सारांश
प्रस्तावना (विस्तारित रूप)
भारत की सांस्कृतिक चेतना में 'वन' और 'जनजातियाँ' केवल भौगोलिक क्षेत्र या सामाजिक वर्ग नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय जीवनदर्शन की मूल आत्मा हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों, महाकाव्यों और स्मृति-साहित्य में वन न केवल प्राकृतिक आवास के रूप में, बल्कि एक आध्यात्मिक साधना-स्थल, आत्मशोधन के क्षेत्र, और सांस्कृतिक शिक्षा के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है।
इसी प्रकार, जनजातियाँ — जिन्हें अलग-अलग संदर्भों में 'वनवासी', 'आदिवासी', और संविधानिक रूप से 'अनुसूचित जनजाति' कहा जाता है — भारत की सांस्कृतिक विविधता की जीवंत संवाहक रही हैं। ये समुदाय केवल वनों के वासी नहीं, बल्कि धरोहरों के धारक, परंपराओं के रक्षक और नैसर्गिक ज्ञान के भंडार रहे हैं।
इस लेख में हम इन शब्दों — वन, वनवासी, आदिवासी और जनजाति — की शब्द-व्युत्पत्ति, ऐतिहासिक विकास, वैचारिक मतभेद और सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, हम भारतीय धर्मशास्त्रों, महाकाव्यों और स्मृति ग्रंथों में 'वनवास' की अवधारणा को एक दंडात्मक व्यवस्था नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन और जीवन के क्रमिक संस्कार के रूप में देखने का प्रयास करेंगे।
विशेषकर राजस्थान की जनजातियाँ — जैसे भील, मीणा, सहारिया, गरासिया आदि — न केवल अपने इतिहास और परंपरा में विशिष्ट हैं, बल्कि भारत की समग्र सांस्कृतिक पहचान को भी सशक्त बनाती हैं। उनके संघर्ष, बलिदान और सांस्कृतिक योगदान (जैसे वीरांगना काली बाई का शौर्य) भारतीय चेतना में प्रेरणा के शाश्वत स्रोत हैं।
यह लेख एक प्रयास है — भारतीय संस्कृति में वन और जनजातीय परंपराओं के परस्पर संबंधों को समझने, उन्हें केवल 'विकासशील' नहीं, बल्कि 'संस्कृति-समृद्ध' समुदायों के रूप में प्रतिष्ठित करने और उनके ऐतिहासिक गौरव को पुनर्स्थापित करने का।
1. जनजाति: परिभाषा, वैचारिक पृष्ठभूमि और सामाजिक विमर्श
जनजाति (Tribe) शब्द संस्कृत के "जन" (लोग/समूह) और "जाति" (उत्पत्ति/समुदाय) से बना है। इसका अर्थ है — "एक ऐसा समुदाय जो समान वंश, सांस्कृतिक परंपरा, भाषा, और क्षेत्रीयता से जुड़ा हुआ हो तथा जिसकी जीवनशैली पारंपरिक एवं स्वतंत्र हो।"
भारतीय संविधान (अनुच्छेद 342) के अनुसार: भारत सरकार द्वारा जिन समुदायों को अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) घोषित किया गया है, वे ही कानूनी रूप से जनजातियाँ मानी जाती हैं।
सामाजिक दृष्टि से: जनजातियाँ आमतौर पर स्वशासी, ग्राम्य अथवा वन क्षेत्रों में रहने वाली होती हैं। इनकी संस्कृति में प्रकृति पूजा, स्वतंत्र सामाजिक संरचना, और लोक आधारित न्याय प्रणाली होती है।
क्या वनवासियों को ही जनजाति कहा जाता है?
