हिंदू जीवनशैली का मूलाधार: मार्गानुसारी जीवन के 35 आदर्श गुण
प्रस्तावना
जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।
भारत के मनीषियों ने प्राचीन काल से ही मनुष्य के जीवन को ऊर्ध्वगामी बनाने और उसके सतत विकास के लिए प्रेरणा एवं दिशा-निर्देश प्रदान किए हैं। उनके चिंतन में महामुनियों से लेकर सामान्य जन तक की आत्मिक और सामाजिक उन्नति की चिंता समाहित रही है। इसी चिंतन से भारतीय जीवन पद्धति — जिसे हम आर्य या हिन्दू जीवन पद्धति भी कह सकते हैं — विकसित हुई।
यह जीवन-पद्धति केवल मनुष्य के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण प्राणी-जगत के कल्याण पर आधारित है और "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना से ओतप्रोत है। यह भोग नहीं, योग पर; परपीड़ा नहीं, परोपकार पर; विवाद नहीं, संवाद पर; संग्रह नहीं, दान पर आधारित जीवनशैली है। इसमें व्यक्ति का महत्व स्वीकारते हुए भी समष्टि को उससे ऊपर रखा गया है। इस कारण भारतीय दृष्टिकोण में पश्चिम की भांति व्यक्ति सबसे ऊपर नहीं होता — बल्कि उसके ऊपर परिवार, समाज, राष्ट्र, और यहाँ तक कि समस्त सृष्टि का स्थान होता है।
यह दृष्टिकोण केवल भौतिक सुखों तक सीमित नहीं है, बल्कि आधिदैविक और आध्यात्मिक साधना को भी समान महत्व देता है। ब्रह्मचर्य आश्रम से लेकर गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास — यह सम्पूर्ण यात्रा आत्मानुशासन और अंतर्मुखी साधना की ओर प्रेरित करती है। यह केवल भोग की अंधी दौड़ नहीं, बल्कि पूर्ण आनंद और चैतन्य की प्राप्ति की दिशा में एक गहन यात्रा है।
भारतीय मनीषियों ने विशेषकर गृहस्थ जीवन की मर्यादा और महिमा पर गंभीर चिंतन किया है। इन्हीं मनीषियों में से एक सूरी पुरंदर नाम से विख्यात महान आचार्य — हरिभद्रसूरि (5वीं शताब्दी), जो लगभग 1444 ग्रंथों के रचयिता हैं — ने ‘धर्मबिन्दु’ नामक एक विशिष्ट ग्रंथ में गृहस्थ जीवन की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय "सामान्य गृहस्थ धर्म" में उन्होंने ऐसे 35 गुणों की चर्चा की है, जो एक गृहस्थ के जीवन को सुख, शांति और समृद्धि से भर सकते हैं। यही 35 गुण ‘मार्गानुसारी जीवन’ का स्वरूप बनाते हैं, जिन्हें आचार्य हरिभद्रसूरि ने हिंदू जीवनशैली के मूलाधार के रूप में प्रस्तुत किया है।
मार्गानुसारी जीवन
लगभग सभी भारतीय दर्शन जीवन में मुख्य रूप से चार पुरुषार्थ की बात करता है- धर्म, अर्थ, काम, एवं मोक्ष. इसमें मोक्ष परम पुरुषार्थ है और धर्म पुरुषार्थ के आचरण से ही यह प्राप्त हो सकता है. धर्मविन्दु ग्रन्थ में आचार्य हरिभद्र सूरी कहते हैं की सम्यग्दर्शन एवं श्रावक-धर्म की प्राप्ति के लिए पहले मार्गानुसारी जीवन का अभ्यास आवश्यक है। यह जीवन एक प्रकार से मोक्षमार्ग के महल की नींव के समान है — बिना इसकी दृढ़ता के धार्मिक विकास संभव नहीं।
चरमावर्त काल के प्रारंभ में यद्यपि सभी जीवों को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप सद्धर्म सहज उपलब्ध नहीं होता, सदाचारी मनुष्यों को ऐसे गुण प्राप्त होते हैं जोउसको मोक्षमार्ग की दिशा में आगे बढ़ाते हैं। इस प्रकार के जीवन को ही मार्गानुसारी जीवन कहते हैं।
भले ही व्यक्ति को धर्म का पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान न हो, यदि उसमें मोक्ष के प्रति श्रद्धा और आत्मा के अस्तित्व की स्वीकृति है — तो वह मार्गानुसारी जीवन की दिशा में अग्रसर है। यह जीवन मोक्ष की अवधारणा को आत्मसात करता है, भले ही सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित मोक्षस्वरूप का पूर्ण ज्ञान उसमें न हो।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने ‘धर्मबिन्दु’ ग्रंथ में इस मार्गानुसारी जीवन के 35 गुण बताए हैं, जिन्हें चार भागों में विभाजित किया गया है —
