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Tuesday, February 25, 2025

जैन कालगणना: ब्रह्मांडीय समय की रहस्यमयी संरचना भाग 1

जैन दर्शन में काल-समय की अवधारणा

जैन दर्शन में सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड (लोक-अलोक) की संरचना 6 मुलभुत पदार्थों (षट्द्रव्य) से मानी गई है 1. धर्मास्तिकाय 2. अधर्मास्तिकाय 3. आकाशास्तिकाय 4. पुद्गलास्तिकाय 5. जीवास्तिकाय, एवं  6. काल. इससे यह समझा जा सकता है की जैन सूत्रों में काल को ब्रह्माण्ड के मूल कारक तत्वों में माना गया है. 

जगत में होनेवाले सभी परिवर्तनों का कारक तत्व काल है. इसे परिवर्तन का निमित्त कारण कहा गया है. व्यवहार में दिन-रात आदि होना, ऋतू परिवर्तन, जन्म-मृत्यु- नवीन-पुरातन आदि होना काल के ही अधीन है. 

काल को दो प्रकार से समझाया गया है 1. निश्चय काल 2. व्यवहार काल. निश्चय काल काल का वास्तविक-तात्विक स्वरुप है जबकि व्यवहार काल  सूर्य चन्द्रमा आदि की गति के आधार पर लोक व्यवहार में  प्रचलित काल है. निश्चय काल को निरपेक्ष एवं व्यवहार काल को सापेक्ष काल भी कहा जा सकता है.  जैन दर्शन में काल की सूक्ष्तम इकाई "समय" है. कालक्रम में यह समय ही काल का पर्यायवाची शब्द बन गया और समय शब्द से ही लोग काल को समझने लगे हैं. 

समय: जैन दर्शन में काल की सूक्ष्मतम इकाई

समय की अवधारणा 

परिभाषा: धीर गति से चलते हुए एक पुद्गल परमाणु को एक आकाश प्रदेश से निकटतम दूसरे आकाश प्रदेश में पहुँचने में जितना काल लगता है उसे समय कहते हैं. 

यह परिभाषा आधुनिक काल में परमाणविक घड़ियों से समय मापन की प्रणाली से मेल खाता है, जहाँ उप-परमाण्विक कण के आंदोलन के आधार पर सटीक समय नापा जाता है. जैन दर्शन के अनुसार समय इतना सूक्ष्म है की सामान्य व्यक्ति इसे नहीं जान सकता. मात्र केवलज्ञानी सर्वज्ञ ही इसे जान सकते हैं. समय को अविभाज्य (indivisible) माना जाता है, और यह काल की अत्यंत सूक्ष्मतम इकाई है। इससे अधिक सूक्ष्म किसी भी अन्य माप की संभावना नहीं है।

असंख्य समय की एक आवलीका होती है और जैन दर्शन में इसी आवलिका को व्यवहार में काल के निर्धारण की लघुतम इकाई माना गया है. आगे हम काल की सूक्ष्म इकाइयों से लेकर वृहत इकाइयों तक की चर्चा करेंगे. 

विशेष: 6 मुलभुत द्रव्यों में से एक आकाश (Space) की सूक्ष्मतम इकाई प्रदेश है. इसी प्रकार पुद्गल (Matter) की सूक्ष्मतम इकाई परमाणु (Smallest particle) है. जैन दर्शन का परमाणु एक अति सूक्ष्म कण है जो की आधुनिक विज्ञानं के परमाणु से बहुत छोटा है. जैन दर्शन का परमाणु उप-परमाण्विक कण (Sub-atomic particle) जैसे क्वार्क, न्यूट्रिनो आदि से भी सूक्ष्म है. 

जैन दर्शन के अनुसार, आकाश एक अखंड द्रव्य (indivisible substance) है, जो निष्क्रिय है। पुद्गल (भौतिक तत्व) गतिशील हैं और संपूर्ण लोक (ब्रह्मांड) में व्याप्त रहता हैं

1. काल की अनादि-अनंतता

लोकाकाश (ब्रह्माण्ड), एवं पुद्गल अनादि (जिसका कोई आरंभ न हो) अनंत (जिसका कोई अंत न हो) है. आकाश में पुद्गल की गति भी अनादि और अनंत  है। इसी कारण, काल भी मूल रूप से अनादि और अनंत है

आधुनिक विज्ञान की कालगणना 

वर्तमान समय में, वैज्ञानिक समय की इकाई को सेकंड मानते हैं। हालाँकि यह समय नापने की सूक्ष्मतम इकाई नहीं है. 

  • वे 1 सेकंड के 1000 अरबवें भाग (10⁻¹² सेकंड) तक का मापन कर सकते हैं, जिसे पिको-सेकंड (Picosecond) कहा जाता है।
  • वर्तमान में सेकंड की सबसे सूक्ष्म गणना झेप्टो-सेकंड (Zeptosecond - 10⁻²¹ सेकंड) तक हो चुकी है।
  • परंतु जैन दर्शन में "समय" की गणना इससे भी अधिक सूक्ष्म मानी जाती है

काल के प्रकार

(1) पारंपरिक रूप से काल के तीन प्रकार:

  1. भूतकाल (अतीत)
  2. वर्तमानकाल
  3. भविष्यकाल

(2) जैन गणना के अनुसार काल के तीन प्रकार:

  1. संख्यात (गिनने योग्य)
  2. असंख्यात (जिसे गिना न जा सके)
  3. अनंत (जिसका कोई अंत न हो)

(3) जैन शास्त्रों में काल के चार वर्गीकरण:

  1. प्रमाण काल – जैसे वर्ष, पल्योपम आदि। इसे दो प्रकार में विभाजित किया गया है:
    • (क) दिन का प्रमाण
    • (ख) रात्रि का प्रमाण
  2. आयुष्य काल – जीवों की आयु निर्धारित करने वाला काल।
  3. मृत्यु काल – जब जीव अपने जीवन का अंत प्राप्त करता है।
  4. अद्वा काल (व्यवहारिक काल) – जिसे हम अपने दैनिक जीवन में समय के रूप में अनुभव करते हैं।

जैन दर्शन में काल की गणना और उसकी जटिल संरचना

  • जैन शास्त्रों में काल की गणना जितनी सूक्ष्म बताई गई है, उतनी किसी अन्य प्रणाली में उपलब्ध नहीं है।
  • इसी तरह, काल की विशालता की गणना भी जैन शास्त्रों में जितनी विस्तृत है, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती
  • असंख्यात समय की आवलिका – जैन गणना की अद्भुत इकाई