आंशिक रूप से हाँ। "वनवासी" शब्द का उपयोग उन समुदायों के लिए किया जाता है जो परंपरागत रूप से जंगलों और पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हैं, और जिनकी आजीविका वनों पर आधारित होती है।
लेकिन ध्यान दें:
सभी वनवासी जनजाति नहीं होते (कुछ घुमंतू जातियाँ या अर्ध-नगरीय जन भी वन क्षेत्र में रहते हैं)।
और सभी जनजातियाँ केवल वनवासी भी नहीं होतीं — जैसे मीणा, जो मैदानों में रहते हैं और अब शिक्षित व शहरी भी हो चुके हैं।
निष्कर्ष: हर जनजाति वनवासी नहीं होती, परंतु अधिकांश वनवासी समुदाय जनजातीय स्वरूप रखते हैं।
क्या इन्हें ही आदिवासी कहा जाता है?
"आदिवासी" शब्द का अर्थ है — "आदि काल से रहने वाले निवासी"। यह शब्द औपनिवेशिक काल के बाद आरंभ हुआ जब ब्रिटिश और भारतीय समाजशास्त्रियों ने यह अवधारणा दी कि भारत में कुछ समुदाय ‘प्राचीनतम निवासी’ हैं, जो आर्य/अन्य जातियों से पहले यहाँ रहते थे।
संविधान में यह शब्द नहीं है, वहाँ केवल "अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe)" शब्द प्रयोग होता है।
एक वैचारिक विभाजन भी है:
कुछ संगठन इन्हें "आदिवासी" कहते हैं — ताकि केवल उन्हें ही भारत का मूलनिवासी पहचान को स्थापित किया जा सके।
जबकि राष्ट्रवादी विचारधाराएँ इन्हें "वनवासी" कहती हैं — यह मानकर कि वे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं और भारतीय संस्कृति के रक्षक हैं।
इनका प्राचीन नाम क्या था?
वेदों, पुराणों और महाकाव्यों में निम्न नामों से इनका उल्लेख मिलता है:
प्राचीन नाम | आज के संदर्भ में | विशेषता |
---|---|---|
निषाद | भील, कोल, गोंड आदि | वनवासी, शिकारी, नाविक |
शबर | शबर जनजाति (उड़ीसा/छत्तीसगढ़) | पर्वतीय जाति |
पुलिंद | मध्य भारत के गोंड समुदाय | रजवार, कोल, भील से संबंधित |
भील | अभी भी प्रयुक्त | धनुर्धारी, अरण्यवास |
दास/दास्यु | मूल निवासी | गैर-वैदिक/अन्य जातियाँ |
ऋग्वेद में "दास्य" शब्द का प्रयोग अजनजातीय, अनार्य या भिन्न संस्कृति वाले लोगों के लिए होता है।
कब से इन्हें 'आदिवासी' या 'वनवासी' कहा जाने लगा?
'आदिवासी' शब्द: बीसवीं सदी की शुरुआत में आदिवासी नेताओं, समाजशास्त्रियों और राष्ट्रवादियों द्वारा यह शब्द लोकप्रिय हुआ। 1930–40 के दशक में जवाहरलाल नेहरू, वेरियर एल्विन आदि ने इसका उपयोग किया। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा में 'अनुसूचित जनजाति' शब्द आया, परंतु सामाजिक-राजनीतिक शब्दावली में ‘आदिवासी’ शब्द बना रहा।
'वनवासी' शब्द: 1960 के बाद राष्ट्रवादी संगठनों जैसे RSS, वनवासी कल्याण परिषद आदि ने इस शब्द को अपनाया ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि ये समुदाय भारत की संस्कृति से अलग नहीं, बल्कि उसका प्राचीन अंग हैं।
निष्कर्ष सारणी:
शब्द | अर्थ | उत्पत्ति | उद्देश्य |
जनजाति | परंपरागत समुदाय | भारतीय संविधान (अनु. 342) | प्रशासनिक वर्गीकरण |
आदिवासी | आदि निवासी | समाजशास्त्र, 20वीं सदी | ऐतिहासिक अधिकार की मांग |
