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Friday, February 21, 2025

भारतीय खगोलविद्या की समृद्ध विरासत: जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला

भारत प्राचीन कल से ही खगोलीय गणनाओं के लिए प्रसिद्द है. भद्रवाहु, आर्यभट, बराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि अनेक मनीषियों ने प्राचीन काल में ही भारतीय खगोल विद्या/ ज्योतिर्विद्या एवं गणित का विशिष्ट अध्ययन कर उसके वैज्ञानिक स्वरुप को प्रस्तुत किया। जहाँ भारतीय मनीषियों ने अपने सूक्ष्म मानसिक शक्ति, योग विद्या एवं ध्यान के माध्यम से ज्ञान विज्ञानं को समृद्ध किया वहीँ आवश्यकतानुसार यंत्रों का भी उपयोग किया. मन्त्र, तंत्र एवं यंत्र- भारतीय ज्ञान परंपरा के ये तीन विशिष्ट अंग थे जिन्हे आधुनिक परिभाषा में इस प्रकार देखा जा सकता है. मंत्र (Code), तन्त्र (System), यन्त्र (Machine/ Equipment). 

प्राचीन भारतीय खगोलविद: धूप घड़ी और यंत्रों से तारों की गणना करते हुए

भारतीय खगोलशास्त्रियों ने ज्योतिष की दो विधाएँ विकसित की थी: १. गणित २. फलित. गणित मुख्यतः आकाशीय पिंडों की गति की गणना करता था जबकि फलित उसका मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को बताता था. इन दोनों को पश्चिमी सन्दर्भ में Astronomy एवं Astrology के रूप में देखा जा सकता है. भारत के सभी धर्म/ दर्शन वैदिक/ जैन/ बौद्ध आदि में ज्योतोषीय गणना बहुतायत से देखने को मिलती है. 

भारत की तुलना में पाश्चात्य देशों का खगोलीय अध्ययन अर्वाचीन है. जहाँ भारतीयों ने ईशा पूर्व काल में ही आकाशीय पिंडों के अध्ययन में महारत हासिल कर ली थी वहीँ यूरोप में इसकी शुरुआत १५ वीं शताब्दी के आसपास हुई. वास्तविकता ये है की भारत से ही यह पद्धति अरब देशों से होते हुए यूरोप पहुंची और बाद में उन्होंने मध्यकाल और आधुनिक काल में विकसित किया.  

जंतर मंतर से पहले भारत में वेधशालायें

जंतर मंतर से पहले भी भारत में खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए विभिन्न वेधशालाएँ (Observatories) मौजूद थीं। यह प्राचीन भारत में ज्ञान विज्ञानं की अभिरुचि एवं अध्ययन केंद्रों की मौजूदगी दर्शाते हैं. यूरोप, अमरीका को ही गईं विज्ञानं का केंद्र मानने वाले एवं भारत को अन्धविश्वास का देश समझनेवालों की लिए यह एक आँखें खोलनेवाला तथ्य है. 

  1. प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने गणनाओं के लिए धूप घड़ियों (sundials) और अन्य यंत्रों का प्रयोग किया था।
  2. उज्जैन वेधशाला – प्राचीन भारत में उज्जैन खगोलशास्त्र का एक प्रमुख केंद्र था। यहाँ पर प्राचीन काल से ही खगोलीय गणनाएँ की जाती थीं।
  3. वाराणसी वेधशाला – वाराणसी में भी खगोलीय अध्ययन के लिए उपकरण और संरचनाएँ थीं।
  4. विदिशा और नालंदा में खगोलीय केंद्र – विदिशा और नालंदा में भी खगोलशास्त्र का अध्ययन किया जाता था।

हालाँकि, ये वेधशालाएँ आधुनिक अर्थों में पूरी तरह विकसित वेधशालाएँ नहीं थीं, लेकिन ये खगोलीय गणनाओं के लिए प्रयुक्त होती थीं। जंतर मंतर (1724-1734) भारत में पहली ऐसी वेधशाला थी, जो संगठित रूप से वैज्ञानिक खगोलीय अध्ययन के लिए बनाई गई थी।


प्राचीन भारतीय वेधशालाएँ, जैसे उज्जैन, नौवहन (नेविगेशन), समय गणना और खगोलीय गणनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। विशेष रूप से उज्जैन, खगोल विज्ञान का एक प्रमुख केंद्र था और भारतीय खगोलीय गणनाओं के लिए इसे एक प्रमुख मध्यान्ह (Prime Meridian) माना जाता था।

उज्जैन की वेधशाला का कलात्मक आनुमानिक चित्र 

नौवहन और खगोल विज्ञान में उज्जैन की भूमिका:

  1. भारत की  प्रमुख मध्यान्ह रेखा   (Prime Meridian)

    • प्राचीन काल में उज्जैन को भारत का ग्रीनविच माना जाता था। यह खगोलीय और भौगोलिक गणनाओं के लिए एक संदर्भ बिंदु था।
    • भारतीय खगोलशास्त्रियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शून्य देशांतर रेखा (Zero Longitude) का यह मुख्य केंद्र था।
  2. नौवहन और समय गणना में उपयोग

    • प्राचीन भारतीय नाविक (नाविक / समुद्रयात्री) तारों की स्थिति का उपयोग कर दिशा ज्ञात करते थे।
    • पंचांग (हिंदू कैलेंडर) और खगोलीय ग्रंथ, नौवहन में सहायक थे, जो ग्रहों की सटीक स्थिति देकर समय और स्थान निर्धारण में मदद करते थे।
    • वेधशालाओं के उपकरणों की सहायता से नाविक अक्षांश (Latitude) ज्ञात कर सकते थे, जो समुद्री यात्रा के लिए महत्वपूर्ण था।
  3. जंतर मंतर और उज्जैन का संबंध

    • महाराजा जय सिंह द्वितीय ने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में पाँच प्रमुख वेधशालाएँ बनवाईं।
    • इन वेधशालाओं में ऐसे उपकरण थे जो ग्रहों की गति का अध्ययन करने में सहायक थे, जिससे ज्योतिष और नौवहन दोनों में सहायता मिलती थी।
  4. प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्री और उनका योगदान

    • वराहमिहिर (505–587 ईस्वी) – उज्जैन के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री, जिन्होंने समय मापन और ग्रहों की गति पर कार्य किया।
    • ब्रह्मगुप्त (598–668 ईस्वी) – उज्जैन वेधशाला के प्रमुख, जिन्होंने अक्षांश और देशांतर गणना में त्रिकोणमिति के उन्नत सूत्रों का उपयोग किया।
    • आर्यभट्ट (476 ईस्वी) – भले ही वे अन्य क्षेत्र से थे, लेकिन उनकी गणनाओं का उज्जैन खगोलशास्त्र पर गहरा प्रभाव पड़ा, विशेषकर पृथ्वी की परिधि और ग्रहों की स्थिति निर्धारण में।
  5. नौवहन के लिए नक्षत्रों (तारामंडल) का उपयोग

    • प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णन है कि नक्षत्रों का उपयोग नौवहन में किया जाता था।
    • विशिष्ट तारों के उदय और अस्त होने के समय के आधार पर नाविक अपनी दिशाएँ निर्धारित कर सकते थे, जो भारतीय  नाविकों के महासागर में व्यापार यात्रा के लिए सहायक था। प्राचीन काल से ही भारतीय मध्य पुर्व एशिया, यूरोप, और दक्षिण अमरीकी महाद्वीप तक व्यापारिक यात्रायें करते थे.  
  6. वैश्विक नौवहन पर प्रभाव

    • अरब और यूरोपीय नाविकों ने भारतीय खगोलशास्त्र की पद्धतियों को अपनाया, विशेष रूप से अक्षांश की गणना करने की तकनीक।
    • भारतीय गणितज्ञों के त्रिकोणमिति में योगदान ने बाद में मानचित्र निर्माण (Cartography) और नौवहन को उन्नत किया।

