागिनियो के नामोंका उल्लेख मूल पूजा में किया गया है.
तीर्थंकर चौवीसी, श्री सांवलिया पार्श्वनाथ मंदिर, रामबाग, अजीमगंज |
मध्य युग में अन्य भारतीय शास्त्रों के समान ही जैन शास्त्रों की भी देशी भाषाओँ में रचना प्रारम्भ हुई.इससे पूर्व अधिकांश रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत, एवं अपभ्रंश भाषाओँ में पाई जाती है. इस युग में अनेक भक्तिरस के काव्योंकी रचनाएँ हुई जिसमे रास, भजन एवं पूजाओं की प्रमुखता है. महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा संभवतः देशी भाषा में रचित पहली पूजा है. इसके बाद श्री सकल चंद्र गणी, श्री वीर विजय जी, आदि ने भी सत्रह भेदी पूजा की रचना की. आचार्य मणिप्रभ सूरी द्वारा रचित सत्रह भेदी पूजा इस क्रम में नवीनतम है. इसके अतिरिक्त अन्य अनेक महापुरुषों ने भी देशी भाषा में अनेक प्रकार की पूजाओं की रचना कर जनमानस को अर्हन्त भक्ति की ओर प्रेरित किया.
भक्ति कालीन रचनाओं में महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अपना विशिष्ट स्थान है. यद्यपि सत्रह भेदी पूजा श्वेताम्बर जैन समाज मे आज भी बहु प्रचलित है तथापि अर्वाचीन रचनाओं की लोकप्रियता एवं गच्छाग्रह के कारण प्राचीन पूजा आज लोकप्रिय नहीं रही. देश के कुछ ही भागों में अब यह पूजा प्रचलित है, विशेषकर पूर्वी भारत में. बंगाल के अजीमगंज, जियागंज, कोलकाता में यह पूजा आज भी बहुत लोकप्रिय है और हर बड़े आयोजनों में यह पूजा उल्लासपूर्वक पढाई जाती है. बीकानेर एवं जयपुर में भी अनेक स्थानों में ध्वजारोहण आदि अवसरों पर यह पूजा आज भी करवाने की प्रथा है.
मेरा मूलस्थान अजीमगंज होने के कारण बचपन से ही यह पूजा सुनता आया हूँ, इसलिए इस पूजा के प्रति विशेष लगाव भी रहा. कुछ वर्ष पूर्व महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ करने का विचार आया और प्रयास प्रारम्भ किया। परन्तु इसमें एक बड़ी कठिनाई थी, यह पूजा किसी एक भाषा में निवद्ध नहीं है. जैन साधु एक स्थान पर नहीं रहते थे, देश देशांतर विहार के कारण भिन्न भिन्न स्थानों की भाषा एवं बोलियों से उनका परिचय होता था. वे प्रायः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओँ के विद्वान तो होते ही थे. नबाबों, बादशाहों के परिचय के कारण फ़ारसी, अरबी, उर्दू आदि भाषाओँ का भी उन्हें ज्ञान होता था. इस कारण काव्य रचना में वे एक साथ अनेक भाषाओँ का प्रयोग करते रहते थे.
महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा भी इसका अपवाद नहीं है. इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओँ के साथ मरु गुर्जर एवं ब्रज भाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है. राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि मुख्य रूप से आपका विचरण क्षेत्र रहा, अतः उन स्थानों की तत्कालीन भाषा व बोलियों का प्रयोग उनकी रचना में बारम्बार देखने को मिलता है. अनेक शब्द अब अप्रचलित हो गए हैं और उनका अर्थ किसी Dictionary में भी नहीं मिलता. अनेक प्रयास एवं विद्वानों व भाषाविदों के साहचर्य से काम आगे बढ़ा परन्तु पूरी सफलता नहीं मिली.
फिर भी जितना हो सका प्रयास करके इस प्राचीन पूजा के अर्थ को जनमानस में प्रकाशित करने के उद्देश्य से एक कोशिश कर रहा हूँ. मूल पूजा बोल्ड अक्षरों में एवं अर्थ सामान्य टाइप में दिया गया है. मुझे विश्वास है की सुज्ञजनों की दृष्टि इस ओर आकर्षित होगी और इस का सही अर्थ सामने आ पायेगा.
यहाँ पर पहली न्हवण पूजा का अर्थ करने का प्रयास किया गया है. आगे अन्य पूजाओं के अर्थ किये जायेंगे. विद्वद्जनों से करवद्ध निवेदन है की अपने बहुमूल्य सुझाव देकर इस कार्य में सहयोग प्रदान करने की कृपा करें.
महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ
[दूहा]
मूल-- भाव भले भगवंत नी, पूजा सतर प्रकार II
परसिध कीधी द्रोपदी, अंग छठे अधिकार II १ II
अर्थ: शुभ भाव से (अर्हन्त) भगवंत की सत्रह भेदी पूजा करनी है, जिसे महासती द्रौपदी ने प्रसिद्द किया था एवं जिसका अधिकार छठे अंग (आगम) ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में पाया जाता है.
[राग सरपदो]
जोति सकल जग जागति ए सरसति समरि सुभंदि II
सतर सुविधि पूजा तणी, पभणिसुं परमाणंदि II १ II
अर्थ: सम्पूर्ण जगत में जिनकी ज्योति प्रसरित है ऐसी बाग्देवी सरस्वती का स्मरण कर सत्रह भेदी पूजा की विधि अच्छी तरह से बता रहे हैं, जिसके पढ़ने से परमानन्द की प्राप्ति होती है.
[गाहा]
न्हवण-विलेवण-वत्थजुग, गंधारूहणं च पुप्फरोहणयं II
मालारूहणं वण्णय, चुन्न- पडागाय आभरणे II १ II
मालकलावं सुघरं, पुप्फपगरं च अट्ठ मंगलयं II
धुवूक्खेवो गीअं, नट्टम वज्जं तहा भणियं II २ II
१. स्नान २. विलेपन ३. वस्त्रयुगल ४. गंध (वास चूर्ण) ५. पुष्प ६. मालारोहण ७. वर्ण (अंगरचना) ८. चूर्ण (गंधवटी) ९. ध्वज १०. आभरण ११. फूलघर १२. पुष्प वृष्टि १३. अष्ट मंगल १४. धुप १५. गीत १६. नृत्य (नाटक) एवं १७. वाजित्र इस प्रकार ये सत्रह पुजायें शास्त्रों में वर्णित है.
[दुहा]
सतर भेद पूजा पवर, ज्ञाता अंग मझार II
द्रुपदसुता द्रोपदी परें, करिये विधि विस्तार II १ II
पूजाओं में श्रेष्ठ सत्रह भेदी पूजा का वर्णन ज्ञाता धर्मकथा नामक अंगसूत्र में किया गया है. जिस प्रकार द्रुपद महाराजा की पुत्री द्रौपदी ने यह पूजा की थी उसी प्रकार विस्तृत विधि से यह पूजा करनी चाहिए.
अथ प्रथम न्हवण पूजा
[राग देशाख]
पूर्व मुख सावनं, करि दसन पावनं,
अहत धोती धरी, उचित मानी I१I
विहित मुख कोश के, खीरगंधोदके,
सुभृत मणि कलश करि, विविध वानी I२I
नमिवि जिनपुंगवं, लोम हत्थे नवं,
मार्जनं करिय जिन वारी वारी I३I
भणिय कुसुमांजली, कलश विधि मन रली,
न्हवति जिन इंद्र जिम, तिम अगारी II४II
पूर्व दिशा में मुँह कर स्नान कर, दांतों को साफकर (पवित्र कर), उचित मान (size) की अखंड धोती पहन कर (१) सही तरीके से मुखकोष बांध कर विविध प्रकार के मणिरत्नों के कलश दूध और गंधोदक से भरके (२) जिनेश्वरदेव को नमन कर, नवीन मोरपंखी से परमात्मा को बारम्बार मार्जन कर (३) कुसुमांजलि पढ़कर मन के भावोल्लास से कलश विधि करते हुए जिस प्रकार देवराज इंद्र ने परमात्मा के (जन्म-अवसर) पर स्नान करवाया था उसी प्रकार श्रावक/ श्राविका भी उन्हें स्नान करवाते हैं (४).
