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Monday, September 23, 2024

हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेला जयपुर 2024

हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेला जयपुर 2024 

२६ सितम्बर से ३० सितम्बर २०२४ 


राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगरी जयपुर के दशहरा मैदान, आदर्शनगर में विशाल हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले का आयोजन दिनांक २६ सितम्बर से ३० सितम्बर, २०२४ तक होने जा रहा है. 

हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेला जयपुर 2024 



आध्यात्मिक/धार्मिक/सामाजिक/सेवाभावी संस्थाओं की प्रदर्शनी 

इस हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले में एक प्रदर्शनी भी आयोजित की जा रही है जिसमे राजस्थान की लगभग २०० आध्यात्मिक/धार्मिक/सामाजिक/सेवाभावी संस्थाएं अपने सेवाकार्यों को प्रदर्शित करेंगी. इन सभी सेवार्थ संस्थाओं को  मेला आयोजकों की ओर से निःशुल्क स्टॉल उपलब्ध कराया गया है. साथ ही सभी स्टॉल आयोजनों को निशुल्क भोजन भी प्रदान किया जायेगा. जयपुर के बाहर से आनेवाले प्रदर्शन कर्ताओं के लिए मेला स्थल के निकटवर्ती स्थानीय भाटिया भवन, राजा पार्क में निःशुल्क आवास व्यवस्था भी प्रदान की गई है. 

विज्ञानं एवं कला प्रदर्शनी 

इस हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले में विज्ञानं से सम्बंधित एक प्रदर्शनी का भी आयोजन रहेगा, जिसमे विद्यार्थियों द्वारा विज्ञानं मॉडल प्रदर्शित किया जायेगा. साथ ही एक कला प्रदर्शनी भी होगी जिसमे चित्रकार अपनी चित्रकला का प्रदर्शन करेंगे. इस कार्यक्रम को अभिव्यक्ति नाम दिया गया है. इसके माध्यम से कलाकारों को प्रोत्साहन मिलेगा एवं उनके जीविका उपार्जन में सहयोग भी. 

कन्या सुवासिनी वंदन, गंगा-भूमि वंदन, वृक्ष-गौ तुलसी वंदन, आचार्य वंदन 

कन्या सुवासिनी वंदन-मातुश्री अहिल्या बाई होल्कर


प्राचीन भारतीय संस्कृति को पुनरुज्जीवित करने हेतु इस हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले में अनेक धार्मिक सांस्कृतिक आयोजन भी रखे गए हैं. जिनमे कन्या सुवासिनी वंदन, गंगा- भूमि वंदन, वृक्ष-गौ-तुलसी वंदन, आचार्य वंदन (शिक्षक वंदन), मातृ-पितृ वंदन, परमवीर वंदन आदि प्रमुख हैं. इन सबके माध्यम से पारिवारिक व्यवस्था, गुरु शिष्य परम्परा एवं धार्मिक सामाजिक आस्थाओं को वल मिलेगा. साथ ही पूर्व सैनिकों के सनमामनार्थ परमवीर वंदन देशप्रेम एवं सत्वशीलता की भावना को प्रगट करनेवाला होगा. 


मातृ-पितृ वंदन-समरस भारत संगम 

इन सबके अतिरिक्त अनेक पूज्य साधु संतों के प्रवचन, भक्तामर पाठ, सामाजिक समरसता कार्यक्रम आदि अनेक कार्यक्रम होंगे. 

उद्घाटन समारोह 



इस मेले का उद्घाटन भारत के माननीय उपराष्ट्रपति श्री जगदीप जी धनखड़ के कर कमलों से होगा. समारोह में परम पूज्य जगत गुरु निम्बार्काचार्य जी, साध्वी ऋतम्भरा जी, स्वामी चिदानंद सरस्वती आदि अनेक प्रमुख धार्मिक संत का सान्निध्य प्राप्त होगा. साथ ही देव सांस्कृति विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति डॉ चिन्मय पांड्या का भी सान्निध्य रहेगा.  २६ सितम्बर सायं ४ बजे से उद्घाटन कार्यक्रम रहेगा. 

सांस्कृतिक कार्यक्रम 

कत्थक विविधा 


इस ५ दिवसीय मेले में प्रतिदिन अनेक मनोरंजक कार्यक्रम भी होंगे. २७ सितम्बर सायं ७ बजे मातुश्री अहिल्या बाई होल्कर नाटक का मंचन होगा. २८ तारिख कत्थक विविधा का आयोजन रहेगा जबकि २९ की शाम धरती राजस्थान री में राजस्थान की प्रतिभाएं अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगी. अनेक प्रतिष्ठित एवं उदीयमान कलाकार अलग अलग सत्रों में अपनी संगीत प्रतिभा का परिचय देंगे. इस प्रकार के अनेक स्वस्थ्य, सुरुचिपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रतिदिन रात्रि में आयोजन होगा.  

आगामी हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेला 

देश के विभिन्न प्रांतों में हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले का आयोजन होता रहता है जिससे देश के सभी राज्यों के आध्यात्मिक/धार्मिक/सामाजिक/सेवाभावी संस्थाएं अपने सेवाकार्यों को प्रदर्शित कर सकें. यह वास्तव में एक अखिल भारतीय उपक्रम है. निकट भविष्य में होनेवाले हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा मेले का स्थान एवं समय निम्नरूप है. 

७ से १४ नवम्बर २०२४- हैदराबाद, तेलंगाना  

२८ नवम्बर से १ दिसंबर २०२४ - इंदौर, मध्यप्रदेश  

१९ से २२ दिसंबर २०२४- पुणे 

९ से १२ जनवरी २०२५- मुंबई 

२३ से २६ जनवरी २०२५- अहमदाबाद 

HSS Fairs Shortly 

7th to 10th November 2024 at Hyderabad, Telangana
28th Nov. to 1st December 2024 at Indore, MP
19 to 22 December 2024 at Pune, Maharashtra 
9 to 12 January 2025 at Mumbai, Maharashtra 
23 to 26 January 2025 at Ahmadabad, Gujrat 
 
Thanks, 

Jyoti Kothari 

 (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)


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Thursday, September 5, 2024

बेले तेले को छट्ठ अट्ठम क्यों कहते हैं? प्राकृत जैन पारिभाषिक शब्दावली


अभी एक व्हाट्सएप पोस्ट पर मैंने बेले के लिए छट्ठ एवं तेले के लिए अट्ठम शब्द का उपयोग किया था, उसके बाद लोगों के फोन आने लगे की इसका अर्थ क्या है? इसने मुझे ये पोस्ट लिखने के लिए प्रेरित किया जिससे लोग प्राकृत भाषा के जैन पारिभाषिक शब्दों से परिचित हो सकें,  साथ ही प्राचीन भारतीय एवं जैन परम्पराओं को समझ सकें. 

त्याग प्रधान भारतीय एवं जैन संस्कृति

त्याग प्रधान भारतीय एवं जैन संस्कृति में एक-एक समय के भोजन त्याग का महत्व था. जैन परंपरा में भोजन त्याग को अनशन कहा जाता था, जो आज भी सामान्य भाषा में प्रचलित है. कालक्रम में इसे उपवास कहा जाने लगा और सामान्यतः पुरे दिन रात के भोजन त्याग को उपवास कहा गया. 

धारणा और पारणा

प्राचीन भारतीय संस्कृति में सामान्यतः एक दिन में दो बार भोजन लिया जाता था. इस हिसाब से दो वक्त के आहार त्याग को उपवास की संज्ञा दी गई. लेकिन जैन परंपरा की अपनी एक विशिष्टता है. इसमें उपवास के पूर्व दिवस मन को सम्पूर्ण आहार त्याग के लिए तैयार करने हेतु एक दिन पहले एक समय के भोजन त्याग कर उपवास की "धारणा" की जाती थी. उपवास की धारणा अर्थात मन में आहार त्याग की भावना से दृढ करना. इसी प्रकार 'पारणा' के दिन भी एकासन कर उपवास की अनुमोदना की जाती थी. 

उपवास, बेला, तेला: चउत्थ, छट्ठ और अट्ठम  

उपवास के पहले दिन एक समय का भोजन का त्याग, उपवास के दिन दो समय का भोजन त्याग, एवं एक दिन बाद भी एक समय का भोजन का त्याग- इस प्रकार कुल चार समय के भोजन का त्याग होता था. चार को प्राकृत भाषा में   चऊ और भोजन को भत्त कहते हैं इसलिए एक उपवास के लिए 'चउत्थ भत्त' शब्द का प्रयोग होता है, अर्थात चार बार के भोजन का त्याग. यहाँ ये भी जानने योग्य है की भत्त शब्द ही आगे चल कर भात और भाता में परिवर्तित हुआ. प्राचीन कल में भारतीयों का मुख्य भोजन चावल था था और उसे देशी भाषा में भट कहा जाता है. इसी प्रकार सफर में साथ ले जाये जाने वाले भोजन को भाता कहते हैं. 

इसी प्रकार दो दिन का उपवास अर्थात बेले में- दो दिन के चार बार और आगे पीछे के दिनों के दो बार ऐसे छह समय के भोजन का त्याग होता है और इसे 'छट्ठ भत्त' कहते हैं. तेले में तीन दिन के छ बार और आगे पीछे के दिनों के दो बार इस प्रकार आठ बार भोजन का त्याग होने से 'अट्ठम भत्त' कहते हैं. इन्हे ही संक्षेप में चउत्थ, छट्ठ और अट्ठम  कहा जाता है. 

कैसे करें गणना 

एक, दो और तीन उपवास की गणना ऊपर बताई गई. इससे ज्यादा उपवास को क्या कहा जायेगा? इसकी गणना का एक सरल नियम या फार्मूला है. जितने उपवास हों उसे दो से गुणा कर उसमे दो जोड़ दिया जाये तो सटीक जैन पारिभाषिक संख्या आ जाएगी. उसके अनुसार चार उपवास के लिए 4X2+2  अर्थात 10, ५ के लिए १२. 6 के लिए 14..... इस प्रकार आगे बढ़ते जाएँ. इन्ही संख्याओं को प्राकृत भाषामे दसम भत्त, दुवालसम भत्त, चउदसम भत्त ....... आदि कहा जाता है. पच्चक्खाण करते समय इसी प्रकार के शब्दों का उपयोग किया जाता है. 

अब सभी को समझ आ गया होगा की बेले तेले को छट्ठ अट्ठम क्यों कहते हैं.

धन्यवाद, 
ज्योति कोठारी 

Tags बेला, तेला, छट्ठ, अट्ठम,  प्राकृत भाषा, जैन धर्म, उपवास, 

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Tuesday, June 25, 2024

जैन साधु साध्वी बिहार: सड़क दुर्घटना से कैसे बचें

 
आये दिन बिहार रत जैन साधु साध्वियों की सड़क दुर्घटनाओं में  कालधर्म होने अथवा गंभीर रूप से घायल होने के समाचार मिलते रहते हैं. हम अपने संघ के अनमोल रत्नों को खो देते हैं. ऐसी हर एक घटना जैन समाज को झकझोर देती है. समय समय पर होनेवाली इन घटनाओं पर विचार मंथन भी होता है परन्तु यह होता है सतही तौर पर. दुर्घटना घटती है, दो चार दिन चिंता व्यक्त की जाती है और हम फिर पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं. वही ढाक के तीन पात. 

अभी अभी परम पूज्या खरतर गच्छीय प्रवर्तिनी साध्वी श्री शशिप्रभा श्री जी महाराज के दुर्घटना में कालधर्म होने का समाचार मिला. वो कोलकाता से बिहार कर रहीं थीं और कोलकाता के पास पांशकुड़ा में दुर्घटना घाट गई. प्रवर्तिनी जी से मेरा ४० वर्षों का घनिष्ठ संपर्क रहा है. घटना ने मुझे भी झकझोर दिया और यह लेख लिखणो को प्रेरित कर दिया. 

पूज्य जैन साधु साध्वियों के बिहार में दुर्घटना की समस्या 


आखिर ये समस्या क्या है और क्यों है? प्रायः जैन साधु साध्वी सुबह जल्दी बिहार करते हैं, इस समय थोड़ा अँधेरा भी रहता है. रात भर गाड़ी चलकर बाहन चालक भी थके हुए होते हैं और खाली सड़क में तेज गति से बाहन चलाते हैं. कई बार चालक नशे में भी होते हैं. सुबह के समय थके हुए बाहन चालक को नींद आना भी स्वाभाविक है. ऐसे समय में पैदल चलते हुए अथवा व्हील चेयर में चलते हुए साधु साध्वियों के साथ दुर्घटना हो जाती है. भारत में अपर्याप्त सड़क और बढ़ते हुए बाहन की समस्या तो है ही. 

श्वेताम्बर जैन साधु साध्वी सफ़ेद कपडे पहनते हैं और कईबार दूर से इनको देख कर अंधविश्वासी इन्हे बहुत-प्रेत भी समझ लेते हैं. यह भय भी कई बार दुर्घटना का कारण बनता है. जैन साधु साध्वी ज्यादातर समूह में चलते हैं और कई बार तेज गति के बाहन से अफरा तफरी मच जाती है और ये दुर्घटना का कारण बनता है. साथ ही रस्ते में जप करते हुए चलना, या बातें करते हुए चलना भी असावधानी का कारण बनता है और सड़क दुर्घटनाएं होती है. 

