परिचय: लोक की देवता परंपरा और मुख्यधारा धर्मों का अंतःसंवाद
राजस्थान की भूमि केवल महलों, युद्धों और स्थापत्य की नहीं, बल्कि लोकश्रद्धा की जीवंत भूमि रही है। यहाँ की लोकदेवता परंपरा – जिसमें ग्रामरक्षक, कुलदेवी, सती माता, वीरगति प्राप्त जन, और प्राकृतिक शक्तियों का दैवीकरण सम्मिलित है – न केवल स्थानीय सामाजिक संरचना की आधारशिला है, अपितु इसने समय के साथ वैदिक और जैन परंपराओं को भी गहराई से प्रभावित किया।
वैदिक प्रणाली, जो प्रारंभ में देवताओं को मुख्यतः ऋतुओं, प्रकाश, जल, अग्नि आदि प्राकृतिक तत्वों से जोड़ती थी, उसने धीरे-धीरे लोक-आस्था से उद्भूत शक्ति-स्वरूपों को आत्मसात किया। उदाहरण के लिए, शक्ति, भैरव, कुलदेवियाँ आदि का वैदिक/पुराणिक स्वरूप में प्रतिष्ठान लोक श्रद्धा से ही उत्पन्न हुआ।
राजस्थान के राजपूत समाज में कुलदेवियों की परंपरा अत्यंत सुदृढ़ है. वणिक समुदायों में भी यह परंपरा पाई जाती है. ब्राह्मण समाज मुख्यतः गोत्र पूजक देवों की परंपरा से सम्बद्ध है. अनुसूचित जाती, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC, SC, ST) के विभिन्न समुदायों में भी भिन्न भिन्न प्रकार से लोकदेवता/लोकदेवियों की पूजा उपासना प्रचलित है. इस तरह यह समाज में सर्वव्यापी प्रचलन है. राज परिवार एवं स्थानीय लोगों के साथ स्थानीय डकैतों द्वारा कैला देवी की पूजा इस परंपरा को एक विशिष्टता प्रदान करता है.
इन देवी देवताओं से सम्बंधित चमत्कारों के उल्लेख में "परचा" शब्द बहुलता से उल्लिखित होता है जो की संभवतः प्रत्यक्ष या प्रभाव शब्द का अपभ्रंश राजस्थानी रूप है.
जैन परंपरा, विशेषतः राजस्थान के ओसवाल, श्रीमाल, खंडेलवाल आदि समुदायों में, ने भी लोकदेवियों को सांस्कृतिक स्तर पर स्थान दिया, यद्यपि धार्मिक रूप में उपासना का विधान संयमित और अरहंत-सिद्ध केन्द्रित ही रहा। फिर भी सच्चियाय माता, शीतला माता, आशापुरा माता आदि को विवाह, गृहप्रवेश, एवं वंश परंपरा में स्थान मिला, यद्यपि ये धर्म नहीं, संस्कृति की अभिव्यक्ति रही।
राजस्थान की लोकदेवता परंपरा की एक विलक्षण विशेषता यह रही है कि इनमें धार्मिक सीमाओं से परे की स्वीकार्यता रही — जैसे बाबा रामदेवजी मुस्लिमों में 'रामसा पीर' के रूप में पूजे जाते हैं, और गोगाजी को हिन्दू-मुस्लिम दोनों समाजों में समान श्रद्धा प्राप्त है।
1. प्रमुख लोकदेवता (जाति- लोक आराध्य)
देवता | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
बाबा रामदेवजी | दलित, मेघवाल, ओबीसी, मुस्लिम | पश्चिम राजस्थान, गुजरात |
देवनारायण जी | गुर्जर जाति | दक्षिण-पूर्व राजस्थान |
गोगाजी | जाट, गुर्जर, मीणा, मुसलमान | समस्त राजस्थान |
तेजाजी | जाट, चारण, कृषक वर्ग | नागौर, टोंक, अजमेर |
पाबूजी | रेबारी, ऊँटपालक | जोधपुर-पाली क्षेत्र |
हरबूजी / हड़बूजी | ओबीसी ग्रामीण समाज | मारवाड़, मेवाड़ |
यह सूची केवल प्रमुख लोकदेवताओं की सूचि है। अन्य कई क्षेत्रीय लोकदेवता भी पूजित हैं।
2. कुलदेवी परंपरा (कुल / गोत्र आधारित देवी पूजन)
