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Friday, October 30, 2015

मांस निर्यात पर 25 हज़ार करोड़ रुपये की सब्सिडी क्यों?

मांस निर्यात 

मांस निर्यात पर ७० रुपये प्रति किलो की सब्सिडी क्यों? यह प्रश्न हर भारतीय के मन में उठ रहा है. यह सब्सिडी बहुत वर्षों से चल रही है और भैंसों के परिवहन पर यह सब्सिडी दी जाती है. इसके साथ ही निर्यातोन्मुखी कत्लखानों के आधुनिकीकरण के लिए १५ करोड़ रुपये प्रति कत्लखाने भी केंद्र सरकार द्वारा दिए जाते हैं. राज्यसभा की याचिका समिति ने 13 फरवरी 2014 को मांस निर्यात नीति पर पुनर्विचार कर सब्सिडी बंद करने की सिफारिश की थी, मगर उस रिपोर्ट पर वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने 3 दिसंबर 2014 को पुनर्विचार करने से इंकार कर दिया है.  केंद्र सरकार ने आज तक यह सब्सिडी देना बंद नहीं किया है. विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाले अनुदान एवं सुविधाएँ इसके अतिरिक्त है.

इन सब्सिडियों के बुते भारत विश्व का सबसे बड़ा मांस निर्यातक देश बन चूका है और इस मामले में वह ब्राज़ील, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे परंपरागत निर्यातक देशों को पीछे छोड़ चूका है. भारत ने इस वर्ष लगभग २४ लाख टन मांस का निर्यात किया है और इस हिसाब से केवल परिवहन अनुदान पर ही सरकार ने कर दाताओं के १६८०० (सोलह हज़ार आठ सौ) करोड़ रुपये मांस निर्यातकों पर लूटा दिए. कत्लखानो के आधुनिकीकरण पर इसके अतिरिक्त ३०० करोड़ रुपये खर्च किये गये. केंद्र सरकार द्वारा दिए गए अन्य अनुदान एवं लाभ के वारे में कोई आंकड़े लेखक के पास उपलव्ध नहीं है.

केंद्र सरकार के अतिरिक्त राज्य सरकारें भी मांस निर्यातकों को अनुदान एवं अन्य सुविधाएँ प्रदान करती है जिससे संवंधित आंकड़ों का संकलन करना अभी बाकी है. इसके साथ ही इन मांस निर्यातकों को आयकर भी नहीं देना पड़ता। भारत से मांस का निर्यात मूल्य लगभग ३२५ अरब रुपये है, और इस बहुत ही लाभजनक व्यापार से निर्यातकों को काम से काम १०० से १५० अरब रुपये प्रति वर्ष का मुनाफा होता है.  इस प्रकार केंद्र सरकार को इनसे ३५ से ५० अरब रुपये आयकर के रूप में मिलना चाहिए परन्तु आयकर में छूट होने के कारन यह पैसा भी मुट्ठीभर मांस निर्यातकों की ही जेब में रह जाता है.

हमने ऊपर के आंकड़ों में देखा की केंद्र सरकार द्वारा इस मद में करीब १७ हज़ार करोड़ (१७० अरब) रुपये प्रति वर्ष सब्सिडी के रूप में दिया जाता है इसमें आयकर छूट को और शामिल किया जाए तो यह आंकड़ा २० हज़ार करोड़ (२०० अरब रुपये) के पार पहुंच जाता है. यदि हम यह मान लें की राज्य सरकारें केंद्र सरकार का चौथाई भी देती है तो यह रकम भी ५००० करोड़ (५० अरब) रुपये के पार पहुचती है. इस प्रकार करदाताओं का २५००० (पच्चीस हज़ार) करोड़ या २५० अरब रुपये केंद्र व राज्य सरकारें मांस निर्यातकों पर लूटा रही है.  यह रकम कुल निर्यात आय के ७५ प्रतिशत के बराबर है.

दैनिक जनसत्ता के अनुसार  देश के चार सबसे बड़े मांस निर्यातक अरेबियन एक्सपोर्ट (सुनील करन), अल कबीर एक्सपोर्ट (सतीश और अतुल सभरवाल), एमकेआर फ्रोजन फूड्स (मदन एबट) व पीएमएल इंडस्ट्रीज (एएस बिंद्रा) हैं. समाचारों के अनुसार पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं कांग्रेस के दिग्गज नेता कपिल सिब्बल की पत्नी भी इस व्यापार में अग्रणी भूमिका में है.

गौरतलब बात ये है की देश में मुट्ठीभर (५० से भी कम) बड़े मांस निर्यातक हैं और करदाताओं की गाढ़ी कमाई की यह सारी रकम का अधिकांश भाग उन थोड़े से लोगों पर वर्षों से लुटाया जा रहा है.

यह उद्योग न तो बुनियादि संरचनाओं के विकास में कोई योगदान देता है न ही कोई विशेष रोज़गार सृजन का काम करता है उलटे देश के संसाधनो पर अतिरिक्त दवाब ले कर आता है. कत्लखानों से हमारे जलस्रोतों को प्रदूषित होते है, दूध का उत्पादन कम कर उसे महंगा बनाता है जिससे पौष्टिक भोजन की कमी होती है. फिर किस स्वार्थ से इन मांस निर्यातकों पर इतनी मेहरबानी और दरियादिली दिखाई जाती है?

भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए धन का आभाव रहता है और हम लगातार विदेशी निवेशकों के पीछे भागते रहते हैं वहां केवल मांस निर्यात पर इतना भारी भरकम धन खर्च करना कहाँ तक उचित है? ध्यान देने लायक बात यह है की यह रकम केंद्र सरकार के कुल स्वास्थ्य बजट के बराबर है.

