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Saturday, March 1, 2025

॥ अथ श्री सांगानेर मण्डण ऋषभदेव स्तोत्रम् ॥


श्री ऋषभदेव भगवान्  युग के  से आदिनाथ कहलाते हैं. वे प्रथम तीर्थंकर हैं. इस अवसर्पिणी काल में नाभिराजा के वंश में मरुदेवी माता की कुक्षि से अवतरित होकर समस्त मानव जाति को असि, मसि, कृषि का ज्ञान देकर शिक्षित किया. पुरुषों की 72 एवं स्त्रियों की 64 कलाएं सिखलाई. 

दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त किया और महान ऐश्वर्य युक्त समवशरण में स्फटिक सिंहासन पर विराजमान होकर धर्मोपदेश दिया. चतुर्विध संघ की स्थापना कर तीर्थंकर बने. इस भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में प्रथम बार मोक्षमार्ग का प्रवर्तन किया. 

इस भक्तिपूर्ण स्तोत्र में श्रद्धायुक्त चित्त से रचयिता ज्योति कोठारी ने ऐसे देवाधिदेव श्री ऋषभदेव प्रभु के महान एवं अकल्पनीय, गुणों का वर्णन किया है. वेदांत दर्शन में ब्रह्म (ब्रम्ह, ब्रम्हा से भिन्न हैं) को सर्वोच्च माना है. इस स्तोत्र में सर्वप्रथम आदिनाथ को परम ब्रम्ह के रूप नमन किया गया है. क्रमशः देवाधिदेव में ब्रम्हा, विष्णु, प्रजापिता, शंकर, रूद्र, गणेश, गरुड़, महेश्वर, आद्याशक्ति महामाया, देवी काली, महाकाल, आदि सभी वैदिक देवों के गन ऋषभदेव में हैं ऐसा वर्णन है. 

विशेष रूप से पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल एवं आकाश सृस्टि के इन पञ्च महाभूतों एवं इनके अधिष्ठायक देवों का भी वर्णन है. समस्त भवरोगों का नाश करनेवाले देववैद्य अश्वनीकुमार भी आप ही हैं. आप ही बुद्ध और सम्यक सम्बुद्ध हैं. सरस्वती और लक्ष्मी आप ही में निवास करती है. इस प्रकार सर्व डिवॉन के पूज्य आप ही देवाधिदेव हैं. 

जयपुर नगर के सांगानेर स्थित 1000 वर्ष प्राचीन श्री ऋषभदेव प्रासाद एवं 500 वर्ष प्राचीन श्री चन्द्रप्रभ जिनालय के ध्वजारोहण के मंगल प्रसंग पर, स्वयं एवं भव्यजीवों के कल्याण हेतु यह सारगर्भित स्तोत्र प्रकाशित किया गया है. कल्याणमस्तु !! श्रीरस्तु !!


॥ अथ श्री सांगानेर मण्डण ऋषभदेव स्तोत्रम् ॥

शुद्धं जिनं ज्ञाननिधानमाद्यं।
संसारभूतेषु दयाप्रधानम्॥
ब्रह्मेव संकल्पधुरं वहन्तं।
ऋषभं नमामि जिनेश्वरं तम्॥ १॥

नाभिस्वरूपात् समजायतासौ।
लोकस्य धातुः प्रथमो विभूतिः॥
प्रजापतेः कर्मपथे स्थितो यः।
स ऋषभोऽयं भवपारदात्रः॥ २॥

विष्णोर्निरस्ताशुभकर्मपाशः।
धर्मस्य यो लोकगुरोः समर्थः॥
राज्ये स्थितो लोकहिताय यश्च।
स ऋषभोऽयं प्रणतिं विधेहि॥ ३॥

गणेश्वरः सञ्जनसंप्रदातः।
संघस्य नाथो मुनिभिः सुपूज्यः॥
ज्ञानं प्रदत्तं जनलोकमार्गे।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ४॥

गर्वेण मत्स्योद्धतहृद्गतेषु।
नष्टेऽपि धर्मे सततं स्थितात्मा॥
यो गरुडोऽयं विषनाशहेतोः।
तं वन्दते वीतरागो वरिष्ठः॥ ५॥

धत्ते निजे दंष्ट्रकृते परात्मा।
संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
रुद्रः स्वयं मोहनिवारणाय।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ६॥

कान्तिप्रदं मोहविनाशकर्तुं।
शं योगिनां सत्यपथस्य गुप्तिम्॥
धर्मस्य यः स्थापयिता पुराणः।
स शंकरोऽयं प्रणमामि नित्यम्॥ ७॥