    • "आवलिका" भी एक जैन पारिभाषिक शब्द है और इसे असंख्यात समय की एक इकाई माना जाता है।
    • जैन शास्त्रों के अनुसार 1 मुहूर्त (48 मिनट) में 1,67,77,216 आवलिकाएँ होती हैं।
    • इसका अर्थ है कि 1 सेकंड में 5825.42222... आवलिकाएँ बीत जाती हैं।
    • हालाँकि, एक आवलिका में कितने सूक्ष्मतम समय होते हैं, इसका कोई निश्चित मापन नहीं है। एक आवलिका में अनगिनत (असंख्यात) समय इकाइयाँ समाहित होती हैं। जैन शास्त्रों में कहा गया है कि असंख्यात का अर्थ है "न गिना जा सकने वाला" या "संख्याओं में व्यक्त न किया जा सकने वाला"

    • कालगणना में श्वासोश्वास: 

    • सामान्यतः श्वासोश्वास का सम्बन्ध सांस लेने और छोड़ने से है परन्तु जैन कालगणना में इसका सन्दर्भ अलग है. नीचे दी गई तालिका से गणना करने पर 1 मुहूर्त में 3773 श्वासोश्वास होते हैं अर्थात एक मिनट में लगभग 78. ध्यान देने योग्य बात ये है की यह समय ह्रदय की स्वाभाविक गति से निकट है. जैन सूत्रकारों ने इसकी व्याख्या अलग प्रकार से की है. "पाय समा उच्छासा" अर्थात 8 मात्रा के एक पद को बोलने में जितना समय लगता है उसे श्वासोश्वास कहा है. जैन परंपरा में स्वाध्याय एवं कायोत्सर्ग में पदों की संख्या के आधार पर समय निर्धारण की विधि प्रचलित है. 
    • व्यवहारिक काल की गणना निम्नलिखित क्रम में दर्शाई गई है:
समय मापनसापेक्ष मापन
असंख्यात समय1 आवलिका
संख्यात आवलिका1 श्वास या 1 उच्छ्वास
1 श्वास और 1 उच्छ्वास1 श्वासोच्छ्वास (प्राण)
7 प्राण1 स्तोक
7 स्तोक1 लव
38.5 लव1 नालिका (घड़ी)
2 नालिका (घड़ी)1 मुहूर्त (48 मिनट)
2.5 नालिका1 घंटा
60 नालिका (घड़ी)1 अहोरात्र (24 घंटे)
15 अहोरात्र1 पक्ष (पखवाड़ा)
2 पक्ष1 महीना
2 महीने1 ऋतु
3 ऋतु (6 महीने)1 अयन
2 अयन (12 महीने)1 वर्ष


                                                                                

1. जैन गणना में विशाल समय चक्र


84,00,000 वर्ष






1 पूर्वांग
84,00,000 पूर्वांग1 पूर्व (70 लाख, 56 हजार करोड़ वर्ष)
84,00,000 पूर्व1 त्रुटितांग
84,00,000 त्रुटितांग1 त्रुटित
84,00,000 त्रुटित1 अडडांग
84,00,000 अडडांग1 अडड


 
84,00,000 अडड1 अववांग
84,00,000 अववांग1 अवव
84,00,000 अवव1 हुहुकांग
84,00,000 हुहुकांग1 हुहुक
84,00,000 हुहुक1 उत्पलांग
84,00,000 उत्पलांग1 उत्पल
84,00,000 उत्पल1 पद्मांग
84,00,000 पद्मांग1 पद्म
84,00,000 पद्म1 नलिनांग
84,00,000 नलिनांग1 नलिन
84,00,000 नलिन1 अर्धनिपूरांग
84,00,000 अर्धनिपूरांग1 अर्धनिपूर
84,00,000 अर्धनिपूर1 अयुतांग
84,00,000 अयुतांग1 अयुत
84,00,000 अयुत1 नयुतांग
84,00,000 नयुतांग1 नयुत
84,00,000 नयुत1 प्रयुतांग
84,00,000 प्रयुतांग1 प्रयुत
84,00,000 प्रयुत1 चुलिकांग
84,00,000 चुलिकांग1 चुलिका
84,00,000 चुलिका1 शीर्षप्रहेलिकांग
84,00,000 शीर्षप्रहेलिकांग1 शीर्षप्रहेलिका

2. शीर्षप्रहेलिका की विशाल गणना

टिप्पणी:

  • यह गणना "माथुरी वाचन" (Mathuri version) के अनुसार है, जिसमें 54 अंक होते हैं और 140 शून्य जोड़े जाते हैं
  • जबकि "वलभी वाचन" (Valabhi version) के अनुसार, इसमें चार अतिरिक्त नाम जोड़े जाते हैं, जिससे गणना 70 अलग-अलग अंकों और 180 अतिरिक्त शून्यों तक पहुँच जाती है। परिणामस्वरूप, कुल 250 अंकों की संख्या बनती है

(क) माथुरी वाचन के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की गणना:

(84,00,000)×758,263,253.073,010.241,157,973.569,975,696,406,218,966,848.080,183,296,210(84,00,000) \times 758,263,253.073,010.241,157,973.569,975,696,406,218,966,848.080,183,296,210

(ख) वलभी वाचन के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की गणना:

(84,00,000)×187,955,179,550,112,595,419,009,699,813,430,770,797,465,494,261,977,747,657,257,345,790,6816(84,00,000) \times 187,955,179,550,112,595,419,009,699,813,430,770,797,465,494,261,977,747,657,257,345,790,6816

निष्कर्ष:

  • शीर्षप्रहेलिका तक के वर्षों के काल को संख्यात (गिनने योग्य) या व्यवहारिक काल माना जाता है
  • इसके आगे की गणना असंख्यात काल में आती है, जिसे केवल उपमा (अनुपातिक तुलना) के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है
  • भले ही इसका अवधि मापन निश्चित हो, फिर भी इसे अंकों या गणितीय समीकरण द्वारा दर्शाना संभव नहीं है। 
  • यहाँ तक की कालगणना व्यवहार में गणना किये जा सकनेवाले काल के सम्बन्ध में है. इससे अधिक काल असंख्य और अनंत की श्रेणी में आता है. 
  • असंख्यात काल के दो प्रकार होते हैं:
    1. पल्योपम (Palyaopam)
    2. सागरोपम (Sagaropam)  
पल्योपम, सागरोपम (असंख्यात काल) एवं अनंत काल की चर्चा इसी लेख के दूसरे भाग में करेंगे. 