वनवासी | वन में रहने वाले | राष्ट्रवादी विमर्श | एकात्मता और संस्कृति से जुड़ाव |
2. प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वनवास की अवधारणा
भारतीय महाकाव्यों और धर्मशास्त्रों में वनवास एक दंड नहीं बल्कि धर्म, आत्मशोधन और मोक्ष की ओर एक क्रमिक यात्रा का प्रतीक रहा है।
1. धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती का वनों में गमन
स्रोत: महाभारत, आश्रमवासिक पर्व (अध्याय 1–3)
श्लोक:
"धृतराष्ट्रस्तदा राजा प्राप्य पुत्रक्षयं महत्।
तपश्चकर्त धर्मात्मा गत्वा शतशृङ्गमाश्रमम्॥"
हिंदी अर्थ: धृतराष्ट्र ने अपने सभी पुत्रों के वध के पश्चात महान दुख सहा। फिर वे धर्मनिष्ठ होकर तप करने के लिए शतशृंग पर्वत स्थित आश्रम में चले गए।
2. कुन्ती का पुत्रों को त्यागकर वनगमन
स्रोत: महाभारत, आश्रमवासिक पर्व (अध्याय 3)
श्लोक:
"सा चापि कर्णमातैव धर्मपत्न्येव धर्मिणी।
वनं ययौ सती देवी पुत्रान् हित्वा तपोवना॥"
हिंदी अर्थ: कर्ण की माता कुन्ती, धर्मपत्नी के समान धर्मपरायण थीं। उन्होंने अपने पुत्रों को छोड़कर तपस्या हेतु वनगमन किया।
3. विदुर का वन में वास और मृत्यु
स्रोत: महाभारत, आश्रमवासिक पर्व (अध्याय 5)
श्लोक:
"विदुरस्तपसा दीप्तः कालं कृत्वा महामुनिः।
प्राणान्सन्दध्यौ योगेन प्रविवेश महत्तरम्॥"
हिंदी अर्थ: महामुनि विदुर तप से तेजस्वी हो गए थे। योगबल से अपने प्राणों को समाहित कर वे महान तत्व (परब्रह्म) में लीन हो गए।
4. राम, लक्ष्मण और सीता का वनवास
स्रोत: वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड, श्लोक 112.25
श्लोक:
"चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने।
मधु मूल फलैः जीवन् हित्वा मुनिवदाश्रमम्॥"
हिंदी अर्थ: (राम कहते हैं) मैं चौदह वर्षों तक एकांत वन में मुनियों की भाँति रहूँगा और मधु, मूल, फल आदि से जीवन यापन करूँगा।
5. वानप्रस्थ का निर्देश – गृहस्थ से संन्यास की ओर
स्रोत: मनुस्मृति – अध्याय 6, श्लोक 1
श्लोक:
"गृहस्थस्तु यथा शास्त्रं पुत्रानुत्पाद्य धर्मतः।
पश्चाद्वने वसेद्द्वैतो वन्येनैव च जीवति॥"
हिंदी अर्थ: गृहस्थ आश्रम में पुत्र उत्पन्न कर धर्मपूर्वक जीवन बिताने के पश्चात व्यक्ति को वन में जाकर दो वस्त्रों में वन्य आहार से जीवन यापन करते हुए रहना चाहिए।
6. ऋषि-मुनियों के आश्रम और नगरवासियों का संपर्क
स्रोत: महाभारत, वनपर्व
पांडवों के वनवास के समय अनेक नगरवासी, ऋषि, ब्राह्मण और विद्वान उनसे संपर्क में रहते हैं। जैसे – अगस्त्य और लोपामुद्रा, याज्ञवल्क्य और जनक संवाद आदि।
निष्कर्ष: इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि:
वनवास केवल दंड नहीं, बल्कि धार्मिक एवं आत्मिक अनुशासन था।
राजपरिवार, नगरवासी और कुलीन भी स्वेच्छा से वनगमन करते थे।
यह जीवन का एक क्रमिक संस्कार था – वानप्रस्थ से संन्यास की ओर।
वन: भारतीय सांस्कृतिक चेतना का आधार
"वन" केवल प्राकृतिक आवास नहीं था, वह ध्यान, तपस्या, ज्ञान और आत्मसंयम का क्षेत्र था। वैदिक, उपनिषदिक, रामायण-महाभारत, बौद्ध-जैन और तमाम अन्य ग्रंथों में वनों को आध्यात्मिक साधना का आधार माना गया है।