निष्कर्ष

उज्जैन वेधशाला और अन्य प्राचीन वेधशालाएँ समय गणना, खगोलीय शोध और नौवहन में अत्यंत महत्वपूर्ण थीं। वे प्राचीन काल की "GPS प्रणाली" की तरह कार्य करती थीं, जो नाविकों और यात्रियों को तारों की स्थिति के आधार पर सटीक जानकारी प्रदान करती थीं। उज्जैन में विकसित ज्ञान ने भारतीय और वैश्विक खगोलशास्त्र, नौवहन और पंचांग प्रणाली को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया।


यूरोप में ग्रीनविच से पहले की वेधशालायें

हाँ, ग्रीनविच से पहले भी यूरोप में कई वेधशालाएँ थीं।

  1. उरबिनो वेधशाला (इटली, 1478) – यूरोप की प्रारंभिक वेधशालाओं में से एक थी, जहाँ नंगी आँख से तारों का अध्ययन किया जाता था।
  2. टाइको ब्राहे की वेधशाला (डेनमार्क, 1576) – प्रसिद्ध खगोलशास्त्री टाइको ब्राहे ने डेनमार्क में ‘उरानीबोर्ग’ वेधशाला स्थापित की, जहाँ उन्होंने खगोलीय पिंडों की सटीक गणनाएँ कीं।
  3. पेरिस वेधशाला (फ्रांस, 1667) – यह यूरोप की प्रमुख वेधशालाओं में से एक थी और ग्रीनविच वेधशाला से पहले स्थापित हुई थी।
  4. कैसल वेधशाला (जर्मनी, 16वीं शताब्दी) – यह यूरोप में खगोलीय गणनाओं के लिए प्रसिद्ध वेधशाला थी।

ग्रीनविच वेधशाला (1675) यूरोप में पहली वेधशाला नहीं थी, लेकिन यह समुद्री नेविगेशन और समय निर्धारण के लिए सबसे महत्वपूर्ण वेधशाला बनी। विश्वप्रसिद्ध ग्रीनविच वेधशाला के सम्बन्ध में इसी लेख में हम आगे चर्चा करेंगे. 

यहाँ हमें यह तथ्य पता चलता है की यूरोप की पहली वेधशाला सं 1478 में स्थापित हुई थी जबकि उससे 2000 वर्ष पूर्व, ईसापूर्व काल में ही भारत में ही वेधशाला अस्तित्व में आ चुकी थी. यह कोई किंवदंती नहीं अपितु ऐतिहासिक तथ्य है. 

जंतर मंतर: भारत की खगोलीय धरोहर


जयपुर का जंतर मंतर: भारत की वैज्ञानिक धरोहर का प्रतीक

परिचय

जंतर मंतर भारत के विभिन्न स्थानों पर स्थित प्राचीन खगोलीय वेधशालाओं का एक समूह है, जिसे जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने बनवाया था। ये वेधशालाएँ खगोलीय गणनाओं, ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति का अध्ययन करने और समय मापन के लिए निर्मित की गई थीं। जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा में जंतर मंतर की स्थापना हुई थी, लेकिन वर्तमान में केवल चार ही सुरक्षित अवस्था में हैं, जबकि मथुरा का जंतर मंतर नष्ट हो चुका है।

जयपुर का जंतर मंतर

जयपुर का जंतर मंतर सबसे विशाल और सबसे अच्छी स्थिति में संरक्षित है। इसे 1728 से 1734 ईस्वी के मध्य निर्मित किया गया था। इसे 2010 में यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। यह वेधशाला 19 खगोलीय उपकरणों से युक्त है, जिनका उपयोग खगोलीय घटनाओं को मापने के लिए किया जाता था।

प्रमुख यंत्र और उनकी विशेषताएँ

  1. साम्राट यंत्र (Samrat Yantra)

    • यह विश्व की सबसे बड़ी सौर घड़ी (संडायल) है।
    • इसकी ऊँचाई लगभग 27 मीटर है।
    • यह समय को 2 सेकंड के सटीक अंतर तक माप सकता है।
  2. जयप्रकाश यंत्र (Jai Prakash Yantra)

    • दो अर्धगोलाकार संरचनाओं से मिलकर बना यह यंत्र खगोलीय पिंडों की स्थिति का सटीक ज्ञान देता है।
    • इसका उपयोग ज्योतिषीय गणनाओं और राशिचक्र को समझने में किया जाता था।
  3. राम यंत्र (Ram Yantra)

    • इसका उपयोग ऊँचाई और दिशा मापने के लिए किया जाता था।
    • यह वृत्ताकार खंभों से घिरा होता है और आकाश में ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति को मापने में सहायक है।
  4. नाड़ी वलय यंत्र (Nadivalaya Yantra)

    • यह यंत्र दिन और रात के समय को समान रूप से माप सकता है।
    • इसमें दो वृत्ताकार भाग होते हैं, जो सूर्य की छाया से समय को दर्शाते हैं।
  5. दिगंश यंत्र (Digamsa Yantra)

    • इसका उपयोग सूर्य और अन्य ग्रहों की उगने और अस्त होने की दिशा को मापने के लिए किया जाता था।
  6. कृतिय वृत यंत्र (Kranti Vritta Yantra)

    • इसका उपयोग विषुवत रेखा और अन्य खगोलीय समतलों के झुकाव को मापने के लिए किया जाता था।
जंतर मंतर में अध्ययन करते मध्यकालीन विदेशी खगोलविद 

अन्य स्थानों पर स्थित जंतर मंतर

स्थाननिर्माण वर्षप्रमुख यंत्रस्थिति
दिल्ली172413 यंत्रअच्छी स्थिति में
उज्जैन17256 यंत्रआंशिक रूप से संरक्षित
वाराणसी17374 यंत्रपुनर्निर्मित/संरक्षित 
मथुरा1730अज्ञात
नष्ट हो चुका

क्या जंतर मंतर में दूरबीन (टेलीस्कोप) थी?

नहीं, जंतर मंतर में किसी भी प्रकार की दूरबीन (टेलीस्कोप) का प्रयोग नहीं किया गया था। यह वेधशाला पूरी तरह से नग्न आँख (naked eye observation) से खगोलीय गणनाओं के लिए डिज़ाइन की गई थी।

1. जंतर मंतर की खगोलीय विधि

  • जंतर मंतर (1728-1734) का निर्माण जयपुर नगर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने करवाया था। वे स्वयं भी ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित थे. उन्होंने ज्योतिष शास्त्र एवं खगोल विद्या पर जयसिंह कारिका एवं जीज मोहम्मद शाही नमक पुस्तकों की रचना की थी. 
  • यहाँ के सभी यंत्र विशाल पत्थर, धातु और ईंटों से बनाए गए थे, जो आकाशीय पिंडों की स्थिति को मापने के लिए थे।
  • कोणों, छायाओं और सूर्योदय-सूर्यास्त की गणना के लिए इन्हें बनाया गया था।
  • ये यंत्र तब तक उपयोग में थे जब तक दूरबीन का प्रचलन नहीं बढ़ा।

2. दूरबीन की अनुपस्थिति क्यों?