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११ कर्तव्य
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८ गुण
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८ दोषों से बचाव
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८ साधनाएँ
मार्गानुसारी जीवन के 11 कर्तव्य (जीवन में करने योग्य बातें)
(कर्तव्यों का पालन ही जीवन को शोभायमान बनाता है।)
1. न्यायसंपन्न वैभव
गृहस्थ जीवन के लिए धन आवश्यक है, परंतु उसका अर्जन धर्म और नीति के अनुसार होना चाहिए।
अन्याय या छल से प्राप्त संपत्ति धर्म, सुख और शांति को नष्ट कर देती है।
न्याय-संपन्न जीविकोपार्जन मार्गानुसारी जीवन का पहला आधार है।
2. आयोचित व्यय (उचित खर्च)
आय के अनुरूप ही व्यय करना चाहिए।
दिखावे, प्रतिस्पर्धा या भोगवृत्ति के कारण यदि आय से अधिक खर्च किया जाए, तो जीवन में तनाव, ऋण और पतन आता है।
उदार बनें, पर फिजूलखर्च न हों।
3. उचित वेशभूषा
वस्त्र और आभूषण ऐसे हों जो सादगी, शालीनता और मर्यादा को प्रकट करें।
आडंबर, तड़क-भड़क या शरीर प्रदर्शन से बचें।
वेश आपकी आर्थिक स्थिति और संस्कृति के अनुरूप हो।
4. उचित गृह
घर ऐसा हो जो:
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सुरक्षित हो,
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अत्यधिक द्वार या एकदम बंद न हो,
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ऋतु और स्थान के अनुकूल हो,
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और अच्छे पड़ोसियों से घिरा हो।
ऐसा गृह पारिवारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनुकूल होता है।
5. उचित विवाह
विवाह समान कुलशील, समान धर्म–दृष्टि और शीलयुक्त परिवारों में हो।
भिन्न गोत्र होना शास्त्रसम्मत है।
इससे पारिवारिक शांति, समरसता और धर्मानुकूलता बनी रहती है।
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मार्गानुसारी जीवन के कर्तव्य - उचित भोजन |
6. उचित भोजन
भोजन:
समयबद्ध आहार (निश्चित समय पर),
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शरीर और ऋतु के अनुकूल,
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मित, सात्त्विक और संयमित होना चाहिए।
भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक रखें, गरिष्ठ या विकारजन्य पदार्थों से बचें।
अजीर्ण की स्थिति में भोजन न करें, अन्यथा स्वास्थ्य और साधना दोनों में बाधा आती है।
7. माता–पिता की सेवा (पूजा)
माता-पिता का आदर, सेवा और आज्ञा–पालन धर्म का भाग है।
उनके प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और प्रेम बनाए रखें।
उनकी प्रसन्नता में ही ईश्वर का साक्षात दर्शन होता है।
8. पाल्य–पोषण का धर्म
जो लोग आपके अधीन हैं – जैसे परिवार के सदस्य, सेवक, या अन्य आश्रित – उनका सहानुभूतिपूर्वक पालन–पोषण करें।
सिर्फ स्वार्थ नहीं, समर्पण से परिवार चलाना गृहस्थ का कर्तव्य है।
9. अतिथि सेवा और दान
जो योग्य अथवा ज़रूरतमंद अतिथि, गुरुजन, या पीड़ितजन आएं – उनकी यथाशक्ति सेवा और सत्कार करें।
दान सुपात्र को दें, और सहायता भावनापूर्वक हो।
10. ज्ञानी–चारित्रशीलों की सेवा
जो व्यक्ति ज्ञान, संयम, तप, और सदाचार से युक्त हों – उनकी संगति करें, सेवा करें और मार्गदर्शन प्राप्त करें।
ऐसी संगति जीवन में धर्म और विवेक की वृद्धि करती है।
11. यथाशक्ति कार्य और परिस्थिति–अनुकूल आचरण
कोई भी कार्य शुरू करने से पहले सोचें कि –
-
क्या मेरी उसमें शक्ति और सामर्थ्य है?