देवी | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
श्री सच्चियाय माता | ओसवाल जैन | ओसियाँ, जोधपुर |
अशापुरा माता | चौहान, पोरवाल, ओसवाल | पश्चिम राजस्थान |
नागणेचा माता | राठौड़, चारण | नागाणा |
मुण्डवा माता | लोढा गोत्र | नागौर क्षेत्र |
शीतला माता | श्रीमाल, माहावर | मारवाड़ |
सुषमणि माता | ओसवाल | मोरखाना, बीकानेर |
कोडमदेसर भैरव | ओसवाल, ग्रामीण | बीकानेर क्षेत्र |
यह सूची कुलदेवियों के कुछ प्रमुख उदाहरणों की है। प्रत्येक गोत्र/वंश में विविधताएँ हो सकती हैं।
3. सती माता परंपरा (बलिदानी स्त्रियों का दैवीकरण)
सती माता | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
रानी सती | अग्रवाल, माहेश्वरी | झुंझुनूं |
खेमी सती | वैश्य समाज | झुंझुनूं |
नारायणी सती | शेखावाटी ग्राम समाज | नवलगढ़ |
सती थान | जाट, मीणा, गुर्जर | संपूर्ण राजस्थान |
सती परंपरा स्थानीय इतिहास और सामाजिक-स्मृति का दैवीकरण है, जो वर्तमान में सांस्कृतिक श्रद्धा का अंग है।
4. ग्रामदेवता / नगरदेवता परंपरा
देवता | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
थान की माता | ग्राम समाज | राजस्थान के प्रत्येक गाँव में |
देव का थान | कृषक वर्ग | पूर्वी राजस्थान |
भैरूजी का थान | ग्रामीण वर्ग | सीमाएँ, गाँव की रक्षा |
नगर देवता | शहरी व्यापारी, किलेदार | पुराने नगर |
यह परंपरा लोकसमाज की रक्षण भावना का प्रतीक है, जहाँ गांव और नगर की रक्षा के लिए देवी/देव की अवधारणा विकसित हुई।
5. रोगनाशक / जोगण परंपरा
देवी | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
शीतला माता | ब्राह्मण, वैश्य, ग्रामीण महिलाएँ | समस्त राजस्थान |
जोगण माता | चारण, ओबीसी | मारवाड़ |
महामाया / आइसर माता | ग्रामीण महिलाएँ | पूर्वी व दक्षिणी राजस्थान |
जोगणें तांत्रिक शक्तियों का लोक-रूप हैं। 64 योगिनी परंपरा के लोकसंस्करण भी यहाँ पाए जाते हैं।
6. क्षेत्रीय देवियाँ / शक्तियाँ (प्राकृतिक श्रद्धा)
शक्ति रूप | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
पानी की माता | किसान महिलाएँ | जल स्रोत स्थल |
पेड़ की माता | महिलाएँ (ST/OBC) | पीपल, नीम, वट |
चरण थान | ग्राम समाज | भूमि-संरक्षक स्थल |
प्रकृति के प्रति आदर भाव और रक्षा भावना लोकदेवियों के इन रूपों में झलकती है।
7. पशु रक्षक देवता
देवता | मुख्य पूजक | क्षेत्र |
---|---|---|
दुल्हा भैरव | रेबारी | ऊँटपालक समाज |
नाथ जी | पशुपालक, योगी वर्ग | गौ-रक्षा |
बाबा वीर | कृषक समाज | बीकानेर, नागौर क्षेत्र |
8. आपदा निवारक देवियाँ
देवी | मुख्य पूजक | उद्देश्य |
---|---|---|
अकाल माता | किसान वर्ग | सूखा व दुर्भिक्ष निवारण |
बाढ़ माता | नदी क्षेत्र समाज | बाढ़ से रक्षा |
पानी माता | कृषक महिलाएँ | जल याचना और संरक्षण |
9. विशिष्ट लोकशक्ति परंपराएँ (तांत्रिक-स्थानीय)
देवी / देवता | मुख्य पूजक | स्वरूप |
---|---|---|
भूमिया जी | ग्राम समाज | भूमि रक्षक देवता |