ईशो नृणामर्थविधेरधिष्ठानम्।
कर्माणि नाशं विधिवद्विधत्ते॥
धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धं।
महेश्वरं तं प्रणमामि नित्यम्॥ ८॥

संहारकर्ते भववासनायाः।
मोक्षस्य यो मूलमहः प्रभूतम्॥
आद्या स शक्तिः सकलेन्द्रियाणां।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ९॥

दैत्यस्य यो मोहविनाशहेतोः।
सत्यं प्रकाशं परमार्थमार्गे॥
काली समस्ताशुभनाशिनी या।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १०॥

योगेश्वरो ध्यानपरः स नित्यं।
संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
महाकालः कालविनाशहेतोः।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ११॥

दिव्याननं सर्वविलक्षणं यः।
वरदं वर्यं परमं विशुद्धम्॥
वरुणस्वरूपं भवसिन्धुपारं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १२॥

अग्निः स्वयं कर्मविनाशहेतोः।
शुक्लस्य धाता परमार्थसिद्धिम्॥
तप्तं तपो यो भुवने विधत्ते।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १३॥

क्षान्तिप्रदं सर्वसुखानुकूलं।
धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
पृथ्वीसमं योऽपि दयाविधानं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १४॥

अशेषगुण्यान्वितसत्स्वरूपम्।
आकाशवत्तत्त्वमसंशयं यः॥
आकाशसंसारमहादरिद्रं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १५॥

वातात्मजः शुद्धगुणप्रदातः।
मारुत्सुतो यः समदर्शनाय॥
भवाब्धिपारे स्थिरबोधमार्गे।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १६॥

रोगस्य नाशं परमं प्रदातुम्।
अश्विन्यभिख्यातमधर्मरूपम्॥
लोकस्य शुद्धिं प्रथयन्तमाद्यं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १७॥

बुद्धः स्वयं योगविदां वरिष्ठः।
ज्ञानस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
सम्यक्समार्गेण जनेषु पूज्यः।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १८॥

स्फटिकसिंहासनमास्तु यस्य।
छत्रत्रयं चामरयुग्ममेतत्॥
देवासुरैश्चाभिवन्द्यमानम्।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १९॥

सरस्वती यत्र वचः प्रवृत्तम्।
लक्ष्म्या च युक्तं परमं विशुद्धम्॥
सर्वेश्वरेशं परमार्थबोधं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ २०॥

धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्।
सर्वात्मतत्त्वं करुणाप्रधानम्॥
सर्वज्ञमार्गे स्थितबोधयन्तं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ २१॥

सांगानेरे श्री ऋषभप्रसादे।
साहस्रवर्षप्रतिपत्तिशुद्धे॥
चन्द्रप्रभे पञ्चशताब्दिवन्द्ये।
नत्वाऽर्पयामः प्रणतिं जिनेभ्यः॥ २२॥

ध्वजार्पणे मङ्गलमादधाने।
देवैर्युतं पुण्यगणैः ससंघैः॥
स्तोत्रं मया भावनया वितन्यं।
शरण्यतां नौ जिननाथ एकः॥ २३॥

यस्मै जिनेन्द्राय वरं प्रकाशम्।
यो मे व्यदाद् तत्वविदां वरिष्ठः॥
ज्योतिर्भवानेन कृपातिशक्त्या।
तस्मै नमस्ते ऋषभाय नित्यम्॥ २४॥

॥ अथ श्री सांगानेर मण्डण ऋषभदेव स्तोत्रम् अर्थम् ॥


(1)

🔸 शुद्धं जिनं ज्ञाननिधानमाद्यं।
🔸 संसारभूतेषु दयाप्रधानम्॥
🔸 ब्रह्मेव संकल्पधुरं वहन्तं।
🔸 ऋषभं नमामि जिनेश्वरं तम्॥

📜 अर्थ:
जो पूर्णतया शुद्ध, संपूर्ण ज्ञान के भंडार, संसार के प्राणियों के प्रति करुणा रखने वाले, तथा धर्मरूपी संकल्प को धारण करने वाले हैं, ऐसे भगवान ऋषभदेव को मैं नमन करता हूँ।

भगवान ऋषभदेव संपूर्ण ज्ञान के दाता और मोक्षमार्ग के प्रथम उपदेशक होने से ब्रह्मस्वरूप हैं. 