संक्षेप 

 समय की अवधारणा पुद्गल की गति से सम्बद्ध है।
 पुद्गल की गति अनादि-अनंत है, इसलिए समय भी अनादि-अनंत है
 सभी भौतिक घटनाएँ आकाश में घटित होती हैं, और काल उन्हीं परिवर्तनों से जुड़ा हुआ है
 व्यावहारिक समय (जिसे हम अनुभव करते हैं) पदार्थों के परिवर्तन से उत्पन्न होता है
✅ आवलिका जैन दर्शन की अत्यंत सूक्ष्मतम समय इकाई है, जो आधुनिक वैज्ञानिक गणना से भी अधिक सूक्ष्म है। 
जैन गणना में असंख्यात संख्याओं का प्रयोग किया गया है, जिन्हें गिना नहीं जा सकता
✅ आधुनिक विज्ञान की तुलना में जैन दर्शन की समय गणना अधिक सूक्ष्म है

✅ जैन परंपरा में समय को तीन, चार और विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया गया है
✅ काल की गणना में व्यवहारिक समय से लेकर अनंतकाल तक की गणना दी गई है

✅ काल की गणना 84,00,000 की श्रृंखला में होती है, जो अत्यंत जटिल और विस्तृत है।
✅ माथुरी और वलभी वाचन की गणनाएँ भिन्न हैं, जिसमें अंक और शून्य की संख्या में अंतर है।
✅ शीर्षप्रहेलिका तक का काल "संख्यात" माना जाता है, लेकिन इसके आगे "असंख्यात" हो जाता है।
✅ असंख्यात काल को "पल्योपम" और "सागरोपम" नामक दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक के छह उप-प्रकार हैं।


सन्दर्भ 

सम्पूर्ण जैन वाङमय काल के सन्दर्भों से भरा हुआ है. शायद ही ऐसा कोई जैन आगम या शास्त्र हो जिसमे काल की बात न हो. गणितानुयोग के ग्रन्थ में तो यह और भी अधिक है. तत्वार्थ सूत्र में काल के लक्षण बताये हुए हैं. कर्मग्रन्थ में भी इसका विस्तृत विवरण है. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि कथा साहित्य में भी शलाका पुरुषों की आयु एवं आरों के मान निर्धारण किये गए हैं. 

आभार 

पुज्य जैन आचार्य नंदिघोष सूरी की गुजराती भाषा की पुस्तक "जैन दर्शन ना वैज्ञानिक रहस्यों" में एक पूरा अध्याय काल के सम्बन्ध में है. इस लेख में अनेक सन्दर्भ एवं गणनाएं उसी में से ली हुई है.  

Thanks, 

Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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प्राचीन भारतीय कालगणना: वैदिक और पारंपरिक समय मापन प्रणाली का विस्तृत अध्ययन



घटी यंत्र, नक्षत्र गणना, ऋषियों के अध्ययन और युग चक्रों का अद्भुत समावेश

भूमिका

प्राचीन भारतीय कालगणना एक अत्यंत वैज्ञानिक, विस्तृत और सूक्ष्म प्रणाली थी, जो केवल दैनिक जीवन में समय मापन तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह खगोलीय, प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं के अनुरूप भी थी। आधुनिक समय मापन प्रणाली, जिसमें सेकंड, मिनट और घंटे का प्रयोग होता है, की तुलना में वैदिक प्रणाली अधिक व्यापक थी और यह प्राकृतिक घटनाओं, आकाशीय गति और ब्रह्मांडीय चक्रों पर आधारित थी।

वैदिक परंपरा में समय की गणना अत्यंत बारीक इकाइयों से लेकर विशाल खगोलीय अवधियों तक की जाती थी। इस प्रणाली में समय को तिथि, नक्षत्र, और चंद्र-सौर चक्रों के आधार पर मापा जाता था। वैदिक ग्रंथों में प्रयुक्त विशेष पारिभाषिक इकाइयाँ प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय चक्रों को ध्यान में रखकर परिभाषित की गई थीं। समय मापन की एक महत्वपूर्ण इकाई तिथि थी, जो चंद्रमा की गति पर आधारित होती थी। इसी प्रकार, चंद्र-सौर वर्ष के  चक्र को 12 भागों में विभाजित कर मास अथवा महीने की अवधारणा विकसित की गई थी।

इस लेख में हम प्राचीन भारतीय समय इकाइयों का विस्तार से अध्ययन करेंगे, उनके आधुनिक तुल्यांकन को समझेंगे और उनके वैज्ञानिक एवं धार्मिक महत्व पर प्रकाश डालेंगे।


सूक्ष्मतम समय इकाइयाँ: वैदिक कालगणना का अद्भुत विज्ञान
त्रुटि से पल तक समय की गणना का रहस्य

1. सूक्ष्मतम समय इकाइयाँ

वैदिक कालगणना में समय की सबसे सूक्ष्म इकाई त्रुटि (Truti) से लेकर बड़ी इकाइयों तक फैली हुई थी।


भारतीय इकाईपरिभाषा एवं मापनआधुनिक समय के समकक्ष
त्रुटि (Truti - तुति)सबसे सूक्ष्म समय इकाई133750\frac{1}{33750} सेकंड (~ 29.6 माइक्रोसेकंड)
तत्पर (Tatpara - तत्पर)त्रुटि का थोड़ा बड़ा रूप116875\frac{1}{16875} सेकंड (~ 59.2 माइक्रोसेकंड)
निमेष (Nimesha - निमेष)"आँख झपकने का समय"875\frac{8}{75} सेकंड (~ 0.1067 सेकंड)
क्षण (Kshana - क्षण)8 निमेष~ 0.853 सेकंड
काष्ठा (Kāṣṭhā - काष्ठा)15 क्षण~ 12.8 सेकंड
लव (Lava - लव)15 काष्ठा~ 3.2 मिनट
कला (Kalā - कला)30 निमेष~ 1.6 मिनट
विपल (Vipal - विपल)6 लव~ 19.2 मिनट
पल (Pal - पल)60 विपल (कहीं-कहीं 24 सेकंड भी माना जाता है)~ 19.2 घंटे या 24 सेकंड

2. दिन और रात के मापन के लिए इकाइयाँ

(क) घटिका (Ghatika - घटिका) और मुहूर्त (Muhūrta - मुहूर्त)

  • 1 घटिका = 24 मिनट
  • 1 मुहूर्त = 2 घटिका = 48 मिनट
  • पूरे दिन में 30 मुहूर्त होते हैं
  • प्राचीन काल में समय मापन के लिए जलघटिका (जल-घड़ी) एवं सूर्यघटिका का उपयोग होता था। ऋषिमहर्षि एवं खगोलविद नंगी आँखों से सूर्य-चंद्र-नक्षत्रों की स्थिति देखकर भी समय का ज्ञान कर लेते थे. 

(ख) अहोरात्र (Ahorātra - अहोरात्र)

  • एक दिन और रात को मिलाकर अहोरात्र कहा जाता है, जिसमें 30 मुहूर्त होते हैं।
  • वैदिक समय गणना में दिन सूर्योदय से प्रारंभ होता था, न कि आधी रात से जैसा कि आधुनिक ग्रेगोरियन कैलेंडर में होता है। 
  • सूर्योदय के समय चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार उस दिन की तिथि का निर्धारण होता था. 