ऋषि-मुनियों के आश्रम प्रायः वनों में ही स्थित होते थे। वहाँ राजाओं, व्यापारियों, विद्यार्थियों और साधकों का आना-जाना लगा रहता था।
अरण्यक ग्रंथों का नाम ही इस बात का प्रमाण है कि वे वन में वास करते हुए रचित हुए।
राम, लक्ष्मण और सीता का वनवास और पांडवों का अज्ञातवास इसी परंपरा का हिस्सा है, जो यह दर्शाता है कि नगरीय कुलीन वर्ग भी समय-समय पर वन-जीवन में प्रवेश करता था।
जैन शास्त्रों में तीर्थंकरों, मुनियों के वनों और पर्वतों में तपस्या करने, केवल ज्ञान और मोक्ष प्राप्त करने का बहुतायत से उल्लेख मिलता है. सभी तीर्थंकर नगर से वन में जाकर दीक्षा ग्रहण करते हैं एवं दीक्षा के बाद अपना अधिकांश समय वनों/पर्वतों में ही साधना करते हुए व्यतीत करते हैं. तीर्थंकरों एवं महान आचार्यों द्वारा नगर के समीप स्थित उपवनों में आकर नगरवासियों को उपदेश देने का भी प्रचुर मात्रा में उल्लेख मिलता है.
इसी प्रकार की संस्कृति बौद्धों में भी पाई जाती है. निष्कर्ष ये है की सम्पूर्ण भारतीय परंपरा में वन, वनवास, एवं वन्यजीवन का महत्वपूर्ण स्थान है.
वनवासियों की भूमिका – मात्र "आदिवासी" नहीं, संस्कृति के वाहक
भारत में भील, गोंड, सन्थाल, कोल, मुण्डा, नागा आदि जनजातियाँ युगों से वनों में निवास करती रही हैं। लेकिन वे केवल "वन के निवासी" नहीं थे, बल्कि उनके पास समृद्ध सांस्कृतिक, दार्शनिक, औषधीय, और पर्यावरणीय ज्ञान था।
भीलों को रामायण-महाभारत में मित्र और सहयोगी के रूप में वर्णित किया गया है। गोंड जनजाति के देवताओं और परंपराओं में भी अत्यंत प्राचीन तत्त्व मिलते हैं।
वस्तुतः इन जनजातियों को आदिवासी नाम देना भारत की जनता को विभाजित करने की अंग्रेजों की एक गहरी चाल थी.
क्या नगरीय एवं ग्रामीण लोग भी वनों में निवास करते थे?
हाँ, अवश्य। भारत में "वनवास" एक दंड या पीड़ा नहीं, बल्कि संस्कार था।
राम और पांडवों का वनवास एक आत्मसंधान का चरण था।
संन्यास आश्रम के अंतर्गत जीवन के अंतिम चरण में वनों में वास की परंपरा रही है – वानप्रस्थ आश्रम के अंतर्गत व्यक्ति गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर वनों में तप, अध्ययन और आत्मचिंतन हेतु निवास करता था।
वाऩप्रस्थ = वन + प्रतिष्ठान → वन में प्रतिष्ठित होना (निवास करना)
यह गृहस्थ और संन्यास आश्रम के बीच का संक्रमण काल है।
गुरुकुल अधिकतर वनों में ही स्थित होते थे, जहाँ नगरीय और ग्रामीण विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे।
वन–संस्कृति और भारतीय जीवनदर्शन
वनों को देवताओं का निवास कहा गया – "वनदेवता", "वृक्षदेवता", "नदीदेवता"।
वृक्षों की पूजा, औषधीय वनस्पतियों की पहचान, ऋतु-चक्र का ज्ञान, ये सब वन से ही विकसित हुए।
वन, अरण्य, गिरि, नदी, झील – ये सब केवल भौगोलिक घटक नहीं बल्कि सांस्कृतिक पात्र हैं।
निष्कर्ष: वन एवं वनवासी जीवन भारतीय परंपरा का केवल हिस्सा नहीं, उसकी आत्मा रहे हैं। यह एक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय परंपरा थी जिसमें:
जनजातीय समुदाय
नगरवासी और ग्रामवासी