(2)

🔸 नाभिस्वरूपात् समजायतासौ।
🔸 लोकस्य धातुः प्रथमो विभूतिः॥
🔸 प्रजापतेः कर्मपथे स्थितो यः।
🔸 स ऋषभोऽयं भवपारदात्रः॥

📜 अर्थ:
जो राजा नाभिराज के पुत्र रूप में प्रकट हुए, जो लोक में पहले महान विभूति हैं, जिन्होंने कर्म के मार्ग को मोक्ष की ओर प्रवाहित किया, वे ऋषभदेव ही संसार सागर से पार उतारने वाले हैं। जैसे ब्रह्मा (प्रजापिता) विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए वैसे ही आप भी नाभिराजा के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए हैं. समस्त प्रजा को लोकधर्म एवं आत्मधर्म की शिक्षा देने के कारण आप ही वास्तविक प्रजापिता हैं. 


भगवान ऋषभदेव पहले तीर्थंकर थे और उन्होंने ही मोक्षमार्ग का प्रथम उपदेश दिया। अपनी राज्यावस्था में तत्कालीन प्रजा को असि, मसि, कृषि, पुरुषों की 72 एवं स्त्रियों की 64 कलाओं का ज्ञान प्रदान कर इस भरत भूमि को कर्मभूमि बनाया था. 


(3)

🔸 विष्णोर्निरस्ताशुभकर्मपाशः।
🔸 धर्मस्य यो लोकगुरोः समर्थः॥
🔸 राज्ये स्थितो लोकहिताय यश्च।
🔸 स ऋषभोऽयं प्रणतिं विधेहि॥

📜 अर्थ:
जिन्होंने अशुभ कर्मों के बंधनों को समाप्त किया, जो धर्म के आचार्य और लोकगुरु हैं, जो पहले राजसत्ता संभालकर लोकहित में कार्यरत हुए, ऐसे ऋषभदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। जिस प्रकार विष्णु को जगत का पालनकर्ता कहा गया है वैसे ही आपने राज्यावस्था में प्रजापालन किया एवं  तीर्थंकर बनने के बाद धर्मराज्य (चतुर्विध संघ) का संचालन किया. 


ऋषभदेव ने राज्य व्यवस्था को सुसंगठित किया और फिर सन्यास धारण किया


(4)

🔸 गणेश्वरः सञ्जनसंप्रदातः।
🔸 संघस्य नाथो मुनिभिः सुपूज्यः॥
🔸 ज्ञानं प्रदत्तं जनलोकमार्गे।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो समाज के प्रथम प्रवर्तक, संघ के नायक, मुनियों द्वारा वंदनीय, एवं जिन्होंने ज्ञान का प्रकाश मानव समाज को प्रदान किया, ऐसे जिनेश्वर की मैं शरण लेता हूँ। जिस प्रकार गणेश प्रथम पूज्य देवता माने जाते हैं वैसे ही आप भी लोक में प्रथम पूज्य हैं. धर्म संघ (गण) को धारण करने वाले एवं धर्मसंघ के स्वामी आप ही गणेश्वर और गणपति हैं. 

भगवान ऋषभदेव ने  अवसर्पिणी काल में प्रथम बार साधु, साध्वी, श्रावक, और श्राविकाओं के संघ की स्थापना की।


(5)

🔸 गर्वेण मत्स्योद्धतहृद्गतेषु।
🔸 नष्टेऽपि धर्मे सततं स्थितात्मा॥
🔸 यो गरुडोऽयं विषनाशहेतोः।
🔸 तं वन्दतां वीतरागो वरिष्ठः॥

📜 अर्थ:
जो गर्वरूपी मत्स्य (अहंकार के कारण डूबे हुए जीवों) को उद्धार करने वाले, धर्म के नष्ट हो जाने पर भी स्थिर रहते हैं, जो संसार रूपी विष का नाश करने वाले हैं, ऐसे श्रेष्ठ वीतराग ऋषभदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।

तीर्थंकर ऋषभदेव ने अहंकार, मोह और अज्ञान का नाश कर धर्म की स्थापना की


(6)

🔸 धत्ते निजे दंष्ट्रकृते परात्मा।
🔸 संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
🔸 रुद्रः स्वयं मोहनिवारणाय।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो स्वयं अपने तप और ज्ञान के तेज से संसार का नाश करने में प्रवृत्त हैं, जो मोह को समाप्त करने वाले हैं, ऐसे भगवान जिनेंद्र की मैं शरण लेता हूँ। जैसे रूद्र का क्रोध अति भयंकर होता है उसी प्रकार  आपने अपने तेज से मोहनीय कर्म एवं संसारवासना का नाश किया है. 