[दूहा]
पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम II
शुचि पखाल तनु जिन तणी, करे सुकृत हितकाम II १ II
परमानंद पीयूष रस, न्हवण मुगति सोपान II
धरम रूप तरु सींचवा, जलधर धार समान II २ II
श्रावक शुभ परिणाम से पहली (न्हवण) पूजा करता है. पवित्र पक्षाल जल जिनेश्वरदेव के शरीर में डालते हुए सुकृत एवं हित की कामना करता है (१). परमात्मा का न्हवण (स्नान) परमानन्द प्राप्त करानेवाले अमृतरस के सामान और मुक्तिपुरी की सीढ़ी के समान है. यह जलधारा धर्मरूप वृक्ष को सींचने में वर्षा की धारा के समान है. (२)
[राग- सारंग तथा मल्हार]
पूजा सतर प्रकारी,
सुनियो रे मेरे जिनवर की II
परमानंद तणि अति छल्यो रे सुधारस,
तपत बूझी मेरे तन की हो II पूo II १ II
प्रभुकुं विलोकि नमि जतन प्रमार्जीत,
करति पखाल शुचिधार विनकी हो II
न्हवण प्रथम निज वृजिन पुलावत,
पंककुं वरष जैसे घन की हो II पूo II २ II
तरणि तारण भव सिंधु तरण की,
मंजरी संपद फल वरधन की II
शिवपुर पंथ दिखावण दीपी,
धूमरी आपद वेल मर्दन की हो II पूo II ३ II
सकल कुशल रंग मिल्यो रे सुमति संग,
जागी सुदिशा शुभ मेरे दिन की II
कहे साधुकीरति सारंग भरि करतां,
आस फली मोहि मन की हो II पूo II ४ II
जिनेश्वरदेव की यह सत्रह प्रकारी पूजा है. इसे सुनो. इस पूजा में परमानन्द का ऐसा अत्यंत अमृतरस छलक रहा है जिससे मेरे शरीर की तपन (गर्मी) बुझ गई (१). प्रभु के दर्शन-नमन कर, यत्न पूर्वक प्रमार्जन कर, (श्रावक) पवित्र जलधारा से परमात्मा का प्रक्षालन करता है. प्रथम न्हवण पूजा करके अपने पापों-दुःखों को ऐसे नष्ट करता है, जैसे भरी वर्षा से कीचड धुल जाते हैं (२). यह पूजा भवरुपी समुद्र से तरने के लिए (परमात्मा की पूजा) जहाज के समान एवं (मोक्ष) सम्पदा रूपी फल के लिए मंजरी अर्थात फूल के समान, मोक्ष का पंथ दिखाने में दीपक के समान एवं आपदा रूपी बेल को नष्ट करने में दांतली के समान है (३). (प्रभु पूजा से) सभी कुशल मंगल के रंग सुमति अर्थात सुबुद्धि के साथ मिल गए और मेरी शुभ दशा जाग गई है. "सारंग" राग में रचना करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की मेरे मन की सभी आशा फलित हो गई.
अथ द्वितीय विलेपन पूजा
[राग-रामगिरि]
गात्र लूहे जिन मनरंगसुं हो देवा l गाo II
सखरी सुधूपित वाससुं हां रे देवा वाससुं II
गंध कसायसुं मेलीयें, नंदन चंदन चंद मेलीयें रे देवा II नंo II
मांहे मृगमद कुंकुम भेलीये, कर लीये रयण पिंगाणी कचोलियें I१ I
पग जानु कर खंधे सिरें रे, भाल कंठ उर उदरंतरे II
दुख हरे हां रे देवा सुख करे, तिलक नवंगि अंग कीजिये I२I
दूजी पूजा अनुसरे, हरि विरचे जिम सुरगिरे II
तिम करे जिणि परि जन मन रंजीये II३II
अर्थ: परमात्मा की अंगलुंछ्ना अर्थात स्नान के बाद शरीर को पोंछने में ही मन रंग गया है. सुगन्धित चूर्ण (वासक्षेप) को धूपित कर उसमे गंध, कषाय, चन्दन आदि मिला कर, (उसे और अधिक सुगन्धित करने हेतु) उसमे कस्तूरी एवं कुमकुम मिला कर स्वर्ण-रत्न जड़ित कटोरी में भर हाथ में लेकर (१) (जिन प्रतिमा के) चरण, जानु, हाथ, कंधे, मस्तक, ललाट, कंठ, ह्रदय, नाभि इन नव अंगों में तिलक करना है. (यह तिलक) दुःख हरनेवाला एवं सुख करनेवाला है (२). जिस प्रकार मेरुपर्वत (सुरगिरि) पर इंद्र ने (परमात्मा के शरीर पर) विलेपन किया था उसी प्रकार दूसरी पूजा में विलेपन करते हैं. ऐसा करके जन मन हर्षित होता है.
[राग-ललित दुहा]
करहुं विलेपन सुखसदन, श्रीजिनचंद शरीर II
तिलक नवे अंग पूजतां, लहे भवोदधि तीर II १ II
मिटे ताप तसु देहको, परम शिशिरता संग II
चित्त खेद सवी उपसमे, सुखमे समरसी रंग II २ II
अर्थ: सभी सुख के आवास रूप जिनेश्वर देव के शरीर में मैं विलेपन करता हूँ. नव अंगों में तिलक करते हुए भवसागर का किनारा मिल जाता है (१). विलेपन से देह के समस्त ताप मिट जाते हैं और परम शिशिरता (ठंडक) प्राप्त होती है. मन के सभी खेद उपशांत हो जाते हैं और सुख से प्रभु स्मरण होता रहता है.
[राग - वेलाउल]
विलेपन कीजे जिनवर अंगे, जिनवर अंग सुगंधे II विo II
कुंकुम चंदन मृगमद यक्षकर्द्दम, अगर मिश्रित मनरंगे II विo II १ II
पग जानू कर खंध सिर, भाल कंठ उर उदरंतर संगे II
विलुपित अघ मेरो करत विलेपन, तपत बूझति जिम अंगे II विo II २ II
नव अंग नव नव तिलक करत ही, मिलती नवे निधि चंगे II
कहै साधु तनु शुचि करयउ सुललित पूजा जैसे गंगतरंगे II विo II ३ II
अर्थ: जिनवर देव के अंगों में विलेपन कीजिये. जिनवर का अंग सुगन्धित है. कुंकुम, चन्दन, कस्तूरी, यक्षकर्दम (कपूर, अगर, कस्तूरी, कंकोल आदि के योग से बननेवाला एक प्राचीन अंगराग), अगर आदि सुगन्धित द्रव्यों को मिला कर (१) चरण, जानु, हाथ, कंधे, मस्तक, ललाट, कंठ, ह्रदय और नाभि (इन नव अंगों) में विलेपन करते हुए मेरे पाप विलोपित होते हैं. जैसे (चंदनादि के विलेपन से) शरीर के अंगों का दाह (तपन) मिट जाता है(२). नव अंगों में नए नए अथवा नौ नौ तिलक करने से सुन्दर नव निधि की प्राप्ति होती है. यहाँ साधु (कीर्ति) कहते हैं की जैसे गंगा की तरंग शरीर को पवित्र करता है वैसे ही यह सुन्दर पूजा भी पवित्र करती है (३).
अथ तृतीय वस्त्र-युगल पूजा
[दुहा]
वसन युगल उज्जवल विमल, आरोपे जिन अंग II
लाभ ज्ञान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसंग II १ II
तीसरी पूजा में उज्वल मलरहित वस्त्रयुगल (कपडे का जोड़ा) जिनवर के अंग पर आरोपित करनेवाले को ज्ञान एवं दर्शन का लाभ होता है. (जैसे वस्त्र युगल होता है उसी प्रकार ज्ञान-दर्शन का भी युगल है)
[राग वैराडी]
कमल कोमल घनं, चन्दनं चर्चितं, सुगंध गंधे अधिवासिया ए II
कनकमंडित हये, लाल पल्लव शुचि, वसन जुग कंति अतिवासिया ए I१I
जिनप उत्तम अंगे, सुविधि शक्रो यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए II
पाप लुहण अंगे लुहणूं देवने, वस्त्र युग पूज मल धोइये ए II २ II
चन्दन लगे हुए एवं सुगंध से अधिवासित कमलपत्र के समान कोमल वस्त्र (परमात्मा को पहरने के लिए), वो कैसा है? जिसमे लाल रंग का सुन्दर पल्लू है और स्वर्ण से मण्डित है अर्थात सोने का काम किया हुआ है, ऐसा अत्यंत सुगन्धित पवित्र वस्त्र(१). जिनवर के उत्तम अंगों में शक्रेन्द्र (प्रथम सौधर्म देवलोक के अधिपति इंद्र) के जैसे शुद्ध विधि पूर्वक यह वस्त्र पूजा करनी है. वस्त्र से परमात्मा के अंग का लुंच्छन करने से अपने पाप भी पूंछ जाते हैं, इसलिए वस्त्र युगल से पूजा कर अपने (पापरूपी) मल को धोना है(२).