क्षेत्रपाल | तांत्रिक लोकसमाज | सीमांत रक्षक |
भुवन देवी / भूवानी माता | सीमित क्षेत्र | शक्ति रूप |
64 योगिनियाँ (जोगण रूप) | लोकतांत्रिक शक्ति पूजन | तांत्रिक मूल की लोक-व्याख्या |
लोकदेवताओं की उपासना पद्धति: पद गायन, चारण-भाट परंपरा और स्मृति का संप्रेषण
पद गायन (Pad Gaayan)
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लोकदेवताओं की स्तुति में गाए जाने वाले "पद" — विशेष रूप से गोगाजी, तेजाजी, पाबूजी, देवनारायण जी, और रामदेवजी के लिए —
चारण, ढोली, कमायचा वादक, मंगनियार, लंगा समुदाय के द्वारा गाए जाते हैं। -
यह गायन सांगीतिक काव्य परंपरा का अंग है — जिसमें तंत्री वाद्य (कमायचा, सारंगी), ढोलक, खंजरी आदि के साथ संवेदना और वीरता का सजीव चित्रण होता है।
“गोगा पीर का पद गाया, नागधारी की बाणियाँ,
उगते सूरज संग जागे, गाँव-गाँव में वाणियाँ।”
चारण और भाट परंपरा
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चारण और भाट राजस्थान के लोक इतिहास के संरक्षक हैं। इन्होंने लोकदेवताओं की वंशावली, वीरता, चमत्कार, त्याग और धर्मरक्षा को पीढ़ियों तक कंठस्थ वाचिक परंपरा में संजोया।
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इनके द्वारा कहा गया कवित्त, वेला, रासो — लोकदेवताओं की अधिकार प्राप्त गाथा बन जाते हैं, जो भक्ति और वीर रस का अद्वितीय संगम होते हैं।
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तेजाजी, पाबूजी, देवनारायण जी की गाथाएँ आज भी "फड़" चित्रों के साथ चारण कथा गायकों द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं।
लोकगायक समुदायों की भूमिका
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मंगनियार, लंगा, ढोली, बील, नट, और बावरी जैसे समुदायों ने लोकदेवताओं की स्तुतियों को संगीत, नृत्य और गाथा से जोड़ा।
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रामदेवजी के मेले में गाया जाने वाला "ठाकर रो जोहारो" आज भी लोक भक्ति का अद्भुत उदाहरण है।
स्मरण की जीवंत परंपरा
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किसी भी त्योहार, मेला, यात्रा, विवाह, यज्ञोपवीत आदि में लोकदेवता का पद गाना अनिवार्य माना जाता है।
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गोगाजी के जुलूस में "गोगा जी की बन्नी", "नागबाण", और रामदेवजी के संदर्भ में "रामसापीर की चालीसा" जैसे लोक-पद आज भी सामूहिक स्मृति और श्रद्धा का स्रोत हैं।
लोकदेवियों की मूर्ति-रचना / स्थापत्य लक्षण
राजस्थान की लोकदेवियों की मूर्तियाँ अक्सर स्थानीय काले पत्थर, मिट्टी या सिंदूरी प्रतिमाओं के रूप में होती हैं — जो तांत्रिक मुद्रा, चौखट, बंधी आँखों, असवार रूपों के माध्यम से विशिष्ट पहचान देती हैं। इसी प्रकार राजस्थानी चित्रकला विशेष कर फड़ शैली में भी लोकदेवताओं का विशिष्ट स्थान है जैसे देवनारायण जी की फड़, पाबूजी की फड़ आदि. साथ ही पड़ गायन / फड़ गायन का भी एक विशिष्ट स्थान है जहाँ चित्र-श्रृंखला के साथ कथा की जाती है.