-
क्या वह कार्य राज्य, समय और धर्म के अनुकूल है?
जो कार्य शक्ति से बाहर हो, या समय–देश–धर्म से प्रतिकूल हो, उससे बचें।
मार्गानुसारी जीवन के 8 दोष (जिनसे बचाव आवश्यक है)
(दोषों का त्याग ही धर्म की शुरुआत है।)
1. निंदा का त्याग
किसी भी व्यक्ति की निंदा — चाहे वह मन से हो, वाणी से हो, या व्यवहार से — पापकर्म है।
विशेषतः धर्मगुरु, राजनेता, या वरिष्ठ व्यक्तियों की निंदा करने से ईर्ष्या, द्वेष, अपकीर्ति और नीच कर्मबंधन होता है।
शास्त्रों में इसे "पीठ का मांस खाने" जैसा घोर पाप कहा गया है।
2. निंदनीय प्रवृत्तियों से बचाव
धर्म और नैतिकता के विरुद्ध कोई भी कार्य —
भले ही उसमें मृत्यु का भय हो — नहीं करना चाहिए।
ऐसी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति को राजदंड, अपमान, और आत्मिक पतन की ओर ले जाती हैं।
3. इंद्रिय-निग्रह (संयम)
पाँचों इंद्रियाँ स्वभावतः विषयों की ओर आकर्षित होती हैं।
जो व्यक्ति इंद्रियों का गुलाम बनता है, वह पतन की ओर बढ़ता है।
इंद्रियनिग्रह से मन की स्थिरता, विवेक और आत्मिक बल प्राप्त होता है।
4. आंतर शत्रुओं पर विजय
काम, क्रोध, मद, मान, माया, लोभ, और मत्सर — ये सभी अंतःशत्रु हैं।
बाह्य शत्रुओं की अपेक्षा ये अधिक विनाशकारी होते हैं।
इन पर विजय प्राप्त करना धर्म का मूल है, वरना:
-
पुण्य का नाश होता है,
-
धर्म, धन और स्वास्थ्य की हानि होती है,
-
पारिवारिक कलह और सामाजिक विघटन होता है।
5. अभिनिवेश और कदाग्रह का त्याग
"केवल मेरा मत ही सत्य है" — ऐसा हठ या कदाग्रह (dogmatism) ज्ञान, विवेक और संवाद को रोकता है।
सत्य का ग्रहण तटस्थ और खुले मन से होना चाहिए।
हठ धर्मिता से सामाजिक और आत्मिक अपकीर्ति होती है।
6. त्रिवर्ग (धर्म–अर्थ–काम) अबाधा (संतुलन)
धर्म, अर्थ और काम — इन तीनों पुरुषार्थों में संतुलन आवश्यक है।
कोई भी पुरुषार्थ ऐसा न हो जो दूसरे को बाधित करे।
धन की लालसा धर्म को नष्ट करती है, और काम की अति शरीर, धर्म व धन — तीनों को हानि पहुँचाती है।
भीष्म की प्रतिज्ञा धर्म की अति का ऐतिहासिक उदाहरण है।
7. उपद्रवयुक्त स्थान से बचाव
मारी (महामारी), युद्ध, विद्रोह, प्लेग आदि जहाँ हों —
ऐसे स्थानों को छोड़ देना चाहिए।
ऐसे स्थानों में रहना शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दृष्टि से विनाशकारी हो सकता है और धर्म की रक्षा कठिन हो जाती है।
8. अयोग्य देश–काल–चर्या से बचाव
व्यक्ति का धर्म और चरित्र केवल कर्म से नहीं, बल्कि स्थान, समय और संगति से भी प्रभावित होता है।
रात्रिकाल में अनुचित स्थानों पर जाना, वेश्याओं या अपराधियों की संगति करना, या अवांछनीय वातावरण में बार-बार आना-जाना —
भले ही व्यक्ति निर्दोष हो, पर समाज में कलंक और आत्मिक पतन का कारण बनता है।
मार्गानुसारी जीवन के 8 गुण (जिनका विकास हर धर्मनिष्ठ व्यक्ति में होना चाहिए)