ऋषि-मुनि और राजपुरुष
विद्यार्थी और संन्यासी
— सभी भागीदार थे। भारत की सांस्कृतिक चेतना "वन" को त्याज्य नहीं, वरणीय मानती थी।
राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ: इतिहास, संस्कृति और पहचान
राजस्थान अपनी राजसी परंपराओं के साथ-साथ अत्यंत समृद्ध जनजातीय विविधता के लिए भी प्रसिद्ध है। यहाँ की जनजातियाँ सांस्कृतिक, भाषाई और धार्मिक दृष्टि से राज्य की आत्मा का हिस्सा हैं। राज्य में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या लगभग 92 लाख है, जो लगभग 13.5% है। प्रमुख जनजातियाँ निम्नलिखित हैं:
1. भील
जनसंख्या: लगभग 39 लाख
क्षेत्र: उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, चित्तौड़गढ़
इतिहास: भील भारत की प्राचीनतम जनजातियों में गिने जाते हैं। रामायण और महाभारत में इनका उल्लेख मिलता है। ये कुशल धनुर्धर और पारंपरिक शिकारी माने जाते थे।
भाषा: भीली (राजस्थानी और गुजराती मिश्रित)
संस्कृति व पूजा-पद्धति: गवरी नाट्य, ग्रामदेवता, भैरव, काली, हनुमान की पूजा
महाभारत, आदिपर्व 132.6: "हिरण्यधनुं निषादं तं बालमेकलवं तदा। दृष्ट्वा प्रणम्य तत्रैनं प्रणिपत्याब्रवीद्वचः॥"
हिंदी अनुवाद: द्रोणाचार्य ने उस समय हिरण्यधनु नामक निषादराज के पुत्र एकलव्य को देखा। उसने झुककर प्रणाम किया और विनम्र वाणी में कहा...
Dr. Verrier Elwin: “भीलों में एकलव्य की पूजा होती है और वह उनके कुलदेवता के रूप में प्रतिष्ठित है।”
वीरांगना काली बाई खाट (भील)
डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गाँव की वीरांगना काली बाई भील का जीवन और बलिदान एक प्रेरणादायक कथा है:
जीवन परिचय
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जन्म: जून 1935 (या 1934) में डूंगरपुर के रास्तापाल गाँव में भील परिवार में हुई थी ।
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परिवार: पिता – सोमभाई भील, माता – नवली देवी। माता-पिता किसान थे।
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शिक्षा: स्थानीय सेवा संघ द्वारा स्थापित पाठशाला में पढ़ती थी, जहाँ शिक्षण के लिए नानाभाई खाँट और सेंगाभाई रोत गुरु थे।
घटना का क्रम
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पाठशाला पर हमला: जून 1947 में महारावल लक्ष्मण सिंह के आदेश पर जिला मजिस्ट्रेट व पुलिस ने मार्ग में चल रही स्कूल को बंद करने की कोशिश की।
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गुरुओं का उत्पीड़न: नानाभाई खाँट को पीटा गया और उनकी मृत्यु हो गई। सेंगाभाई रोत को ट्रक से बाँधकर घसीटा जा रहा था।
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काली बाई का साहस: लगभग 11‑13 वर्ष की उम्र में, कालीबाई ने हँसिया लेकर ग्राफ़ किया गया और अपने गुरु की रक्षा के लिए रस्सी काटकर उन्हें बिलकुल मुक्त कराया।
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बलिदान: पुलिसकर्मियों ने उन पर गोली चलाई, वे गंभीर रूप से घायल हुईं और 20 जून 1947 को वीरगति को प्राप्त हुईं।
