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बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

जैन कालगणना: ब्रह्मांडीय समय की रहस्यमयी संरचना भाग 2


इस लेख के पूर्वभाग में 'समय' से लेकर 'शीर्षप्रहेलिका' तक के काल का वर्णन किया गया है. यह सभी काल गणना संख्यात काल की दृष्टि से किया जाता है. परन्तु जैन दर्शन संख्यात काल से आगे जाकर असंख्यात एवं अनंत काल की भी व्याख्या करता है. असंख्यात एवं अनंत काल की कल्पना करना भी कठिन है परन्तु इसकी समुचित व्याख्या जैन आगमों में उपलब्ध है. लेख के इस भाग में हम  असंख्यात एवं अनंत काल को जैन दर्शन की दृष्टि से समझने का प्रयत्न करेंगे. 

असंख्यात काल की गणना - पल्योपम और सागरोपम

  • असंख्यात काल के दो प्रकार होते हैं:

    1. पल्योपम (Palyaopam)
    2. सागरोपम (Sagaropam)
  • जैन शास्त्रों में दोनों के छह-छह प्रकार बताए गए हैं:

पल्योपम को दर्शाता काल्पनिक चित्र 

(क) पल्योपम के प्रकार
  1. बादर उद्धार पल्योपम
  2. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम
  3. बादर अद्वा पल्योपम
  4. सूक्ष्म अद्वा पल्योपम
  5. बादर क्षेत्र पल्योपम
  6. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम

(ख) सागरोपम के प्रकार

  1. बादर उद्धार सागरोपम
  2. सूक्ष्म उद्धार सागरोपम
  3. बादर अद्वा सागरोपम
  4. सूक्ष्म अद्वा सागरोपम
  5. बादर क्षेत्र सागरोपम
  6. सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम

1. पल्योपम – असंख्यात समय की गणना

  • पल्योपम (Palyaopam) समय मापन की एक विशाल इकाई है। काल की कुछ गणनाओं को अंकों में नहीं बताया जा सकता. वह इतना विशाल होता है की पूर्व में वर्णित शीर्ष प्रहेलिका जैसी विशाल संख्या भी उसके आगे बहुत छोटी हो जाती है. इसलिए जैन आगमों में इसे उपमा के माध्यम से समझाया गया है. पालय का अर्थ गड्ढा होता है और गड्ढे की उपमा से समझाने के कारण इसे पल्योपम कहा जाता है. 
    • यदि हम 1 योजन लंबा, 1 योजन चौड़ा और 1 योजन गहरा एक गोलाकार गड्ढा बनायें. 
    • इस गड्ढे को देवकुरु या उत्तरकुरु के मानवों के मस्तक के मुंडन के बाद गिरे हुए बालों से भर दें
    • इन बालों को 7 बार, हर बार 8-8 टुकड़ों में काट दिया जाए और फिर इस गड्ढे को पूरी तरह भर दिया जाए।
    • यदि क्षण के अंतराल से 1-1 बाल का टुकड़ा बाहर निकाला जाए, तो जिस समय में पूरा कटोरा खाली होगा, उसे "बादर उद्धार पल्योपम" कहा जाता है
    • यह संख्यात समय की श्रेणी में आता है और इसका कोई विशेष उपयोग नहीं होता
    • इसका प्रयोग सूक्ष्म उद्धार पल्योपम को समझाने के लिए किया जाता है।

2. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम

  • पहले वर्णित बड़े बालों के टुकड़ों को और भी सूक्ष्म टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाए।
  • यदि प्रत्येक समय एक-एक सूक्ष्म टुकड़ा बाहर निकाला जाए, और जब तक कटोरा पूरी तरह खाली न हो जाए, उस समय को "सूक्ष्म उद्धार पल्योपम" कहा जाता है।
  • यह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम असंख्यात समय की श्रेणी में आता है
  • 25 कोडाकोडी पल्योपम (2.5 सागरोपम के बराबर) समय में त्रिलोक में जितने द्वीप-समुद्र होते हैं, उनकी संख्याएँ इसमें समाहित होती हैं
  • संक्षेप में, सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का उपयोग द्वीप-समुद्रों की गणना के लिए किया जाता है

3. बादर अद्वा पल्योपम

  • बादर उद्धार पल्योपम में जो बालों के टुकड़े थे, उन्हें हर 100 वर्षों में एक-एक बाहर निकाला जाए
  • जिस समय में कटोरा पूरी तरह खाली हो जाएगा, उसे "बादर अद्वा पल्योपम" कहा जाता है
  • इसमें भी संख्यात वर्षों की गणना होती है
  • इसका भी कोई विशेष उपयोग नहीं होता
  • इसे सूक्ष्म अद्वा पल्योपम को समझाने के लिए बताया गया है।