  • टेलीस्कोप का आविष्कार 1608 में हुआ था और 17वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप में खगोलशास्त्र में इसका उपयोग शुरू हो गया था।
  • हालांकि, सवाई जय सिंह द्वितीय ने जंतर मंतर में पारंपरिक भारतीय और इस्लामी खगोलीय गणनाओं पर जोर दिया, जो नग्न आँख से की जाती थीं।
  • टेलीस्कोप मुख्य रूप से यूरोप में समुद्री नेविगेशन और विस्तृत तारकीय अध्ययन के लिए प्रचलित था, जबकि जंतर मंतर ज्योतिषीय गणना और पंचांग में सुधार के लिए बनाया गया था।

ग्रीनविच वेधशाला: एक संक्षिप्त विवरण

ग्रीनविच वेधशाला (Royal Greenwich Observatory) ब्रिटेन के लंदन शहर के ग्रीनविच क्षेत्र में स्थित एक ऐतिहासिक खगोलीय वेधशाला है। इसकी स्थापना 1675 ईस्वी में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय (Charles II) के आदेश पर की गई थी। इसका उद्देश्य समुद्री नेविगेशन और खगोलीय गणनाओं को सटीक बनाने के लिए किया गया था।

इतिहास और विकास

  • वेधशाला के पहले निदेशक खगोलशास्त्री जॉन फ्लैमस्टीड (John Flamsteed) थे, जिन्होंने यहां से महत्वपूर्ण खगोलीय मानचित्र तैयार किए।
  • 18वीं और 19वीं शताब्दियों में, ग्रीनविच वेधशाला ने समय मापन और लंबे-चौड़े समुद्री नेविगेशन में क्रांतिकारी योगदान दिया।
  • 1884 ईस्वी में, ग्रीनविच मेरिडियन (0° देशांतर) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानक समय रेखा घोषित किया गया, जिसे आज ग्रीनविच मीन टाइम (GMT) के रूप में जाना जाता है।
  • 20वीं शताब्दी में, प्रकाश प्रदूषण और शहरीकरण के कारण वेधशाला को कैम्ब्रिज और फिर ससेक्स स्थानांतरित कर दिया गया।

मुख्य विशेषताएँ

  • ग्रीनविच मेरिडियन (Prime Meridian) – यह रेखा विश्व के समय और देशांतर रेखाओं का आधार बनी।
  • आधुनिक खगोलीय यंत्रों का उपयोग – टेलीस्कोप, घड़ियाँ और अन्य उन्नत यंत्रों के माध्यम से ग्रहों और तारों की स्थिति मापी जाती थी।
  • टाइमकीपिंग (समय मापन) – यहां से प्राप्त समय का उपयोग ब्रिटिश नौसेना और रेलवे ने लंबे समय तक किया।

18वीं शताब्दी की ग्रीनविच वेधशाला: आधुनिक खगोलशास्त्र का केंद्र

महत्व

ग्रीनविच वेधशाला का वैज्ञानिक योगदान अमूल्य है। यह वेधशाला आज भी खगोलशास्त्र, समय गणना और भूगोल के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वर्तमान में इसे एक संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया है और यह अंतरराष्ट्रीय समय निर्धारण और ऐतिहासिक शोध का प्रमुख केंद्र बना हुआ है।

क्या जयपुर के जंतर मंतर में 18वीं शताब्दी में ग्रीनविच से अधिक यंत्र थे?

18वीं शताब्दी में जयपुर का जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला दोनों खगोलशास्त्र के महत्वपूर्ण केंद्र थे। यह कहा जाता है कि जयपुर के जंतर मंतर में उस समय ग्रीनविच वेधशाला की तुलना में अधिक खगोलीय यंत्र (इंस्ट्रूमेंट्स) मौजूद थे। इस दावे की सच्चाई को ऐतिहासिक तथ्यों और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर समझा जा सकता है।

1. यंत्रों की संख्या की तुलना

विशेषताजंतर मंतर (जयपुर)ग्रीनविच वेधशाला
निर्माण वर्ष1728-17341675
प्रमुख यंत्रों की संख्या19लगभग 10-12
मापन विधिनग्न आँख से छाया और कोण गणनादूरबीन व यांत्रिक घड़ियाँ
समय मापन की सटीकता2 सेकंड तक1 से 2 सेकंड तक (1861 के बाद)
उद्देश्यखगोलीय अध्ययन, समय मापन, ज्योतिषीय गणनासमुद्री नेविगेशन, तारों की स्थिति निर्धारण

जंतर मंतर में ग्रीनविच की तुलना में अधिक संख्या में यंत्र थे. यहाँ विशाल पत्थर और धातु के उपकरणों का उपयोग किया गया था, जो खुले वातावरण में कार्य करते थे। वहीं, ग्रीनविच वेधशाला में टेलीस्कोप और यांत्रिक घड़ियों का अधिक प्रयोग होता था। यह तथ्य चमत्कृत करता है की यूरोपीय विज्ञानं एवं तकनीक का उपयोग किये बगैर विशाल पत्थरों से बने उपकरण इतनी सूक्ष्म गणना कर सटीक फल देते थे.  

2. तकनीक

जयपुर के जंतर मंतर में अधिक यंत्र थे, विशाल संरचनाएँ थीं जो नग्न आँख से खगोलीय गणनाओं के लिए उपयुक्त थीं। लेकिन ग्रीनविच वेधशाला की तकनीक उससे भिन्न थी। ग्रीनविच में दूरबीन (टेलीस्कोप), मेरिडियन सर्कल और अत्यधिक सटीक घड़ियाँ थीं, जो अधिक सूक्ष्म गणनाएँ कर सकती थीं। हालाँकि जंतर मंतर के निर्माण के समय तक उनकी यांत्रिक घड़ियाँ उतना सटीक समय नहीं दे पाता था. 1861 के बाद ही 1 -2 सेकंड तक का सटीक समय देनेवाली घड़ियों का निर्माण हुआ. विस्तृत विवरण अगले पैराग्राफ में देख सकते हैं.   

3. उपयोगिता और सीमाएँ

  • जयपुर के जंतर मंतर का मुख्य उद्देश्य खगोलीय गणना, पंचांग निर्माण और ज्योतिषीय अध्ययन करना था। यह नग्न आँख से खगोलीय अवलोकन के लिए डिजाइन किया गया था।
  • ग्रीनविच वेधशाला का मुख्य रूप से समुद्री नेविगेशन, खगोलीय पिंडों की सटीक स्थिति निर्धारण और अंतरराष्ट्रीय समय मापन के लिए प्रयोग किया जाता था.

4. निष्कर्ष

18वीं शताब्दी में जयपुर के जंतर मंतर में यंत्रों की संख्या अधिक थी, जिसके कारण वह अधिक आकाशीय पिंडों का विशिष्ट अध्ययन कर सकता था. हालाँकि ग्रीनविच वेधशाला की तकनीक भी उन्नत थी। यंत्रों की संख्या को देखा जाए, तो जयपुर का जंतर मंतर आगे था. यह पूरी तरह से भारत के पारम्परिक खगोल विद्या के अनुसार था. जबकि ग्रीनविच अलग उद्देश्यों से स्थापित किया गया था एवं उसीके अनुसार उसमे  आधुनिक तकनीक का उपयोग किया गया था। दोनों वेधशालाओं की उपयोगिता और संरचना उनके उद्देश्यों के अनुसार भिन्न थी, इसलिए सीधी तुलना पूरी तरह उपयुक्त नहीं होगी।

  • जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला: प्राचीन और आधुनिक खगोलविद्या की तुलना
  • जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला: तुलनात्मक समीक्षा 

    जंतर मंतर और इंग्लैंड की ग्रीनविच वेधशाला (Greenwich Observatory) के बीच कई महत्वपूर्ण समानताएं एवं  अंतर थे:. दोनों वेधशालाओं की तकनीक, सटीकता, पर्यवेक्षण पद्धति की तुलना करने से हमें भारत और इंग्लॅण्ड की वेधशालाओं के सम्बन्ध में सटीक जानकारी प्राप्त हो सकती है. 