[राग वैराडी]
देव दूष्य जुग पूजा बन्यो हे जगत गुरु,
देव दूष् हर अब इतनो मागूं II
तुंहिज सबही हित तुहिंज मुगति दाता,
तिण नमि नमि प्रभु चरणे लागुं II देo II १ II
कहे साधु त्रीजी पूजा केवल दंसण नाण,
देवदूष्य मिश देहुं उत्तम वागुं II
श्रवण अंजली पुट सुगुण अमृत पीता,
सविराडे दुख संशय धुरम भांगुं II देo II २ II
(देव दुष्य अर्थात देवताओं द्वारा प्रदत्त वस्त्र) देव दुष्य के जोड़े से जगत गुरु प्रभु की पूजा करते हैं. हे देव आप हमारे दुखों का हरण करें बस मैं इतना ही मांगता हूँ. (वैदिक संस्कृत में ष और ख एक जैसे रूप में व्यवहृत होता है. यहाँ पर उसी का सुन्दर प्रयोग करते हुए दुष और दुःख का एक जैसा प्रयोग किया गया है). आप ही सभी हित के कारण एवं आप ही मुक्ति के दाता हैं, अतः बारम्बार नमन कर के मैं आपकी चरण वंदना करता हूँ (१). साधु (कीर्ति) 'वैराडी राग" में तीसरी पूजा में देवदुष्य युगल के छल से उत्तम केवल दर्शन-ज्ञान रूपी युगल की कामना करते हैं. कानों को अंजली बना कर (परमात्मा के) सुगुणरूपी अमृत को पीते हुए सभी संशयों का नाश कर दुखों को मूल से नाश करता हूँ (२).
अथ चतुर्थ वासक्षेप पूजा
[राग - गोडी में दोहा]
पूज चतुर्थी इणि परें, सुमति वधारे वास II
कुमति कुगति दूरे हरे, दहे मोह दल पास II १ II
अर्थ: वासक्षेप अर्थात सुगन्धित द्रव्य की यह चौथी पूजा सुमति अर्थात सुबुद्धि को बढ़ानेवाली है. यह पूजा मोह के समूह रूप वंधन का दहन करनेवाली एवं कुमति व कुगति को दूर करनेवाली है.
[राग सारंग]
हां हो रे देवा बावन चंदन घसि कुंकुमा,
चूरण विधि विरचि वासु ए II हांo I१I
कुसुम चूरण चंदन मृगमदा,
कंकोल तणो अधिवासु ए II हांo I२I
वास दशो दिशि वासतें,
पूजे जिन अंग उवंगु ए II हांo I३I
लाछी भुवन अधिवासिया ए,
अनुगामिक सरस अभंगु ए II४II
अर्थ: हे देव! जिस प्रकार इंद्र (वासव-वासु) ने चूर्ण बना कर (प्रभु की पूजा की थी वैसे) बाबना चन्दन, कुंकुम, (केशर) के साथ घसकर (१) पुष्पों का चूर्ण, कंकोल, कस्तूरी, एवं पुनः चन्दन मिलकर अधिक सुगन्धित कर (२) दशों दिशाओं को सुगन्धित करते हुए जिनवर के अंग उपांग की पूजा करते हैं (३). यह पूजा जगत के जीवों के लिए सरस एवं अभंग ऐसे मोक्ष पद का अनुगमन करानेवाली है.
[राग -गोडी तथा पूर्वी]
मेरे प्रभुजी की पूजा आणंद मिले, मेरे प्रभुजी की II मेo II
वास भुवन मोह्यो सब लोए, संपदा भेलें की II पूजाo II १ II
सतर प्रकारे पूजे विजय, देवा तत्ता थेई II
अप्रमित गुण तोरा चरण सेवा की II पूजाo II २ II
कुंकुम चंदनवासें पूजीयें, जिनवर तत्ता थेई II
चतुर्गति दुख गौरी चतुर्थी घनकी II पूजाo ३ II
अर्थ: मेरे प्रभु की पूजा से आनंद मिलता है. (वासक्षेप के) सुगंध ने सम्पूर्ण जगत का मन मोह लिया है, (और प्रभु की पूजा से) सम्पदाएँ भी मिलती है (१). तत्ता थेई नृत्य करते हुए विजय देव ने सत्रह प्रकार से प्रभु की पूजा की थी. प्रभु आपके चरणों की सेवा करने से अपरिमित गुणों की प्राप्ति होती है (२). "गौरी राग में गेय इस चौथी पूजा में केशर- चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से प्रभु की पूजा करने से चतुर्गति रूप गहन दुःख का नाश होता है और (मोक्ष रूपी) धन की प्राप्ति होती है.
अथ पंचम पुष्पारोहण पूजा
[दूहा]
मन विकसे तिम विकसतां, पुष्प अनेक प्रकार II
प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचमी गति दातार II १ II
जिस प्रकार पुष्प विकसित होता है उसी प्रकार (अनेक प्रकार पुष्पों से प्रभु पूजा करने से) मन भी विकसित होता है. प्रभु की ये पंचमी पूजा है और यह पञ्चमी अर्थात मोक्ष गति प्रदान करनेवाली है.
[राग -कामोद]
चंपक केतकी मालती ए, कुंद किरण मचकुंद II
सोवन जाइ जूहीका, बिउलसिरी अरविंद II १ II
जिनवर चरण उवरि धरे ए, मुकुलित कुसुम अनेक II
शिव - रमणी सें वर वरे, विधि जिन पूज विवेक II २ II
चम्पक, केतकी, मालती, चंद्र के सामान उज्जवल श्वेत किरणवाली मचकुन्द, जाई, जूही, बेली, श्री, कमल आदि अनेक प्रकार के खिले हुए पुष्प (१) जिनवर के चरणों में चढाने से एवं विधि व विवेक पूर्वक जिनपूजा करने से (वह श्रावक) श्रेष्ठ शिव रमणी को वरण करता है (२).
[राग कानड़ो]
सोहेरी माई वरणे मन मोहरी माई वरणे II
विविध कुसुम जिन चरणे II सोo II
विकसी हसि जंपें साहिबकुं, राखि प्रभु हम सरणें II सोo II १ II
पंचमी पूज कुसुम मुकुलित की, पंच विषय दुख हरणे II सोo II
कहे साधुकीरति भगति भगवंत की, भविक नरा सुख करणे II सोo II २ II
मेरे प्रभु (विभिन्न) वर्णों से शोभायमान हो रहे हैं, इन वर्णों की छटा से मेरा मन मोह रहा है. विविध प्रकार के (पंचवर्णी) पुष्प प्रभु के चरणों में (शोभायमान हो रहे हैं). यह विकसित फूल मानो हंस कर यह कह रहे हैं की हे प्रभु आप हमें अपने शरण में रखिये(१). खिले हुए फूलों की यह पांचवीं पूजा पांच इन्द्रिय विषयों के दुःख का हरण करनेवाली है. यहाँ साधुकीर्ति कह रहे हैं की परमात्मा की भक्ति भविक जीवों के सुख का कारण है (२).
अथ छट्ठी मालारोहण पूजा
[राग - आशावरी में दूहा]
छट्ठी पूजा ए छती, महा सुरभि पुफमाल II
गुण गूंथी थापे गले, जेम टले दुखजाल II १ II
अत्यंत सुगन्धित पुष्पों की माला की यह छठी पूजा है. ये पुष्पमाला जैसे गुणों की माला है जिसे प्रभु के गले में डालने से दुखों का जाल टल जाता है.