4. सूक्ष्म अद्वा पल्योपम

  • यदि पहले बताए गए सूक्ष्म उद्धार पल्योपम के बालों के अत्यंत सूक्ष्मतम कणों को भी 100 वर्षों में 1-1 बाहर निकाला जाए,

  • और जब तक पूरा कटोरा खाली न हो जाए, उस समय को "सूक्ष्म अद्वा पल्योपम" कहा जाता है।

  • इसका उपयोग निम्नलिखित गणनाओं के लिए किया जाता है:

    1. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल
    2. जीवों की आयु गणना
    3. कर्मों की स्थिति का निर्धारण
  • सूक्ष्म अद्वा पल्योपम की गणना और उसका महत्व

    इस प्रकार, सूक्ष्म अद्वा पल्योपम का प्रयोग व्यावहारिक रूप से किया जाता है

  •  छह प्रकार के पल्योपम में से चौथे प्रकार "सूक्ष्म अद्वा पल्योपम" असंख्यात  काल की इकाई के रूप में उपयोग किया जाता है

5. बादर क्षेत्र पल्योपम

  • पल्योपम की पहली परिभाषा में वर्णित बालों के कणों को अंदर और बाहर के आकाश क्षेत्र से स्पर्श करने वाले कणों के रूप में विभाजित किया जाए
  • यदि हर समय 1-1 कण बाहर निकाला जाए,
  • और जिस समय तक कटोरा पूरी तरह खाली हो जाए, उसे "बादर क्षेत्र पल्योपम" कहा जाता है
  • इसमें असंख्यात समय चक्र गुजर जाते हैं
  • इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता

6. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम

  • पल्योपम की दूसरी परिभाषा में वर्णित अत्यंत सूक्ष्मतम बालों के कणों को

  • यदि हर समय 1-1 बाहर निकाला जाए,

  • और जब तक पूरा कटोरा खाली न हो जाए,

  • उस समय को "सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम" कहा जाता है

  • सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का समय, बादर क्षेत्र पल्योपम की तुलना में "असंख्यात" गुणा अधिक होता है

  • इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता

1. सागरोपम 

पल्य (गड्ढा) के स्थान पर सागर की उपमासे सागरोपम को समझाया गया है.  10 कोडाकोड़ी अर्थात करोड़ को करोड़ से गुना करने पर प्राप्त संख्या) (कोटि-कोटि) पल्योपम के बराबर 1 सागरोपम होता है। 10 कोड़ाकोड़ी आधुनिक गणना के अनुसार 1000 ट्रिलियन होता है. 

कालचक्र का काल्पनिक कलात्मक चित्रण 

2. कालचक्र 

जैन आगमों के अनुसार एक कालचक्र के दो अंग होते हैं. 1. उत्सर्पिणी 2. अवसर्पिणी। उत्सर्पिणी काल में सुख-समृद्धि बढ़ती हुई एवं अवसर्पिणी काल में घटती हुई होती है. काल चक्र के इन दोनों अंगों को पुनः 6 - 6 भागों में बांटा गया है, जिन्हे आरा कहा जाता है. 

उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी  

6 आरे एवं उनका काल प्रमाण 

पहला सुखमा सुखमा आरा 4 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दूसरा सुखमा 3 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, तीसरा सुखमा दुखमा 2 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, चौथा दुखमा सुखमा 42 हज़ार वर्ष कम 1 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, पांचवां दुखमा 21 हज़ार वर्ष, छठा दुखमा दुखमा 21 हज़ार वर्ष का होता है. यह अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से है, उत्सर्पिणी काल में यह क्रम उल्टा होता है अर्थात दुखमा दुखमा से प्रारम्भ हो कर सुखमा सुखमा में अंत होता है. यह कालचक्र अविराम गति से अनादि से अनंत तक चलता रहता है.  
  • कुल 10 कोडाकोड़ी सागरोपम का 1 उत्सर्पिणी या 1 अवसर्पिणी काल होता है। इस प्रकार एक कालचक्र 20 कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है. 

3. असंख्यात काल और अनंत काल की अवधारणा

  • अब तक बताए गए सभी काल "असंख्यात काल" की श्रेणी में आते हैं
  • लेकिन अब "अनंत काल" की अवधारणा प्रस्तुत की जा रही है, जो कभी समाप्त नहीं होता
  • कालचक्र में अनंत उत्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी = 1 पुद्गलपरावर्त
  • इस प्रकार, अनंत पुद्गलपरावर्त अतीत में भी बीत चुके हैं और भविष्य में भी अनंत मात्रा में आने वाले हैं
  • जैन आगमों में पुद्गल परावर्त के विस्तृत स्वरुप का वर्णन है. विस्तार के भय से पुद्गल परावर्त की गणना यहाँ नहीं दी जा रही है. 