पूज्य जैन साधु साध्वियों के बिहार में दुर्घटना का समाधान 

इन दुर्घटनाओं का समाधान क्या? बहुत से लोग इन दुर्घटनाओं के समाधान के लिए समय समय पर सुझाव देते हैं. परन्तु इन सतही सुझावों से इसका समाधान नहीं हुआ और न ही होनेवाला है. भगवान महावीर स्वामी अपने संघ के साधु साध्वियों के आचरण के लिए अनेक नियम उपनियम बताये हैं. उन नियमों का पालन नहीं करना अनेक संकटों को जन्म देता है. आइये, जानते हैं साधु साध्वियों बिहार के उन मूल नियमों को और ये भी की उससे दुर्घटनाओं की समस्या कैसे कम हो सकती है? 

गृहस्थ प्रायः नियत बिहारी होता है परन्तु साधु साध्वी अनियत बिहारी. अर्थात गृहस्थ प्रायः निश्चित कार्यक्रम के अनुसार यात्रा करता है जैसे हम कहीं आने जाने की पहले से योजना बनाते हैं, ट्रेन या प्लेन का टिकट बुक करते हैं, होटल या धर्मशाला बुक करते हैं आदि आदि. परन्तु जैन आगमों एवं शास्त्रों के अनुसार साधु साध्वी अनियत बिहारी होते हैं और अपने बिहार की कोई निश्चित योजना नहीं बनाते. साधु साध्वियों के बिहार को सूखे पत्ते की उपमा दी गई है जिसे पवन जहाँ ले जाये वहां पहुँच जाये. 

जबकि आज शास्त्र आज्ञा का उल्लंघन कर बिहार की निश्चित योजना बनाई जाती है, पहुँचने का स्थान और समय निर्धारित किया जाता है. पहुँचने की जल्दी में लम्बे लम्बे बिहार का कार्यक्रम बनता है. और अधिकतर उच्च मार्गों (हाईवे) का उपयोग किया जाता है. चातुर्मास नजदीक होने पर ये घटनाएं और बढ़ जाती है. यदि कार्यक्रम निर्धारित न हो, चातुर्मास निर्धारित न हो,  तो पहुँचने की जल्दी भी नहीं रहेगी और व्यस्त उच्च मार्गों के उपयोग की भी जरुरत नहीं पड़ेगी. 

इसी प्रकार साधु साध्वियों के बिहार के लिए दिन के तीसरे प्रहर अर्थात दोपहर १२ से ३ बजे तक का समय शास्त्रों में निर्धारित किया गया है. जबकि अभी प्रायः बिहार का समय रात्रि के चौथे प्रहर, सुबह ४ बजे से दिन के प्रथम प्रहर सुबह ९ बजे तक हो गया है. चातुर्मास काल से पूर्व भीषण गर्मी के कारण यही समय अनुकूल भी रहता है. इस समय दोपहर के तीसरे प्रहर में बिहार और वो भी लम्बा बिहार असंभव हो जाता है. 

इस समस्या का समाधान क्या ? समाधान आगमों में निहित है. जब चातुर्मास ही निश्चित नहीं होंगे तो लम्बे बिहार की आवश्यकता ही नहीं होगी. जब चल सकें जितना चल सकें उतना चलेंगे. एक बात और भी है उच्च मार्ग और अन्य पक्की सड़कें डामर की होती है जो की गर्मी में बहुत ज्यादा गरम हो जाता है और नंगे पेअर बिहार करना लगभग असंभव हो जाता है. परन्तु कच्ची सड़कें इतनी गरम नहीं होती और उस पर चलना अपेक्षाकृत रूप से आसान होता है. कहीं पहुँचने की वाध्यता नहीं रहेगी तो सहजता से कच्ची सडकों का उपयोग भी कर पाएंगे.  

ऐसी अनेक बातें हैं यहाँ पर संकेत मात्र किया गया है. शेष बातें पूज्य जैनाचार्यों और गीतार्थ गुरु भगवंतों को विचार करना चाहिए।

आचार्य भगवंतों एवं गीतार्थ गुरु भगवंतों के लिए विचारणीय प्रश्न 


यह एक जटिल एवं बहुआयामी समस्या है. इस पर सभी पूज्य जैनाचार्यों और गीतार्थ गुरु भगवंतों को विचार करना चाहिए. विभिन्न आगम ग्रंथों विशेस्कर छेड़ सूत्रों में उत्सर्ग अपवाद मार्ग की गहन चर्चा है. आगमों के अतिरिक्त अनेक पूर्वधर महर्षियों एवं महान पूर्वाचार्यों ने अनेक ग्रंथों की रचना की है उनका अवलोकन कर समस्या के समाधान की दिशा में बढ़ना चाहिए. 

एक बात और, तीर्थंकर भगवन महावीर केवलज्ञानी त्रिकालज्ञ थे और उन्होंने संघ के लिए जो व्यवस्था निर्धारित की  उसमे वर्तमान काल भी उनकी दृष्टि में था. विशेषतः उनकी व्यवस्था पंचम काल को ध्यान में रखकर ही दी हुई है. अतः इस प्रकार की बात करना की यह महावीर के समय के लिए था वर्त्तमान की व्यवस्था के अनुरूप नहीं है आदि उचित नहीं लगता. खैर जो भी हो, वर्त्तमान के सभी आचार्यों और गीतार्थ गुरु भगवंतों को मिलकर आगमानुसार देश काल परिश्थिति का विचार कर इस सम्बन्ध में निर्णय लेना चाहिए. 




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Monday, May 13, 2024

गोदुहिका आसन क्यों, कब और कैसे?



तीर्थंकर परमात्मा भगवान् महावीर ने गोदुहिका आसन में केवल ज्ञान प्राप्त किया था यह बात सर्वविदित है. अभी तीन दिन बाद परमात्मा महावीर का केवल ज्ञान दिवस है. आइये समझते हैं गोदुहिका आसन का महत्व। यह एक गूढ़ विषय पर चर्चा है अतः आपसे निवेदन है की लेख को अंत तक पढ़ें. 

हम जानते हैं की भगवान् महावीर दीक्षा लेने के उपरांत खड़े खड़े (खडगासन) में अधिकांश समय साधना की. दीक्षा के उपरांत कभी भी सुखासन में नहीं बैठे।  इस प्रकार उनकी साधना अत्यंत कठोर थी और इस प्रकार की कठिन साधना कोई बिरले ही महापुरुष कर सकते हैं. अब प्रश्न ये है की जीवन पर्यन्त (12 वर्ष से अधिक) खडगासन में साधना करने के बाद छद्मस्थ अवस्थाके अंतिम पायदान में उन्होंने गोदुहिकासन में साधना क्यों की? 

बाहुवली स्वामी की खडगासन प्रतिमा


  जैन धर्म एवं दर्शन का विद्यार्थी होने के कारण धर्म और दर्शन के गूढ़ रहस्यों को जानने में मेरी हमेशा रूचि रही है. अतः इस विषय पर भी योग एवं ध्यान के विशेषज्ञों से कई बार चर्चा की. इन चर्चाओं में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आये. 

गोदुहिकासन एक ऐसा आसन है जो एकाग्रता को बहुत अधिक बढ़ाने वाला है. जैन दर्शन के विद्यार्थी जानते हैं की जब जीव अपने संयम जीवन की परम अवस्था में पहुँचता है तब वह क्षपक श्रेणी चढ़ता है और शुक्ल ध्यान के दूसरे पाद में पहुँच कर चार घाटी कर्मों का समूल उच्छेद कर केवल ज्ञान प्राप्त करता है. इस प्रक्रिया में अनादि काल की परंपरा में संचित अनंत कर्म अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट से भी कम समय) में सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाते हैं. इस समय मन की एकाग्रता अपने सर्वोच्च स्तर पर होती है. हमारे वर्त्तमान मानसिक दशा में हम उस मानसिक एकाग्रता की कल्पना भी नहीं कर सकते!!

महावीर स्वामी केवलज्ञान मुद्रा, ऋजुवालिका 

योग एवं ध्यान विशेषज्ञों का कहना था की महावीर की दशा का आकलन हम नहीं कर सकते केवल अनुमान लगा सकते हैं. महावीर अपने सम्पूर्ण साधना काल में अत्यंत एकाग्र थे फिर भी संभवतः एकाग्रता की सर्वोच्च दशा को प्राप्त करने के लिए उन्हें गोदुहिकासन की आवश्यकता मह्सूस हुई होगी. 

जैन आचार्यों एवं मनीषियों ने बारम्बार इस तथ्य को रेखांकित किया है की "महावीर ने किया वो नहीं करना, महावीर ने कहा वो करना".  इसका कारन ये है की महावीर ने जो कहा वो हमारे जैसे जीवों के लिए कहा. वही हमारे करने योग्य है. महावीर का सामर्थ्य असीम था और उस सामर्थ्य से वो जो कुछ भी करते थे या कर सकते थे वो हम हमारे सीमित सामर्थ्य से नहीं कर सकते. इसलिए महावीर की नक़ल करने से लाभ के स्थान पर हानि होने की सम्भावना अधिक है. 

इसे एक उदहारण से समझें. जब हम किसी जिम में जाते हैं तब वहां किसी अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति का चित्र लगा हुआ होता है. जिसकी वलिष्ठ मांसपेशियां हमें बहुत आकर्षित करती है. ऐसा कोई व्यक्ति जब जिम में आकर कसरत करता है और हम उसे देख कर उसकी नक़ल करने लगें तो क्या होगा?

ऐसा कहा जाता है की भारतीय पहलवान स्वर्गीय राममूर्ति रोज हज़ारों की संख्या में दंड बैठक करते थे, क्या हम ऐसा कर सकते हैं? क्या किसी ओलिम्पिक चैंपियन भारोत्तोलक के जैसे सैकड़ो किलो वजन हम भी उठा सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं. हम अपनी क्षमता के अनुसार ही उठा सकते हैं और क्षमता के अनुसार व्यायाम करने से ही वांछित लाभ मिल सकता है. ओलिम्पिक चैंपियन भारोत्तोलक (वेट लिफ्टर) की नक़ल करने से हमारी क्या हालत होगी उसकी केवल कल्पना ही कर सकते हैं. 

सिद्धासन

जैन शास्त्रों में श्रावक एवं सामान्य साधुओं के लिए लिए सुखासन, पद्मासन, सिद्धासन, वीरासन, खडगासन आदि आसन एवं योग मुद्रा, मुक्ताशुक्ति मुद्रा, जिन मुद्रा आदि मुद्राएं बताई है. सामायिक, प्रतिक्रमण, चैत्यवंदन आदि दैनिक क्रियाओं में इन आसनों एवं मुद्राओं का उपयोग होता है.  यथा योग्य समय में इनके अभ्यास से ही बांछित फल की प्राप्ति हो सकती है. ये प्रतिदिन करने योग्य आसान एवं मुद्राएं हैं. इनका निरंतर अभ्यास किये बिना  गोदुहिकासन में बैठना कितना उपयोगी होगा इस पर स्वयं विचार कर लें. 

Thanks, 
Jyoti Kothari 

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Monday, April 29, 2024

सत्वस्फोट शिविर, माउंट आबू : जैन शासन में एक अभिनव प्रयोग



अर्बुद गिरीराज (माउंट आबू) पर प्रभु श्री आदिनाथ की शीतल छाया मे एक ऐसा अद्भुत शिविर जिसमें जैनत्व के साथ होगा राष्ट्रवाद!! 

पोस्टर- सत्वस्फोट शिविर, माउंट आबू


शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास का स्वर्णिम अवसर. छुट्टियों का सदुपयोग, तीर्थ वंदना का लाभ, संतों का समागम. 

श्वेतांबर/ दिगंबर सभी जैन युवाओं के लिए! सब कुछ निःशुल्क!! आज ही रजिस्ट्रेशन करवाएं एवं अपने जैन मित्रों एवं परिचितों को प्रेरित करें!!

गर्मी की छुट्टियों में अनेक वर्षों से जैन धार्मिक शिविरों का आयोजन होता रहता है जिनमे जैन धर्म एवं अध्यात्म की शिक्षा दी जाती है. इसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनेक वर्ग लगते हैं जहाँ स्वयंसेवकों को शारीरिक सुदृढ़ता के साथ राष्ट्रवाद की शिक्षा प्रदान की जाती है. 19 से 25  मई तक देलवाड़ा मंदिर परिसर, माउंट आबू  में आयोजित सत्वस्फोट शिविर इन दोनों का सुन्दर मिश्रण है. इस शिविर में जैन युवाओं के लिए शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास का स्वर्णिम अवसर है. 

इस शिविर के लिए भारत भर के युवाओं में उत्साह है. केवल राजस्थान ही नहीं गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्णाटक, तमिलनाडु आदि सभी राज्यों से युवाओं का शिविर के लिए रजिस्ट्रेशन हो रहा है. भारत के बाहर विदेशों से भी कुछ रजिस्ट्रेशन हुए हैं. 