    1. तकनीक

      • ग्रीनविच वेधशाला में दूरबीन और यांत्रिक घड़ियों का उपयोग किया जाता था, जबकि जंतर मंतर में केवल सौर यंत्रों और छाया गणना का उपयोग किया गया।
    2. सटीकता

      •  जयपुर का साम्राट यंत्र मात्र 2 सेकंड की त्रुटि के साथ समय बता सकता था, जो तत्कालीन समय के लिए एक अद्भुत उपलब्धि थी। इसकी तुलना उस समय की ग्रीनविच से पहले ही की गई है. 
    3. पर्यवेक्षण पद्धति

      • ग्रीनविच में खगोलीय पिंडों को देखने के लिए टेलीस्कोप और अन्य उपकरणों का उपयोग किया जाता था, जबकि जंतर मंतर में पूर्णतः खुले आकाश के नीचे गणना की जाती थी।

    खगोलीय अध्ययन में जंतर मंतर का महत्व और योगदान

    • जंतर मंतर ने भारतीय खगोलशास्त्र को एक नई दिशा दी और ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति मापन को सरल बनाया।
    • यह वेधशाला केवल गणना तक सीमित नहीं थी, बल्कि ज्योतिष और धार्मिक कार्यों के निर्धारण में भी इसका महत्व था।
    • जयपुर में महाराजाओं के काल में यंत्रालय नाम से एक विभाग था जो जंतर मंतर के कार्यों का व्यवस्थित रूप से देखभाल करता था. 
    • आज भी वर्षा की भविष्यवाणी करने के लिए जयपुर के ज्योतिषी गैन यहाँ एकत्रित होते हैं. 
    • वर्तमान में, जयपुर का जंतर मंतर पर्यटकों, शोधकर्ताओं और खगोलशास्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल है।

    निष्कर्ष

    जंतर मंतर भारतीय वैज्ञानिक परंपरा और खगोलशास्त्र की समृद्ध धरोहर का प्रतीक है। इसकी विशाल संरचनाएँ और सटीक गणना पद्धति इसे अद्वितीय बनाती है। जयपुर का जंतर मंतर विशेष रूप से अपनी संरचना और उपकरणों की उत्कृष्टता के कारण विश्व की सबसे विकसित प्राचीन वेधशालाओं में गिना जाता है

    जंतर मंतर एवं ग्रीनविच की घड़ियों की सटीकता 

    अनेक स्थानों पर ऐसा कहा जाता है की ग्रीनविच की घड़ियाँ मिलीसेकंड तक की सटीकता प्रदान करती थी जबकि जंतर मंतर के यंत्रों से २ सेकंड तक की सटीकता ही मिलती थी. इस आधार पर जंतर मंतर को दोयम दर्ज़े का सिद्ध करने का प्रयास होता है. परन्तु वास्तविकता क्या है?

    क्या 18वीं शताब्दी में ग्रीनविच की घड़ियाँ मिलीसेकंड की सटीकता प्रदान कर सकती थीं?

    नहीं,  यद्यपि वे अपने समय की सबसे उन्नत समय मापन उपकरणों में से एक थीं, लेकिन उनकी सटीकता उस युग में उपलब्ध यांत्रिक घड़ियों की तकनीक तक ही सीमित थी।

    18वीं शताब्दी में ग्रीनविच घड़ियों की सटीकता

    1. हैरिसन के मरीन क्रोनोमीटर (John Harrison, 1760s)

    • 18वीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ समय मापन उपकरणों में से एक मरीन क्रोनोमीटर था, जिसे जॉन हैरिसन ने विकसित किया था (H4 मॉडल, 1761)।
    • ये क्रोनोमीटर 1-2 सेकंड प्रति दिन की सटीकता प्राप्त कर सकते थे, जो उस समय के लिए एक क्रांतिकारी उपलब्धि थी।
    • हालांकि, यह सटीकता मिलीसेकंड के स्तर से बहुत दूर थी।

    2. ग्रीनविच वेधशाला की घड़ियाँ

    • ग्रीनविच वेधशाला ने थॉमस टॉम्पियन और जॉर्ज ग्राहम द्वारा बनाई गई लंबा दोलन करने वाली पेंडुलम घड़ियों (Pendulum Clocks) का उपयोग किया।
    • 18वीं शताब्दी के मध्य तक, सबसे उन्नत प्रिसिजन पेंडुलम क्लॉक्स (जैसे ग्राहम की रेगुलेटर घड़ियाँ) एक दिन में कुछ अंश सेकंड की सटीकता प्रदान कर सकती थीं, लेकिन वे मिलीसेकंड तक नहीं पहुँच सकती थीं।

    3. मापन की सीमाएँ

    • 18वीं शताब्दी में समय मापन की विधियाँ यांत्रिक घड़ियों, सूर्योघट (sundials), और टेलीस्कोप के माध्यम से तारा संचरण (star transits) पर आधारित थीं।
    • उस समय ग्रीनविच मीन टाइम (GMT) प्रणाली विकसित हो रही थी, लेकिन उपलब्ध तकनीक के माध्यम से मिलीसेकंड की सटीकता को मापने का कोई तरीका नहीं था।

    निष्कर्ष

    यद्यपि 18वीं शताब्दी में ग्रीनविच वेधशाला समय मापन में अग्रणी थी, यह दावा कि उस समय इसकी घड़ियाँ मिलीसेकंड की सटीकता प्रदान कर सकती थीं, गलत है। उस समय उपलब्ध सर्वोत्तम तकनीक 1-2 सेकंड प्रति दिन की सटीकता तक सीमित थी, जो फिर भी पिछले युगों की तुलना में एक बड़ी प्रगति थी। मिलीसेकंड स्तर की सटीकता केवल क्वार्ट्ज घड़ियों (1920 के दशक) और परमाणु घड़ियों (1950 के दशक) के आने के बाद ही संभव हो पाई।

    प्राचीन भारतीय वेधशाला: जंतर मंतर के समान विशाल पत्थर यंत्रों द्वारा खगोलीय गणनाएँ करते भारतीय मनीषी 





    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
     (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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    Wednesday, February 19, 2025

    भारतीय पंचांग के पांच अंग: तिथि, वार, नक्षत्र, योग एवं करण

      

    भारतीय पञ्चाङ्ग का कलात्मक चित्र 

    पंचांग (पंच + अंग) का अर्थ है "पांच अंग" यानी पांच मुख्य हिस्से, जो किसी भी दिन के ज्योतिषीय महत्व को निर्धारित करते हैं! ये पांच अंग हैं तिथि, वार, नक्षत्र, योग, एवं करण। आइए इन पाँच अंगों को विस्तार से समझते हैं:


    🔹 1. तिथि (Tithi) – चंद्र दिवस

    • तिथि सूर्य और चंद्रमा के बीच के कोणीय अंतर पर आधारित होती है।
    • हर महीने में 30 तिथियाँ होती हैं — 15 शुक्ल पक्ष (अमावस्या से पूर्णिमा) और 15 कृष्ण पक्ष (पूर्णिमा से अमावस्या)।
    • शुभ तिथियाँ: वैदिक रीती से द्वितीया, तृतीया, पंचमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी। जैन परंपरा में द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, एवं चतुर्दशी को पर्व तिथि माना गया है. जैन परंपरा में इन तिथियों को विशेष रूप से आराधना/ साधना की जाती है. 
    • विवाह, गृह प्रवेश और अन्य शुभ कार्य मुख्यतः तिथियों के अनुसार तय होते हैं। साथ ही पंचांग के अन्य अंगों को भी ध्यान में रखते हुए मुहूर्त का निर्णय होता है. 