भारतीय ऋतु चक्र: 6 ऋतुओं का समाहार 

3. मास, ऋतु, एवं वर्ष

(क) तिथि और चंद्रमास

  • तिथि (Tithi) = चंद्रमा की गति पर आधारित एक दिन
  • एक चंद्रमास में 30 तिथियाँ होती हैं।
  • 12 चंद्रमासों का एक चान्द्रवर्ष होता है, जो नक्षत्रों और चंद्रमा की स्थिति के आधार पर तय किया जाता था।

(ख) ऋतु और सौर वर्ष

  • एक वर्ष को छह ऋतुओं में विभाजित किया गया था:

    1. वसंत (Spring)
    2. ग्रीष्म (Summer)
    3. वर्षा (Monsoon)
    4. शरद (Autumn)
    5. हेमंत (Pre-winter)
    6. शिशिर (Winter). इसे शीत ऋतु भी कहा जाता है. 
  • सौर वर्ष (Solar Year) वह समय है, जिसमें पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। सौरवर्ष चांद्रवर्ष की अपेक्षा लगभग ११ दिन अधिक का होता है. 

(ग) अयन (Ayana) और वर्ष

  • उत्तरायण (सूर्य का मकर राशि में प्रवेश, 6 महीने)
  • दक्षिणायन (सूर्य का कर्क राशि में प्रवेश, 6 महीने)
  • 1 वर्ष = 2 अयन (उत्तरायण + दक्षिणायन) = 12 मास


4. ब्रह्मांडीय और दीर्घकालिक समय इकाइयाँ

(क) युग (Yuga)

  • हिंदू धर्म में समय को चार युगों में विभाजित किया गया है:

    1. सत्ययुग (Satya Yuga) - 1,728,000 वर्ष
    2. त्रेतायुग (Treta Yuga) - 1,296,000 वर्ष
    3. द्वापरयुग (Dvapara Yuga) - 864,000 वर्ष
    4. कलियुग (Kali Yuga) - 432,000 वर्ष
  • चारों युगों का योग 1 महायुग (Mahayuga) = 4,320,000 वर्ष होता है।

(ख) मन्वन्तर (Manvantara)

  • 1 मन्वन्तर = 71 महायुग
  • प्रत्येक मन्वन्तर के अंत में संध्याकाल (Sandhya) होता है।

ब्रह्मा: सृष्टि और काल के अधिपति"
समय, युग, और सृजन का सनातन चक्र

(ग) कल्प (Kalpa)

  • 1 कल्प = 1000 महायुग = 4.32 अरब वर्ष
  • ब्रह्मा का "दिन" 1 कल्प के बराबर माना जाता है।

(घ) ब्रह्मा का जीवनकाल

  • ब्रह्मा का 1 जीवनकाल = 100 ब्रह्मा वर्ष
  • 1 ब्रह्मा वर्ष = 360 कल्प
  • यह वैदिक समय गणना की सबसे बड़ी इकाई है।

5. निष्कर्ष

वैदिक कालगणना के मुख्य बिंदु:

✅ भारतीय समय गणना सौर और चंद्रमा चक्रों पर आधारित थी।
सबसे छोटी इकाई त्रुटि (~29.6 माइक्रोसेकंड) से लेकर सबसे बड़ी इकाई ब्रह्मा के जीवन (311 ट्रिलियन वर्ष) तक फैली हुई थी।
दिन को सूर्योदय से शुरू किया जाता था, न कि आधी रात से।
घटिका (24 मिनट) और मुहूर्त (48 मिनट) का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता था।
समय को ब्रह्मांडीय स्तर तक बढ़ाकर युग, महायुग, मन्वन्तर और कल्प में विभाजित किया गया।

भारतीय समय गणना की वैज्ञानिकता

भारतीय समय मापन प्रणाली केवल धार्मिक उद्देश्यों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह एक खगोलीय, गणितीय, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बहुत उन्नत थी। आर्यभट्ट, भास्कराचार्य और वराहमिहिर जैसे खगोलविदों ने इस प्रणाली का प्रयोग खगोलीय गणनाओं और पंचांग निर्माण में किया।

आज भी, भारतीय पंचांग और वैदिक ज्योतिष इसी प्रणाली पर आधारित हैं, जो इस प्रणाली की उपयोगिता और स्थायित्व को दर्शाता है।

भारतीय खगोलविद्या की समृद्ध विरासत: जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला


संदर्भ स्रोत

  • सूर्य सिद्धांत
  • आर्यभटीय (आर्यभट्ट)
  • पंचांग और वैदिक साहित्य
  • आधुनिक शोध और अनुसंधान पत्र

यह वैदिक कालगणना प्रणाली न केवल भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक प्रगति को दर्शाती है, बल्कि यह आज भी धार्मिक और खगोलीय गणनाओं के लिए प्रासंगिक बनी हुई है.

Thanks, 
Jyoti Kothari 
Proprietor of Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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Friday, February 21, 2025

भारतीय खगोलविद्या की समृद्ध विरासत: जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला

भारत प्राचीन कल से ही खगोलीय गणनाओं के लिए प्रसिद्द है. भद्रवाहु, आर्यभट, बराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त आदि अनेक मनीषियों ने प्राचीन काल में ही भारतीय खगोल विद्या/ ज्योतिर्विद्या एवं गणित का विशिष्ट अध्ययन कर उसके वैज्ञानिक स्वरुप को प्रस्तुत किया। जहाँ भारतीय मनीषियों ने अपने सूक्ष्म मानसिक शक्ति, योग विद्या एवं ध्यान के माध्यम से ज्ञान विज्ञानं को समृद्ध किया वहीँ आवश्यकतानुसार यंत्रों का भी उपयोग किया. मन्त्र, तंत्र एवं यंत्र- भारतीय ज्ञान परंपरा के ये तीन विशिष्ट अंग थे जिन्हे आधुनिक परिभाषा में इस प्रकार देखा जा सकता है. मंत्र (Code), तन्त्र (System), यन्त्र (Machine/ Equipment). 

प्राचीन भारतीय खगोलविद: धूप घड़ी और यंत्रों से तारों की गणना करते हुए

भारतीय खगोलशास्त्रियों ने ज्योतिष की दो विधाएँ विकसित की थी: १. गणित २. फलित. गणित मुख्यतः आकाशीय पिंडों की गति की गणना करता था जबकि फलित उसका मनुष्य जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को बताता था. इन दोनों को पश्चिमी सन्दर्भ में Astronomy एवं Astrology के रूप में देखा जा सकता है. भारत के सभी धर्म/ दर्शन वैदिक/ जैन/ बौद्ध आदि में ज्योतोषीय गणना बहुतायत से देखने को मिलती है. 

भारत की तुलना में पाश्चात्य देशों का खगोलीय अध्ययन अर्वाचीन है. जहाँ भारतीयों ने ईशा पूर्व काल में ही आकाशीय पिंडों के अध्ययन में महारत हासिल कर ली थी वहीँ यूरोप में इसकी शुरुआत १५ वीं शताब्दी के आसपास हुई. वास्तविकता ये है की भारत से ही यह पद्धति अरब देशों से होते हुए यूरोप पहुंची और बाद में उन्होंने मध्यकाल और आधुनिक काल में विकसित किया.  