"गुणाः पूज्याः सर्वत्र।"
(गुण सर्वत्र पूजनीय होते हैं।)
1. पाप-भय (पापकर्म से सावधानी)
हमेशा यह जागरूकता बनी रहनी चाहिए कि “मुझसे कोई पाप न हो जाए।”
पाप का विचार आते ही आत्मा में संकोच और अपराधबोध का भाव जागे — यही पापभय है।
यह धर्म के प्रति सतर्कता और आत्मोत्थान का पहला चरण है।
2. लज्जा (अकार्य में संकोच और आत्मसंयम)
अनुचित कार्य करते हुए भीतर से जो संकोच उत्पन्न होता है — वह लज्जा है।
यह व्यक्ति को गलत मार्ग पर जाने से रोकती है और भविष्य में सही आचरण की प्रेरणा देती है।
लज्जा आत्मनियंत्रण की नींव है।
3. सौम्यता (शांत, मृदु और संयमी स्वभाव)
जिस व्यक्ति का चेहरा शांत, वाणी मधुर और हृदय पवित्र हो,
वह सबका स्नेह, सम्मान और सहयोग पाता है।
क्रोध, कटुता और असंयम से विपरीत प्रभाव पड़ता है।
4. लोकप्रियता (शील, सेवा और विनय से प्राप्त सामाजिक सम्मान)
नैतिकता, सेवा-भाव, विवेक और विनम्रता से जब व्यक्ति समाज में प्रिय बनता है,
तो उसका प्रभाव सकारात्मक होता है और वह धर्म के प्रचार का माध्यम बनता है।
5. दीर्घदर्शिता (कार्य से पहले दूरदृष्टिपूर्ण चिंतन)
कोई भी कार्य करने से पहले यह विचार करना चाहिए कि इसके भविष्य में क्या परिणाम हो सकते हैं।
तात्कालिक लाभ के लिए बिना सोच समझे किया गया कार्य अक्सर पश्चाताप का कारण बनता है।
6. बलाबल विचारणा (अपनी शक्ति और सामर्थ्य का मूल्यांकन)
जो कार्य करना है, पहले यह देखें कि उसमें मेरी बौद्धिक, मानसिक और भौतिक शक्ति पर्याप्त है या नहीं।
अन्यथा अधूरा काम छोड़ना पड़ सकता है और अपकीर्ति हो सकती है।
7. विशेषज्ञता (विवेक और कौशल की समझ)
सार–असार, भक्ष्य–अभक्ष्य, कर्तव्य–अकर्तव्य, हित–अहित में विवेक करने की योग्यता को विशेषज्ञता कहते हैं।
यह ज्ञान, अभ्यास और अनुभव का संयोजन है।
विशेषज्ञता बिना अहंकार के हो — यह आवश्यक है।
8. गुणपक्षपात (गुणों के प्रति श्रद्धा और समर्थन)
गुण जहाँ भी हों, उनका स्वागत करें।
दोषों से दूरी बनाएँ।
गुणवानों की निंदा नहीं, प्रशंसा करें — चाहे वे अपने हों या पराए।
इससे अपने भीतर भी गुणों का विकास होता है और ईर्ष्या, द्वेष से बचाव होता है।
मार्गानुसारी जीवन की 8 साधनाएँ (जो जीवन को धर्म, विवेक और आत्मोन्नति की ओर ले जाती हैं)
1. कृतज्ञता (उपकार की स्मृति और प्रत्युपकार की भावना)
जो भी व्यक्ति हमारे जीवन में किसी भी रूप में उपकारी रहा हो —
चाहे वह माता–पिता, गुरु, देव, वृद्ध या कोई सामान्य सहयोगी ही क्यों न हो —
उसके उपकार को कभी न भूलें।
उपकार की स्मृति और अवसर आने पर प्रत्युपकार की तत्परता ही कृतज्ञता है।
यह गुण अनेक अन्य सद्गुणों की जननी है।
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मार्गानुसारी जीवन की साधना: अतिथि सेवा और परोपकार |
2. परोपकार (निस्वार्थ सेवा का भाव)