आज के संदर्भ में इन लोकदेवताओं की भूमिका
आज जब परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व में लोकविश्वास डगमगा रहे हैं, राजस्थान की लोकदेवता परंपरा जड़ों से जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।
उपसंहार
लोकश्रद्धा की धारा और धर्म की विस्तृत सहिष्णुता
राजस्थान की लोकदेवता परंपरा न केवल धर्म और लोकसंस्कृति के मध्य सेतु है, बल्कि यह दर्शाती है कि जनमानस की आत्मा केवल शास्त्रों से नहीं, बल्कि अनुभव और स्मृति से भी बनती है।
वैदिक परंपरा, जहाँ प्रारंभ में ऋषि-मंत्र-यज्ञ का बोलबाला था, वही आगे चलकर लोकदेवताओं को पुराणों में स्थान देने लगी — भैरव, दुर्गा, शक्ति, कुलदेवियाँ — ये सब लोक की चेतना से वेद की परिधि में आये।
जैन परंपरा, यद्यपि आत्मा और मोक्ष के मार्ग पर केंद्रीकृत है, फिर भी ओसवाल, श्रीमाल, खंडेलवाल जैसे जातीय समाजों में लोकदेवियों का स्थान वंश-रक्षा और परंपरा के आधार पर स्वीकार्य रहा — सच्चियाय माता, शीतला माता, अशापुरा माता जैसे उदाहरण इसके साक्षी हैं।
अतः राजस्थान की लोकदेवता परंपरा केवल पूजा नहीं — यह सांस्कृतिक निरंतरता, सामाजिक समावेशिता, और ऐतिहासिक स्मृति का जीवंत दर्शन है। लोकदेवता परंपरा इस बात का प्रमाण है कि धर्म जब लोकानुभव और आस्था से जुड़ता है, तो वह केवल मार्ग नहीं, बल्कि स्मृति, पहचान और सामूहिक चेतना का आधार बन जाता है।
सन्दर्भ ग्रंथों की सूची (References)
लोकदेवता एवं क्षेत्रीय श्रद्धा परंपरा
-
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प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी -
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विषय: गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, पाबूजी आदि -
किशोरीलाल व्यास – ग्राम-देवता और राजस्थान की लोकविश्वास प्रणाली
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डॉ. महेन्द्र भटनागर – राजस्थान की लोकआस्था और धर्मनिष्ठा
(विशेषकर भैरव, भूमिया, क्षेत्रपाल इत्यादि पर)
कुलदेवी और सती परंपरा
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(कुल परंपरा, गोत्र संबद्धता, लोकश्रद्धा) -
डॉ. नवल शंकर शर्मा – सती परंपरा और भारतीय समाज
(राजस्थान में सती थान, स्मृति-संस्कृति की विवेचना) -
शेखावाटी क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र – रानी सती परंपरा: इतिहास व लोकविश्वास
शोध प्रकाशन, झुंझुनूं
लोकदेवता और वैदिक-जैन संवाद
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डॉ. नवल किशोर शर्मा – भारतीय लोकधर्म और वैदिक समन्वय
विषय: शक्ति उपासना, ग्रामदेवी, और पुराणों में लोकभाव -
डॉ. रमेशचन्द्र शुक्ल – वैदिक धर्म और जनश्रुति परंपरा
गूढ़ता से वर्णन कि कैसे लोकश्रद्धाएँ वैदिक-पुराणिक परंपरा में समाहित हुईं -
Prof. John E. Cort – Jains in the World: Religious Values and Ideology in India
Topic: Jain lay communities and local devotional practices -
Padmanabh S. Jaini – Collected Papers on Jain Studies
Topic: Jain attitudes toward bhakti and village deities -
Paul Dundas – The Jains
अध्याय: लोकदेवियों के प्रति जैन सामाजिक दृष्टिकोण
लोक साहित्य, चारण भाट गाथा एवं मेले/थान
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डॉ. सीताराम लाळस – राजस्थान का चारण साहित्य
(तेजाजी, गोगाजी, पाबूजी की लोकगाथाएँ) -
जगदीशसिंह राठौड़ – राजस्थान के लोक मेले
(लोकदेवताओं से जुड़े मेलों का विस्तृत विवरण) -
डॉ. अर्जुन देव चरन – राजस्थानी लोकविश्वास और परंपरा
-
राजस्थान पुरातत्व विभाग – लोकस्थल और थान निर्देशिका
सरकारी प्रकाशन
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उपरोक्त ग्रंथों में से अनेक विश्वविद्यालयों के शोधकार्य का भी आधार रहे हैं।