4. आधुनिक विज्ञान और जैन कालगणना की तुलना

  • सामान्यतः आधुनिक विज्ञान को प्रामाणिक माना जाता है परन्तु वास्तविकता ये है की यह भी अनेक अनुमानों एवं परष्पर विरोधी अवधारणाओं पर आधारित है. जबकि जैन दर्शन सर्वज्ञों (केवलज्ञानियों) की दृष्टि पर आधारित होने से निश्चित गणना होती है. 
  • आधुनिक विज्ञान के अनुसार, ब्रह्मांड की उत्पत्ति केवल 13.8 अरब वर्ष (billion years) पहले हुई है। इस सम्बन्ध में भी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता. भिन्न भिन्न वैज्ञानिक मॉडल में भिन्न भिन्न समय बताया जाता है. 
  • विज्ञान के पास इस बात की कोई निश्चित जानकारी नहीं है कि ब्रह्मांड का अंत कब होगा और उसके बाद क्या होगा
  • विज्ञान के सभी निष्कर्ष अनुमानों पर आधारित हैं और वे निश्चित नहीं हैं।
  • इसके विपरीत, जैन दर्शन की कालगणना अनंत काल तक फैली हुई है, जिसमें न केवल भविष्य के अनंत काल की गणना की गई है, बल्कि अतीत के भी अनंत काल का विवरण उपलब्ध है


5. देव और नारकीय लोक में समय की गणना
  • जैन गणना का यह काल केवल दृश्यमान क्षेत्र तक सीमित नहीं है जहाँ मनुष्य एवं पशु पक्षी रहते हैं. 
  • इसके विपरीत, इसकी गणना देव लोक (स्वर्ग) और नारकीय लोक (नरक) में भी की जाती है। जहाँ न सूर्य होता है, न चंद्रमा, और न ही दिन-रात का चक्र। वहाँ भी समय की गणना इस जैन कालगणना के आधार पर ही की जाती है।
  • देव एवं नारकी जीवों की न्यूनतम आयु 10 हज़ार वर्ष एवं अधिकतम आयु 33 सागरोपम होती है. देवताओं और नारकीय जीवों के भी आयुष्य (जीवन अवधि), जन्म और मृत्यु का निर्धारण भी इसी कालगणना के आधार पर किया जाता है

संक्षेप 

✅ असंख्यात काल को "पल्योपम" और "सागरोपम" नामक दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक के छह उप-प्रकार हैं।
✅ पल्योपम एक अत्यंत सूक्ष्म समय इकाई है, जिसकी गणना "बालों के कणों" से की जाती है।

✅ बादर उद्धार पल्योपम और सूक्ष्म उद्धार पल्योपम संख्यात और असंख्यात समय की गणना में भिन्न होते हैं।
✅ सूक्ष्म अद्वा पल्योपम का उपयोग उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, जीवों की आयु और कर्मों की स्थिति की गणना में किया जाता है।
✅ बादर क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम "असंख्यात" समय की अवधारणाएँ हैं, जिनका व्यावहारिक उपयोग नहीं होता।

✅ सूक्ष्म अद्वा पल्योपम को वास्तविक समय मापन के रूप में स्वीकार किया जाता है।

✅ 10 कोडाकोड़ी पल्योपम = 1 सागरोपम और 10 कोडाकोड़ी सागरोपम = 1 उत्सर्पिणी/अवसर्पिणी।
✅ 1 उत्सर्पिणी और 1 अवसर्पिणी = 1 कालचक्र, और यह अनंत कालचक्रों तक चलता रहता है।
✅ जैन कालगणना विज्ञान की तुलना में अधिक विस्तृत है, क्योंकि यह अनंत काल की अवधारणा को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है।
✅ इस कालगणना का उपयोग केवल मानव जीवन के लिए नहीं, बल्कि देव और नारकीय लोकों में भी किया जाता है।

निष्कर्ष:

यह लेख बताता है कि जैन कालगणना केवल गणितीय अवधारणा नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांड के अनंत चक्रों की एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक व्याख्या है। यह न केवल मानव जीवन, बल्कि देव और नारकीय लोकों में भी समय की गणना का आधार है।

भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि


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भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

 
आगामी 30 मार्च 2025, भारतीय नववर्ष 2082 है. इस दिन से विक्रम सम्वत प्रारम्भ होनेवाला है. इस भारतीय नववर्ष को मनाने की जोरदार तैयारी हो रही है. हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा फॉउंडेशन भी इसके लिए जोरदार तैयारी कर रहा है. भारतीय नववर्ष के सम्बन्ध में सर्वप्रथम एक लेख लिखा और फिर धीरे धीरे सम्बंधित लेखों की एक श्रंखला बन गई. यहाँ पर नववर्ष लेखमाला के लेखों की एक सूचि लिंक के साथ दी गई है, जिसके माध्यम से आप सभी लेखों तक पहुँच कर उसे पढ़ सकते हैं. इस लेखमाला के अंतर्गत भविष्य में लिखे जानेवाले लेखों की सूचि भी यहीं दे दी जाएगी. 