    🔹 2. वार (Vara) – दिन

    • सप्ताह के सात दिन (रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि)।
    • प्रत्येक वार का एक ग्रह स्वामी होता है, जो उस दिन की ऊर्जा को प्रभावित करता है।
    • उदाहरण: रविवार (सूर्य), सोमवार (चंद्रमा), मंगलवार (मंगल)।
    सात वारों का कलात्मक एवं प्रतीकात्मक चित्रण 



    🔹 3. नक्षत्र (Nakshatra) – तारामंडल

    • चंद्रमा हर दिन एक विशेष नक्षत्र (27 में से) में स्थित होता है।
    • शुभ नक्षत्र: रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, रेवती।
    • अशुभ नक्षत्र: अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूला।
    • विशेष कार्यों के लिए शुभ नक्षत्र देखना अत्यंत आवश्यक है।

    🔹 4. योग (Yoga) – ग्रहों का संयोग

    • सूर्य और चंद्रमा की संयुक्त स्थिति से योग बनता है।
    • 27 योग होते हैं, जिनमें शुभ, अशुभ और सामान्य योग शामिल हैं।
    • शुभ योग: सिद्ध, शुभ, साध्य, वरीयान।
    • अशुभ योग: विष्कुम्भ, व्याघात, अतिगण्ड।

    🔹 5. करण (Karana) – आधी तिथि

    • एक तिथि के दो करण होते हैं। कुल 11 करण होते हैं — 7 चर (बार-बार आने वाले) और 4 स्थिर (एक बार आने वाले)।
    • शुभ करण: बालव, कौलव, वणिज, किम्स्तुघ्न।
    • अशुभ करण: भद्रा (विष्टि), शकुनि, चतुष्पद, नाग।

    सारांश:

    • पंचांग के ये पांच अंग — तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण — किसी भी दिन के शुभ और अशुभ मुहूर्त को जानने के लिए आवश्यक होते हैं।
    • यह भारतीय ज्योतिष का मूल आधार है, जिससे विवाह, पूजा, यात्रा, नामकरण आदि के लिए सही समय का चयन किया जाता है।

    भारतीय चांद्रमास के तिथियों का प्रतीकात्मक चित्रण 


    ✨ 15 तिथियाँ (Lunar Days)

    संस्कृत नामहिंदी नाम
    प्रतिपदा (Pratipada)एकम 
    द्वितीया (Dvitiiya)दूज 
    तृतीया (Tritiiya)तीज 
    चतुर्थी (Chaturthi)चौथ 
    पंचमी (Panchami)पंचमी/पाँचम 
    षष्ठी (Shashthi)छठ 
    सप्तमी (Saptami)                                   सतमी
    अष्टमी (Ashtami)अष्टमी
    नवमी (Navami)नवमी
    दशमी (Dashami)दशमी
    एकादशी (Ekadashi)ग्यारस 
    द्वादशी (Dvadashi)बारस 
    त्रयोदशी (Trayodashi)                           तेरस
    चतुर्दशी (Chaturdashi) चौदस/ चउदस 
    पूर्णिमा/अमावस्या (Purnima/Amavasya)पूनम  /अमावस

  • शुक्ल पक्ष (Waxing phase) में पूर्णिमा (Purnima) होती है।
  • कृष्ण पक्ष (Waning phase) में अमावस्या (Amavasya) होती है।
  • वैदिक परंपरा में प्रत्येक तिथि को (अलग अलग महीने या पक्ष में) कोई न कोई पर्व त्यौहार होता है. जैसे अजा एकम, प्रेत दूज, सावन की तीज, करवा चौथ, नाग पंचमी, झीलना छठ, शील सप्तमी, दुर्गा अष्टमी, राम नवमी, विजय दशमी (दशहरा) निर्जला एकादशी, वामन द्वादशी, धन्वन्तरी त्रयोदशी (धन तेरस), रूप चौदस, मौनी अमावस्या, गुरु पूर्णिमा आदि. 

    इसी प्रकार जैन परंपरा में गौतम पड़वा, भाई दूज, आखा तीज, संवत्सरी चौथ, ज्ञान पंचमी, च्यवन छठ, मोक्ष सप्तमी, दुबली अष्टमी, पौष दशमी, मौन इग्यारस, अट्ठाई बारस, मेरु तेरस, चौमासी चौदस, महावीर निर्वाण अमावस्या (दिवाली), कार्तिक पूर्णिमा आदि तिथियां प्रसिद्द है. 

    🌟 28 नक्षत्र:

    1. अश्विनी (Ashwini)
    2. भरणी (Bharani)
    3. कृतिका (Krittika)
    4. रोहिणी (Rohini)
    5. मृगशिरा (Mrigashira)
    6. आर्द्रा (Ardra)
    7. पुनर्वसु (Punarvasu)
    8. पुष्य (Pushya)
    9. अश्लेषा (Ashlesha)
    10. मघा (Magha)
    11. पूर्वाफाल्गुनी (Purva Phalguni)
    12. उत्तराफाल्गुनी (Uttara Phalguni)
    13. हस्त (Hasta)
    14. चित्रा (Chitra)
    15. स्वाति (Swati)
    16. विशाखा (Vishakha)
    17. अनुराधा (Anuradha)
    18. ज्येष्ठा (Jyeshtha)
    19. मूल (Mula)
    20. पूर्वाषाढ़ा (Purva Ashadha)
    21. उत्तराषाढ़ा (Uttara Ashadha)
    22. श्रवण (Shravana)
    23. धनिष्ठा (Dhanishta)
    24. शतभिषा (Shatabhisha)
    25. पूर्वाभाद्रपद (Purva Bhadrapada)
    26. उत्तराभाद्रपद (Uttara Bhadrapada)
    27. रेवती (Revati)
    28. अभिजीत (Abhijit) — यह विशेष नक्षत्र है, जो हमेशा पंचांग में नहीं दिखता।

    🌙 1. करण (Karana)

    करण एक तिथि (चंद्र दिवस) का आधा भाग होता है। प्रत्येक तिथि के दो करण होते हैं। कुल 11 करण होते हैं, और ये हमारे मानसिक और शारीरिक कार्यों पर प्रभाव डालते हैं।

    🔹 करण के प्रकार:

    • चर (Movable) करण — एक माह में आठ बार आते हैं (7 प्रकार)।
    • स्थिर (Fixed) करण — एक माह में एक बार आते हैं (4 प्रकार)।
    चर करण (Movable Karanas) – बार-बार आते हैं. स्थिर करण (Fixed Karanas) – एक बार आता है.
    1. बव (Bava) – सामान्य1. शकुनि (Shakuni) – अशुभ
    2. बालव (Balava) – शुभ2. चतुष्पद (Chatushpad) – अशुभ
    3. कौलव (Kaulava) – शुभ3. नाग (Naga) – अशुभ
    4. तैतिल (Taitila) – सामान्य4. किम्स्तुघ्न (Kimstughna) – शुभ
    5. गर (Gara) – सामान्य
    6. वणिज (Vanija) – शुभ
    7. विष्टि (Bhadra) – अशुभ

    ✨ शुभ करण: बालव, कौलव, वणिज, किम्स्तुघ्न
    ⚠️ अशुभ करण: विष्टि (भद्रा), शकुनि, चतुष्पद, नाग
    ➖ सामान्य करण: बव, तैतिल, गर

    👉 महत्व:

    • शुभ कार्य जैसे विवाह, यात्रा और धार्मिक अनुष्ठान भद्रा के समय टाले जाते हैं, क्योंकि यह बाधाएं लाती है।
    • किम्स्तुघ्न जैसे स्थिर करण दान-पुण्य और आध्यात्मिक कार्यों के लिए उत्तम माने जाते हैं।

    ⭐ 2. योग (Yoga)

    योग सूर्य और चंद्रमा की स्थितियों का योग है, जिसे 27 भागों में बांटा गया है (हर नक्षत्र के लिए एक योग)। योग हमारे आंतरिक और बाहरी ऊर्जा प्रवाह को दर्शाता है।

    🔹 योग के प्रकार:

    • कुछ योग सफलता, समृद्धि और खुशी लाते हैं।
    • अन्य योग बाधाएं, रोग और मानसिक तनाव पैदा करते हैं।
    शुभ योग (Good Yogas)सामान्य योग (Neutral Yogas)अशुभ योग (Bad Yogas)
    शुभ (Shubha)आयुष्मान (Ayushman)विष्कुम्भ (Vishkumbha)
    सिद्ध (Siddha)ध्रुव (Dhruva)अतिगण्ड (Atiganda)
    साध्य (Sadhya)वृद्धि (Vriddhi)व्याघात (Vyaghata)
    ब्रह्म (Brahma)शोभन (Shobhana)शूल (Shoola)
    वज्र (Vajra)वरीयान (Variyan)व्यतीपात (Vyatipata)
    इन्द्र (Indra)परिघ (Parigha)

    ✨ शुभ योग: शुभ, सिद्ध, साध्य, ब्रह्म, इन्द्र — सफलता, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए उत्तम।
    ➖ सामान्य योग: आयुष्मान, ध्रुव, वृद्धि, शोभन — अच्छे हैं लेकिन अत्यधिक शक्तिशाली नहीं।
    ⚠️ अशुभ योग: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, व्याघात, शूल, व्यतीपात, परिघ — बाधाओं, रोगों और मानसिक अशांति से जुड़े होते हैं।

    👉 महत्व:

    • शुभ योग के समय नए कार्यों की शुरुआत, यात्रा और उत्सव किए जाते हैं।
    • अशुभ योग के समय सतर्कता, ध्यान और बड़े फैसलों से बचना बेहतर होता है।

    ✨ सारांश:

    • करण हमारे दैनिक कार्यों और शारीरिक ऊर्जा पर प्रभाव डालते हैं।
    • योग मानसिक, आध्यात्मिक और भावनात्मक स्थिति को प्रभावित करते हैं।
    • शुभ करण और योग में कार्य करने से सफलता और शांति मिलती है, जबकि अशुभ करण और योग में सतर्क रहना चाहिए।

    ✨ 27 योग:

    1. विष्कुम्भ (Vishkumbha)
    2. प्रीति (Preeti)
    3. आयुष्मान (Ayushman)
    4. सौभाग्य (Saubhagya)
    5. शोभन (Shobhana)
    6. अतिगण्ड (Atiganda)
    7. सुखर्मा (Sukarma)
    8. धृति (Dhriti)
    9. शूल (Shoola)
    10. गण्ड (Ganda)
    11. वृद्धि (Vriddhi)
    12. ध्रुव (Dhruva)
    13. व्याघात (Vyaghata)
    14. हर्षण (Harshana)
    15. वज्र (Vajra)
    16. सिद्धि (Siddhi)
    17. व्यतिपात (Vyatipata)
    18. वरीयान (Variyan)
    19. परिघ (Parigha)
    20. शिव (Shiva)
    21. सिद्ध (Siddha)
    22. साध्य (Sadhya)
    23. शुभ (Shubha)
    24. शुक्ल (Shukla)
    25. ब्रह्म (Brahma)
    26. इन्द्र (Indra)
    27. वैधृति (Vaidhriti)

    🌀 11 करण:

    1. बव (Bava)
    2. बालव (Balava)
    3. कौलव (Kaulava)
    4. तैतिल (Taitila)
    5. गर (Gara)
    6. वणिज (Vanija)
    7. विष्टि (Bhadra) — अशुभ करण
    8. शकुनि (Shakuni)
    9. चतुष्पद (Chatushpad)
    10. नाग (Naga)
    11. किम्स्तुघ्न (Kimstughna)




    Thanks, 
    Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries of tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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    भारतीय संवत्सर में अयन, चातुर्मास, ऋतू, मास एवं उनका नक्षत्रों व राशियों से सम्बन्ध

     

    भारतीय संवत्सर : अयन, चातुर्मास, ऋतु और मास  

    भारतीय पंचांग की संरचना अत्यंत वैज्ञानिक और खगोलीय आधार पर टिकी हुई है। सूर्य एवं पृथ्वी की सापेक्षिक गति के आधार पर एक संवत्सर को दो अयनों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक अयन 6 माह का होता है। इसकी गणना सौर वर्ष एवं सौर मास के अनुसार की जाती है।


    भारतीय खगोल विज्ञानं को दर्शाता एक कलात्मक चित्र 

    ✅ अयन

    दो अयनों के नाम हैं:

    1. उत्तरायण (सामान्यतः 14 जनवरी से प्रारंभ)

    2. दक्षिणायन (सामान्यतः 14 जुलाई से प्रारंभ)

    उत्तरायण सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के साथ प्रारंभ होता है और दक्षिणायन कर्क राशि में। इनका भारतीय मौसम, कृषि, एवं धार्मिक क्रियाकलापों से गहरा संबंध है।

    ✅ चातुर्मास

    वर्ष को तीन चातुर्मासों में भी बांटा गया है:

    1. आषाढ़  चातुर्मास

    2. कार्तिक चातुर्मास

    3. फाल्गुन चातुर्मास

    वैदिक परंपरा में सम्बंधित मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से चातुर्मास का प्रारंभ माना जाता है जबकि जैन परंपरा में पूर्णिमा से। इन तीनों चातुर्मासों में आषाढ़ चातुर्मास का विशेष महत्व है। वैदिक मान्यता के अनुसार, इस काल में देव शयन करते हैं, इसलिए आषाढ़  मास की शुक्ल एकादशी को 'देवशयनी एकादशी' तथा कार्तिक मास की शुक्ल एकादशी को 'देवउठनी एकादशी' कहा जाता है।

    जैन परंपरा में, आषाढ़ चातुर्मास के दौरान निरंतर पद विहार करने वाले साधु-साध्वी एक स्थान पर रहकर विशेष तप और साधना करते हैं।

    ✅ ऋतुएँ और मास

    एक संवत्सर को 6 ऋतुओं और 12 मासों में भी बांटा गया है. 6 ऋतुओं का वर्णन केवल भारत में ही पाया जाता है. अन्य देशों में परयह तीन या चार ऋतुओं का ही विवरण मिलता है. 

    1. ग्रीष्म (वैशाख-ज्येष्ठ)

    2. वर्षा (आषाढ़-श्रावण)

    राजस्थान में वर्षा ऋतू का एक दृश्य 


    1. शरद (भाद्रपद-आश्विन)

    2. हेमंत (कार्तिक-मार्गशीर्ष)

    3. शिशिर (शीत) (पौष-माघ)

    4. वसंत (फाल्गुन-चैत्र)


    बसंत ऋतू में फूलों की बहार को निहारते नर नारी 

    भारतीय ज्योतिष के अनुसार, यह विभाजन पृथ्वी की सूर्य के चारों ओर गति और मौसम के परिवर्तन पर आधारित है।

    ✅ भारतीय माह और नक्षत्र संबंध

    विश्व में सर्वप्रथम भारतीय खगोलविदों ने सूर्य और चंद्रमा की सापेक्ष गति के आधार पर वर्ष के समय मान का निर्धारण किया और उसे 12 भागों में विभाजित किया। इसका सम्बन्ध १२ राशियों से है. किसी एक राशि में सूर्य के प्रवेश से उस सौर माह का प्रारम्भ होता है. इसे संक्रांति भी कहते हैं जैसे १४ जनवरी को सूर्य के मकर राशि में प्रवेश को मकर संक्रांति कहते हैं. इसी दिन से सौर माघ माह का भी प्रारम्भ होता है. 