ऋषभदेव अज्ञान और मोह का नाश कर सच्चे ज्ञान का प्रकाश लाने वाले हैं


(7)

🔸 कान्तिप्रदं मोहविनाशकर्तुं।
🔸 शं योगिनां सत्यपथस्य गुप्तिम्॥
🔸 धर्मस्य यः स्थापयिता पुराणः।
🔸 स शंकरोऽयं प्रणमामि नित्यम्॥

📜 अर्थ:
जो मोहरूपी अंधकार को समाप्त कर कान्ति (ज्ञान) प्रदान करने वाले हैं, जो योगियों के लिए शांति स्वरूप हैं, जिन्होंने धर्म की स्थापना की, ऐसे भगवान को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। धर्म की स्थापना कर जगत का कल्याण (शं) करने के कारण हे प्रभु! आप ही शंकर हैं. 

ऋषभदेव योग, संयम, ध्यान और तप के मूल होने से परम कल्याणकारी हैं. 

(8)

🔸 ईशो नृणामर्थविधेरधिष्ठानम्।
🔸 कर्माणि नाशं विधिवत्करोति॥
🔸 धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धं।
🔸 महेश्वरं तं प्रणमामि नित्यम्॥

📜 अर्थ:
जो समस्त प्राणियों के कर्मों के फल को विधिवत नष्ट करने वाले, धर्म के मूल स्वरूप, परम विशुद्ध, एवं सच्चे महेश्वर (सर्वोच्च भगवान) हैं, उन ऋषभदेव को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

ऋषभदेव मोक्षमार्ग के प्रथम प्रदर्शक थे, जिन्होंने संसार को कर्मों के बंधन से मुक्त होने की विधि बताई


(9)

🔸 संहारकर्ते भववासनायाः।
🔸 मोक्षस्य यो मूलमहः प्रभूतम्॥
🔸 आद्या स शक्तिः सकलेन्द्रियाणां।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो भववासनाओं (संसार की इच्छाओं) का संहार करने वाले, मोक्ष के परम तेजस्वी स्वरूप, एवं समस्त इंद्रियों पर संयम रखने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। भववासना का संहार करनेवाले आप ही आद्या शक्ति स्वरुप हैं. 

यह श्लोक भगवान ऋषभदेव की महान तपशक्ति और संयम पर बल देता है


(10)

🔸 दैत्यस्य यो मोहविनाशहेतोः।
🔸 सत्यं प्रकाशं परमार्थमार्गे॥
🔸 काली समस्ताशुभनाशिनी या।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो मोह और अज्ञान के नाशक, सत्य एवं प्रकाश के दाता, एवं समस्त अशुभ कर्मों का नाश करने वाले हैं, उन जिनेन्द्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जिस प्रकार देवी काली रक्तवीज रूप  प्रकार आप भी मोहरूपी दैत्यों का संहार कर समस्त अशुभ का नाश करनेवाले हैं. 

भगवान ऋषभदेव ने अज्ञान-मोह रूपी अंधकार को समाप्त कर सत्य मार्ग का प्रकाश फैलाया


(11)

🔸 योगेश्वरो ध्यानपरः स नित्यं।
🔸 संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
🔸 महाकालः कालविनाशहेतोः।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो योगियों के स्वामी, सदा ध्यानमग्न, संसार नाश करने में प्रवृत्त, एवं काल के भी विनाशक हैं, उन जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। आपने मोक्ष जाकर अजर अमर पद प्राप्त किया. काल अर्थात मृत्यु का ही नाश कर दिया, अतः आप ही महाकाल हैं. 

भगवान ऋषभदेव ध्यान योग और मोक्ष मार्ग के प्रथम उपदेशक थे।


(12)

🔸 दिव्याननं सर्वविलक्षणं यः।
🔸 वरदं वर्यं परमं विशुद्धम्॥
🔸 वरुणस्वरूपं भवसिन्धुपारं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो दिव्य स्वरूप वाले, सबसे अलग, श्रेष्ठतम, मोक्षमार्ग में पार लगाने वाले हैं, उन जिनेन्द्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। दुस्तर भवसिंधु से पार लगानेवाले आप ही वरुण देव हैं. 