जितना संभव हो, दूसरों की निस्वार्थ सहायता करें।
परोपकार को शास्त्रों ने श्रेष्ठ पुण्य कहा है:
"परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्।"
(परोपकार पुण्य है, और परपीड़ा पाप।)
3. दया (कोमलता और करुणा)
तन, मन और धन से दूसरों के प्रति सहानुभूति और करुणा रखना ही सच्ची दया है।
"दया नदीतीरे सर्वे धर्मद्रुमायिता"
(दया रूपी नदी के तट पर ही धर्म रूपी वृक्ष फलते–फूलते हैं।)
दया धर्म की जड़ है — और निर्दयता पाप की।
4. सत्संग (सज्जनों की संगति)
ज्ञानी, तपस्वी, संयमी, और सदाचारी लोगों की संगति को सत्संग कहते हैं।
सत्संग से:
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चित्त शुद्ध होता है,
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विवेक जागृत होता है,
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और आत्मिक विकास की राह खुलती है।
"एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी की भी आध,
तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध।"
5. धर्मश्रवण (धार्मिक और सद्विचारों का श्रवण)
प्रतिदिन कुछ समय धर्म, सदाचार, और ज्ञान से युक्त वाणी सुनना चाहिए।
यह अभ्यास व्यक्ति को सच्चे–झूठे, हित–अहित का विवेक देता है।
धर्मश्रवण सत्संग का ही फल है — और बोलने से अधिक श्रवण में गहराई होती है।
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धर्मश्रवण प्रवचन |
6. बुद्धि के आठ गुण (शास्त्रीय श्रवण–चिंतन की क्षमता)
"शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा।
ऊहाऽपोहोऽर्थविज्ञानं, तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः।।"
इन आठ गुणों को अपनाने से श्रवण सार्थक होता है:
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शुश्रूषा – सुनने की इच्छा
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श्रवण – ध्यानपूर्वक सुनना
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ग्रहण – समझकर स्वीकार करना
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धारण – स्मृति में रखना
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ऊह – सकारात्मक तर्क करना
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अपोह – प्रतिकूल तर्कों से जांच करना
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अर्थविज्ञान – तात्पर्य का निर्धारण
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तत्त्वज्ञान – तत्व का ज्ञान और सिद्धांत निर्धारण
7. प्रसिद्ध देशाचार का पालन
जहाँ आप निवास करते हैं, वहाँ के धर्मसम्मत रीति–नीति, सामाजिक मर्यादा और आचरणों का पालन करें।
इससे समाज में सामंजस्य, सम्मान, और स्थानीय संस्कृति के अनुरूप जीवन संभव होता है।
जैसे कहा जाता है:
"When in Rome, do as the Romans do."