महत्व और विरासत
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आधुनिक एकलव्य: काली बाई को शिक्षा की देवी और आधुनिक ‘एकलव्य’ कहा जाता है ।
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पर्यटन एवं स्मारक:
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मान्डवा (डूंगरपुर) में काली बाई पैनोरमा का निर्माण हुआ, जिसे 2018 में मुख्यमंत्री द्वारा उद्घाटित किया गया
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रास्तापाल में उनकी और नानाभाई खाँट की प्रतिमाओं पर माला चढ़ाकर श्रद्धांजलि दी जाती है; जयंतियाँ मनाई जाती हैं।
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शिक्षा और प्रेरणा: आदिवासी क्षेत्र में शिक्षा की ज्योति जगाने का उनका योगदान आज भी याद किया जाता है
निष्कर्ष
काली बाई भील की कथा हमें सिखाती है कि सच्ची वीरता उम्र नहीं, नैतिक दृढ़ता, गुरुभक्ति और शिक्षा के प्रति प्रेम होती है। 11‑13 वर्ष की इस बालिका ने जिस साहस का परिचय दिया, न केवल अपने गुरु की जान बचाई, बल्कि पूरे आदिवासी समुदाय के लिए सांस्कृतिक और शिक्षा से जुड़े मूल्यों का संदेश भी दिया।
2. मीणा
जनसंख्या: 32–34 लाख
क्षेत्र: जयपुर, सवाई माधोपुर, दौसा, करौली, टोंक
इतिहास: प्राचीन ‘मत्स्य जनपद’ से संबंध, विराटनगर (वर्तमान बैराठ)
भाषा: ढूंढाड़ी उपबोली
संस्कृति: थोक प्रणाली, स्वांग नाट्य, देवी, भैरव व कुलदेवता की पूजा
महाभारत, विराट पर्व 1.2: "एतद्वै विराटनगरं यत्र स मन्मथो राजा।"
हिंदी अनुवाद: यह विराटनगर वही है जहाँ राजा विराट राज्य करते थे...
स्रोत: “The People of India – Rajasthan”, Lt. Col. James Tod
3. गरासिया
जनसंख्या: लगभग 2.5 लाख
क्षेत्र: सिरोही, जालोर, पिंडवाड़ा, माउंट आबू
संस्कृति: भील-राजपूत मिश्र, वालर नृत्य, नागदेवता और भैरव की पूजा
4. सहरिया
जनसंख्या: लगभग 2 लाख
क्षेत्र: बारां, कोटा, झालावाड़
संस्कृति: वन पर आधारित जीवन, पारंपरिक नृत्य और गीत, पीपल और नागदेवता की पूजा
5. डामोर
जनसंख्या: लगभग 1.25 लाख
क्षेत्र: डूंगरपुर, बांसवाड़ा
संस्कृति: कृषि पर आधारित, ग्राम देवता की पूजा
6. काथोडी
जनसंख्या: लगभग 50,000
क्षेत्र: बांसवाड़ा, डूंगरपुर
संस्कृति: बांस से जुड़ा जीवन, वनदेवी की पूजा
7. गाड़िया लुहार
क्षेत्र: अजमेर, नागौर, बीकानेर, गंगानगर
इतिहास: सेना के साथ रहते थे, अब घुमंतू जीवन
संस्कृति: लोहे के औजार बनाना, भैरव व दुर्गा की पूजा
8. कंजर
क्षेत्र: भरतपुर, करौली, धौलपुर
इतिहास: ब्रिटिश काल में 'आपराधिक जनजाति', अब Denotified
संस्कृति: लोकगीत, नृत्य, जंगल देवी व नागदेवता की पूजा
9. सांसी
क्षेत्र: बीकानेर, गंगानगर, जयपुर
इतिहास: ऊँट-परिवहन से जुड़े; आपराधिक श्रेणी में वर्गीकृत
संस्कृति: देवी, भैरव, हनुमान की पूजा
निष्कर्ष: राजस्थान की जनजातियाँ न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर के वाहक भी हैं। इन्हें केवल आर्थिक-सामाजिक योजनाओं से नहीं, अपितु सांस्कृतिक अधिकारों और पहचान के स्तर पर भी संरक्षित किया जाना चाहिए।