अधिकांश जैन धार्मिक शिविर समुदाय विशेष (जैसे दिगंबर, स्थानकवासी, खरतर गच्छ, तपा गच्छ, तेरापंथी या स्थानकवासी) की परम्पराओं के अनुसार आयोजित होता है एवं उसी संप्रदाय के अनुसार शिक्षा दी जाती है. परन्तु इस शिविर में संप्रदाय निरपेक्ष जैन धर्म के मूल तत्वों का वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में पूज्य जैन आचार्यों द्वारा अध्ययन करवाया जायेगा. बौद्धिक विकास के लिए इतिहास, संस्कृति, व्यवसाय, अर्थनीति आदि विषयों पर भी विषय विशेषज्ञों का बौद्धिक प्राप्त होगा. साथ ही शारीरिक दृढ़ता के विकास हेतु क्रीड़ा विशेषज्ञों द्वारा दण्डयुद्ध, मुष्ठि युद्ध, योगाभ्यास, तलवरवाजी, तीरंदाजी आदि भी सिखाया जायेगा. श्वेताम्बर एवं दिगंबर समाज के सभी समुदायों के 12 से 40 वर्ष आयु के विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जायेगा. 

इस शिविर में श्वेताम्बर दिगंबर दोनों समुदायों के पूज्य आचार्य भगवन्त, मुनि भगवन्त, साध्वी जी महाराज आदि की निश्रा एवं सान्निध्यता प्राप्त होगी. इस शिविर को अनेक पूज्य जैन आचार्यों का वरद हस्त एवं आशीर्वाद प्राप्त है.  शिविरार्थियों को उनके सारगर्भित प्रवचन का विशेष लाभ प्राप्त होगा. साथ ही अनेक जैन विद्वान मनीषी गणों की विद्वत्ता का रसास्वादन भी कर सकेंगे. 

राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय स्तर के वरिष्ठ प्रचारकों की उपस्थिति एवं मार्गदर्शन इस शिविर को गौरवान्वित करेगी. आयोजक श्री जिन शासन सेवक संघ के साथ सेठ श्री कल्याण जी परमान्द जी पेढ़ी, सिरोही एवं  अखिल भारतीय खरतर गच्छ युवा परिषद् भी इस शिविर में सहयोगी है. इसके साथ ही देश के अनेक संघ एवं युवा परिषदों व गणमान्य श्रावकों का भी समर्थन मिल रहा है. आयोजन से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए ज्योति कोठारी, जयपुर ने बताया की श्री कपिल जी राठौड़, पुणे, संवेग भाई एवं चिराग भाई, अहमदाबाद इस शिविर के प्राण स्वरुप हैं. 

Thanks, Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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Friday, March 8, 2024

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जैन साधु साध्वी एवं जैन समाज Part 2

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जैन साधु साध्वी एवं जैन समाज- इसी नाम से ६ वर्ष पहले एक ब्लॉग लिखा था. यह ब्लॉग आज और अधिक प्रासंगिक हो गया है. इसलिए इस ब्लॉग का भाग २ लिखने का मन हो गया. उपरोक्त लिंक पर क्लीक कर लेख का प्रथम भाग पढ़ सकते हैं. 

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की व्यवस्थाओं से जैन संघों को बहुत कुछ सीखना चाहिए. किस प्रकार मात्र 2500 प्रचारकों के सहारे यह एक राष्ट्रव्यापी संगठन का सञ्चालन करता है. यह संगठन पुरे भारत में एक सांस्कृतिक सामाजिक परिवर्तन का वाहक भी है. देश को दो-दो प्रधानमंत्री एवं अन्य अनेक समर्पित राजनेता देनेवाले इस संगठन की विशेषताएं अपना कर जैन संघ एवं जैन समाज भी राष्ट्रहित में अपना बड़ा योगदान दे सकता है.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) एवं जैन समाज की व्यवस्थाओं में अनेक समानताएं हैं. जिस प्रकार जैन समाज जैन संघ के रूप में जाना जाता है उसी प्रकार यह भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या केवल संघ के नाम से जाना जाता है. जिस प्रकार जैन संघ की व्यवस्था गृहत्यागी साधु साध्वी एवं गृहस्थ श्रावक श्राविका के माध्यम से होती है उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की व्यवस्था भी गृहत्यागी प्रचारक एवं गृहस्थ स्वयंसेवक आदि के माध्यम से होता है. इस प्रकार देखा जाये तो दोनों में ही सारी व्यवस्था गृहस्थ एवं गृहत्यागी रूपी दो पहियों पर टिकी है. 

भगवान महावीर 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की प्राथमिक इकाई स्वयंसेवक है. इन्ही स्वयंसेवकों में से कोई गृहस्थ जीवन का त्याग कर पूर्णकालिक प्रचारक बन जाता है, कुछ लोग गृहस्थ जीवन में रहते हुए विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का सर्वोच्च दायित्व सर-संघचालक का होता है, जो की एक प्रचारक होते हैं. सभी प्रचारक, अन्य क्षेत्रीय संघचालक, कार्यवाह एवं सभी स्वयंसेवक सर-संघचालक के निर्देशों का पालन करते हैं. सर-संघचालक का पद जैन संघ के "युगप्रधान" आचार्य जैसा होता है, जो सभी अन्य आचार्यों, साधु-साध्वियों के नायक होते हैं एवं सम्पूर्ण श्रावक श्राविका संघ भी उनकी आज्ञा का पालन करता है. 

अन्य प्रचारक गण आचार्य/ साधुओं के सामान होते हैं जो अपना गृहत्याग कर संघ के कार्यालयों या अन्य गृहस्थियों के घर में आवश्यकतानुसार निवास करते हैं एवं उन्हीके माध्यम से अपनी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं.  अन्य सभी संघचालक, कार्यवाह आदि गृहस्थ होते हैं एवं अपने अपने गृहस्थ धर्मों का पालन करते हुए राष्ट्रसेवा के कार्य में तत्पर रहते हैं. ये ठीक उसी प्रकार है जैसे अग्रणी जैन श्रावक अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए जैन संघ के विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करते हैं. सामान्य स्वयंसेवक सामान्य श्रावकों की भांति होते हैं जो गृहस्थ रहते हुए अपने धर्म का पालन करते हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव वलिराम हेडगेवार


 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना आज से 100 वर्ष पूर्व सन 1925 में केशव वलिराम हेडगेवार ने की थी उस समय से लेकर अब तक अनेक उतार चढ़ावों के बाबजूद यह निरंतर प्रगति करता हुआ आज विश्व के अग्रिम संगठनों में से एक है. इसकी विशेषता ये है की स्थापना से लेकर आज तक अनेक समयोचित परिवर्तन के बाबजूद इसके मूल सिद्धांत एवं मूल व्यवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. यह संघ अपनी आस्था एवं सिद्धांतों में आज भी अटल है. अपने 2500 प्रचारक एवं करोड़ों स्वयंसेवकों के माध्यम से यह संस्था राष्ट्रसेवा के कार्य में निरंतर गतिमान है. 

प्रवचन देते हुए जैन साधु 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की तुलना यदि जैन संघ से करें तो अनादिकालीन जैन संघ की वर्त्तमान व्यवस्था भगवान महावीर से प्रारम्भ हुई इसलिए इसे प्रभु महावीर का शासन कहा जाता है. जैन संघ की विशेषता भी ये ही है की स्थापना से लेकर आज तक 2500 वर्ष बीतने पर भी अनेक समयोचित परिवर्तन के बाबजूद इसके मूल सिद्धांत एवं मूल व्यवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. जैन संघ भी अपनी आस्था एवं भगवान् महावीर के सिद्धांतों में आज भी अटल है. वर्त्तमान में जैन संघ लगभग 18000 गृहत्यागी पूज्य साधु साध्वी भगवंतों के निरंतर बिहार से गतिमान है. जैन संघ के भी श्रावक- श्राविका रूप करोड़ों गृहस्थ अनुयायी आज भी भगवान् महावीर के अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और अनेकांत के सिद्धांतों का पालन करते हैं. 


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) एवं जैन समाज के सिद्धांतों एवं व्यवस्थाओं में अनेक समानताएं हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं जैन समाज दोनों ही समानता के सिद्धांत में आस्था रखता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूजन पद्धति में विविधताओं के बाबजूद हिंदुत्व की एकता में विश्वास रखता है. इसी प्रकार यह संगठन अश्पृश्यता एवं जातिवाद में विश्वास नहीं रखता. इसी प्रकार जैन संघ में भी विभिन्न मत हैं जो की अलग अलग प्रकार से धर्मनुष्ठान करते हैं. साथ ही जैन धर्म मूलतः जातिप्रथा का विरोधी है एवं जैन समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र का कोई वर्गीकरण नहीं है. 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना को 100 वर्ष हो गए हैं और यह बिना किसी विभाजन के अपने मूल स्वरुप में एकीकृत रूप से  विद्यमान है. जबकि वर्त्तमान का जैन संघ भगवान महावीर के हाथों से स्थापित एवं 2500 वर्षों से अधिक प्राचीन है. वर्त्तमान में जैन संघ श्वेताम्बर-दिगंबर इन दो भागों में विभाजित है एवं इनमे धार्मिक अनुष्ठानों/ क्रियायों को लेकर कुछ मतभेद भी हैं परन्तु मूल सिद्धांतों में कोई अंतर नहीं है. यहाँ यह उल्लेखनीय है की भगवान महावीर के 170 वर्ष बाद तक सम्पूर्ण जैन संघ एकीकृत रूप से अपने मूल रूप में विद्यमान रहा था. अंतिम श्रुत केवली भद्रवाहु स्वामी के बाद ही संघ में विभाजन प्रारम्भ हुआ. विभाजन के उपरांत भी सभी अपने आप को जैन मानते हैं और परष्पर विवाहादि सम्बन्ध सामाजिक रूप से स्वीकार्य है. 

भद्रवाहु स्वामी के चरण 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, एवं सेवाकार्यों के लिए जाना जाता है. इसी प्रकार जैन संघ समाज भी अपनी राष्ट्रभक्ति, जैनत्व एवं सेवाकार्यों के लिए प्रख्यात है. शायद ही कभी कोई जैन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त पाया गया है. पुरे विश्व में मानव मात्र ही नहीं अपितु प्राणी मात्र की सेवा में जैन समाज सदा समर्पित रहता है. भारत भर में जैन समाज द्वारा स्थापित हज़ारों विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, भोजनशाला, धर्मशाला, आदि इसके प्रमाण हैं. रक्तदान, नेत्रदान एवं देहदान में भी जैन समाज अन्य समाजों की अपेक्षा अधिक रूचि रखता है और इन सेवा कार्यों में भी अग्रणी है. 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्राणियों में मुख्य रूप से गोमाता की सेवामे विश्वास रखता है एवं इसके लिए संस्था का अपना एक विभाग भी है. जबकि जैन संघ गोमाता के साथ अन्य प्राणियों की सेवा में भी तत्पर रहता है. जैन संघों द्वारा संचालित हज़ारों पांजरापोल, गोशाला, ऊंटशाला, पक्षीशाला आदि प्रत्यक्ष गवाही देते हैं. 


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के एक विभाग विश्व हिन्दू परिषद् का एक अंग है मांस निर्यात विरोध परिषद्।  यह संगठन भारत से मांस निर्यात एवं यांत्रिक कत्लखानों का विरोध करता है. भारतीय प्राणी मित्र संघ सहित अनेक जैन संगठन भी निरंतर मांस निर्यात एवं यांत्रिक कत्लखानों के विरोध में सक्रीय रहते हैं.  


गोवंश की दुर्दशा 

इस सम्बन्ध में जैन समाज की एक विशेषता का उल्लेख कर उसे शेष हिन्दू समाज से भी अपनाने का निवेदन करता हूँ. जैन संघ द्वारा आयोजित किसी भी विशिष्ट महापूजन, प्रतिष्ठा, अंजन शलाका आदि अवसरों पर जीवदया के लिए आवश्यक रूप से अलग से धनराशि एकत्रित की जाती है, जिसका उपयोग केवल मात्र जीवदया के लिए ही किया जाता है. इस राशि का उपयोग अन्यत्र कहीं भी नहीं किया जा सकता ऐसी व्यवस्था का कठोरता से पालन किया जाता है. इस प्रकार प्रतिवर्ष अरबों रुपये की राशि एकत्रित होती है जिससे हज़ारों पांजरापोल, गोशाला, ऊंटशाला, पक्षीशाला को आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता है. यदि शेष हिन्दू समाज भी अपने मंदिरों में ऐसी व्यवस्था अपना ले तो गोशालाओं के लिए कभी आर्थिक संकट नहीं हो सकता. 


Thanks, 
Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

, जैन साधु साध्वी

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Saturday, February 4, 2023

महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा (मूल) एवं अर्थ

महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा (मूल) एवं अर्थ 



लेखक/ अनुवादक : ज्योति कुमार कोठारी 


महान विद्वान खरतर गच्छीय महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि ने साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व सम्वत १६१८ (ईस्वी सन 1561) में परमात्म भक्ति स्वरुप सतरह भेदी पूजा की रचना की. श्री साधुकीर्ति गणि अकबर प्रतिबोधक चौथे दादा साहब श्री जिन चंद्र सूरी के विद्यागुरु थे एवं उन्होंने ही दादा साहब को अकबर से मिलवाया था. आप संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओँ के साथ संगीत शास्त्र में भी निष्णात थे. वह युग भक्तियुग था एवं भारतीय शास्त्रीय संगीत भी अपने शीर्ष अवस्था पर था. संत हरिदास, बैजू बावरा, तानसेन आदि दिग्गज संगीतज्ञों की उपस्थिति उस युग को संगीत क्षेत्र में विशिष्टता प्रदान कर रही थी. 


महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा में जहाँ जैन आगमों एवं शास्त्रों की बारीकियों की झलक मिलती है वहीँ भक्ति रस के साथ श्रृंगार रसात्मक रचना का रसास्वादन भी होता है. इस पूजा में भारतीय शास्त्रीय संगीत (मार्ग संगीत) के विभिन्न प्रकार के राग-रागिनियों एवं तालों का प्रयोग हुआ है. नृत्य, गीत, एवं वाजित्र  तीनों विधाओं का समावेश भी इस पूजा में देखने को मिलता है. सभी राग रागिनियो के नामोंका उल्लेख मूल पूजा में किया गया है.



तीर्थंकर चौवीसी, श्री सांवलिया पार्श्वनाथ मंदिर, रामबाग, अजीमगंज 

मध्य युग में अन्य भारतीय शास्त्रों के समान ही जैन शास्त्रों की भी देशी भाषाओँ में रचना प्रारम्भ हुई.इससे पूर्व अधिकांश रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत, एवं अपभ्रंश भाषाओँ में पाई जाती है. इस युग में अनेक भक्तिरस के काव्योंकी रचनाएँ हुई जिसमे रास, भजन एवं पूजाओं की प्रमुखता है. महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा संभवतः देशी भाषा में रचित पहली पूजा है. इसके बाद श्री सकल चंद्र  गणी, श्री वीर विजय जी, आदि ने भी सत्रह भेदी पूजा की रचना की. आचार्य मणिप्रभ सूरी द्वारा रचित सत्रह भेदी पूजा इस क्रम में नवीनतम है. इसके अतिरिक्त अन्य अनेक महापुरुषों ने भी देशी भाषा में अनेक प्रकार की पूजाओं की रचना कर जनमानस को अर्हन्त भक्ति की ओर प्रेरित किया.    


भक्ति कालीन रचनाओं में महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अपना विशिष्ट स्थान है. यद्यपि सत्रह भेदी पूजा श्वेताम्बर जैन समाज मे आज भी बहु प्रचलित है तथापि अर्वाचीन रचनाओं की लोकप्रियता एवं गच्छाग्रह के कारण प्राचीन पूजा आज लोकप्रिय नहीं रही. देश के कुछ ही भागों में अब यह पूजा प्रचलित है, विशेषकर पूर्वी भारत में. बंगाल के अजीमगंज, जियागंज, कोलकाता में यह पूजा आज भी बहुत लोकप्रिय है और हर बड़े आयोजनों में यह पूजा उल्लासपूर्वक पढाई जाती है. बीकानेर एवं जयपुर में भी अनेक स्थानों में  ध्वजारोहण आदि अवसरों पर यह पूजा आज भी करवाने की प्रथा है. 


मेरा मूलस्थान अजीमगंज होने के कारण बचपन से ही यह पूजा सुनता आया हूँ, इसलिए इस पूजा के प्रति विशेष लगाव भी रहा. कुछ वर्ष पूर्व महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ करने का विचार आया और प्रयास प्रारम्भ किया। परन्तु इसमें एक बड़ी कठिनाई थी, यह पूजा किसी एक भाषा में निवद्ध नहीं है. जैन साधु एक स्थान पर नहीं रहते थे, देश देशांतर विहार के कारण भिन्न भिन्न स्थानों की भाषा एवं बोलियों से उनका परिचय होता था. वे प्रायः संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओँ के विद्वान तो होते ही थे. नबाबों, बादशाहों के परिचय के कारण फ़ारसी, अरबी, उर्दू आदि भाषाओँ का भी उन्हें ज्ञान होता था. इस कारण काव्य रचना में वे एक साथ अनेक भाषाओँ का प्रयोग करते रहते थे. 


महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा भी इसका अपवाद नहीं है. इसमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओँ के साथ मरु गुर्जर एवं ब्रज भाषा का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है.  राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि मुख्य रूप से  आपका विचरण क्षेत्र रहा, अतः उन स्थानों की तत्कालीन भाषा व बोलियों का प्रयोग उनकी रचना में बारम्बार देखने को मिलता है. अनेक शब्द अब अप्रचलित हो गए हैं और उनका अर्थ किसी Dictionary में भी नहीं मिलता. अनेक प्रयास एवं विद्वानों व भाषाविदों के साहचर्य से काम आगे बढ़ा परन्तु पूरी सफलता नहीं मिली. 


फिर भी जितना हो सका प्रयास करके इस प्राचीन पूजा के अर्थ को जनमानस में प्रकाशित करने के उद्देश्य से एक कोशिश कर रहा हूँ. मूल पूजा बोल्ड अक्षरों में एवं अर्थ सामान्य टाइप में दिया गया है. मुझे विश्वास है की सुज्ञजनों की दृष्टि इस ओर आकर्षित होगी और इस का सही अर्थ सामने आ पायेगा.  


यहाँ पर पहली न्हवण पूजा का अर्थ करने का प्रयास किया गया है. आगे अन्य पूजाओं के अर्थ किये जायेंगे. विद्वद्जनों से करवद्ध निवेदन है की अपने बहुमूल्य सुझाव देकर इस कार्य में सहयोग प्रदान करने की कृपा करें. 



महोपाध्याय श्री साधुकीर्ति गणि कृत सतरह भेदी पूजा का अर्थ 

[दूहा]

मूल-- भाव भले भगवंत नी, पूजा सतर प्रकार II

परसिध कीधी द्रोपदी, अंग छठे अधिकार II १ II

अर्थ: शुभ भाव से (अर्हन्त) भगवंत की सत्रह भेदी पूजा करनी है, जिसे महासती द्रौपदी ने प्रसिद्द किया था एवं जिसका अधिकार छठे अंग (आगम) ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में पाया जाता है.  

[राग सरपदो]

जोति सकल जग जागति ए सरसति समरि सुभंदि II

सतर सुविधि पूजा तणी, पभणिसुं परमाणंदि  II १ II

अर्थ: सम्पूर्ण जगत में जिनकी ज्योति प्रसरित है ऐसी बाग्देवी सरस्वती का स्मरण कर सत्रह भेदी पूजा की विधि अच्छी तरह से बता रहे हैं, जिसके पढ़ने से परमानन्द की प्राप्ति होती है.  

[गाहा]

न्हवण-विलेवण-वत्थजुग, गंधारूहणं च पुप्फरोहणयं II

मालारूहणं वण्णय, चुन्न- पडागाय आभरणे II १ II

मालकलावं सुघरं, पुप्फपगरं च अट्ठ मंगलयं  II

धुवूक्खेवो गीअं, नट्टम वज्जं तहा भणियं II २ II


१. स्नान २. विलेपन ३. वस्त्रयुगल ४. गंध (वास चूर्ण) ५. पुष्प ६. मालारोहण ७. वर्ण (अंगरचना) ८. चूर्ण (गंधवटी) ९. ध्वज १०. आभरण ११. फूलघर १२. पुष्प वृष्टि १३. अष्ट मंगल १४. धुप १५. गीत १६. नृत्य (नाटक) एवं १७. वाजित्र इस प्रकार ये सत्रह पुजायें शास्त्रों में वर्णित है.  

[दुहा]

सतर भेद पूजा पवर, ज्ञाता अंग मझार II

द्रुपदसुता द्रोपदी परें, करिये विधि विस्तार II १ II

पूजाओं में श्रेष्ठ सत्रह भेदी पूजा का वर्णन ज्ञाता धर्मकथा नामक अंगसूत्र में किया गया है. जिस प्रकार द्रुपद महाराजा की पुत्री द्रौपदी ने यह पूजा की थी उसी प्रकार विस्तृत विधि से यह पूजा करनी चाहिए. 


अथ प्रथम न्हवण पूजा

[राग देशाख]

पूर्व मुख सावनं, करि दसन पावनं,

अहत धोती धरी, उचित मानी I१I

विहित मुख कोश के, खीरगंधोदके,

सुभृत मणि कलश करि, विविध वानी I२I

नमिवि जिनपुंगवं, लोम हत्थे नवं,

मार्जनं करिय जिन वारी वारी I३I

भणिय कुसुमांजली, कलश विधि मन रली,

न्हवति जिन इंद्र जिम, तिम अगारी II४II

पूर्व दिशा में मुँह कर स्नान कर, दांतों को साफकर (पवित्र कर), उचित मान (size) की अखंड धोती पहन कर (१) सही तरीके से मुखकोष बांध कर विविध प्रकार के मणिरत्नों के कलश दूध और गंधोदक से भरके (२) जिनेश्वरदेव को नमन कर, नवीन मोरपंखी से परमात्मा को बारम्बार मार्जन कर (३) कुसुमांजलि पढ़कर मन के भावोल्लास से कलश विधि करते हुए जिस प्रकार देवराज इंद्र ने परमात्मा के (जन्म-अवसर) पर स्नान करवाया था उसी प्रकार श्रावक/ श्राविका भी उन्हें स्नान करवाते हैं (४).     

[दूहा]

पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम II

शुचि पखाल तनु जिन तणी, करे सुकृत हितकाम II १ II

परमानंद पीयूष रस, न्हवण मुगति सोपान II

धरम रूप तरु सींचवा, जलधर धार समान II २ II

श्रावक शुभ परिणाम से पहली (न्हवण) पूजा करता है. पवित्र पक्षाल जल जिनेश्वरदेव के शरीर में डालते हुए सुकृत एवं हित की कामना करता है (१). परमात्मा का न्हवण (स्नान) परमानन्द  प्राप्त करानेवाले अमृतरस के सामान और मुक्तिपुरी की सीढ़ी के समान है. यह जलधारा धर्मरूप वृक्ष को सींचने में वर्षा की धारा के समान है. (२)   

[राग- सारंग तथा मल्हार]

पूजा सतर प्रकारी,

सुनियो रे मेरे जिनवर की II

परमानंद तणि अति छल्यो रे सुधारस,

तपत बूझी मेरे तन की हो II पूo II १ II

प्रभुकुं विलोकि नमि जतन प्रमार्जीत,

करति पखाल शुचिधार विनकी हो II

न्हवण प्रथम निज वृजिन पुलावत,

पंककुं वरष जैसे घन की हो II पूo II २ II

 तरणि तारण  भव सिंधु तरण की,

मंजरी संपद फल वरधन की II

शिवपुर पंथ दिखावण दीपी,

धूमरी आपद वेल मर्दन की हो II पूo II ३ II

सकल कुशल रंग मिल्यो रे सुमति संग, 

जागी सुदिशा शुभ मेरे दिन की II

कहे साधुकीरति सारंग भरि करतां,

आस फली मोहि मन की हो II पूo II ४ II


जिनेश्वरदेव की यह सत्रह प्रकारी पूजा है. इसे सुनो. इस पूजा में परमानन्द का ऐसा अत्यंत अमृतरस छलक रहा है जिससे मेरे शरीर की तपन (गर्मी) बुझ गई (१). प्रभु के दर्शन-नमन कर, यत्न पूर्वक प्रमार्जन कर, (श्रावक) पवित्र जलधारा से परमात्मा का प्रक्षालन करता है. प्रथम न्हवण पूजा करके अपने पापों-दुःखों को ऐसे नष्ट करता है, जैसे भरी वर्षा से कीचड धुल जाते हैं (२). यह पूजा भवरुपी समुद्र से तरने के लिए (परमात्मा की पूजा) जहाज के समान एवं (मोक्ष) सम्पदा रूपी फल के लिए मंजरी अर्थात फूल के समान, मोक्ष का पंथ दिखाने में दीपक के समान एवं आपदा रूपी बेल को नष्ट करने में दांतली के समान है (३). (प्रभु पूजा से) सभी कुशल मंगल के रंग सुमति अर्थात सुबुद्धि के साथ मिल गए और मेरी शुभ दशा जाग गई है. "सारंग" राग में रचना करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की मेरे मन की सभी आशा फलित हो गई. 



अथ द्वितीय विलेपन पूजा

[राग-रामगिरि]

गात्र लूहे जिन मनरंगसुं हो देवा l गाo II

सखरी सुधूपित वाससुं हां रे देवा वाससुं II

गंध कसायसुं मेलीयें, नंदन चंदन चंद मेलीयें रे देवा  II नंo II

मांहे मृगमद कुंकुम भेलीये, कर लीये रयण पिंगाणी कचोलियें I१ I

पग जानु कर खंधे सिरें रे, भाल कंठ उर उदरंतरे II

दुख हरे हां रे देवा सुख करे, तिलक नवंगि अंग कीजिये I२I

दूजी पूजा अनुसरे, हरि विरचे जिम सुरगिरे II

तिम करे जिणि परि जन मन रंजीये II३II

अर्थ: परमात्मा की अंगलुंछ्ना अर्थात स्नान के बाद शरीर को पोंछने में ही मन रंग गया है. सुगन्धित चूर्ण (वासक्षेप) को धूपित कर उसमे गंध, कषाय, चन्दन आदि मिला कर, (उसे और अधिक सुगन्धित करने हेतु) उसमे कस्तूरी एवं कुमकुम मिला कर स्वर्ण-रत्न जड़ित कटोरी में भर हाथ में लेकर (१) (जिन प्रतिमा के) चरण, जानु, हाथ, कंधे, मस्तक, ललाट, कंठ, ह्रदय, नाभि इन नव अंगों में तिलक करना है. (यह तिलक) दुःख हरनेवाला एवं सुख करनेवाला है (२). जिस प्रकार मेरुपर्वत (सुरगिरि) पर इंद्र ने (परमात्मा के शरीर पर) विलेपन किया था उसी प्रकार दूसरी पूजा में विलेपन करते हैं. ऐसा करके जन मन हर्षित होता है.  