(8) शिष्टाचार–प्रशंसा (शिष्ट आचरण की सराहना और अनुकरण)
हमें सदैव शिष्ट और मर्यादित आचरण वाले व्यक्तियों की प्रशंसा करनी चाहिए। यह प्रशंसा मात्र वाणी से नहीं, बल्कि उन गुणों को आत्मसात करने की भावना से होनी चाहिए।
शिष्ट आचरण में निम्नलिखित गुण सम्मिलित होते हैं:
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लोक-निंदा से बचाव – ऐसा कोई कार्य न करना जिससे समाज में अपकीर्ति हो।
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दीन–दुखियों की सहायता – करुणा और संवेदना के साथ सहयोग देना।
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उचित प्रार्थना का सम्मान – जहाँ तक संभव हो, किसी की सही और उचित विनती को अस्वीकार न करना।
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निंदा का त्याग – दूसरों की बुराई करने से बचना, और दोष देखने की आदत को छोड़ना।
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गुणों की प्रशंसा – अपने और दूसरों के अच्छे गुणों की खुले मन से सराहना करना।
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आपत्ति में धैर्य – संकट के समय घबराने या झल्लाने की बजाय शांत रहना।
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संपत्ति में नम्रता – धन या पद मिलने पर अहंकार न करना, विनम्र बने रहना।
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अवसरोचित कार्य करना – समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार उचित व्यवहार करना।
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हित-मित वचन बोलना – ऐसा बोलना जो सत्य, प्रिय और आवश्यक हो – न अधिक, न कम।
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सत्यप्रतिज्ञा – जो प्रतिज्ञा ली हो, उसे पूर्ण निष्ठा से निभाना।
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आयोचित व्यय – जहाँ जरूरी हो, वहीं खर्च करना; न तो अपव्यय, न कंजूसी।
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सत्कार्य में आग्रह – अच्छे कार्यों में पूरे मन से जुटना और उन्हें टालना नहीं।
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अकार्य का त्याग – अनुचित या अनावश्यक कार्यों से स्वयं को दूर रखना।
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बहुनिद्रा का त्याग – आलस्य, अधिक नींद और प्रमाद से बचना।
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विषय-कषाय और विकथा का परित्याग – विषयभोग, क्रोध-द्वेष और निरर्थक बातों से दूरी बनाए रखना।
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औचित्य का पालन – हर कार्य को समय, स्थान, स्थिति और पात्रता के अनुरूप करना।
इन सभी गुणों को हम “शिष्टाचार” कहते हैं।
इन गुणों की प्रशंसा करके हम उनमें श्रद्धा उत्पन्न करते हैं — और धीरे-धीरे वे हमारे जीवन में भी उतरने लगते हैं।
"साधनाः सिद्धेः सेतुर्भवन्ति।"
(साधनाएँ ही सिद्धि की सेतु हैं।)
मार्गानुसारी जीवन के 35 गुण — सारणी
भाग | गुणों का शीर्षक | संख्या | संक्षिप्त संकेत |
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1 | कर्तव्य (KARTAVYA) | 11 | न्यायसंपन्न वैभव, आयोचित व्यय, उचित वेश, उचित गृह, उचित विवाह, उचित भोजन, माता-पिता की सेवा, पाल्य–पोषण, अतिथि सेवा, ज्ञानी-चारित्रियों की संगति, यथाशक्ति कर्म |
2 | गुण (GUNA) | 8 | पापभय, लज्जा, सौम्यता, लोकप्रियता, दीर्घदर्शिता, बलाबल विचारणा, विशेषज्ञता, गुणपक्षपात |