[राग -रामगिरि गुर्जरी]
हे नाग पुन्नाग मंदार नव मालिका,
हे मल्लिकासोग पारिधि कली ए I१I
हे मरुक दमणक बकुल तिलक वासंतिका,
हे लाल गुलाल पाडल भिलि ए I२I
हे जासुमण मोगरा बेउला मालती,
हे पंच वरणे गुंथी मालथी ए I३I
हे माल जिन कंठ पीठे ठवी लहलहे,
हे जाणि संताप सब पालती ए II४II
नाग चम्पा, सुल्तान चंपा अर्थात नागकेशर, नंदनवन के पांच पुष्पों में से एक मंदार, नवमालिका- बेली जैसा एक फूल, मल्लिका, अशोक, एवं परिध की कली, (१) मरुवा, दौना, (एक पीले रंग का फूल) वकुल, तिलक या तिलिया (एक सफ़ेद रंग का फूल), वासंतिका- नवमल्लिका, लाल फूल, गुलाब, पाडल अर्थात जवा, आदि फूलों को इकठ्ठा कर (२) मोगरा, बेली, मालती आदि पांच रंगों के फूलों की माला गूँथ कर (प्रभु के कंठ में पहनाते) हैं (३) यह माला जिनेश्वर प्रभु के कंठ स्थान में लहलहाती है, और सभी लोगों के संताप को दूर करती है (४)
[राग-आशावरी]
देखी दामा कंठ जिन अधिक एधति नंदे,
चकोरकुं देखि देखि जिम चंदे II
पंचविध वरण रची कुसुमा की,
जैसी रयणावली सुहमीदें II देo II १ II
छठी रे तोडर पूजा तब डर धूजे,
सब अरिजन हुइ हुइ तिम छंदे II
कहे साधुकीरति सकल आशा सुख,
भविक भगति जे जिण वंदे II देo II २ II
जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर हर्षित होता है वैसे जिनवर देव के कंठ में माला (दामा) देखकर अत्यंत अधिक आनंद होता है. पांच प्रकार के वर्णों के पुष्पों की माला ऐसी शोभायमान है जैसे रत्नों की आवली अर्थात लाइन बनाई गई हो (१). यह छठी पूजा पुष्पमाला अर्थात टोडर की है, यह पूजा करनेवालों से सभी प्रकार के डर भी डर जाते हैं और सभी शत्रु भी भयभीत हो जाते हैं. आशावरी राग में गाये जाने वाली इस पूजा में साधुकीर्ति कहते हैं की जो भाविक जन भक्तिपूर्वक जिनदेव की पूजा करता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और सभी सुखों की प्राप्ति होती है.(२)
अथ सप्तम वर्णपूजा प्रारंभ (फूलों की आंगी)
[दूहा]
केतकि चंपक केवडा, शोभे तेम सुगात II
चाढो जिम चढतां हुवे, सातमियें सुखशात II १ II
केतकी, चम्पा, केवड़ा, आदि पुष्पों से परमात्मा का सुन्दर शरीर शोभायमान हो रहा है. सातवीं पूजा में इन फूलों को चढ़ाते हुए (भावों की उच्च श्रेणी) चढ़ कर सुख एवं साता को प्राप्त करते हैं.
[राग - केदार गोडी]
कुंकुम चरचित विविध पंच वरणक, कुसुमस्युं हे I
कुंद गुलाबस्युं चंपको दमणको, जासुस्युं ए II
सातमी पूजमें आंगिये अंगि, अलंकियें ए II
अंगी आलंकि मिस मानिनी मुगती आलिंगियें ए II १ II
केशर से पूजन कर पञ्च वर्ण के चमेली, गुलाब, चम्पा, दौना जवा, आदि विविध पुष्पों से सातवीं पूजा में प्रभु के अंग में आंगी की रचना कर उसे अलंकृत करते हैं. आंगी की रचना से प्रभु को अलंकृत कर कर मानो मुक्ति का आलिंगन करते हैं.
[राग भैरवी]
पंच वरण अंगी रची, कुसुमनी जाती II फूलनकी जाती II पंo II
कुंद मचकुंद गुलाब सिरोवरी (शिरोमणि), कर करणी सोवन जाती II पंo II
दमणक मरुक पाडल अरविंदो, अंश जूही वेउल वाती II पंo II १ II
पारिधि चरणि कल्हार मंदारो, वर्ण पटकुल बनी भांति II पंo II
सुरनर किन्नर रमणि गाती, भैरवी कुगति व्रतति दाती II पंo II २ II
विभिन्न जातियों के पांच रंगों के फूलोंसे आंगी बनाते हैं. चमेली, कनकचंपा, गुलाब के फूलों को शिर के ऊपर; दौना, मरुवा, पाटली, कमल, आदि कंधे पर और जूही एवं बेलि सुगंध फैला रही है, पीला या सफ़ेद कमल, मंदार एवं पाटल आदि चरणों में शोभायमान हैं. देव, मनुष्य, किन्नर आदि की मनोरम स्त्रियां (प्रभु के गीत) जाती हैं और भैरवी राग में गेय यह पूजा कुगति रूपी लताओं को काटने के लिए दांती (हंसिया) के समान है.
अथ अष्ठम गंधवटी पूजा
[दूहा राग-सोरठ]
अगर सेलारस सार, सुमति पूजा आठमी II
गंधवटी घनसार, लावो जिन तनु भावशुं II १ II
(सत्रह भेदी पूजा में यहाँ दोहे की जगह सोरठा है जिसका छंद दोहे से उल्टा होता है.)
जिनेश्वर देव के शरीर को भावपूर्वक गंधवटी से पूजन करने रूप यह आठवीं पूजा सुमति प्रदान करनेवाली है. अगर, शीलारस, बरास आदि सुगन्धित द्रव्य से प्रभु की पूजा का अधिकार (शास्त्रों में वर्णित) है.
[दोहा-सोरठ राग, (प्रक्षिप्त)]
सोरठ राग सुहामणी, मुखें न मेली जाय II
ज्युं ज्युं रात गलंतियां, त्यूं त्यूं मीठी थाय II १ II
सोरठ थारां देश में, गढ़ां बड़ो गिरनार II
नित उठ यादव वांदस्यां, स्वामी नेम कुमार II २ II
जो हूंती चंपो बिरख, वा गिरनार पहार II
फूलन हार गुंथावती, चढ़ती नेम कुमार II ३ II
राजीमती गिरवर चढ़ी, उभी करे पुकार II
स्वामी अजहु न बाहुडे, मो मन प्राण आधार II ४ II
रे संसारी प्राणिया, चढ्यो न गढ़ गिरनार II
जैन धर्म पायो नही,गयो जमारो हार II ५ II
धन वा राणी राजीमती, धन वे नेम कुमार II
शील संयमता आदरी, पहोतां भवजल पार II ६ II
दया गुणांकी वेलडी, दया गुणांकी खान
अनंत जीव मुगते गया, दया तणे परमाण II ७ II
जगमें तीरथ दोइ बडा, सेत्रुंजो गिरनार II
इण गिर रिषभ समोसर्या, उण गिर नेम कुमार II ८ II (प्रक्षिप्त)
(सोरठा का सम्वन्ध सोरठ से जोड़ कर यहाँ पर बाद के काल में उपरोक्त छंद (प्रक्षिप्त) जोड़ दिए गए, यह मूल पूजा का अंश नहीं है.)
[राग-सामेरी]
कुंद किरण शशि उजलो जी देवा,
पावन घस घन सारो जी II
आछो सुरभि शिखर मृग नाभिनो जी देवा,
चुन्न रोहण अधिकारे जी II आo II
वस्तु सुगंध जब मोरिये जी देवा,
अशुभ करम चुरीजे जी II आo II
आंगण सुरतरु मोरिये जी देवा,
तब कुमति जन खीजे जी II
तब सुमति जन रीझे जी II १ II
चन्द्रमा के किरण के सामान उज्जवल व पवित्र घनसार अर्थात बरास, सभी सुगंधियों में श्रेष्ठ कस्तूरी, चन्दन का चूर्ण, आदि को घस कर मिलकर गंधवटी (बनती है). जब परमात्मा के सुगन्धित चूर्ण से विलेपन किया जाता है तब वह विलेपन करनेवाला अपने अशुभ कर्म को चूर्ण अर्थात नष्ट करता है यहाँ मोरिये का अर्थ युद्ध में मोर्चा अर्थात व्यूह रचना से है. पूजा करनेवालों के आँगन में सुरतरु अर्थात कल्पवृक्ष पुष्पित हुआ है (यहाँ मोरिये का अर्थ पुष्पित होना है), और तब कुमति अर्थात कुबुद्धि जन को खीझ उत्पन्न होती है और सुमति जनों को हर्ष उत्पन्न होता है.