[राग-ललित दुहा]

करहुं विलेपन सुखसदन, श्रीजिनचंद शरीर II

तिलक नवे अंग पूजतां, लहे भवोदधि तीर II १ II

मिटे ताप तसु देहको, परम शिशिरता संग II

चित्त खेद सवी उपसमे, सुखमे समरसी रंग II २ II

अर्थ: सभी सुख के आवास रूप जिनेश्वर देव के शरीर में मैं विलेपन करता हूँ. नव अंगों में तिलक करते हुए भवसागर का किनारा मिल जाता है (१). विलेपन से देह के समस्त ताप मिट जाते हैं और परम शिशिरता (ठंडक) प्राप्त होती है. मन के सभी खेद उपशांत हो जाते हैं और सुख से प्रभु स्मरण होता रहता है.  

[राग - वेलाउल]

विलेपन कीजे जिनवर अंगे, जिनवर अंग सुगंधे II विo  II

कुंकुम चंदन मृगमद यक्षकर्द्दम, अगर मिश्रित मनरंगे II विo II १ II

पग जानू कर खंध सिर, भाल कंठ उर उदरंतर संगे II

विलुपित अघ मेरो करत विलेपन, तपत बूझति जिम अंगे II विo II २ II

नव अंग नव नव तिलक करत ही, मिलती नवे निधि चंगे II

कहै साधु तनु शुचि करयउ सुललित पूजा जैसे गंगतरंगे II विo II ३ II

अर्थ: जिनवर देव के अंगों में विलेपन कीजिये. जिनवर का अंग सुगन्धित है. कुंकुम, चन्दन, कस्तूरी, यक्षकर्दम (कपूर, अगर, कस्तूरी, कंकोल आदि के योग से बननेवाला एक प्राचीन अंगराग), अगर आदि सुगन्धित द्रव्यों को मिला कर (१) चरण, जानु, हाथ, कंधे, मस्तक, ललाट, कंठ, ह्रदय और नाभि (इन नव अंगों) में विलेपन करते हुए मेरे पाप विलोपित होते हैं. जैसे (चंदनादि के विलेपन से) शरीर के अंगों का दाह (तपन) मिट जाता है(२). नव अंगों में नए नए अथवा नौ नौ तिलक करने से सुन्दर नव निधि की प्राप्ति होती है. यहाँ साधु (कीर्ति) कहते हैं की जैसे गंगा की तरंग शरीर को पवित्र करता है वैसे ही यह सुन्दर पूजा भी पवित्र करती है (३).    


अथ तृतीय वस्त्र-युगल पूजा

[दुहा]

वसन युगल उज्जवल विमल, आरोपे जिन अंग II

लाभ ज्ञान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसंग II १ II

तीसरी पूजा में उज्वल मलरहित वस्त्रयुगल (कपडे का जोड़ा) जिनवर के अंग पर आरोपित करनेवाले को ज्ञान एवं दर्शन का लाभ होता है. (जैसे वस्त्र युगल होता है उसी प्रकार ज्ञान-दर्शन का भी युगल है) 

[राग वैराडी]

कमल कोमल घनं, चन्दनं चर्चितं, सुगंध गंधे अधिवासिया ए II

कनकमंडित हये, लाल पल्लव शुचि, वसन जुग कंति अतिवासिया ए I१I

जिनप उत्तम अंगे, सुविधि शक्रो यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए II

पाप लुहण अंगे लुहणूं  देवने, वस्त्र युग पूज मल धोइये ए II २ II

चन्दन लगे हुए एवं सुगंध से अधिवासित कमलपत्र के समान कोमल वस्त्र (परमात्मा को पहरने के लिए), वो कैसा है? जिसमे लाल रंग का सुन्दर पल्लू है और स्वर्ण से मण्डित है अर्थात सोने का काम किया हुआ है, ऐसा अत्यंत सुगन्धित पवित्र वस्त्र(१). जिनवर के उत्तम अंगों में शक्रेन्द्र (प्रथम सौधर्म देवलोक के अधिपति इंद्र) के जैसे शुद्ध विधि पूर्वक यह वस्त्र पूजा करनी है. वस्त्र से परमात्मा के अंग का लुंच्छन करने से अपने पाप भी पूंछ जाते हैं, इसलिए वस्त्र युगल से पूजा कर अपने (पापरूपी) मल को धोना है(२).  

 [राग वैराडी]

देव दूष्य जुग पूजा बन्यो हे जगत गुरु,

देव दूष् हर अब इतनो मागूं  II

तुंहिज सबही हित तुहिंज मुगति दाता,

तिण नमि नमि प्रभु चरणे लागुं II देo II १ II

कहे साधु त्रीजी पूजा केवल दंसण  नाण,

देवदूष्य मिश देहुं उत्तम वागुं II

श्रवण अंजली पुट सुगुण अमृत पीता,

सविराडे दुख संशय धुरम भांगुं II देo II २ II

(देव दुष्य अर्थात देवताओं द्वारा प्रदत्त वस्त्र) देव दुष्य के जोड़े से जगत गुरु प्रभु की पूजा करते हैं. हे देव आप हमारे दुखों का हरण करें बस मैं इतना ही मांगता हूँ. (वैदिक संस्कृत में ष और ख एक जैसे रूप में व्यवहृत होता है. यहाँ पर उसी का सुन्दर प्रयोग करते हुए दुष और दुःख का एक जैसा प्रयोग किया गया है). आप ही सभी हित के कारण एवं आप ही मुक्ति के दाता हैं, अतः बारम्बार नमन कर के मैं आपकी चरण वंदना करता हूँ (१). साधु (कीर्ति) 'वैराडी राग" में तीसरी पूजा में देवदुष्य युगल के छल से उत्तम केवल दर्शन-ज्ञान रूपी युगल की कामना करते हैं. कानों को अंजली बना कर (परमात्मा के) सुगुणरूपी अमृत को पीते हुए सभी संशयों का नाश कर दुखों को मूल से नाश करता हूँ (२).      




अथ चतुर्थ वासक्षेप पूजा

[राग - गोडी में दोहा]

पूज चतुर्थी इणि परें, सुमति वधारे वास II

कुमति कुगति दूरे हरे, दहे मोह दल पास II १ II

अर्थ: वासक्षेप अर्थात सुगन्धित द्रव्य की यह चौथी पूजा सुमति अर्थात सुबुद्धि को बढ़ानेवाली है. यह पूजा मोह के समूह रूप वंधन का दहन करनेवाली एवं कुमति व कुगति को दूर करनेवाली है. 

[राग सारंग]

हां हो रे देवा बावन चंदन घसि कुंकुमा,

चूरण विधि विरचि वासु ए II हांo I१I

कुसुम चूरण चंदन मृगमदा,

कंकोल तणो अधिवासु ए II हांo I२I

वास  दशो दिशि वासतें,

पूजे जिन अंग उवंगु ए II हांo I३I

लाछी भुवन अधिवासिया ए,

अनुगामिक सरस अभंगु ए II४II  


अर्थ: हे देव! जिस प्रकार इंद्र (वासव-वासु) ने चूर्ण बना कर (प्रभु की पूजा की थी वैसे) बाबना चन्दन, कुंकुम, (केशर) के साथ घसकर (१) पुष्पों का चूर्ण, कंकोल, कस्तूरी, एवं पुनः चन्दन मिलकर अधिक सुगन्धित कर (२) दशों दिशाओं को सुगन्धित करते हुए जिनवर के अंग उपांग की पूजा करते हैं (३). यह पूजा जगत के जीवों के लिए सरस एवं अभंग ऐसे मोक्ष पद का अनुगमन करानेवाली है.     

[राग -गोडी तथा पूर्वी]

मेरे प्रभुजी की पूजा आणंद मिले, मेरे प्रभुजी की II मेo II

वास भुवन मोह्यो सब लोए, संपदा भेलें की II पूजाo II १ II

सतर प्रकारे पूजे विजय, देवा तत्ता थेई II

अप्रमित गुण तोरा चरण सेवा की II पूजाo II २ II

कुंकुम चंदनवासें पूजीयें, जिनवर तत्ता थेई II

चतुर्गति दुख गौरी चतुर्थी घनकी II पूजाo ३ II



अर्थ: मेरे प्रभु की पूजा से आनंद मिलता है. (वासक्षेप के) सुगंध ने सम्पूर्ण जगत का मन मोह लिया है, (और प्रभु की पूजा से) सम्पदाएँ भी मिलती है (१). तत्ता थेई नृत्य करते हुए विजय देव ने सत्रह प्रकार से प्रभु की पूजा की थी. प्रभु आपके चरणों की सेवा करने से अपरिमित गुणों की प्राप्ति होती है (२). "गौरी राग में गेय इस चौथी पूजा में केशर- चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों से प्रभु की पूजा करने से चतुर्गति रूप गहन दुःख का नाश होता है और (मोक्ष रूपी) धन की प्राप्ति होती है. 


अथ पंचम पुष्पारोहण पूजा

[दूहा]

मन विकसे तिम विकसतां, पुष्प अनेक प्रकार II

प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचमी गति दातार II १ II

जिस प्रकार पुष्प विकसित होता है उसी प्रकार (अनेक प्रकार पुष्पों से प्रभु पूजा करने से) मन भी विकसित होता है. प्रभु की ये पंचमी पूजा है और यह पञ्चमी अर्थात मोक्ष गति प्रदान करनेवाली है. 

[राग -कामोद]

चंपक केतकी मालती ए, कुंद किरण मचकुंद II

सोवन जाइ जूहीका, बिउलसिरी अरविंद II १ II

जिनवर चरण उवरि धरे ए, मुकुलित कुसुम अनेक II

शिव - रमणी सें वर वरे, विधि जिन पूज विवेक II २ II

चम्पक, केतकी, मालती, चंद्र के सामान उज्जवल श्वेत किरणवाली मचकुन्द, जाई, जूही, बेली, श्री, कमल आदि अनेक प्रकार के खिले हुए पुष्प (१) जिनवर के चरणों में चढाने से एवं विधि व विवेक पूर्वक जिनपूजा करने से (वह श्रावक) श्रेष्ठ शिव रमणी को वरण करता है (२).    

[राग कानड़ो]

सोहेरी माई वरणे मन मोहरी माई वरणे II

विविध कुसुम जिन चरणे II सोo II

विकसी हसि जंपें साहिबकुं, राखि प्रभु हम सरणें II सोo II १ II

पंचमी पूज कुसुम मुकुलित की, पंच विषय दुख हरणे II सोo II

कहे साधुकीरति भगति भगवंत की, भविक नरा सुख करणे II सोo II २ II

मेरे प्रभु (विभिन्न) वर्णों से शोभायमान हो रहे हैं, इन वर्णों की छटा से मेरा मन मोह रहा है. विविध प्रकार के (पंचवर्णी) पुष्प प्रभु के चरणों में (शोभायमान हो रहे हैं). यह विकसित फूल मानो हंस कर यह कह रहे हैं की हे प्रभु आप हमें अपने शरण में रखिये(१). खिले हुए फूलों की यह पांचवीं पूजा पांच इन्द्रिय विषयों के दुःख का हरण करनेवाली है. यहाँ साधुकीर्ति कह रहे हैं की परमात्मा की भक्ति भविक जीवों के सुख का कारण है (२). 

                                                              


अथ छट्ठी मालारोहण पूजा

[राग - आशावरी में दूहा]

छट्ठी पूजा ए छती, महा सुरभि पुफमाल  II

गुण गूंथी थापे गले, जेम टले दुखजाल II १ II

अत्यंत सुगन्धित पुष्पों की माला की यह छठी पूजा है. ये पुष्पमाला जैसे गुणों की माला है जिसे प्रभु के गले में डालने से दुखों का जाल टल जाता है. 

[राग -रामगिरि गुर्जरी]

हे नाग पुन्नाग मंदार नव मालिका,

हे मल्लिकासोग पारिधि कली ए I१I 

हे मरुक दमणक बकुल तिलक वासंतिका,

हे लाल गुलाल पाडल  भिलि  ए I२I

हे जासुमण मोगरा बेउला मालती,

हे पंच वरणे गुंथी मालथी ए I३I

हे माल जिन कंठ पीठे ठवी लहलहे,

हे जाणि संताप सब पालती ए II४II

नाग चम्पा, सुल्तान चंपा अर्थात नागकेशर, नंदनवन के पांच पुष्पों में से एक मंदार, नवमालिका- बेली जैसा एक फूल, मल्लिका, अशोक, एवं परिध की कली, (१) मरुवा, दौना, (एक पीले रंग का फूल) वकुल, तिलक या तिलिया (एक सफ़ेद रंग का फूल), वासंतिका- नवमल्लिका, लाल फूल, गुलाब, पाडल अर्थात जवा, आदि फूलों को इकठ्ठा कर (२)  मोगरा, बेली, मालती आदि पांच रंगों के फूलों की माला गूँथ कर (प्रभु के कंठ में पहनाते) हैं  (३) यह माला जिनेश्वर प्रभु के कंठ स्थान में लहलहाती है, और सभी लोगों के संताप को दूर करती है (४) 


[राग-आशावरी]

देखी दामा कंठ जिन अधिक एधति नंदे,

चकोरकुं देखि देखि जिम चंदे II

पंचविध वरण रची कुसुमा की,

जैसी रयणावली सुहमीदें II देo II १ II

छठी रे तोडर पूजा तब डर धूजे,

सब अरिजन हुइ हुइ तिम छंदे II

कहे साधुकीरति सकल आशा सुख,

भविक भगति जे जिण वंदे II देo II २ II

जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर हर्षित होता है वैसे जिनवर देव के कंठ में माला (दामा) देखकर अत्यंत अधिक आनंद होता है. पांच प्रकार के वर्णों के पुष्पों की माला ऐसी शोभायमान है जैसे रत्नों की आवली अर्थात लाइन बनाई गई हो (१). यह छठी पूजा पुष्पमाला अर्थात टोडर की है, यह पूजा करनेवालों से सभी प्रकार के डर भी डर जाते हैं और सभी शत्रु भी भयभीत हो जाते हैं. आशावरी राग में गाये जाने वाली इस पूजा में साधुकीर्ति कहते हैं की जो भाविक जन भक्तिपूर्वक जिनदेव की पूजा करता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं और सभी सुखों की प्राप्ति होती है.(२)  


अथ  सप्तम वर्णपूजा प्रारंभ (फूलों की आंगी)

[दूहा]

केतकि चंपक केवडा, शोभे तेम सुगात II

चाढो जिम चढतां हुवे, सातमियें सुखशात II १ II

केतकी, चम्पा, केवड़ा, आदि पुष्पों से परमात्मा का सुन्दर शरीर शोभायमान हो रहा है. सातवीं पूजा में इन फूलों को चढ़ाते हुए (भावों की उच्च श्रेणी) चढ़ कर सुख एवं साता को प्राप्त करते हैं. 