जंतर मंतर से पहले भारत में वेधशालायें

जंतर मंतर से पहले भी भारत में खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए विभिन्न वेधशालाएँ (Observatories) मौजूद थीं। यह प्राचीन भारत में ज्ञान विज्ञानं की अभिरुचि एवं अध्ययन केंद्रों की मौजूदगी दर्शाते हैं. यूरोप, अमरीका को ही गईं विज्ञानं का केंद्र मानने वाले एवं भारत को अन्धविश्वास का देश समझनेवालों की लिए यह एक आँखें खोलनेवाला तथ्य है. 

  1. प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने गणनाओं के लिए धूप घड़ियों (sundials) और अन्य यंत्रों का प्रयोग किया था।
  2. उज्जैन वेधशाला – प्राचीन भारत में उज्जैन खगोलशास्त्र का एक प्रमुख केंद्र था। यहाँ पर प्राचीन काल से ही खगोलीय गणनाएँ की जाती थीं।
  3. वाराणसी वेधशाला – वाराणसी में भी खगोलीय अध्ययन के लिए उपकरण और संरचनाएँ थीं।
  4. विदिशा और नालंदा में खगोलीय केंद्र – विदिशा और नालंदा में भी खगोलशास्त्र का अध्ययन किया जाता था।

हालाँकि, ये वेधशालाएँ आधुनिक अर्थों में पूरी तरह विकसित वेधशालाएँ नहीं थीं, लेकिन ये खगोलीय गणनाओं के लिए प्रयुक्त होती थीं। जंतर मंतर (1724-1734) भारत में पहली ऐसी वेधशाला थी, जो संगठित रूप से वैज्ञानिक खगोलीय अध्ययन के लिए बनाई गई थी।


प्राचीन भारतीय वेधशालाएँ, जैसे उज्जैन, नौवहन (नेविगेशन), समय गणना और खगोलीय गणनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। विशेष रूप से उज्जैन, खगोल विज्ञान का एक प्रमुख केंद्र था और भारतीय खगोलीय गणनाओं के लिए इसे एक प्रमुख मध्यान्ह (Prime Meridian) माना जाता था।

उज्जैन की वेधशाला का कलात्मक आनुमानिक चित्र 

नौवहन और खगोल विज्ञान में उज्जैन की भूमिका:

  1. भारत की  प्रमुख मध्यान्ह रेखा   (Prime Meridian)

    • प्राचीन काल में उज्जैन को भारत का ग्रीनविच माना जाता था। यह खगोलीय और भौगोलिक गणनाओं के लिए एक संदर्भ बिंदु था।
    • भारतीय खगोलशास्त्रियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले शून्य देशांतर रेखा (Zero Longitude) का यह मुख्य केंद्र था।
  2. नौवहन और समय गणना में उपयोग

    • प्राचीन भारतीय नाविक (नाविक / समुद्रयात्री) तारों की स्थिति का उपयोग कर दिशा ज्ञात करते थे।
    • पंचांग (हिंदू कैलेंडर) और खगोलीय ग्रंथ, नौवहन में सहायक थे, जो ग्रहों की सटीक स्थिति देकर समय और स्थान निर्धारण में मदद करते थे।
    • वेधशालाओं के उपकरणों की सहायता से नाविक अक्षांश (Latitude) ज्ञात कर सकते थे, जो समुद्री यात्रा के लिए महत्वपूर्ण था।
  3. जंतर मंतर और उज्जैन का संबंध

    • महाराजा जय सिंह द्वितीय ने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और वाराणसी में पाँच प्रमुख वेधशालाएँ बनवाईं।
    • इन वेधशालाओं में ऐसे उपकरण थे जो ग्रहों की गति का अध्ययन करने में सहायक थे, जिससे ज्योतिष और नौवहन दोनों में सहायता मिलती थी।
  4. प्राचीन भारतीय खगोलशास्त्री और उनका योगदान

    • वराहमिहिर (505–587 ईस्वी) – उज्जैन के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री, जिन्होंने समय मापन और ग्रहों की गति पर कार्य किया।
    • ब्रह्मगुप्त (598–668 ईस्वी) – उज्जैन वेधशाला के प्रमुख, जिन्होंने अक्षांश और देशांतर गणना में त्रिकोणमिति के उन्नत सूत्रों का उपयोग किया।
    • आर्यभट्ट (476 ईस्वी) – भले ही वे अन्य क्षेत्र से थे, लेकिन उनकी गणनाओं का उज्जैन खगोलशास्त्र पर गहरा प्रभाव पड़ा, विशेषकर पृथ्वी की परिधि और ग्रहों की स्थिति निर्धारण में।
  5. नौवहन के लिए नक्षत्रों (तारामंडल) का उपयोग

    • प्राचीन भारतीय ग्रंथों में वर्णन है कि नक्षत्रों का उपयोग नौवहन में किया जाता था।
    • विशिष्ट तारों के उदय और अस्त होने के समय के आधार पर नाविक अपनी दिशाएँ निर्धारित कर सकते थे, जो भारतीय  नाविकों के महासागर में व्यापार यात्रा के लिए सहायक था। प्राचीन काल से ही भारतीय मध्य पुर्व एशिया, यूरोप, और दक्षिण अमरीकी महाद्वीप तक व्यापारिक यात्रायें करते थे.  
  6. वैश्विक नौवहन पर प्रभाव

    • अरब और यूरोपीय नाविकों ने भारतीय खगोलशास्त्र की पद्धतियों को अपनाया, विशेष रूप से अक्षांश की गणना करने की तकनीक।
    • भारतीय गणितज्ञों के त्रिकोणमिति में योगदान ने बाद में मानचित्र निर्माण (Cartography) और नौवहन को उन्नत किया।

निष्कर्ष

उज्जैन वेधशाला और अन्य प्राचीन वेधशालाएँ समय गणना, खगोलीय शोध और नौवहन में अत्यंत महत्वपूर्ण थीं। वे प्राचीन काल की "GPS प्रणाली" की तरह कार्य करती थीं, जो नाविकों और यात्रियों को तारों की स्थिति के आधार पर सटीक जानकारी प्रदान करती थीं। उज्जैन में विकसित ज्ञान ने भारतीय और वैश्विक खगोलशास्त्र, नौवहन और पंचांग प्रणाली को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया।