[राग-सामेरी]
पूजो री माई, जिनवर अंग सुगंधे II जिo II पूo II
गंधवटी घनसार उदारे, गोत्र तीर्थंकर बांधे II पूo II १ II
आठमी पूज अगर सेलासर, लावे जिन तनु रागे II
धार कपूर भाव घन बरखत, सामेरी मति जागे II पूo II २ II
जिनवर का अंग सुगन्धित है उसे सुगंध से पूजो। बरास आदि उत्तम पदार्थों से युक्त गंधवटी से पूजन करने वाला तीर्थंकर गोत्र का वंध करता है. आठवीं पूजा में अगर, शिलारस, कपूर आदि द्रव्यों को प्रशस्त राग से प्रभु के शरीर में विलेपन करते हैं. कपूर की धारा के साथ जैसे सघन भावों की वर्षा होती है. सामरी राग में गेय यह पूजा अपनी मति अर्थात बुद्धि को जगानेवाली है.
अथ नवम ध्वज पूजा
[दुहा]
मोहन ध्वज धर मस्तकें, सुहव गीत समूल II
दीजें तीन प्रदक्षिणा, नवमी पूज अमूल II १ II
मन मोहने वाले ध्वज को मस्तक पे धारण कर, सुंदर गीत गाते हुए, तीन प्रदक्षिणा दे कर यह पूजा की जाती है और यह अमूल्य पूजा है.
[राग-गौडी में वस्तु छंद]
सहस जोयण सहस जोयण हेममय दंड,
युत पताक पंचे वरण II
घुम घुमंत घूघरी वाजे,
मृदु समीर लहके गयणं II
जाणि कुमति दल सयल भांजे (१)
सुरपति जिम विरचे ध्वज ए, नवमी पूज सुरंग II
तिण परि श्रावक ध्वज वहन, आपे दान अभंग II २ II
एक हज़ार योजन ऊँचा सुवर्णमय दंड, पांच रंग की पताकाओं से युक्त, जिसमे घूम घूम कर घुंगरू वज रहे हैं, आकाश में हलकी हलकी कोमल हवा बह रही है, मानो सभी कुमति के समूह को नष्ट करनेवाली हो (१), देवराज इंद्र ने जिस प्रकार इंद्र ध्वज की रचना की थी वैसे ही श्रावक भी ध्वज का वहन कर, वो ऐसा दान करता है जिसका कोई अंत नहीं. (२)
[राग नट्ट -नारायण]
जिनराज को ध्वज मोहनां, ध्वज मोहना रे ध्वज मोहना II जिo II
मोहन सुगुरु अधिवासियो, करि पंच सबद त्रिप्रदक्षिणा I
सधव वधू शिर सोहणा II जिo II १ II
भांति वसन पंच वरण वण्यो री, विध करि ध्वज को रोहणां II
साधु भणत नवमी पूजा नव, पाप नियाणां खोहणां II
शिव मन्दिरकुं अधिरोहणा, जन मोह्यो नट्टनारायणा II जिo II २ II
जिनेश्वर देव का ध्वज मन मोहनेवाला है. मोह को नष्ट करनेवाले सुगुरु के द्वारा अधिवासित (अर्थात वासक्षेप डाल कर), सधवा स्त्री के शिर पर शोभायमान ध्वज को ले कर पांच प्रकार के (वाजित्रों के) शब्द करते हुए तीन प्रदक्षिणा दे कर (१) पांच रंग के कपडे से बने हुए ध्वज को विधि पूर्वक चढ़ाना है. साधुकीर्ति कहते हैं यह नवमी पूजा नौ प्रकार के पाप निदान (नियाणा) को नष्ट करनेवाली है, मोक्ष मंदिर में चढानेवाली है. "नट्टनारायण" राग में गेय यह पूजा जन मन को मोहनेवाली है.
अथ दशमी आभरण पूजा
[राग-केदार में दूहा]
शिर सोहे जिनवर तणे, रयण मुकुट झलकंत II
तिलक भाल अंगद भुजा, श्रवण कुंडल अतिकंत II १ II
दशमी पूजा आभरण, रचना यथा अनेक II
सुरपति प्रभु अंगे रचे, तिम श्रावक सुविवेक II २ II
रत्नों से बना हुआ देदीप्यमान मुकुट जिनवर के मस्तक में शोभायमान है, ललाट में तिलक, बांहों में अंगद (बाजूबंद), और कानों में कुण्डल बहुत ही प्रिय और मनोरम है (१). यह दसवीं पूजा आभूषण की है, जिसमे अनेक प्रकार से प्रभु की (अंग) रचना की जाती है. जिसप्रकार सुरपति अर्थात देवराज इंद्र ने प्रभु के अंगों को (आभूषणों से सजाया था) उसी प्रकार श्रावक भी विवेक पूर्वक यह कार्य करे (२).
[राग -गुंड मल्हार]
पांच पीरोजा नीलू लसणीया, मोती माणकने लाल रसणीया,
हीरा सोहे रे, मन मोहे रे,
धूनी चूनी पुलक करकेतनां, जातरूप सुभग अंक अंजना,
मन मोहे रे II १ II
मौलि मुकुट रयणें जडयो, काने कुंडल जुगते जुड़यो II
उरहारु रे मनवारु रे II २ II
भाल तिलक बांहे अंगदा, आभरण दशमी पूजा मुदा II
सुखकारु रे, दुखहारू रे II ३ II
पांच प्रकार के रत्न, अथवा सभी रत्न पांच पांच की संख्या में फ़िरोज़ा, नीला, लसनिया, मोती, मानक, हीरा, आदि सभी शोभते हैं और मन को मोह रहे हैं. चुन्नी (मानक का एक रूप), तामड़ा, कर्केतक, सोना, अंजन रत्न, आदि मनोहारी एवं सौभाग्यसूचक रत्न मन को मोह रहे हैं (१). मस्तक में मुकुट रत्नों से जड़ा हुआ है, कानों में कुण्डल बहुत ही सुन्दर बनाया गया है, (इनकी शोभा) ह्रदय का हरण करनेवाली है, और मन इनपे न्यौछावर हो जाता है (२). ललाट पे तिलक, और बाँहों में बाजूबंद, (ये सभी) आभरण (आभूषण) की यह दशमी पूजा प्रमुदित करनेवाली है. सुख करनेवाली एवं दुःख हरनेवाली है (३).
[राग-केदार]
प्रभु शिर सोहे, मुकुट मणि रयणे जड्यो II
अंगद बांह तिलक भालस्थल, येहु देखउ कोन घडयो II प्रo II १ II
श्रवण कुंडल शशि तरणि मंडल जीपे, सुरतरु सम अलंकरयो II
दुख केदार चमर सिंहासण,छत्र शिर उवरि धरयो,
अलंकृति उचित वरयो II २ II
प्रभु के मस्तक पर मणि रत्नों से जड़ित मुकुट शोभायमान है. बाँहों में बाज़ू बंद, ललाट में तिलक (की शोभा) देख कर कवि आश्चर्य से चकित पूछते हैं की इन्हे किसने बनाया? (१) कानों में कुण्डल चन्द्रमा और सूर्य की भी कांति को जीतने वाली अर्थात उस से भी अधिक है, और प्रभु कल्पवृक्ष के सामान (अलंकारों से) अलंकृत हैं. दुखों को नष्ट करने वाले केदार राग में गेय (केदार शब्द का द्विअर्थी प्रयोग) यह पूजा है. प्रभु चामर, सिंहासन आदि (प्रातिहार्यों से) सुशोभित हैं और शिर के ऊपर छत्र धरा हुआ है, इस प्रकार प्रभु श्रेष्ठ आभूषणों से उचित प्रकार से अलंकृत हैं (२).