[राग - केदार गोडी]

कुंकुम चरचित विविध पंच वरणक, कुसुमस्युं हे I

कुंद गुलाबस्युं चंपको दमणको, जासुस्युं ए II

सातमी पूजमें आंगिये अंगि, अलंकियें ए II

अंगी आलंकि मिस मानिनी मुगती आलिंगियें  ए II १ II

केशर से पूजन कर पञ्च वर्ण के चमेली, गुलाब, चम्पा, दौना जवा, आदि विविध पुष्पों से सातवीं पूजा में प्रभु के अंग में आंगी की रचना कर उसे अलंकृत करते हैं. आंगी की रचना से प्रभु को अलंकृत कर कर मानो मुक्ति का आलिंगन करते हैं. 

[राग भैरवी]

पंच वरण अंगी रची, कुसुमनी जाती II  फूलनकी जाती II पंo II

कुंद मचकुंद गुलाब सिरोवरी (शिरोमणि), कर करणी सोवन जाती II पंo II

दमणक मरुक पाडल अरविंदो, अंश जूही वेउल वाती II पंo II १ II

पारिधि चरणि कल्हार मंदारो, वर्ण पटकुल  बनी भांति II पंo II

सुरनर किन्नर रमणि  गाती, भैरवी कुगति व्रतति दाती II पंo II २ II  

विभिन्न जातियों के पांच रंगों के फूलोंसे आंगी बनाते हैं. चमेली, कनकचंपा, गुलाब के फूलों को शिर के ऊपर;  दौना, मरुवा, पाटली, कमल, आदि कंधे पर और जूही एवं बेलि सुगंध फैला रही है, पीला या सफ़ेद कमल, मंदार एवं पाटल आदि चरणों में शोभायमान हैं. देव, मनुष्य, किन्नर आदि की मनोरम स्त्रियां (प्रभु के गीत) जाती हैं और भैरवी राग में गेय यह पूजा कुगति रूपी लताओं को काटने के लिए दांती (हंसिया) के समान है.   


अथ अष्ठम गंधवटी पूजा

[दूहा राग-सोरठ]

अगर सेलारस सार, सुमति पूजा आठमी II

गंधवटी घनसार, लावो जिन तनु भावशुं II १ II

(सत्रह भेदी पूजा में यहाँ दोहे की जगह सोरठा है जिसका छंद दोहे से उल्टा होता है.)

जिनेश्वर देव के शरीर को भावपूर्वक गंधवटी से पूजन करने रूप यह आठवीं पूजा सुमति प्रदान करनेवाली है. अगर, शीलारस, बरास आदि सुगन्धित द्रव्य से प्रभु की पूजा का अधिकार (शास्त्रों में वर्णित) है.  

[दोहा-सोरठ राग,  (प्रक्षिप्त)]

सोरठ राग सुहामणी, मुखें न मेली जाय II

ज्युं ज्युं रात गलंतियां, त्यूं त्यूं मीठी थाय II १ II

सोरठ थारां देश में, गढ़ां बड़ो गिरनार II

नित उठ यादव वांदस्यां, स्वामी नेम कुमार II २ II

जो हूंती  चंपो बिरख, वा गिरनार पहार II

फूलन हार गुंथावती, चढ़ती नेम कुमार II ३ II

राजीमती गिरवर चढ़ी, उभी करे पुकार II

स्वामी अजहु न बाहुडे, मो मन प्राण आधार II ४ II

रे संसारी प्राणिया, चढ्यो न गढ़ गिरनार II

जैन धर्म पायो नही,गयो जमारो हार II ५ II

धन वा राणी राजीमती, धन वे नेम कुमार II

शील संयमता आदरी, पहोतां भवजल पार II ६ II

दया गुणांकी वेलडी, दया गुणांकी खान

अनंत जीव मुगते गया, दया तणे परमाण II ७ II

जगमें तीरथ दोइ बडा,  सेत्रुंजो गिरनार II

इण गिर रिषभ समोसर्या, उण गिर नेम कुमार II ८ II (प्रक्षिप्त)

(सोरठा का सम्वन्ध सोरठ से जोड़ कर यहाँ पर बाद के काल में उपरोक्त छंद (प्रक्षिप्त) जोड़ दिए गए, यह मूल पूजा का अंश नहीं है.)

[राग-सामेरी]

कुंद किरण शशि उजलो जी देवा,

पावन घस घन सारो जी II

आछो सुरभि शिखर मृग नाभिनो जी देवा,

चुन्न रोहण अधिकारे जी II आo II

वस्तु सुगंध जब मोरिये जी देवा,

अशुभ करम चुरीजे जी II आo II

आंगण सुरतरु मोरिये जी देवा,

तब कुमति जन खीजे जी II

तब सुमति जन रीझे जी II १ II

चन्द्रमा के किरण के सामान उज्जवल व पवित्र घनसार अर्थात बरास, सभी सुगंधियों में श्रेष्ठ कस्तूरी, चन्दन का चूर्ण, आदि को घस कर मिलकर गंधवटी (बनती है). जब परमात्मा के सुगन्धित चूर्ण से विलेपन किया जाता है तब वह विलेपन करनेवाला अपने अशुभ कर्म को चूर्ण अर्थात नष्ट करता है यहाँ मोरिये का अर्थ युद्ध में मोर्चा अर्थात व्यूह रचना से है. पूजा करनेवालों के आँगन में सुरतरु अर्थात कल्पवृक्ष पुष्पित हुआ है (यहाँ मोरिये का अर्थ पुष्पित होना है), और  तब कुमति अर्थात कुबुद्धि जन को खीझ उत्पन्न होती है और सुमति जनों को हर्ष उत्पन्न होता है.    

[राग-सामेरी]

पूजो री माई, जिनवर अंग सुगंधे II जिo II पूo II

गंधवटी घनसार उदारे, गोत्र तीर्थंकर बांधे II पूo II १ II

आठमी पूज अगर सेलासर, लावे जिन तनु रागे II

धार कपूर भाव घन बरखत, सामेरी मति जागे II पूo II २ II  

जिनवर का अंग सुगन्धित है उसे सुगंध से पूजो। बरास आदि उत्तम पदार्थों से युक्त गंधवटी से पूजन करने वाला तीर्थंकर गोत्र का वंध करता है. आठवीं पूजा में अगर, शिलारस, कपूर आदि द्रव्यों को प्रशस्त राग से प्रभु के शरीर में विलेपन करते हैं. कपूर की धारा के साथ जैसे सघन भावों की वर्षा होती है. सामरी राग में गेय यह पूजा अपनी मति अर्थात बुद्धि को जगानेवाली है.  


अथ नवम ध्वज पूजा

[दुहा]

मोहन ध्वज धर मस्तकें, सुहव गीत समूल II

दीजें तीन प्रदक्षिणा, नवमी पूज अमूल II II

मन मोहने वाले ध्वज को मस्तक पे धारण कर, सुंदर गीत गाते हुए, तीन प्रदक्षिणा दे कर यह पूजा की जाती है और यह अमूल्य पूजा है.  

[राग-गौडी में वस्तु छंद]

सहस जोयण सहस जोयण हेममय दंड,

युत पताक पंचे वरण II

घुम घुमंत घूघरी वाजे,

मृदु समीर लहके गयणं II

जाणि कुमति दल सयल भांजे (१)

सुरपति जिम विरचे ध्वज , नवमी पूज सुरंग II

तिण परि श्रावक ध्वज वहन, आपे दान अभंग II II

एक हज़ार योजन ऊँचा सुवर्णमय दंड, पांच रंग की पताकाओं से युक्त, जिसमे घूम घूम कर घुंगरू वज रहे हैं, आकाश में हलकी हलकी कोमल हवा बह रही है, मानो सभी कुमति के समूह को  नष्ट करनेवाली हो (१), देवराज इंद्र ने जिस प्रकार इंद्र ध्वज की रचना की थी वैसे ही श्रावक भी ध्वज का वहन कर, वो ऐसा दान करता है जिसका कोई अंत नहीं. (२)


[राग नट्ट -नारायण]

जिनराज को ध्वज मोहनां, ध्वज मोहना रे ध्वज मोहना II जिo II

मोहन सुगुरु  अधिवासियो, करि पंच सबद त्रिप्रदक्षिणा I

सधव वधू शिर सोहणा II जिo II II

भांति वसन पंच वरण वण्यो री, विध करि ध्वज को रोहणां II

साधु भणत नवमी पूजा नव, पाप नियाणां खोहणां II

शिव मन्दिरकुं अधिरोहणा, जन मोह्यो नट्टनारायणा II जिo II II

जिनेश्वर देव का ध्वज मन मोहनेवाला है. मोह को नष्ट करनेवाले सुगुरु के द्वारा अधिवासित (अर्थात वासक्षेप डाल कर), सधवा स्त्री के शिर पर शोभायमान ध्वज को ले कर पांच प्रकार के (वाजित्रों के) शब्द करते हुए तीन प्रदक्षिणा दे कर (१) पांच रंग के कपडे से बने हुए ध्वज को  विधि पूर्वक चढ़ाना है. साधुकीर्ति कहते हैं यह नवमी पूजा नौ प्रकार के पाप निदान (नियाणा) को नष्ट करनेवाली है, मोक्ष मंदिर में चढानेवाली है. "नट्टनारायण" राग में गेय यह पूजा जन मन को मोहनेवाली है. 



अथ दशमी आभरण पूजा

[राग-केदार में दूहा]

शिर सोहे जिनवर तणे, रयण मुकुट झलकंत II

तिलक भाल अंगद भुजा, श्रवण कुंडल अतिकंत II II 

दशमी पूजा आभरण, रचना यथा अनेक II

सुरपति प्रभु अंगे रचे, तिम श्रावक सुविवेक II II

रत्नों से बना हुआ देदीप्यमान मुकुट जिनवर के मस्तक में शोभायमान है, ललाट में तिलक, बांहों में अंगद (बाजूबंद), और कानों में कुण्डल बहुत ही प्रिय और मनोरम है (१). यह दसवीं पूजा आभूषण की है, जिसमे अनेक प्रकार से प्रभु की (अंग) रचना की जाती है. जिसप्रकार सुरपति अर्थात देवराज इंद्र ने प्रभु के अंगों को (आभूषणों से सजाया था)  उसी प्रकार श्रावक भी विवेक पूर्वक यह कार्य करे (२). 


[राग -गुंड मल्हार]

पांच पीरोजा नीलू लसणीया, मोती  माणकने लालसणीया,

हीरा सोहे रे, मन मोहे रे,

धूनी चूनी पुलक करकेतनां, जातरूप सुभग अंक अंजना,

मन मोहे रे II II

मौलि मुकुट रयणें जडयो, काने कुंडल जुगते जुड़यो II

उरहारु रे मनवारु रे II II

भाल तिलक बांहे अंगदा, आभरण दशमी पूजा मुदा II

सुखकारु रे, दुखहारू रे II II

पांच प्रकार के रत्न, अथवा सभी रत्न पांच पांच की संख्या में फ़िरोज़ा, नीला, लसनिया, मोती, मानक, हीरा, आदि सभी शोभते हैं और मन को मोह रहे हैं. चुन्नी (मानक का एक रूप), तामड़ा, कर्केतक, सोना, अंजन रत्न, आदि मनोहारी एवं सौभाग्यसूचक रत्न मन को मोह रहे हैं (१). मस्तक में मुकुट रत्नों से जड़ा हुआ है, कानों में कुण्डल बहुत ही सुन्दर बनाया गया है, (इनकी शोभा) ह्रदय का हरण करनेवाली है, और मन इनपे न्यौछावर हो जाता है (२). ललाट पे तिलक, और बाँहों में बाजूबंद, (ये सभी) आभरण (आभूषण) की यह दशमी पूजा प्रमुदित करनेवाली है. सुख करनेवाली एवं दुःख हरनेवाली है (३). 