यूरोप में ग्रीनविच से पहले की वेधशालायें

हाँ, ग्रीनविच से पहले भी यूरोप में कई वेधशालाएँ थीं।

  1. उरबिनो वेधशाला (इटली, 1478) – यूरोप की प्रारंभिक वेधशालाओं में से एक थी, जहाँ नंगी आँख से तारों का अध्ययन किया जाता था।
  2. टाइको ब्राहे की वेधशाला (डेनमार्क, 1576) – प्रसिद्ध खगोलशास्त्री टाइको ब्राहे ने डेनमार्क में ‘उरानीबोर्ग’ वेधशाला स्थापित की, जहाँ उन्होंने खगोलीय पिंडों की सटीक गणनाएँ कीं।
  3. पेरिस वेधशाला (फ्रांस, 1667) – यह यूरोप की प्रमुख वेधशालाओं में से एक थी और ग्रीनविच वेधशाला से पहले स्थापित हुई थी।
  4. कैसल वेधशाला (जर्मनी, 16वीं शताब्दी) – यह यूरोप में खगोलीय गणनाओं के लिए प्रसिद्ध वेधशाला थी।

ग्रीनविच वेधशाला (1675) यूरोप में पहली वेधशाला नहीं थी, लेकिन यह समुद्री नेविगेशन और समय निर्धारण के लिए सबसे महत्वपूर्ण वेधशाला बनी। विश्वप्रसिद्ध ग्रीनविच वेधशाला के सम्बन्ध में इसी लेख में हम आगे चर्चा करेंगे. 

यहाँ हमें यह तथ्य पता चलता है की यूरोप की पहली वेधशाला सं 1478 में स्थापित हुई थी जबकि उससे 2000 वर्ष पूर्व, ईसापूर्व काल में ही भारत में ही वेधशाला अस्तित्व में आ चुकी थी. यह कोई किंवदंती नहीं अपितु ऐतिहासिक तथ्य है. 

जंतर मंतर: भारत की खगोलीय धरोहर


जयपुर का जंतर मंतर: भारत की वैज्ञानिक धरोहर का प्रतीक

परिचय

जंतर मंतर भारत के विभिन्न स्थानों पर स्थित प्राचीन खगोलीय वेधशालाओं का एक समूह है, जिसे जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने बनवाया था। ये वेधशालाएँ खगोलीय गणनाओं, ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति का अध्ययन करने और समय मापन के लिए निर्मित की गई थीं। जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी और मथुरा में जंतर मंतर की स्थापना हुई थी, लेकिन वर्तमान में केवल चार ही सुरक्षित अवस्था में हैं, जबकि मथुरा का जंतर मंतर नष्ट हो चुका है।

जयपुर का जंतर मंतर

जयपुर का जंतर मंतर सबसे विशाल और सबसे अच्छी स्थिति में संरक्षित है। इसे 1728 से 1734 ईस्वी के मध्य निर्मित किया गया था। इसे 2010 में यूनेस्को द्वारा इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। यह वेधशाला 19 खगोलीय उपकरणों से युक्त है, जिनका उपयोग खगोलीय घटनाओं को मापने के लिए किया जाता था।

प्रमुख यंत्र और उनकी विशेषताएँ

  1. साम्राट यंत्र (Samrat Yantra)

    • यह विश्व की सबसे बड़ी सौर घड़ी (संडायल) है।
    • इसकी ऊँचाई लगभग 27 मीटर है।
    • यह समय को 2 सेकंड के सटीक अंतर तक माप सकता है।
  2. जयप्रकाश यंत्र (Jai Prakash Yantra)

    • दो अर्धगोलाकार संरचनाओं से मिलकर बना यह यंत्र खगोलीय पिंडों की स्थिति का सटीक ज्ञान देता है।
    • इसका उपयोग ज्योतिषीय गणनाओं और राशिचक्र को समझने में किया जाता था।
  3. राम यंत्र (Ram Yantra)

    • इसका उपयोग ऊँचाई और दिशा मापने के लिए किया जाता था।
    • यह वृत्ताकार खंभों से घिरा होता है और आकाश में ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति को मापने में सहायक है।
  4. नाड़ी वलय यंत्र (Nadivalaya Yantra)

    • यह यंत्र दिन और रात के समय को समान रूप से माप सकता है।
    • इसमें दो वृत्ताकार भाग होते हैं, जो सूर्य की छाया से समय को दर्शाते हैं।
  5. दिगंश यंत्र (Digamsa Yantra)

    • इसका उपयोग सूर्य और अन्य ग्रहों की उगने और अस्त होने की दिशा को मापने के लिए किया जाता था।
  6. कृतिय वृत यंत्र (Kranti Vritta Yantra)

    • इसका उपयोग विषुवत रेखा और अन्य खगोलीय समतलों के झुकाव को मापने के लिए किया जाता था।
जंतर मंतर में अध्ययन करते मध्यकालीन विदेशी खगोलविद 

अन्य स्थानों पर स्थित जंतर मंतर

स्थाननिर्माण वर्षप्रमुख यंत्रस्थिति
दिल्ली172413 यंत्रअच्छी स्थिति में
उज्जैन17256 यंत्रआंशिक रूप से संरक्षित
वाराणसी17374 यंत्रपुनर्निर्मित/संरक्षित 
मथुरा1730अज्ञात
नष्ट हो चुका

क्या जंतर मंतर में दूरबीन (टेलीस्कोप) थी?

नहीं, जंतर मंतर में किसी भी प्रकार की दूरबीन (टेलीस्कोप) का प्रयोग नहीं किया गया था। यह वेधशाला पूरी तरह से नग्न आँख (naked eye observation) से खगोलीय गणनाओं के लिए डिज़ाइन की गई थी।

1. जंतर मंतर की खगोलीय विधि

  • जंतर मंतर (1728-1734) का निर्माण जयपुर नगर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने करवाया था। वे स्वयं भी ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित थे. उन्होंने ज्योतिष शास्त्र एवं खगोल विद्या पर जयसिंह कारिका एवं जीज मोहम्मद शाही नमक पुस्तकों की रचना की थी. 
  • यहाँ के सभी यंत्र विशाल पत्थर, धातु और ईंटों से बनाए गए थे, जो आकाशीय पिंडों की स्थिति को मापने के लिए थे।
  • कोणों, छायाओं और सूर्योदय-सूर्यास्त की गणना के लिए इन्हें बनाया गया था।
  • ये यंत्र तब तक उपयोग में थे जब तक दूरबीन का प्रचलन नहीं बढ़ा।

2. दूरबीन की अनुपस्थिति क्यों?