मांस निर्यातकों को छूट देने की यह परंपरा महावीर, बुद्ध, गांधी के इस देश में स्वतंत्रता के समय से चली आ रही है और बढ़ती ही जा रही है. क्या हमारी केंद्र व राज्य सरकारें इस विषय में विचार करेगी? क्या जनता जागृत हो कर सरकारों को ऐसा न करने के लिए मज़बूर करेगी? इस ज्वलंत प्रश्न का उत्तर हमें देना ही होगा।

 यांत्रिक कत्लखानों- मांस निर्यात के विरोध में आंदोलन ६ दिसंबर से

Summary in English:
Why governments are paying a 25 thousand crore subsidy on meat export from India?

India is now the World's number 1 in meat export, exporting 24 million tonnes of beef. The central government is paying a subsidy of Rs. 70 per KG on transportation costs amounting to Rs. 16800 crore or 168 billion. The same is paying up to 15 crore or 150 million for the modernization of slaughterhouses and has paid a total of Rs. 300 crore last year. Central government loses approximately 3500 to 5000 crore for the income tax benefits given to the meat exporters. The federal government of India pays a sum of Rs. 20,000 crore or 200 billion in total as direct or indirect subsidies to the meat exporters.

If we assume that State governments are paying one-fourth of the amount paid by the Union government, it is Rs. 5000 crore or 50 billion. Thus the total amount paid by both central and state governments amounts to Rs. 25000 crore. This money goes from the pocket of taxpayers which means from our pockets.

Why? Raise your voice against the subsidy of Rs twenty-five thousand crore on meat export. This is equal to the total budget of the Central government for health care in India. Lion's share of the whole amount goes to the pockets of a few meat exporters (Less than 50). Raise your voice to stop this subsidy to meat exporters and ask the governments to spend this money for the benefit of people in general.

Jyoti Kothari 

Q&A on the carcinogenicity of the consumption of red meat and processed meat





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Thursday, January 17, 2013

जनता बेचारी महंगाई की मारी


भारत की जनता बेचारी है महंगाई की मारी है।  

जनता त्रस्त सरकार मस्त है .

लेकिन ऐसा क्यों है?  क्यों हिंदुस्तान की बेवस जनता पड़े पड़े मार खाने को मजबूर है? आखिर क्यों? इस सवाल का जवाब हमें ढूँढना ही पड़ेगा।

भारत देश और इसके शासक आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त हैं। आज भी वही कानून वही व्यवस्था लागू है जिसे अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए, भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए बनाया था। आज भी सरकारी कर्मचारी विशेषाधिकार प्राप्त हैं। उन्हें भरपूर वेतन और सुविधाएँ मिलती है लेकिन वे लगभग जिम्मेदारी से विहीन हैं। और उनको ये वेतन जनता की गाढ़ी कमाई से टैक्स के जरिये वसूले गए धन से जाता है।  ये वो तबका है जो अपने मालिकों (जनता) पर रौब गांठता है, परेशान करता है, काम नहीं करता ऊपर से रिश्वत वसूलता है।

ये वो तबका है जो नेताओं की सेवा में लगा रहता है जनता की नहीं। काम नहीं करने पर या गलत काम करने पर प्रायः उसे कोई सजा नहीं होती, इसलिए उसके हौसले बुलंद हैं। जनता को जागरूक हो कर उन पुराने सादे गले औपनिवेशिक कानूनों को बदलवाना होगा एवं सरकारी अधिकारिओं कर्म्चरिओन को जिम्मेदार बनाना होगा तभी देश की परिस्थिति सुधरेगी।

भारत की केंद्र एवं राज्य सरकारें प्रति वर्ष महंगाई भत्ते के रूप में मोटी रकम इन्हें देती है जिस कारन महंगाई का असर इनपर नहीं होता। इन्हें बेचारी जनता से क्या मतलब? इसके अलावा प्रति वर्ष इनका वेतन एक निश्चित दर से प्रति वर्ष बढ़ जाता है। फिर वेतन आयोग तो है ही। हर कुछ वर्षों में एक वेतन आयोग। पहला दूसरा--------पांचवां छठा।

अब तो बस करो। बंद करो ये लूट!


 एक समान काम के लए एक सरकारी एवं एक निजी क्षेत्र के कर्मचारी के वेतन में आम तौर पर तीन से चार गुने का फर्क होता है। विश्वास न हो तो अपने चारों और निगाह घुमा कर देख लें।  ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।  सरकारी खजाने पर पड़ने वाले भार से इन्हें क्या मतलब। इन्हें तो छूट्टी, प्रोविदेंड फण्ड, ग्रैचुइति,  पेन्सन के रूप में लाभ मिल ही रहा है। 

आम जनता और सरकारी तंत्र: नेता, अधिकारी और कर्मचारी

सरकारी खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा या तो वेतन चुकाने में जाता है या फिर क़र्ज़ का व्याज चुकाने में। और ये क़र्ज़ भी  है वेतन के खर्च से। अब  विकास के लिए या जन कल्याण के लिए धन आये कहाँ से? सर्कार  या तो पेट्रोल, डीजल, गैस के दाम बढाती है या आम आदमी पर टैक्स के नए बोझ लाद देती है।  कभी रेल का किराया बढाती है तो कभी टोल टैक्स वसूलती है।

आम आदमी जागे तो --------

अब भारत के आम आदमी को जागना होगा। कब तक पड़े पड़े मार खाते रहेंगे? नेता और कर्मचारियों के इस गठजोड़ को तोडना होगा। तभी हम स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक की तरह जी सकेंगे।
Thanks,
Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)


जागो हिंदुस्तान जागो     जागो हिंदुस्तान जागो     जागो हिंदुस्तान जागो      

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