[राग-केदार]

प्रभु शिर सोहे, मुकुट मणि रयणे जड्यो II

अंगद बांह तिलक भालस्थल, येहु देखउ कोन घडयो II प्रo II II

श्रवण कुंडल शशि तरणि मंडल जीपे, सुरतरु सम अलंकरयो II

दुख केदार चमर सिंहासण,छत्र शिर उवरि धरयो,

अलंकृति उचित वरयो II II

प्रभु के मस्तक पर मणि रत्नों से जड़ित मुकुट शोभायमान है. बाँहों में बाज़ू बंद, ललाट में तिलक (की शोभा) देख कर कवि आश्चर्य से चकित पूछते हैं की इन्हे किसने बनाया? (१) कानों में कुण्डल चन्द्रमा और सूर्य की भी कांति को जीतने वाली अर्थात उस से भी अधिक है, और प्रभु कल्पवृक्ष के सामान (अलंकारों से) अलंकृत हैं.  दुखों को नष्ट करने वाले केदार राग में गेय (केदार शब्द का द्विअर्थी प्रयोग) यह पूजा है. प्रभु चामर, सिंहासन आदि (प्रातिहार्यों से) सुशोभित हैं और शिर के ऊपर छत्र धरा हुआ है, इस प्रकार प्रभु श्रेष्ठ आभूषणों से उचित प्रकार से अलंकृत हैं (२). 


अथ एकादश फूलधर पूजा

[दूहा]

फूलधरो अति शोभतो, फुन्दे  लहके फूल II

महके परिमल महमहे, ग्यारमी पूज अमूल II II

फूलों से शोभित घर (फूलघर) अत्यंत शोभायमान है जिसमें फूंदों में फूल खिल रहा है. यहाँ पर "महके परिमल महमहे" तीनों लगभग समानार्थक हैं और खुशबू की आत्यंतिक अवस्था का वोध कराने के लिए  शब्दों का एक साथ प्रयोग किया गया है. भावार्थ ये है की फूलघर के फूलों की विशिष्ट सुवास चारों दिशाओं में तेजी से फ़ैल रही है. यह ग्यारहवीं पूजा अनमोल है. 

{राग-रामगिरि कौतिकीया]

कोज अंकोल रायबेली नव मालिका,

कुंद मचकुंद वर विचकूल हांरे अइयो विचकूल II

तिलक दमणक दलं मोगरा परिमलं,

कोमल पारिधि पाडलु , हांरे अइयो  चोरणूं   II II

कोज, अंकोल अर्थात ढेरा या थेल नामक फूल (एलैजियम सैल्बीफोलियम या एलैजियम लामार्की), रायबेली, नवमल्लिका, चमेली, नागचम्पा, और श्रेष्ठ विचकूल फूल, तिलिया, दौना, मोगरा आदि की खुशबु से महकता हुआ, और कोमल पारिध एवं पाडल (जबा) का फुल चित्त को चुराने अर्थात मन को हरने वाला है. 

[राग-कौतिकिया रामगिरि]

मेरो मन मोह्यो, फूलघरे आणंद झिले II

असत उसत दाम वघरी मनोहर,

देखत सबही दुरित खीले II फूo II II

कुसुम मंडप थंभ गुच्छ चंद्रोदय,

कोरणि चारु विमाणि सझे II

इग्यारमी पूज भणी हे रामगिरि,

विबुध विमाण जिको तिपुरी भजे II फूo II II

फूलघर ने मेरे मन को मोह लिया है और आनंद से तृप्त कर दिया है. दाम अर्थात फूलों की माला, बघरी अर्थात फूलों की बंगड़ी बना कर (फूलघर सजाया गया है जिसे) देख कर सभी पाप खिर गए अर्थात झर गए या नष्ट हो गए. फूलघर में पुष्प का मंडप बनाया गया है,  खम्भों को पुष्प गुच्छ से सुसज्जित किया गया है और उसमे चँदवा भी लगाया गया है. सुन्दर मनमोहक कोरनी से इसे (देव) विमान सदृश सजाया गया है. यह ग्यारहवीं पूजा रामगिरि राग में गाई गई है और यह पूजा ऐसी है जैसे देव विमान में इंद्र प्रभु की स्तवन करते हैं. 


अथ द्वादस पुष्पवर्षा पूजा

[दूहा-मल्हार]

वरषै  बारमी पूज में, कुसुम बादलिया फूल II

हरण ताप सवि लोक को, जानु समा बहु मूल II II

यह बारहवीं पुष्पवर्षा पूजा है. जगत के सभी ताप को दूर करने के लिए फूल बादल बन कर इतने बरसे की धरती घुटने तक फूलों से भर गई. 

[राग-भीम मल्हार गुंड़मिश्र-देशी कड़खानी]

मेघ बरसै भरी, पुप्फ वादल करी,

जानु परिणाम करि कुसुम पगरं II

पंच वरणें बन्यो, विकच अनुक्रम चन्यो,

अधोवृंतें नहु=नहीं पी पसरं II मेo II II

वास महके मिलै, भमर भमरी भिले,

सरस रसरंग तिणि दुख निवारी I

जिनप आगे करै, सुरप जिम सुख वरै,

बारमी पूज तिण पर अगारी II मेo II II

फूलों का बादल बना है ऐसा मेघ बरस रहा है और घुटने तक फूल भर गया है. पांच रंगों के फूल  इस प्रकार से स्थित हैं की जिनमे उनकी डंडियां नीचे की तरफ हैं (और पंखुड़ियां ऊपर की ओर) और (जिनेश्वर देव के अतिशय से) उन्हें कोई पीड़ा भी नहीं होती है (१). (उन फूलों की) खुशबू से, महक से भौंरे-भौंरी आ कर (उनका  रसपान कर रहे हैं). यह सरस रसरंग दुःख निवारण करनेवाला है. सुरपति इंद्र ने जिनपति के आगे जिस प्रकार पुष्पवर्षा की उसी प्रकार बारहवीं पूजा में श्रावक भी करते हैं (२). 

[राग-भीम मल्हार]

पुप्फ वादलिया वरसे सुसमां II अहो पुo II 

योजन अशुचिहर  वरसे गंधोदक, मनोहर जानु  समा II अहो पुo II II

गमन आगमन कुं पीर नहीं तसु, इ जिनको अतिशय सगुनें II

गुंजत गुंजत मधुकर इम पभणे, मधुर वचन जिन गुण थुणे II II

कुसुमसु परिसेवा जो करै, तसु पीर नहीं सुमिणे II

समवसरण पंचवरण अधोवृन्त, विबुध रचे सुमनां सुसमां II पुo II II

बारमी पूज भविक तिम करे, कुसुम विकसी हसी उच्चरे II

तसु भीम बंधन अधरा हुवे,  जे करै जै जिन नमा II पुo II II

सुखकारक पुष्प के बादल बरस रहे हैं. योजन प्रमाण भूमि के अशुचि को हरण करनेवाला गंधोदक भी बरस रहा है. घुटने तक मनोहर फूल बरस गया है (१). इन पुष्पों के ऊपर आने-जाने वालों से इन्हे किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती यह जिनेश्वर देव का अतिशय है. इन फूलों पर भौंरे गुंजारव कर रहे हैं मानो मधुर वचन से जिनेश्वर देव के गुण गा रहे हों (२).

फूलों से जो (तीर्थंकर परमात्मा की) सेवा अर्थात पूजा करता है उसका मन प्रसन्न रहता है और उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं होती. समवशरण में देवगण पांच रंगों के सुखदायक अधोवृन्त फूलों की यह रचना करते हैं अर्थात यह देवकृत अतिशय है (३).

(जिस प्रकार देवों ने किया) उस प्रकार जो भव्य जीव बारहवीं पूजा में पुष्पवर्षा करता है और विकसित पुष्प के समान आनंदित हो कर (प्रभु गुण) का उच्चारण करता है और जिनेश्वर देव का जय जयकार करते हुए उन्हें नमन करता है उसके (कर्मों के) दृढ एवं भयानक वंधन ढीले हो जाते हैं (४). 



अथ त्रयोदश अष्ट मंगल पूजा

[दूहा-कल्याण राग]

तेरमि पूजा अवसरे, मंगल अष्ट विधान Ii

युगति रचे सुमंतें सही, परमानंद निधान II II

तेरहवीं पूजा में अष्टमंगल का विधान है. कुशलता पूर्वक शुभमति से (यह पूजा करने पर) परमानन्द रूप निधान की प्राप्ति होती है. 

{राग-वसंत]

अतुल विमल मिल्या, अखंड गुणे भिल्या, सालि रजत तणा तंदुला II

श्लषण समाजकं, विचि पंच (पञ्चविध) वरणकं, चन्द्रकिरण जैसा ऊजला II

मेलि मंगल लिखै, सयल मंगल अखे, जिनप आगें सुथानक धरे II

तेरमि पूजविधि ते रमि मन मेरे, अष्ट मंगल अष्ट सिद्धि करे II o II II

अतुलनीय, निर्मल, अखण्ड आदि गुणों से परिपूर्ण एवं चन्द्रकिरण के सामान उज्जवल शालि धान्य, चावल, चांदी के चावल आदि पांच रंगों के धान से अष्ट मंगल लिख (आलेखन कर) जिनपति (जिनेश्वर देव) के आगे अच्छे स्थान में रखनेवाले के सभी मंगल अक्षय होते हैं. यह तेरहवीं पूजा मेरे मन में रम गई है. अष्ट मंगल अष्ट सिद्धि प्रदान करनेवाली है. 

 [राग-कल्याण]

हां हो तेरी पूजा बणी है रसमें II

अष्ट मंगल लिखै, कुशल निधानं, तेज तरणि के रसमें II हांo II II

दप्पण भद्रासण नंद्यावर्त्त पूर्ण कुंभ, मच्छयुग श्रीवच्छ तसु मे II

वर्द्धमान स्वस्तिक पूज मंगलकी, आनंद कल्याण सुखरसमें II हांo II II

हे प्रभु तुम्हारी पूजा बड़ी रसीली है. अष्टमंगल का आलेखन करने से कुशल मंगल रूप संपत्ति और सूर्य के समान तेज प्राप्त होता है।  कल्याण राग में गेय इस पूजा में दर्पण, भद्रासन, नंद्यावर्त, पूर्णकलश, मत्स्य युगल, श्रीवत्स, वर्द्धमान एवं स्वस्तिक  इन अष्ट मंगलों से पूजा करने से आनंद, कल्याण एवं सुखरस की प्राप्ति होती है. 


अथ चतुर्दश धूप पूजा

[दूहा]

गंधवटी मृगमद अगर, सेल्हारस घनसार II

धरि प्रभु आगल धूपणा, चउदमि अरचा सार II II

गंधवटी, कस्तूरी, अगर, शिलारस, और कपूर-बरास से निर्मित धुप प्रभु के सन्मुख रख कर  (अग्र पूजा)  की गई धुप पूजा, यह चौदमी पूजा है और यह  सारभूत है. 

[राग-वेलावल]

कृष्णागर कपूरचूर, सौगन्ध  पंचे पूर,

कुंदरुक्क सेल्हारस सार, गंधवटी घनसार 

गंधवटी घनसार चंदन मृगमदां  रस मेलिये, श्रीवास धूप दशांग,

अंबर सुरभि बहु द्रव्य भेलियें II

वेरुलिय दंड कनक मंडं, धूपधाणूं  कर धरे II

भववृत्ति धूप करंति भोगं, रोग सोग अशुभ हरे II II


काले रंग का अगर,  कपूर चूर्ण, कुंदरुक्क (लोबान), शिलारस, बरास ऐसे पांच सुगंध से भरपूर ऐसे गंधवटी धुप से प्रभु पूजा करनी है. गंधवटी, कपूर, चन्दन, कस्तूरी,  अम्बर आदि बहुत से सुगन्धित द्रव्य मिला कर, श्रीवास अर्थात चीड़ के वृक्ष का सुगन्धित तेल के साथ दशांग धुप मिला कर (दशांग धुप में पद्मपुराण के अनुसार कपूर, कुष्ठ, अगर, चंदन, गुग्गुल, केसर, सुगंधबाला तेजपत्ता, खस और जायफल ये दस चीजें होनी चाहिए) अतिशय सुगन्धित धुप बनाया जाता है.  

(धुप का वर्णन कर अब धूपदानी का वर्णन करते हैं). सोने के दंड में वैदूर्य मणि जड़ कर धूपदानी बनी है जिसे श्रावक अपने हाथ में लेकर (प्रभु के आगे धुप खेता है). धुप पूजा करनेवाला भववृत्ति रूप भोग को नष्ट करता है अर्थात जैसे धुप जलकर धुंआ बनकर उड़ जाता है और उड़ते हुए सुगंध फैलता है उसी प्रकार जीव भी जब अपने भोग वृत्तियों को जला कर नष्ट करता है तब उसके आत्मगुणों की सुवास देशों दिशाओं में फ़ैल जाती है. यह धुप पूजा रोग, शोक एवं सभी प्रकार के अशुभ को नष्ट करनेवाली है. 