अथ एकादश फूलधर पूजा
[दूहा]
फूलधरो अति शोभतो, फुन्दे लहके फूल II
महके परिमल महमहे, ग्यारमी पूज अमूल II १ II
फूलों से शोभित घर (फूलघर) अत्यंत शोभायमान है जिसमें फूंदों में फूल खिल रहा है. यहाँ पर "महके परिमल महमहे" तीनों लगभग समानार्थक हैं और खुशबू की आत्यंतिक अवस्था का वोध कराने के लिए शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया है. भावार्थ ये है की फूलघर के फूलों की विशिष्ट सुवास चारों दिशाओं में तेजी से फ़ैल रही है. यह ग्यारहवीं पूजा अनमोल है.
{राग-रामगिरि कौतिकीया]
कोज अंकोल रायबेली नव मालिका,
कुंद मचकुंद वर विचकूल ए हांरे अइयो विचकूल ए II
तिलक दमणक दलं मोगरा परिमलं,
कोमल पारिधि पाडलु ए, हांरे अइयो चोरणूं ए II १ II
कोज, अंकोल अर्थात ढेरा या थेल नामक फूल (एलैजियम सैल्बीफोलियम या एलैजियम लामार्की), रायबेली, नवमल्लिका, चमेली, नागचम्पा, और श्रेष्ठ विचकूल फूल, तिलिया, दौना, मोगरा आदि की खुशबु से महकता हुआ, और कोमल पारिध एवं पाडल (जबा) का फुल चित्त को चुराने अर्थात मन को हरने वाला है.
[राग-कौतिकिया रामगिरि]
मेरो मन मोह्यो, फूलघरे आणंद झिले II
असत उसत दाम वघरी मनोहर,
देखत सबही दुरित खीले II फूo II १ II
कुसुम मंडप थंभ गुच्छ चंद्रोदय,
कोरणि चारु विमाणि सझे II
इग्यारमी पूज भणी हे रामगिरि,
विबुध विमाण जिको तिपुरी भजे II फूo II २ II
फूलघर ने मेरे मन को मोह लिया है और आनंद से तृप्त कर दिया है. दाम अर्थात फूलों की माला, बघरी अर्थात फूलों की बंगड़ी बना कर (फूलघर सजाया गया है जिसे) देख कर सभी पाप खिर गए अर्थात झर गए या नष्ट हो गए. फूलघर में पुष्प का मंडप बनाया गया है, खम्भों को पुष्प गुच्छ से सुसज्जित किया गया है और उसमे चँदवा भी लगाया गया है. सुन्दर मनमोहक कोरनी से इसे (देव) विमान सदृश सजाया गया है. यह ग्यारहवीं पूजा रामगिरि राग में गाई गई है और यह पूजा ऐसी है जैसे देव विमान में इंद्र प्रभु की स्तवन करते हैं.
अथ द्वादस पुष्पवर्षा पूजा
[दूहा-मल्हार]
वरषै बारमी पूज में, कुसुम बादलिया फूल II
हरण ताप सवि लोक को, जानु समा बहु मूल II १ II
यह बारहवीं पुष्पवर्षा पूजा है. जगत के सभी ताप को दूर करने के लिए फूल बादल बन कर इतने बरसे की धरती घुटने तक फूलों से भर गई.
[राग-भीम मल्हार गुंड़मिश्र-देशी कड़खानी]
मेघ बरसै भरी, पुप्फ वादल करी,
जानु परिणाम करि कुसुम पगरं II
पंच वरणें बन्यो, विकच अनुक्रम चन्यो,
अधोवृंतें नहु=नहीं पीड़ पसरं II मेo II १ II
वास महके मिलै, भमर भमरी भिले,
सरस रसरंग तिणि दुख निवारी I
जिनप आगे करै, सुरप जिम सुख वरै,
बारमी पूज तिण पर अगारी II मेo II २ II
फूलों का बादल बना है ऐसा मेघ बरस रहा है और घुटने तक फूल भर गया है. पांच रंगों के फूल इस प्रकार से स्थित हैं की जिनमे उनकी डंडियां नीचे की तरफ हैं (और पंखुड़ियां ऊपर की ओर) और (जिनेश्वर देव के अतिशय से) उन्हें कोई पीड़ा भी नहीं होती है (१). (उन फूलों की) खुशबू से, महक से भौंरे-भौंरी आ कर (उनका रसपान कर रहे हैं). यह सरस रसरंग दुःख निवारण करनेवाला है. सुरपति इंद्र ने जिनपति के आगे जिस प्रकार पुष्पवर्षा की उसी प्रकार बारहवीं पूजा में श्रावक भी करते हैं (२).
[राग-भीम मल्हार]
पुप्फ वादलिया वरसे सुसमां II अहो पुo II
योजन अशुचिहर वरसे गंधोदक, मनोहर जानु समा II अहो पुo II १ II
गमन आगमन कुं पीर नहीं तसु, इह जिनको अतिशय सगुनें II
गुंजत गुंजत मधुकर इम पभणे, मधुर वचन जिन गुण थुणे II २ II
कुसुमसु परिसेवा जो करै, तसु पीर नहीं सुमिणे II
समवसरण पंचवरण अधोवृन्त, विबुध रचे सुमनां सुसमां II पुo II ३ II
बारमी पूज भविक तिम करे, कुसुम विकसी हसी उच्चरे II
तसु भीम बंधन अधरा हुवे, जे करै जै जिन नमा II पुo II ४ II
सुखकारक पुष्प के बादल बरस रहे हैं. योजन प्रमाण भूमि के अशुचि को हरण करनेवाला गंधोदक भी बरस रहा है. घुटने तक मनोहर फूल बरस गया है (१). इन पुष्पों के ऊपर आने-जाने वालों से इन्हे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती यह जिनेश्वर देव का अतिशय है. इन फूलों पर भौंरे गुंजारव कर रहे हैं मानो मधुर वचन से जिनेश्वर देव के गुण गा रहे हों (२).
फूलों से जो (तीर्थंकर परमात्मा की) सेवा अर्थात पूजा करता है उसका मन प्रसन्न रहता है और उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं होती. समवशरण में देवगण पांच रंगों के सुखदायक अधोवृन्त फूलों की यह रचना करते हैं अर्थात यह देवकृत अतिशय है (३).
(जिस प्रकार देवों ने किया) उस प्रकार जो भव्य जीव बारहवीं पूजा में पुष्पवर्षा करता है और विकसित पुष्प के समान आनंदित हो कर (प्रभु गुण) का उच्चारण करता है और जिनेश्वर देव का जय जयकार करते हुए उन्हें नमन करता है उसके (कर्मों के) दृढ एवं भयानक वंधन ढीले हो जाते हैं (४).
अथ त्रयोदश अष्ट मंगल पूजा
[दूहा-कल्याण राग]
तेरमि पूजा अवसरे, मंगल अष्ट विधान Ii
युगति रचे सुमंतें सही, परमानंद निधान II १ II
तेरहवीं पूजा में अष्टमंगल का विधान है. कुशलता पूर्वक शुभमति से (यह पूजा करने पर) परमानन्द रूप निधान की प्राप्ति होती है.
{राग-वसंत]
अतुल विमल मिल्या, अखंड गुणे भिल्या, सालि रजत तणा तंदुला ए II
श्लषण समाजकं, विचि पंच (पञ्चविध) वरणकं, चन्द्रकिरण जैसा ऊजला ए II
मेलि मंगल लिखै, सयल मंगल अखे, जिनप आगें सुथानक धरे ए II
तेरमि पूजविधि ते रमि मन मेरे, अष्ट मंगल अष्ट सिद्धि करे ए II अo II १ II
अतुलनीय, निर्मल, अखण्ड आदि गुणों से परिपूर्ण एवं चन्द्रकिरण के सामान उज्जवल शालि धान्य, चावल, चांदी के चावल आदि पांच रंगों के धान से अष्ट मंगल लिख (आलेखन कर) जिनपति (जिनेश्वर देव) के आगे अच्छे स्थान में रखनेवाले के सभी मंगल अक्षय होते हैं. यह तेरहवीं पूजा मेरे मन में रम गई है. अष्ट मंगल अष्ट सिद्धि प्रदान करनेवाली है.