  • टेलीस्कोप का आविष्कार 1608 में हुआ था और 17वीं शताब्दी के अंत तक यूरोप में खगोलशास्त्र में इसका उपयोग शुरू हो गया था।
  • हालांकि, सवाई जय सिंह द्वितीय ने जंतर मंतर में पारंपरिक भारतीय और इस्लामी खगोलीय गणनाओं पर जोर दिया, जो नग्न आँख से की जाती थीं।
  • टेलीस्कोप मुख्य रूप से यूरोप में समुद्री नेविगेशन और विस्तृत तारकीय अध्ययन के लिए प्रचलित था, जबकि जंतर मंतर ज्योतिषीय गणना और पंचांग में सुधार के लिए बनाया गया था।

ग्रीनविच वेधशाला: एक संक्षिप्त विवरण

ग्रीनविच वेधशाला (Royal Greenwich Observatory) ब्रिटेन के लंदन शहर के ग्रीनविच क्षेत्र में स्थित एक ऐतिहासिक खगोलीय वेधशाला है। इसकी स्थापना 1675 ईस्वी में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय (Charles II) के आदेश पर की गई थी। इसका उद्देश्य समुद्री नेविगेशन और खगोलीय गणनाओं को सटीक बनाने के लिए किया गया था।

इतिहास और विकास

  • वेधशाला के पहले निदेशक खगोलशास्त्री जॉन फ्लैमस्टीड (John Flamsteed) थे, जिन्होंने यहां से महत्वपूर्ण खगोलीय मानचित्र तैयार किए।
  • 18वीं और 19वीं शताब्दियों में, ग्रीनविच वेधशाला ने समय मापन और लंबे-चौड़े समुद्री नेविगेशन में क्रांतिकारी योगदान दिया।
  • 1884 ईस्वी में, ग्रीनविच मेरिडियन (0° देशांतर) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानक समय रेखा घोषित किया गया, जिसे आज ग्रीनविच मीन टाइम (GMT) के रूप में जाना जाता है।
  • 20वीं शताब्दी में, प्रकाश प्रदूषण और शहरीकरण के कारण वेधशाला को कैम्ब्रिज और फिर ससेक्स स्थानांतरित कर दिया गया।

मुख्य विशेषताएँ

  • ग्रीनविच मेरिडियन (Prime Meridian) – यह रेखा विश्व के समय और देशांतर रेखाओं का आधार बनी।
  • आधुनिक खगोलीय यंत्रों का उपयोग – टेलीस्कोप, घड़ियाँ और अन्य उन्नत यंत्रों के माध्यम से ग्रहों और तारों की स्थिति मापी जाती थी।
  • टाइमकीपिंग (समय मापन) – यहां से प्राप्त समय का उपयोग ब्रिटिश नौसेना और रेलवे ने लंबे समय तक किया।

18वीं शताब्दी की ग्रीनविच वेधशाला: आधुनिक खगोलशास्त्र का केंद्र

महत्व

ग्रीनविच वेधशाला का वैज्ञानिक योगदान अमूल्य है। यह वेधशाला आज भी खगोलशास्त्र, समय गणना और भूगोल के अध्ययन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वर्तमान में इसे एक संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया है और यह अंतरराष्ट्रीय समय निर्धारण और ऐतिहासिक शोध का प्रमुख केंद्र बना हुआ है।

क्या जयपुर के जंतर मंतर में 18वीं शताब्दी में ग्रीनविच से अधिक यंत्र थे?

18वीं शताब्दी में जयपुर का जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला दोनों खगोलशास्त्र के महत्वपूर्ण केंद्र थे। यह कहा जाता है कि जयपुर के जंतर मंतर में उस समय ग्रीनविच वेधशाला की तुलना में अधिक खगोलीय यंत्र (इंस्ट्रूमेंट्स) मौजूद थे। इस दावे की सच्चाई को ऐतिहासिक तथ्यों और उपलब्ध संसाधनों के आधार पर समझा जा सकता है।

1. यंत्रों की संख्या की तुलना

विशेषताजंतर मंतर (जयपुर)ग्रीनविच वेधशाला
निर्माण वर्ष1728-17341675
प्रमुख यंत्रों की संख्या19लगभग 10-12
मापन विधिनग्न आँख से छाया और कोण गणनादूरबीन व यांत्रिक घड़ियाँ
समय मापन की सटीकता2 सेकंड तक1 से 2 सेकंड तक (1861 के बाद)
उद्देश्यखगोलीय अध्ययन, समय मापन, ज्योतिषीय गणनासमुद्री नेविगेशन, तारों की स्थिति निर्धारण

जंतर मंतर में ग्रीनविच की तुलना में अधिक संख्या में यंत्र थे. यहाँ विशाल पत्थर और धातु के उपकरणों का उपयोग किया गया था, जो खुले वातावरण में कार्य करते थे। वहीं, ग्रीनविच वेधशाला में टेलीस्कोप और यांत्रिक घड़ियों का अधिक प्रयोग होता था। यह तथ्य चमत्कृत करता है की यूरोपीय विज्ञानं एवं तकनीक का उपयोग किये बगैर विशाल पत्थरों से बने उपकरण इतनी सूक्ष्म गणना कर सटीक फल देते थे.  

2. तकनीक

जयपुर के जंतर मंतर में अधिक यंत्र थे, विशाल संरचनाएँ थीं जो नग्न आँख से खगोलीय गणनाओं के लिए उपयुक्त थीं। लेकिन ग्रीनविच वेधशाला की तकनीक उससे भिन्न थी। ग्रीनविच में दूरबीन (टेलीस्कोप), मेरिडियन सर्कल और अत्यधिक सटीक घड़ियाँ थीं, जो अधिक सूक्ष्म गणनाएँ कर सकती थीं। हालाँकि जंतर मंतर के निर्माण के समय तक उनकी यांत्रिक घड़ियाँ उतना सटीक समय नहीं दे पाता था. 1861 के बाद ही 1 -2 सेकंड तक का सटीक समय देनेवाली घड़ियों का निर्माण हुआ. विस्तृत विवरण अगले पैराग्राफ में देख सकते हैं.   

3. उपयोगिता और सीमाएँ

  • जयपुर के जंतर मंतर का मुख्य उद्देश्य खगोलीय गणना, पंचांग निर्माण और ज्योतिषीय अध्ययन करना था। यह नग्न आँख से खगोलीय अवलोकन के लिए डिजाइन किया गया था।
  • ग्रीनविच वेधशाला का मुख्य रूप से समुद्री नेविगेशन, खगोलीय पिंडों की सटीक स्थिति निर्धारण और अंतरराष्ट्रीय समय मापन के लिए प्रयोग किया जाता था.

4. निष्कर्ष

18वीं शताब्दी में जयपुर के जंतर मंतर में यंत्रों की संख्या अधिक थी, जिसके कारण वह अधिक आकाशीय पिंडों का विशिष्ट अध्ययन कर सकता था. हालाँकि ग्रीनविच वेधशाला की तकनीक भी उन्नत थी। यंत्रों की संख्या को देखा जाए, तो जयपुर का जंतर मंतर आगे था. यह पूरी तरह से भारत के पारम्परिक खगोल विद्या के अनुसार था. जबकि ग्रीनविच अलग उद्देश्यों से स्थापित किया गया था एवं उसीके अनुसार उसमे  आधुनिक तकनीक का उपयोग किया गया था। दोनों वेधशालाओं की उपयोगिता और संरचना उनके उद्देश्यों के अनुसार भिन्न थी, इसलिए सीधी तुलना पूरी तरह उपयुक्त नहीं होगी।

  • जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला: प्राचीन और आधुनिक खगोलविद्या की तुलना
  • जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला: तुलनात्मक समीक्षा 

    जंतर मंतर और इंग्लैंड की ग्रीनविच वेधशाला (Greenwich Observatory) के बीच कई महत्वपूर्ण समानताएं एवं  अंतर थे:. दोनों वेधशालाओं की तकनीक, सटीकता, पर्यवेक्षण पद्धति की तुलना करने से हमें भारत और इंग्लॅण्ड की वेधशालाओं के सम्बन्ध में सटीक जानकारी प्राप्त हो सकती है. 