3 | दोषों से बचाव (DOSHA TYAGA) | 8 | निंदा त्याग, निंद्य प्रवृत्ति त्याग, इन्द्रियनिग्रह, आंतर शत्रु विजय, अभिनिवेश त्याग, त्रिवर्ग अबाधा, उपद्रवयुक्त स्थान त्याग, अयोग्य देश–काल–चर्या त्याग |
4 | साधना (SADHANA) | 8 | कृतज्ञता, परोपकार, दया, सत्संग, धर्मश्रवण, बुद्धि के 8 गुण, देशाचार पालन, शिष्टाचार प्रशंसा |
उपसंहार
मार्गानुसारिता के ये 35 गुण धार्मिक जीवन की आधारशिला हैं।
यह केवल साधना का अनुशासन नहीं, बल्कि जीवन की सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक तैयारी है।
यदि कोई व्यक्ति इन गुणों से रहित होकर श्रावक या साधु बनने का प्रयास करता है,
तो वह जीवन एक अधूरी नींव पर खड़े भवन के समान अस्थिर और पतनशील हो सकता है।
इन गुणों का होना सम्यग्दर्शन की गारंटी नहीं है,
किन्तु यह सम्यग्दर्शन के योग्य भूमि पर पदार्पण अवश्य कराता है।
यही कारण है कि आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे प्राचीन मनीषियों ने इन गुणों को धर्म के प्रथम सोपान के रूप में प्रतिष्ठित किया है।
यह गुण किसी विशेष सम्प्रदाय या समुदाय तक सीमित नहीं —
बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी हैं जो सत्य, संयम, सेवा और आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होना चाहता है।
इन गुणों से युक्त जीवन ही धर्ममय, समरस, और मोक्षमार्ग की ओर गतिशील हो सकता है।
संदर्भ सूची (References)
-
हरिभद्रसूरि (5वीं शती ई.):
🔹 धर्मबिन्दु — प्रथम अध्याय: “सामान्य गृहस्थ धर्म”
प्रकाशक: जैन श्वेताम्बर तीर्थ निकाय, अहमदाबाद (संस्कृत प्राकृत ग्रंथों का संग्रह)
भाषा: संस्कृत/प्राकृत -
मनुस्मृति
🔹 सूत्र: "धर्मो रक्षति रक्षितः" — मनुस्मृति 8.15
संस्करण: श्री गंगानाथ झा संस्करण
टिप्पणी: धर्म और समाज की पारस्परिक रक्षा की शाश्वत अवधारणा -
व्यास स्मृति — महापुराण समाहार
🔹 श्लोक: “अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् – परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम्।”
स्रोत: गरुड़ पुराण, नीतिसार -
तुलसीदास:
🔹 “एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी की भी आध,
तुलसी संगत साधु की, कटे कोटि अपराध।”
स्रोत: विनय पत्रिका / मानस के बाद की रचनाएँ -
जैन आगम और ग्रंथ संग्रह
🔹 तत्वार्थ सूत्र — उमास्वाति (सूत्र 1.1, 1.2)
🔹 धर्मसंग्रहणी — हरिभद्रसूरि -
बुद्धि के आठ गुण
🔹 “शुश्रूषा श्रवणं चैव...”
स्रोत: नंदीसूत्र (जैन आगम), उपदेशमाला — आचार्य धर्मदास -
भारतीय संस्कृति पर आधुनिक शोध ग्रंथ
-
Indian Tradition and Hindu Ethics – Dr. S. Radhakrishnan
-
The Cultural Heritage of India – Ramakrishna Mission Institute, Kolkata
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Hinduism: Doctrine and Way of Life – A.L. Basham
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Jainism: An Indian Religion of Salvation – Helmuth von Glasenapp
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संस्कृत नीतिशतक संग्रह
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चाणक्य नीतिशतक
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हितोपदेश, पंचतंत्र
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विशेष उल्लेखनीय
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When in Rome, do as the Romans do — प्रसिद्ध लोकोक्ति, व्यवहार संदर्भ हेतु उद्धृत
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SWOT Analysis — आधुनिक प्रबंधन शास्त्र, "Strength, Weakness, Opportunity, Threat" का मूल्यांकन
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