[राग-कल्याण]
हां हो तेरी पूजा बणी है रसमें II
अष्ट मंगल लिखै, कुशल निधानं, तेज तरणि के रसमें II हांo II १ II
दप्पण भद्रासण नंद्यावर्त्त पूर्ण कुंभ, मच्छयुग श्रीवच्छ तसु मे II
वर्द्धमान स्वस्तिक पूज मंगलकी, आनंद कल्याण सुखरसमें II हांo II २ II
हे प्रभु तुम्हारी पूजा बड़ी रसीली है. अष्टमंगल का आलेखन करने से कुशल मंगल रूप संपत्ति और सूर्य के समान तेज प्राप्त होता है। कल्याण राग में गेय इस पूजा में दर्पण, भद्रासन, नंद्यावर्त, पूर्णकलश, मत्स्य युगल, श्रीवत्स, वर्द्धमान एवं स्वस्तिक इन अष्ट मंगलों से पूजा करने से आनंद, कल्याण एवं सुखरस की प्राप्ति होती है.
अथ चतुर्दश धूप पूजा
[दूहा]
गंधवटी मृगमद अगर, सेल्हारस घनसार II
धरि प्रभु आगल धूपणा, चउदमि अरचा सार II १ II
गंधवटी, कस्तूरी, अगर, शिलारस, और कपूर-बरास से निर्मित धुप प्रभु के सन्मुख रख कर (अग्र पूजा) की गई धुप पूजा, यह चौदमी पूजा है और यह सारभूत है.
[राग-वेलावल]
कृष्णागर कपूरचूर, सौगन्ध पंचे पूर,
कुंदरुक्क सेल्हारस सार, गंधवटी घनसार
गंधवटी घनसार चंदन मृगमदां रस मेलिये, श्रीवास धूप दशांग,
अंबर सुरभि बहु द्रव्य भेलियें II
वेरुलिय दंड कनक मंडं, धूपधाणूं कर धरे II
भववृत्ति धूप करंति भोगं, रोग सोग अशुभ हरे II १ II
(धुप का वर्णन कर अब धूपदानी का वर्णन करते हैं). सोने के दंड में वैदूर्य मणि जड़ कर धूपदानी बनी है जिसे श्रावक अपने हाथ में लेकर (प्रभु के आगे धुप खेता है). धुप पूजा करनेवाला भववृत्ति रूप भोग को नष्ट करता है अर्थात जैसे धुप जलकर धुंआ बनकर उड़ जाता है और उड़ते हुए सुगंध फैलता है उसी प्रकार जीव भी जब अपने भोग वृत्तियों को जला कर नष्ट करता है तब उसके आत्मगुणों की सुवास देशों दिशाओं में फ़ैल जाती है. यह धुप पूजा रोग, शोक एवं सभी प्रकार के अशुभ को नष्ट करनेवाली है.
[राग-मालवी गौड़]
सब अरति मथन मुदार धूपं, करति गंध रसाल रे II देवा, करo II
झाल (धाम) धूमावली धूसर, कलुष पातग गाल रे Ii देवा, सुo II १ II
ऊध्र्वगति सुचंति भविकुं, मघमघै किरणाल रे II देo II
चौदमि वामांगि पूजा, दीये रयण विशाल रे II
आरती मंगल माल रे, मालवी गौड़ी ताल रे II सo II २ II
सभी अरती अर्थात अप्रीति को नष्ट करनेवाले धुप का रसपूर्ण सुगंध (प्रभु के आगे) करते हैं. अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न धुषर वर्ण का धुआँ सभी कलुष और पाप को गलानेवाला है. (ऊपर उठता हुआ धुंआ) सुगंध से महकता हुआ भवी जीव के ऊर्ध्वगति को सूचित करता है और जीवन को किरणों से भर देता है. यह चौदहवीं धुप पूजा प्रभु के बायीं ओर की जाती है. इस पूजा के साथ ही विशाल दीपकों से आरती एवं मंगल दीपक करना है. यह पूजा मालवी गौड़ी राग में बनाई गई है.
( नोट: पुराने समय में इस पूजा के बाद आरती, मङ्गल दीपक किया जाता था, शेष तीन पूजा आरती, मंगल दीपक के बाद होती थी.)
अथ पंचदसम गीत पूजा
[दूहा]
कंठ भलै आलाप करि, गावो जिनगुण गीत II
भावो अधिकी भावना, पनरमि पूजा प्रीत II १ II
गले से अच्छी तरह आलाप कर प्रभु के गुणों का गीत गाओ और अधिक भावना भाओ, पंद्रहवीं पूजा के द्वारा प्रभु से प्रीत करो.
[आर्यावृन्त, राग-श्री]
यद्वदनंत-केवल- मनंत, फलमस्ति जैनगुणगानम II
गुणवर्ण-तान-वाद्यैर्मात्रा भाषा-लयैर्युक्तं II १ II
सप्त स्वरसंगीतैं:, स्थानैर्जयतादि-तालकरनैश्च II
चंचुरचारीचरै - गीतं गानं सुपीयूषम II २ II
जैन तीर्थंकरों के गुणगान का फल अनंत केवलज्ञान रूप फल की प्राप्ति है. उन गुणों को तान, वाद्य, मात्रा, भाषा और लय के साथ गान करो. संगीत के सप्त स्वरों, जयतादि स्थानों से, ताल एवं करण पूर्वक तथा दक्षता से गीतों से किया गुणगान अमृत वर्षी होता है. (चंचुर का अर्थ डिक्शनरी में दक्ष है। यह कोई ताल है ऐसा कोई उल्लेख मिला क्या?)
[राग-श्री राग]
जिनगुण गानं श्रुत अमृतं I
तार मंद्रादि अनाहत तानं, केवल जिम तिम फल अमितं II जिo II १ II
विबुध कुमार कुमारी आलापे, मुरज उपंग नाद जनितं II
पाठ प्रबंध धूआ प्रतिमानं, आयति छंद सुरति सुमितं II २ II
शब्द समान रुच्यो त्रिभुवनकुं, सुर नर गावे जिन चरितं II
सप्त स्वर मान शिवश्री गीतं, पनरमि पूजा हरे दुरितं II जिo II ३ II
जिनेश्वर देव के गुणों का गान करना सुनने में अमृत के समान है. तार, मन्द्र आदि सप्तकों में और अनाहत तान से गेय गीत केवल ज्ञान रूप अमित फल देनेवाले है. मृदंग, उपंग आदि से नाद उत्पन्न कर देव कुमार एवं देव कुमारी आलाप करते हैं. अविच्छिन्न क्रम से दोषरहित पथ का सुव्यवस्थित प्रवंधन कर, ध्रुव अर्थात निश्चित मापदंड के साथ, प्रमाणोपेत, आलाप का विस्तार कर, छन्दवद्ध गायन मन को अति अनुरक्त करता है.
शब्द अर्थात बाग्यंत्र एवं वाद्य यंत्रों से उत्पन्न वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक के सटीक प्रयोग से एवं सामान अर्थात एक ही स्थान से उच्चारण किये जानेवाले स्वरों के माध्यम से, जो परिवेश बनता है वह त्रिलोक को रुचिकर है. ऐसे मधुर गायन से देवगण एवं मनुष्य जिन चरित्र का गान करते हैं. सात स्वरों के परिमानवाला अर्थात सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति के श्री राग में गेय यह पंद्रहवीं पूजा दुखों को दूर कर शिवफल प्रदान करनेवाली है.
अथ षोडश नृत्य पूजा
[दूहा]
कर जोड़ी नाटक करे, सजि सुंदर सिणसार II
भव नाटक ते नवि भमे, सोलमि पूजा सार II १ II
सुन्दर स्त्रियां सोलह श्रृंगार कर (प्रभु के आगे) सारभूत सोलहवीं पूजा में प्रभु के आगे नाटक करती है. ऐसा करनेवाला भव नाटक में भ्रमण नहीं करता.
[राग-शुद्ध नट्ट II शार्दुलविक्रीड़ितं वृंत]
भावा दिप्पीमणा सुचारुचरणा, संपुन्न-चंदानना,
सप्पिम्मासम-रूप-वेस-वयसो, मत्तेभ-कुम्भत्थणा I
लावण्णा सगुणा पिक्स्सरवई , रागाई आलावना
कुम्मारी कुमरावी जैन पुरओ, नच्चन्ति सिंगारणा II १ II
भावों से दीप्तिमान, सुन्दर चरणों वाली, पूर्ण चन्द्रमा के सामान मुखवाली, सुन्दर रूप व बेषभूशा वाली समवयस्क, मस्तक पर कलश रख कर (मत्तेभ या मत्थेभ), लावण्य एवं गुणों से युक्त कोयल के सामान मधुर स्वरवाली कुमारिकाएँ एवं कुमार (युवक-युवतियां) श्रृंगार करके विभिन्न रागों में आलाप करते हुए जिनेश्वरदेव के मंदिर में नृत्य करतें हैं.