    1. तकनीक

      • ग्रीनविच वेधशाला में दूरबीन और यांत्रिक घड़ियों का उपयोग किया जाता था, जबकि जंतर मंतर में केवल सौर यंत्रों और छाया गणना का उपयोग किया गया।
    2. सटीकता

      •  जयपुर का साम्राट यंत्र मात्र 2 सेकंड की त्रुटि के साथ समय बता सकता था, जो तत्कालीन समय के लिए एक अद्भुत उपलब्धि थी। इसकी तुलना उस समय की ग्रीनविच से पहले ही की गई है. 
    3. पर्यवेक्षण पद्धति

      • ग्रीनविच में खगोलीय पिंडों को देखने के लिए टेलीस्कोप और अन्य उपकरणों का उपयोग किया जाता था, जबकि जंतर मंतर में पूर्णतः खुले आकाश के नीचे गणना की जाती थी।

    खगोलीय अध्ययन में जंतर मंतर का महत्व और योगदान

    • जंतर मंतर ने भारतीय खगोलशास्त्र को एक नई दिशा दी और ग्रहों-नक्षत्रों की स्थिति मापन को सरल बनाया।
    • यह वेधशाला केवल गणना तक सीमित नहीं थी, बल्कि ज्योतिष और धार्मिक कार्यों के निर्धारण में भी इसका महत्व था।
    • जयपुर में महाराजाओं के काल में यंत्रालय नाम से एक विभाग था जो जंतर मंतर के कार्यों का व्यवस्थित रूप से देखभाल करता था. 
    • आज भी वर्षा की भविष्यवाणी करने के लिए जयपुर के ज्योतिषी गैन यहाँ एकत्रित होते हैं. 
    • वर्तमान में, जयपुर का जंतर मंतर पर्यटकों, शोधकर्ताओं और खगोलशास्त्रियों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल है।

    निष्कर्ष

    जंतर मंतर भारतीय वैज्ञानिक परंपरा और खगोलशास्त्र की समृद्ध धरोहर का प्रतीक है। इसकी विशाल संरचनाएँ और सटीक गणना पद्धति इसे अद्वितीय बनाती है। जयपुर का जंतर मंतर विशेष रूप से अपनी संरचना और उपकरणों की उत्कृष्टता के कारण विश्व की सबसे विकसित प्राचीन वेधशालाओं में गिना जाता है

    जंतर मंतर एवं ग्रीनविच की घड़ियों की सटीकता 

    अनेक स्थानों पर ऐसा कहा जाता है की ग्रीनविच की घड़ियाँ मिलीसेकंड तक की सटीकता प्रदान करती थी जबकि जंतर मंतर के यंत्रों से २ सेकंड तक की सटीकता ही मिलती थी. इस आधार पर जंतर मंतर को दोयम दर्ज़े का सिद्ध करने का प्रयास होता है. परन्तु वास्तविकता क्या है?

    क्या 18वीं शताब्दी में ग्रीनविच की घड़ियाँ मिलीसेकंड की सटीकता प्रदान कर सकती थीं?

    नहीं,  यद्यपि वे अपने समय की सबसे उन्नत समय मापन उपकरणों में से एक थीं, लेकिन उनकी सटीकता उस युग में उपलब्ध यांत्रिक घड़ियों की तकनीक तक ही सीमित थी।

    18वीं शताब्दी में ग्रीनविच घड़ियों की सटीकता

    1. हैरिसन के मरीन क्रोनोमीटर (John Harrison, 1760s)

    • 18वीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ समय मापन उपकरणों में से एक मरीन क्रोनोमीटर था, जिसे जॉन हैरिसन ने विकसित किया था (H4 मॉडल, 1761)।
    • ये क्रोनोमीटर 1-2 सेकंड प्रति दिन की सटीकता प्राप्त कर सकते थे, जो उस समय के लिए एक क्रांतिकारी उपलब्धि थी।
    • हालांकि, यह सटीकता मिलीसेकंड के स्तर से बहुत दूर थी।

    2. ग्रीनविच वेधशाला की घड़ियाँ

    • ग्रीनविच वेधशाला ने थॉमस टॉम्पियन और जॉर्ज ग्राहम द्वारा बनाई गई लंबा दोलन करने वाली पेंडुलम घड़ियों (Pendulum Clocks) का उपयोग किया।
    • 18वीं शताब्दी के मध्य तक, सबसे उन्नत प्रिसिजन पेंडुलम क्लॉक्स (जैसे ग्राहम की रेगुलेटर घड़ियाँ) एक दिन में कुछ अंश सेकंड की सटीकता प्रदान कर सकती थीं, लेकिन वे मिलीसेकंड तक नहीं पहुँच सकती थीं।

    3. मापन की सीमाएँ

    • 18वीं शताब्दी में समय मापन की विधियाँ यांत्रिक घड़ियों, सूर्योघट (sundials), और टेलीस्कोप के माध्यम से तारा संचरण (star transits) पर आधारित थीं।
    • उस समय ग्रीनविच मीन टाइम (GMT) प्रणाली विकसित हो रही थी, लेकिन उपलब्ध तकनीक के माध्यम से मिलीसेकंड की सटीकता को मापने का कोई तरीका नहीं था।

    निष्कर्ष

    यद्यपि 18वीं शताब्दी में ग्रीनविच वेधशाला समय मापन में अग्रणी थी, यह दावा कि उस समय इसकी घड़ियाँ मिलीसेकंड की सटीकता प्रदान कर सकती थीं, गलत है। उस समय उपलब्ध सर्वोत्तम तकनीक 1-2 सेकंड प्रति दिन की सटीकता तक सीमित थी, जो फिर भी पिछले युगों की तुलना में एक बड़ी प्रगति थी। मिलीसेकंड स्तर की सटीकता केवल क्वार्ट्ज घड़ियों (1920 के दशक) और परमाणु घड़ियों (1950 के दशक) के आने के बाद ही संभव हो पाई।

    प्राचीन भारतीय वेधशाला: जंतर मंतर के समान विशाल पत्थर यंत्रों द्वारा खगोलीय गणनाएँ करते भारतीय मनीषी 





    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
     (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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