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1. यह लेख भारतीय नववर्ष की विविध परंपराओं और उनके धार्मिक, खगोलीय, ऐतिहासिक, और सांस्कृतिक महत्व पर प्रकाश डालता है। लेख में विक्रम संवत 2082 के प्रारंभ, विभिन्न क्षेत्रों में मनाए जाने वाले नववर्ष, जैसे उगादि, गुड़ी पड़वा, और चेटीचंड, तथा संवत्सर चक्र के 60 वर्षों के नामों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके अलावा, चांद्र और सौर वर्ष के आधार पर नववर्ष की गणना और उनके महत्व पर भी चर्चा की गई है।
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2. इस लेख में भारतीय पंचांग की वैज्ञानिक संरचना और खगोलीय आधार पर अयन, चातुर्मास, ऋतु, और मास की व्याख्या की गई है। उत्तरायण और दक्षिणायन, तीन चातुर्मास, छह ऋतुएं, और बारह मासों के साथ उनके संबंधित नक्षत्रों और राशियों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। लेख में महीनों के नामकरण और उनके नक्षत्रों के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला गया है।

3. यह लेख जैन दर्शन में काल की अवधारणा और उसकी सूक्ष्मतम इकाई 'समय' की व्याख्या करता है। लेख में निश्चय काल और व्यवहार काल के भेद, समय की परिभाषा, और आधुनिक विज्ञान में समय मापन की तुलना की गई है। इसके अलावा, काल के विभिन्न प्रकार, जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, संख्यात, असंख्यात, और अनंत, तथा जैन शास्त्रों में काल की गणना और उसकी जटिल संरचना पर विस्तृत चर्चा की गई है।
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  • 4. यह लेख चांद्र वर्ष (लूनर ईयर) और सौर वर्ष (सोलर ईयर) की परिभाषा, उनकी विशेषताएँ और उपयोग पर प्रकाश डालता है। चांद्र वर्ष चंद्रमा की गति पर आधारित होता है, जिसमें लगभग 354.36 दिन होते हैं, जबकि सौर वर्ष सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की परिक्रमा पर आधारित होता है, जिसकी अवधि लगभग 365.24 दिन होती है। लेख में बताया गया है कि भारतीय पंचांग में चांद्र और सौर वर्षों का संयोजन कैसे किया जाता है, जिससे धार्मिक पर्वों और कृषि कार्यों का निर्धारण होता है।
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  • 6. यह लेख भारतीय खगोलविद्या की प्राचीन परंपरा और उसकी समृद्ध विरासत पर केंद्रित है, विशेष रूप से जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला की तुलना के माध्यम से। लेख में बताया गया है कि भारत में उज्जैन, वाराणसी, विदिशा, और नालंदा जैसे स्थानों पर प्राचीन वेधशालाएँ थीं, जहाँ खगोलीय अध्ययन और गणनाएँ की जाती थीं। महाराजा जय सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित जंतर मंतर वेधशालाएँ खगोलीय अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण केंद्र थीं। इसके विपरीत, ग्रीनविच वेधशाला यूरोपीय खगोलविद्या का प्रमुख केंद्र रहा है।
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  • 8. इस लेख में जैन कालगणना के असंख्यात और अनंत समय की अवधारणाओं को विस्तार से समझाया गया है। पल्योपम और सागरोपम जैसी इकाइयों द्वारा असंख्यात समय की गणना की जाती है। कालचक्र उत्सर्पिणी (वृद्धि) और अवसर्पिणी (ह्रास) के दो भागों में अनंत काल तक चलता रहता है। अनंत पुद्गल परावर्त ब्रह्मांडीय समय के अनंत विस्तार को दर्शाता है। आधुनिक विज्ञान की तुलना में, जैन दर्शन अधिक विस्तृत और सुनिश्चित गणना प्रदान करता है। यह गणना न केवल पृथ्वी, बल्कि देवलोक और नारक लोक में भी लागू होती है।
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  • इन लेखों के माध्यम से, भारतीय खगोलविद्या, कालगणना, और पंचांग की समृद्ध परंपरा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने में सहायता मिलती है।


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