[गंध]
तएणं ते अट्ठसयं कुमार-कुमरिओ सुरियाभेणं देवेणं संदिट्ठा,
रंग मंडवे पविट्ठा जिणं नमंता गायंता वायंता नच्चन्तित्ति II
उस समय एक सौ आठ देव एवं देवी सुरियाभ देव के साथ रंग मंडप में प्रवेश करते हैं, जिनेश्वर देव को नमन करते हैं, गाते हैं, बजाते हैं और नाचते हैं.
[राग-नट्ट त्रिगुण]
नाचंति कुमार कुमरी, द्रागडदि तत्ता थेइ,
द्रागडदि द्रागडदि थोंग थोगनि मुखें तत्ता थेइ II नाo II १ II
वेणु वीणा मुरज वाजै, सोलही सिंणगार साजे, तन-------
घणण घणण घूघरी धमके, रण्णंण्णंणं नानेई II नo II २ II
कसंती कंचुंकी तरुणी, मंजरी झंकार करणी शोभंति कुमरी,
हस्तकृत हावादि भावे, ददंति भमरी II नाo II ३ II
सोलमी नाट्क्कतणी, सुरीयाभें रावण्ण किनी सुगंध तत्ता त्थेई II
जिनप भगतें भविक लीणा, आनंद तत्ता थेई II नo II ४ II
कुमार एवं कुमारी नाच रहे हैं और विभिन्न बाद्ययन्त्रों के बोल निकल रहे हैं जैसे द्रागडदि द्रागडदि, थोंग थोगनि, तत्ता थेइ आदि. बांसुरी, बीणा, मृदंग आदि बाद्ययन्त्र बज रहे हैं, और सोलह श्रृंगार करके कुमारिकाएँ घुंघरू की घमक के साथ नृत्य कर रहीं हैं. तरुणी स्त्रियां अपनी कंचुकियों को कस कर, मञ्जरी की झंकार के साथ, अपने हाथों से विभिन्न प्रकार की नृत्य मुद्राएं करते हुए भंवरी देते हुए वे कुमारियाँ शोभायमान हो रहीं हैं. जिस प्रकार यह सोलहवीं नाटक (नृत्य) पुजा सुरियाभ देव एवं रावण जैसों ने कर अपने भव को सार्थक किया था उसी प्रकार जिनेश्वर देव की भक्ति में लीन भवी जीव आनंद प्राप्त करते हैं.
अथ सप्तदश वाजित्र पूजा
[आर्यावृत्तम ]
सुर-मद्दल-कंसालो, महुरय-मद्दल-सुवज्जए पणवो II
सुरनारि नंदितूरो, पभणेई तूं नंदि जिणनाहो II
देव दुंदुभि, कांसी, एवं मधुर आवाज करनेवाले मादल, शंख आदि सुरीले वाद्य के साथ स्वर्गलोक की देवियां मंगलकारक तुरही बजाकर घोषणा कर रहीं है की हे जिन नाथ आप आनंद मंगल कारक हैं.
[दूहा]
तत घन सुषिरे आनघे, वाजित्र चहुविध वाय II
भगत भली भगवंतनी, सतरमी ए सुखदाय II १ II
तत, घन, सुषिर एवं आनघ यह चार प्रकार के वाजित्र होते हैं, और ये चारों ही प्रकार के वाजे बज रहे हैं. सत्रहवीं पूजा में भगवंत की यह सुन्दर भक्ति सुख देनेवाली है.
[राग-मधु माधवी]
तूं नंदि आनंदि बोलत नंदी,
चरण कमल जसु जगत्रय वंदी II
ज्ञान निर्मल वचनी (बावन) मुख वेदी,
तिवलि बोले रंग अतिहि आनंदी II तूंo II १ II
भेरी गयण वाजंती, कुमति त्याजंती II
प्रभु भक्ति पसायें अधिक गाजंती, सेवे जैन जयणावंती,
जैनशासन, जयवंत निरदंदि II
उदय संघे परिप्पर-वदंती II तूंo II २ II
सेवि भविक मधु माघ आखे फेरी, भवि ने फेरी नप्पभणंती,
कहे साधु सतरमी पूज वाजित्र सब,
मंगल मधुर धुनि कहे (कर) कहंती II तूंo II ३ II
(हे प्रभु ) तुम आनंद में हो, (उनके गुण) बोलने में भी आनंद होता है. जिनके चरण कमलों की तीनों लोक वंदना करता है. जिनका (केवल) ज्ञान निर्मल है, वचन भी निर्मल और तत्वज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे प्रभु की भक्ति में तबले के बोल भी आनंद रंग उत्पन्न कर रहे हैं. आकाश में भेरी (दुंदुभि) बज रही है, कुमति का त्याग हो रहा है, प्रभु भक्ति के प्रसाद से ज्यादा जोर से गाज रहा है. जयणा का पालन कर जिनेश्वर देव की सेवा होती है. जिनशासन जयवन्त और निर्द्वन्द प्रवर्त्तमान है. संघ का उदय है ऐसा (ये बाजित्र) बार बार कह रहे हैं. मधु माधवी राग में गेय यह गीत गा कर जो भविक जन प्रभु की सेवा करता है वह भव के चक्करों से बच जाता है. साधु कीर्ति कहते हैं की सत्रहवीं पूजा में सभी वाजित्र मंगल स्वरुप मधुर ध्वनि बोल रहे हैं.
कलश [राग-धन्याश्री]
भवि तूं भण गुण जिनको सब दिन, तेज तरणि मुख राजे II
कवित्त शतक आठ थुणत शक्रस्तव, थुय थुय रंग हम छाजे II भo १ II
अणहिलपुर शांति शिवसुख दाई, सो प्रभु नवनिधि सिद्धि आवजे II
सतर सुपूज सुविधि श्रावक की, भणी मैं भगति हित काजे II भo २ II
श्री जिनचन्द्र सूरि खरतरपति, धरम वचन तसु राजे II
संवत सोल अढार श्रावण धूरि, पंचमी दिवस समाजे II भo ३ II
दयाकलश गुरु अमरमाणिक्य वर, तासु पसाय सुविधि हुइ गाजे II
कहै साधुकीरति करत जिन संस्तव, शिवलीला सवि सुख साजे II भo ४ II
हे भविक जीव, हर दिन उन जिनेश्वर देव के गुणगान करो जिनके मुखमण्डल का तेज सूर्य के सामान है. पूजा के रचयिता साधुकीर्ति कहते हैं की शक्रस्तव के समान १०८ कवित्तों से यह पूजा गाते हुए उनपर स्तुति और भक्ति का रंग चढ़ा है. अणहिलपुर (जहाँ यह पूजा बनाई गई) में पूर्ण शांति है और यह शिवसुख देनेवाली है. यहाँ नव निधि और सिद्धि कारक श्रावक के करने योग्य यह सत्रह भेदी पूजा भक्ति की कामना से विधि पूर्वक बनाई है. (इस समय) खरतर गच्छाधिपति श्री जिनचन्द्र सूरी के धर्मवचन रूप शासन है. सम्वत सोलह सौ अठारह (ईश्वी सन 1561) के श्रावण बदी पंचमी के दिन इस पूजा को समाज के सामने प्रकाशित किया गया. अपने गुरु श्रेष्ठ दयाकलश अमर माणिक्य के प्रभाव से यह विधि बनाई जा सकी, जिनेश्वर देव के गुणगान करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की यह पूजा सभी सुखों के धाम शिव गति को प्राप्त करानेवाली है.
II इति सतरहभेदी पूजा सम्पूर्णा II
साधुकीर्ति कृत सत्रह भेदी पूजा के अनुवाद भाषा सम्बन्धी कठिनाई है। एक बार प्रयत्न कर मूल का अर्थ किया गया है। भविष्य में इसे और सुधार कर और सरल भाषा में अर्थ करने में सुज्ञ विद्वानों का सहयोग अपेक्षित है.