[राग-मालवी गौड़]

सब अरति मथन मुदार धूपं, करति गंध रसाल रे II देवा, करo II

झाल (धाम) धूमावली धूसर, कलुष पातग गाल रे Ii  देवा, सुo II II

ऊध्र्वगति सुचंति भविकुं, मघमघै किरणाल रे II देo II

चौदमि वामांगि पूजा, दीये रयण विशाल रे II

आरती मंगल माल रे, मालवी गौड़ी ताल रे II o II II

सभी अरती अर्थात अप्रीति को नष्ट करनेवाले धुप का रसपूर्ण सुगंध (प्रभु के आगे) करते हैं. अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न धुषर वर्ण  का धुआँ सभी कलुष और पाप को गलानेवाला है.  (ऊपर उठता हुआ धुंआ) सुगंध से महकता हुआ भवी जीव के ऊर्ध्वगति को सूचित करता है और जीवन को किरणों से भर देता है. यह चौदहवीं धुप पूजा प्रभु के बायीं ओर की जाती है. इस पूजा के साथ ही विशाल दीपकों से आरती एवं मंगल दीपक करना है. यह पूजा मालवी गौड़ी राग में बनाई गई है. 

( नोट: पुराने समय में इस पूजा के बाद आरती, मङ्गल दीपक किया जाता था, शेष तीन पूजा आरती, मंगल दीपक के बाद होती थी.)

अथ पंचदसम गीत पूजा

[दूहा]

कंठ भलै आलाप करि, गावो जिनगुण गीत II

भावो अधिकी भावना, पनरमि पूजा प्रीत II II

गले से अच्छी तरह आलाप कर प्रभु के गुणों का गीत गाओ और अधिक भावना भाओ, पंद्रहवीं पूजा के द्वारा प्रभु से प्रीत करो. 

[आर्यावृन्त, राग-श्री]

यद्वदनंत-केवल- मनंत, फलमस्ति जैनगुणगानम II

गुणवर्ण-तान-वाद्यैर्मात्रा भाषा-लयैर्युक्तं II II

सप्त स्वरसंगीतैं:, स्थानैर्जयतादि-तालकरनैश्च II

चंचुरचारीचरै - गीतं गानं सुपीयूषम II II

जैन तीर्थंकरों के गुणगान का फल अनंत केवलज्ञान रूप फल की प्राप्ति है. उन गुणों को तान, वाद्य, मात्रा, भाषा और लय के साथ गान करो. संगीत के सप्त स्वरों, जयतादि स्थानों से, ताल एवं करण पूर्वक तथा दक्षता से गीतों से किया  गुणगान अमृत वर्षी होता है. (चंचुर का अर्थ डिक्शनरी में दक्ष है। यह कोई ताल है ऐसा कोई उल्लेख मिला क्या?)


[राग-श्री राग]

जिनगुण गानं श्रुत अमृतं I

तार मंद्रादि अनाहत तानं, केवल जिम तिम फल अमितं II जिo II II

विबुध कुमार कुमारी आलापे, मुरज उपंग नाद जनितं II

पाठ प्रबंध धूआ प्रतिमानं, आयति छंद सुरति सुमितं  II II

शब्द समान रुच्यो त्रिभुवनकुं, सुर नर गावे जिन चरितं II

सप्त स्वर मान शिवश्री गीतं, पनरमि पूजा हरे दुरितं II जिo II II 

जिनेश्वर देव के गुणों का गान करना सुनने में अमृत के समान है. तार, मन्द्र आदि सप्तकों में और अनाहत तान से गेय गीत  केवल ज्ञान रूप अमित फल देनेवाले है. मृदंग, उपंग आदि से नाद उत्पन्न कर देव कुमार एवं देव कुमारी आलाप करते हैं. अविच्छिन्न क्रम से दोषरहित पथ का सुव्यवस्थित प्रवंधन कर, ध्रुव अर्थात निश्चित मापदंड के साथ, प्रमाणोपेत, आलाप का विस्तार कर, छन्दवद्ध गायन मन को अति अनुरक्त करता है.  

शब्द अर्थात बाग्यंत्र एवं वाद्य यंत्रों से उत्पन्न वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक के सटीक प्रयोग से एवं सामान अर्थात एक ही स्थान से उच्चारण किये जानेवाले स्वरों के माध्यम से, जो परिवेश बनता है वह त्रिलोक को रुचिकर है. ऐसे मधुर गायन से देवगण एवं मनुष्य जिन चरित्र का गान करते हैं.  सात स्वरों के परिमानवाला अर्थात सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाति के श्री राग में गेय यह पंद्रहवीं पूजा दुखों को दूर कर शिवफल प्रदान करनेवाली है. 

अथ षोडश नृत्य पूजा

[दूहा]

कर जोड़ी नाटक करे, सजि सुंदर सिणसार II

भव नाटक ते नवि भमे, सोलमि पूजा सार II II

सुन्दर स्त्रियां सोलह श्रृंगार कर (प्रभु के आगे) सारभूत सोलहवीं पूजा में प्रभु के आगे नाटक करती है. ऐसा करनेवाला भव नाटक में भ्रमण नहीं करता.

[राग-शुद्ध नट्ट II शार्दुलविक्रीड़ितं वृंत]

भावा दिप्पीणा सुचारुचरणा, संपुन्न-चंदानना,

सप्पिम्मासम-रूप-वेस-वयसो, मत्तेभ-कुम्भत्थणा I

लावण्णा सगुणा पिक्स्सरवई , रागाई आलावना 

कुम्मारी कुमरावी जैन पुरओ, नच्चन्ति सिंगारणा II II

भावों से दीप्तिमान, सुन्दर चरणों वाली, पूर्ण चन्द्रमा के सामान मुखवाली, सुन्दर रूप व बेषभूशा वाली समवयस्क, मस्तक पर कलश रख कर (मत्तेभ या मत्थेभ), लावण्य एवं गुणों से युक्त कोयल के सामान मधुर स्वरवाली कुमारिकाएँ  एवं कुमार (युवक-युवतियां) श्रृंगार करके विभिन्न रागों में आलाप करते हुए जिनेश्वरदेव के मंदिर में नृत्य करतें हैं. 

[गंध]

तएणं ते अट्ठसयं  कुमार-कुमरिओ सुरियाभेणं देवेणं संदिट्ठा,

रंग मंडवे पविट्ठा जिणं  नमंता गायंता वायंता नच्चन्तित्ति II

उस समय एक सौ आठ देव एवं देवी सुरियाभ देव के साथ रंग मंडप में प्रवेश करते हैं, जिनेश्वर देव को नमन करते हैं, गाते हैं, बजाते हैं और नाचते हैं. 

[राग-नट्ट त्रिगुण]

नाचंति कुमार कुमरी, द्रागडदि तत्ता थेइ,

द्रागडदि द्रागडदि  थोंग थोगनि मुखें तत्ता थेइ II नाo II II

वेणु वीणा मुरज वाजै, सोलही सिंणगार साजे, तन-------

घणण घणण घूघरी धमके, रण्णंण्णंणं नानेई II o II II

कसंती कंचुंकी तरुणी, मंजरी झंकार  करणी शोभंति कुमरी

हस्तकृत हावादि भावे, ददंति भमरी II नाo II II

सोलमी नाट्क्कतणी, सुरीयाभें रावण्ण किनी सुगंध तत्ता त्थेई II

जिनप भगतें भविक लीणा, आनंद तत्ता थेई  II o II II


कुमार एवं कुमारी नाच रहे हैं और विभिन्न बाद्ययन्त्रों के बोल निकल रहे हैं जैसे द्रागडदि  द्रागडदि, थोंग थोगनि, तत्ता थेइ आदि. बांसुरी, बीणा, मृदंग आदि बाद्ययन्त्र बज रहे हैं, और सोलह श्रृंगार करके कुमारिकाएँ घुंघरू की घमक के साथ नृत्य कर रहीं हैं. तरुणी स्त्रियां अपनी कंचुकियों को कस कर, मञ्जरी की झंकार के साथ, अपने हाथों से विभिन्न प्रकार की नृत्य मुद्राएं करते हुए भंवरी देते हुए वे कुमारियाँ शोभायमान हो रहीं हैं. जिस प्रकार यह सोलहवीं नाटक (नृत्य) पुजा सुरियाभ देव एवं रावण जैसों ने कर अपने भव को सार्थक किया था उसी प्रकार जिनेश्वर देव की भक्ति में लीन भवी जीव आनंद प्राप्त करते हैं.  


अथ सप्तदश वाजित्र पूजा

[आर्यावृत्तम ]

सुर-मद्दल-कंसालो, महुरय-मद्दल-सुवज्जए पणवो II

सुरनारि नंदितूरो, पभणेई तूं नंदि जिणनाहो II


देव दुंदुभि, कांसी, एवं मधुर आवाज करनेवाले मादल, शंख आदि सुरीले वाद्य के साथ स्वर्गलोक की देवियां मंगलकारक तुरही बजाकर घोषणा कर रहीं है की हे जिन नाथ आप आनंद मंगल कारक हैं. 

[दूहा]

तत घन सुषिरे आनघे, वाजित्र चहुविध वाय II

भगत भली भगवंतनी, सतरमी सुखदाय II II


तत, घन, सुषिर एवं आनघ यह चार प्रकार के वाजित्र  होते हैं, और ये चारों ही प्रकार के वाजे बज रहे हैं. सत्रहवीं पूजा में भगवंत की यह सुन्दर भक्ति सुख देनेवाली है. 

[राग-मधु माधवी]

तूं नंदि आनंदि बोलत नंदी,

चरण कमल जसु जगत्रय वंदी II

ज्ञान निर्मल वचनी (बावन) मुख वेदी,

तिवलि बोले रंग अतिहि आनंदी II तूंo II II

भेरी गयण वाजंती, कुमति त्याजंती II

प्रभु भक्ति पसायें अधिक गाजंती, सेवे जैन जयणावंती,

जैनशासन, जयवंत निरदंदि II

उदय संघे परिप्पर-वदंती II तूंo II II

सेवि भविक मधु माघ आखे फेरी, भवि ने फेरी नप्पभणंती,

कहे साधु सतरमी पूज वाजित्र सब,

मंगल मधुर धुनि कहे (कर) कहंती II तूंo II II

 (हे प्रभु ) तुम आनंद में हो, (उनके गुण) बोलने में भी आनंद होता है. जिनके चरण कमलों की तीनों लोक वंदना करता है. जिनका (केवल) ज्ञान निर्मल है, वचन भी निर्मल और तत्वज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे प्रभु की भक्ति में तबले के बोल भी आनंद रंग उत्पन्न कर रहे हैं. आकाश में भेरी (दुंदुभि) बज रही है, कुमति का त्याग हो रहा है, प्रभु भक्ति के प्रसाद से ज्यादा जोर से गाज रहा है. जयणा का पालन कर जिनेश्वर देव की सेवा होती है. जिनशासन जयवन्त और निर्द्वन्द प्रवर्त्तमान है. संघ का उदय है ऐसा (ये बाजित्र) बार बार कह रहे हैं. मधु माधवी राग में गेय यह गीत गा कर जो भविक जन प्रभु की सेवा करता है वह भव के चक्करों से बच जाता है. साधु कीर्ति कहते हैं की सत्रहवीं पूजा में सभी वाजित्र मंगल स्वरुप मधुर ध्वनि बोल रहे हैं.  

कलश [राग-धन्याश्री]

भवि तूं भण गुण जिनको सब दिन, तेज तरणि मुख राजे II

कवित्त शतक आठ थुणत शक्रस्तव, थुय थुय रंग हम छाजे II o II

अणहिलपुर शांति शिवसुख दाई, सो प्रभु नवनिधि सिद्धि आवजे II

सतर सुपूज सुविधि श्रावक की, भणी मैं भगति हित काजे II o II

श्री जिनचन्द्र सूरि खरतरपति, धरम वचन तसु राजे II

संवत सोल अढार श्रावण धूरि, पंचमी दिवस समाजे II o II

दयाकलश गुरु अमरमाणिक्य वर, तासु पसाय सुविधि हुइ गाजे II

कहै साधुकीरति करत जिन संस्तव, शिवलीला सवि सुख साजे II o II 

हे भविक जीव, हर दिन उन जिनेश्वर देव के गुणगान करो जिनके मुखमण्डल का तेज सूर्य के सामान है. पूजा के रचयिता साधुकीर्ति कहते हैं की शक्रस्तव के समान १०८ कवित्तों से यह पूजा गाते हुए उनपर स्तुति और भक्ति का रंग चढ़ा है. अणहिलपुर (जहाँ यह पूजा बनाई गई) में पूर्ण शांति है और यह शिवसुख देनेवाली है. यहाँ नव निधि और सिद्धि कारक श्रावक के करने योग्य यह सत्रह भेदी पूजा भक्ति  की कामना से विधि पूर्वक बनाई है. (इस समय) खरतर गच्छाधिपति श्री जिनचन्द्र सूरी के धर्मवचन रूप शासन है. सम्वत सोलह सौ अठारह (ईश्वी सन 1561) के श्रावण बदी पंचमी के दिन इस पूजा को समाज के सामने प्रकाशित किया गया. अपने गुरु श्रेष्ठ दयाकलश अमर माणिक्य के प्रभाव से यह विधि बनाई जा सकी, जिनेश्वर देव के गुणगान करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की यह पूजा सभी सुखों के धाम शिव गति को प्राप्त करानेवाली है.


II इति सतरहभेदी पूजा सम्पूर्णा II


साधुकीर्ति कृत सत्रह भेदी पूजा के अनुवाद भाषा सम्बन्धी कठिनाई है। एक बार प्रयत्न कर मूल का अर्थ किया गया है। भविष्य में इसे और सुधार कर और सरल भाषा में अर्थ करने में सुज्ञ विद्वानों का सहयोग अपेक्षित है.


Thanks, 
Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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