    भारतीय परंपरा में चांद्र और सौर, दोनों प्रकार के मास होते हैं, परंतु दोनों का नाम समान होता है। सामान्य भाषा में इन्हें माह या महीना कहा जाता है।

    महीनों के नाम पूर्णिमा पर आने वाले नक्षत्र के आधार पर रखे गए हैं। नीचे 12 भारतीय महीनों के मूल संस्कृत एवं प्रचलित हिंदी नाम दिए गए हैं:

    संस्कृत नामहिंदी नाम
    चैत्र (Chaitra)चैत
    वैशाख (Vaishakha)वैशाख
    ज्येष्ठ (Jyeshtha)जेठ
    आषाढ़  (Ashadha)आषाढ़ 
    श्रावण (Shravana)श्रावण
    भाद्रपद (Bhadrapada)भादवा / भादो
    आश्विन (Ashwina)आश्विन / आसोज, क्वार
    कार्तिक (Kartika)कार्तिक
    मार्गशीर्ष/अग्रहायण (Margashirsha)अगहन / मगसिर
    पौष (Pausha)पोष
    माघ (Magha)माघ
    फाल्गुन (Phalguna)फागुन / फाग

    ✅ प्रत्येक हिन्दी माह और उससे जुड़े नक्षत्रों का संक्षिप्त विवरण:

    1. चैत्र (Chaitra) - चित्रा (Chitra)

    2. वैशाख (Vaishakha) - विशाखा (Vishakha)

    3. ज्येष्ठ (Jyeshtha) - ज्येष्ठा (Jyeshtha)

    4. आषाढ़  (Ashadha) - पूर्वाषाढ़ा  (Purvashadha)

    5. श्रावण (Shravana) - श्रवण (Shravana)

    6. भाद्रपद (Bhadrapada) - पूर्वभाद्रपद (Purvabhadrapada)

    7. आश्विन (Ashwin) - अश्विनी (Ashwini)

    8. कार्तिक (Kartika) - कृत्तिका (Krittika)

    9. मार्गशीर्ष (Margashirsha) - मृगशिरा (Mrighashira)

    10. पौष (Pausha) - पुष्य (Pushya)

    11. माघ (Magha) - मघा (Magha)

    12. फाल्गुन (Phalguna) - उत्तरा फाल्गुनी (Uttara Phalguni)

    भारतीय महीनों से सम्बंधित नक्षत्र एवं उनका प्रभाव 

    1. चैत्र (Chaitra)

    • संबंधित नक्षत्र: चित्रा (Chitra)
    • विवरण: इस माह का नाम 'चित्रा' नक्षत्र से लिया गया है। इस नक्षत्र का प्रभाव रचनात्मकता, सौंदर्य और कला में बढ़ोतरी के रूप में देखा जाता है।

    🌸 2. वैशाख (Vaishakha)

    • संबंधित नक्षत्र: विशाखा (Vishakha)
    • विवरण: वैशाख माह का संबंध 'विशाखा' नक्षत्र से है, जो ऊर्जा, परिश्रम और उपलब्धियों का प्रतीक माना जाता है।

    🔥 3. ज्येष्ठ (Jyeshtha)

    • संबंधित नक्षत्र: ज्येष्ठा (Jyeshtha)
    • विवरण: इस माह का नाम 'ज्येष्ठा' नक्षत्र से जुड़ा है, जो नेतृत्व, शक्ति और गंभीरता का प्रतीक है।

    🌊 4. आषाढ़ (Ashadha)

    • संबंधित नक्षत्र: पूर्वाषाढ़ा (Purvashadha)
    • विवरण: 'पूर्वाषाढ़ा' नक्षत्र से संबंधित यह माह संघर्ष और विजय का संकेत देता है।

    🌧️ 5. श्रावण (Shravana)

    • संबंधित नक्षत्र: श्रवण (Shravana)
    • विवरण: श्रावण माह 'श्रवण' नक्षत्र से जुड़ा है, जो आध्यात्मिकता, ध्यान और ज्ञान प्राप्ति के लिए शुभ माना जाता है।

    🍂 6. भाद्रपद (Bhadrapada)

    • संबंधित नक्षत्र: पूर्वभाद्रपद (Purvabhadrapada)
    • विवरण: इस माह का नाम 'पूर्वभाद्रपद' नक्षत्र पर आधारित है, जो रहस्यवाद, तपस्या और आत्मज्ञान का प्रतीक है।

    🍁 7. आश्विन (Ashwin)

    • संबंधित नक्षत्र: अश्विनी (Ashwini)
    • विवरण: 'अश्विनी' नक्षत्र से संबंधित इस माह में नई शुरुआत और उपचार की शक्ति होती है।

    🪔 8. कार्तिक (Kartika)

    • संबंधित नक्षत्र: कृत्तिका (Krittika)
    • विवरण: 'कृत्तिका' नक्षत्र से प्रेरित, यह माह शुद्धि, तप और शक्ति का संकेत देता है।

    ❄️ 9. मार्गशीर्ष (Margashirsha)

    • संबंधित नक्षत्र: मृगशिरा (Mrighashira)
    • विवरण: 'मृगशिरा' नक्षत्र से जुड़ा यह माह ज्ञान, खोज और रचनात्मकता के लिए उत्तम माना जाता है।

    🌬️ 10. पौष (Pausha)

    • संबंधित नक्षत्र: पुष्य (Pushya)
    • विवरण: 'पुष्य' नक्षत्र से संबंधित इस माह में आध्यात्मिक उन्नति और समृद्धि का विशेष महत्व है।

    🌿 11. माघ (Magha)

    • संबंधित नक्षत्र: मघा (Magha)
    • विवरण: 'मघा' नक्षत्र से जुड़ा माघ माह पूर्वजों के सम्मान और कर्मकांडों के लिए शुभ माना जाता है।

    🌼 12. फाल्गुन (Phalguna)

    • संबंधित नक्षत्र: उत्तरा फाल्गुनी (Uttara Phalguni)
    • विवरण: 'उत्तरा फाल्गुनी' नक्षत्र से संबंधित यह माह प्रेम, आनंद और रचनात्मकता का प्रतीक है।

    ✅ विशेष नक्षत्र-संबंध

    आषाढ़ और भाद्र मास का संबंध दो-दो नक्षत्रों से है:

    • आषाढ़  : पूर्वाषाढ़ा (Purvashadha) एवं उत्तराषाढ़ा (Uttarashadha)

    • भाद्रपद : पूर्वभाद्रपद (Purvabhadrapada) एवं उत्तरभाद्रपद (Uttarabhadrapada)

    ✨ निष्कर्ष

    भारतीय संवत्सर की यह वैज्ञानिक प्रणाली नक्षत्रों, ऋतुओं और धार्मिक आस्थाओं का अद्भुत समन्वय है। महीनों के नाम नक्षत्रों पर आधारित होने के कारण हर मास का एक विशिष्ट ज्योतिषीय और धार्मिक महत्व है। पंचांग न केवल समय का मापदंड है, बल्कि यह जीवन के आध्यात्मिक और प्राकृतिक चक्रों का प्रतीक भी है।



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    Thursday, February 6, 2025

    चांद्र वर्ष व सौर वर्ष: अवधारणा, विशेषताएँ और उपयोग


    चांद्र वर्ष (Lunar Year) और सौर वर्ष (Solar Year) की परिभाषा:

    चांद्र वर्ष और सौर वर्ष, समय के मापने के दो प्रमुख प्रकार हैं, जो पृथ्वी और आकाशीय पिंडों के अन्तर्सम्बन्धों को दर्शाते हैं। चांद्र वर्ष वह वर्ष होता है, जो चंद्रमा की गति पर आधारित होता है। इसमें एक वर्ष में 12 चंद्रमास होते हैं, प्रत्येक चंद्रमास लगभग 29.5 दिन का होता है। चांद्र वर्ष की कुल अवधि लगभग 354.36 दिन होती है। वहीं, सौर वर्ष वह वर्ष होता है जो सूर्य के साथ पृथ्वी की परिक्रमा पर आधारित होता है, जिसमें एक वर्ष 365.24 दिन का होता है।

    भारतीय पंचांग 

    चांद्र वर्ष की विशेषताएँ और सूक्ष्मता:

    1. चांद्रमास की अवधि: चांद्र वर्ष में प्रत्येक मास चंद्रमा के एक पूर्ण चक्रीय चरण को पूरा करने के आधार पर होता है। यह 29.5 दिन का होता है, जिसे चंद्रमास कहते हैं। प्रत्येक चांद्रमास के बाद नया मास शुरू होता है, और चांद्र वर्ष में कुल 12 मास होते हैं।

              एक चंद्रमास में दो पक्ष होते हैं, कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष। एक पक्ष सामान्यतः  १५ दिन का होता है. तिथियों             की क्षय वृद्धि होने पर यह १३, १४ या १६ दिन का भी हो सकता है. दोनों ही पक्ष प्रतिपदा अर्थात एकम से                 प्रारम्भ होता है. कृष्ण पक्ष का अंत अमावस्या एवं शुक्ल पक्ष का अंत पूर्णिमा पे होता है. 
         
           २. कम दिन: चांद्र वर्ष की अवधि लगभग 354.36 दिन होती है, जो कि सौर वर्ष से लगभग 11 दिन कम होती         है। इस कारण चांद्र वर्ष की शुरुआत और अंत सौर वर्ष से अलग-अलग समय पर होते हैं।

           ३. मूल रूप से कृषि और धार्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोगी: चांद्र वर्ष का उपयोग प्रमुख रूप से धार्मिक           कैलेंडरों/पञ्चाङ्ग में किया जाता है, जैसे कि हिंदू, जैन, इस्लामी और यहूदी कैलेंडर में। यह कृषि कार्यों और             धार्मिक पर्वों को सही समय पर निर्धारित करने में सहायक होता है।

            ४. पर्व त्यौहारों के अतिरिक्त ज्वार-भाटा, सौरग्रहण, चंद्रग्रहण आदि की गणना चंद्रमास से ही संभव है,                  सौरमास से नहीं. 

    सौर वर्ष की विशेषताएँ और सूक्ष्मता:

    1. सौर वर्ष की अवधि: सौर वर्ष वह समय होता है, जो पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर एक बार परिक्रमा करने में लगता है। इस अवधि में लगभग 365.24 दिन होते हैं। यह कैलेंडर की गणना के लिए अधिक उपयुक्त होता है, क्योंकि यह पृथ्वी की प्राकृतिक गति और मौसम चक्र से मेल खाता है।

    2. उपयोगिता: सौर वर्ष का उपयोग मुख्य रूप से कृषि, मौसम, और वैश्विक मानक समय मापने के लिए किया जाता है। इसकी सहायता से हम वर्ष की सही अवधि, मौसम के बदलाव और विभिन्न ग्रहों की स्थिति को समझ सकते हैं।


    भारतीय चांद्र एवं सौर वर्ष का कलात्मक चित्रण 1 


    विश्व के प्रमुख चांद्र वर्ष और सौर वर्ष:

    1. चांद्र वर्ष:
      • भारतीय कैलेंडर: भारतीय कैलेंडर में चांद्र वर्ष का उपयोग होता है। इसके 12 चंद्रमास होते हैं, और हर माह की शुरुआत चंद्रमा की स्थिति के आधार पर होती है। इस कैलेंडर का उपयोग धार्मिक उत्सवों, त्यौहारों और कृषि कार्यों के निर्धारण के लिए किया जाता है।
      • इस्लामी कैलेंडर: इस्लामी कैलेंडर पूर्णत: चांद्र वर्ष पर आधारित है, जिसमें 12 माह होते हैं। इस कैलेंडर का उपयोग रमजान, हज यात्रा और अन्य इस्लामी धार्मिक गतिविधियों के लिए किया जाता है।
    2. सौर वर्ष:
      • ग्रेगोरियन कैलेंडर: यह सबसे सामान्य सौर कैलेंडर है, जो लगभग सभी देशों में प्रयुक्त होता है। इसमें 365 दिन होते हैं, और प्रत्येक चौथे वर्ष में एक अतिरिक्त दिन (लीप वर्ष) जुड़ता है, जिससे वर्ष की कुल संख्या 366 हो जाती है।
      • भारत में शक सम्वत, बंगाली वर्ष आदि की गणना सौर वर्ष के अनुसार होती है. 

    भारतीय चांद्र एवं सौर वर्ष का कलात्मक चित्रण 2 


    भारत में चांद्र वर्ष और सौर वर्ष का संयोजन:

    भारत में चांद्र वर्ष और सौर वर्ष को एक साथ संयोजित करने का एक अद्वितीय तरीका अपनाया गया है। इसे "सौर-चांद्र कैलेंडर" या "लूनिसोलर कैलेंडर" कहा जाता है। भारतीय कैलेंडर में यह दोनों प्रकार के वर्षों का समन्वय होता है। इसके अनुसार, भारतीय पंचांग में प्रत्येक माह चांद्रमास के आधार पर होता है, समग्र वर्ष की गणना भी चांद्र वर्ष के आधार पर की जाती है। 

    एक सौर वर्ष में चांद्र वर्ष से लगभग १० दिन अधिक होता है. इसलिए तीन चांद्र वर्ष के अंत में एक अतिरिक्त माह जोड़कर इसे सौर वर्ष से मेल कराया जाता है, जिसे 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं। मलमास को पुरुषोत्तम मास अर्थात परमात्मा का मास भी कहा जाता है. 

    पुरुषोत्तम मास आध्यात्मिक कार्यों के लिए होता है इसलिए इसमें सांसारिक शुभ कार्य जैसे विवाहादि वर्जित होता है. 

    भारतीय नववर्ष: एक विवेचन

    क्या चांद्र वर्ष की अवधारणा अरबों ने भारत से ली?

    इस सवाल का उत्तर स्पष्ट रूप से हाँ है। चांद्र वर्ष की अवधारणा का विकास प्राचीन भारत में हुआ था. भारतीय खगोलशास्त्रियों (ज्योतिषियों) ने सबसे पहले चंद्रमास की प्रणाली को परिभाषित किया था, और इसका उपयोग कृषि, धार्मिक अनुष्ठानों और समय गणना के लिए किया जाता था। बाद में इसे अरबों द्वारा स्वीकारा गया था। अरबों ने इस प्रणाली को अपनाया और इसे इस्लामी कैलेंडर में लागू किया। परन्तु सौर एवं चांद्र वर्षों का परष्पर संयोजन करने में वे विफल रहे. इसलिए इस्लामिक कैलेंडर मात्र चांद्र वर्ष पर ही आधारित है. 

    यूरोपीय लोगों ने ये पद्धति भारतीयों से ली एवं उन्होंने सौर कैलेंडर को अपनाया. बाद में यूरोपीय सौर कैलेंडर ग्रेगोरियन कैलेंडर के रूप में प्रसिद्द हुआ और आज पुरे विश्व में प्रचलित है. 

    यह दिखाता है कि भारतीय ज्ञान और परंपराएँ समय की गति को समझने में अग्रणी थीं, और उन्होंने इसे अन्य संस्कृतियों तक पहुँचाया।

    निष्कर्ष:

    चांद्र वर्ष और सौर वर्ष दोनों की अपनी विशेषताएँ और उपयोगिता हैं। चांद्र वर्ष का उपयोग मुख्य रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में होता है, जबकि सौर वर्ष का उपयोग मौसम, कृषि और वैज्ञानिक समय मापने के लिए किया जाता है। भारत में इन दोनों को संयोजित करने की एक अद्वितीय प्रणाली है, जो भारतीय पंचांग के रूप में अस्तित्व में है। यह सृष्टि के प्राकृतिक चक्र को समझने और उसे सम्मानित करने का एक उदाहरण है, जो न केवल धार्मिक बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है।


    Thanks, Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)



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