ऋषभदेव मोक्षमार्ग के द्वारा संसार रूपी समुद्र से पार लगाने वाले परम ज्ञानी हैं।


(13)

🔸 अग्निः स्वयं कर्मविनाशहेतोः।
🔸 शुक्लस्य धात्रं परमार्थसिद्धिम्॥
🔸 तप्तं तपो यो भुवने विदध्यात्।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो स्वयं अग्निरूप होकर अशुभ कर्मों का नाश करते हैं, जो शुक्ल ध्यान के धारक एवं मोक्ष के प्रदाता हैं, जो तपस्या को अपने जीवन का आधार बनाकर संसार को तपोमय बनाते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण लेता हूँ। तप की अग्नि से जिन्होंने अपने समस्त कर्म को नष्ट किया वे श्री ऋषभ देव ही वास्तविक अग्निदेव हैं. 

भगवान ऋषभदेव ने महान तप किया और संसार को संयम, तप और ध्यान का मार्ग दिखाया


(14)
🔸 क्षान्तिप्रदं सर्वसुखानुकूलं।
🔸 धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
🔸 पृथ्वी समं योऽपि दयाविधानं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो क्षमा और शांति प्रदान करने वाले हैं, जो समस्त सुखों के अनुकूल धर्म के मूल स्वरूप हैं, जो पृथ्वी की भांति सहनशील और दयावान हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

पृथ्वी धैर्य, सहनशीलता और पोषण का प्रतीक है, इसी प्रकार ऋषभदेव भी असीम धैर्य और दया से युक्त हैं।


(15)

🔸 अशेषगुण्यान्वितसत्त्रधाम।
🔸 आकाशवत्तत्त्वमसंशयं यः॥
🔸 आकाशसंसारमहादरिद्रं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो संपूर्ण गुणों से परिपूर्ण हैं, जो आकाश की भांति अनंत और शुद्ध तत्वस्वरूप हैं, जो संसार रूपी विपत्ति के आकाश में मोक्ष का प्रकाश फैलाने वाले हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

आकाश असीम और अकलुष (निर्मल) होता है, इसी प्रकार ऋषभदेव भी निर्मल, असीम ज्ञानस्वरूप और अनंतगुणी हैं।


(16)

🔸 वातात्मजः शुद्धगुणप्रदातः।
🔸 मारुत्सुतो यः समदर्शनाय॥
🔸 भवाब्धिपारे स्थिरबोधमार्गे।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो वायु के समान सबको शुद्धता और निर्मलता प्रदान करने वाले हैं, जो संसार सागर से पार लगाने के लिए स्थिर बोध मार्ग का उपदेश देने वाले हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। मरुदेवी माता के नंदन होने से आप मरुत (वायुदेव) कहलाये जा सकते हैं. 

वायु सर्वत्र व्याप्त और जीवन का आधार है, इसी प्रकार ऋषभदेव ज्ञान, धर्म और मोक्ष का संचार करने वाले हैं


(17)

🔸 रोगस्य नाशं परमं प्रदातुम्।
🔸 अश्विन्यभिख्यातमधर्मरूपम्॥
🔸 लोकस्य शुद्धिं प्रथयन्तमाद्यं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो सभी रोगों के नाशक हैं, जो अशुभ कर्मों से मुक्त करने वाले हैं, जो समस्त लोक में शुद्धता का प्रचार करने वाले हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। देव चिकित्सक अश्वनीकुमार द्वय रोगों के हर्ता देव हैं. भवरोग के नाशक आप ही 
अश्वनीकुमार हैं. 

ऋषभदेव सच्चे धर्म की स्थापना कर अज्ञान, मोह और अशुभ कर्मों को समाप्त कर भवरोग का नाश करने वाले हैं


(18)

🔸 बुद्धः स्वयं योगविदां वरिष्ठः।
🔸 ज्ञानस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
🔸 सम्यक्समार्गेण जनेषु पूज्यः।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो स्वयं महान योगी हैं, जो ज्ञान के मूल स्वरूप एवं परम शुद्ध हैं, जो सम्यक् मार्ग (सही राह) से संसार को मोक्ष प्रदान करते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। समस्त योगों को जाने वाले हे ऋषभदेव! आप ही बुद्ध हैं. सम्यग सन्मार्ग की ओर प्रेरित करनेवाले आप ही सम्यक सम्बुद्ध हैं! 

ऋषभदेव ज्ञान, ध्यान और तप के महान आचार्य हैं और सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के प्रदाता हैं


(19)

🔸 स्फटिकसिंहासनमास्तु यस्य।
🔸 छत्रत्रयं चामरयुग्ममेतत्॥
🔸 देवासुरैश्चाभिवन्द्यमानम्।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जिनका स्फटिक का शुद्ध सिंहासन है, जिनके मस्तक पर तीन छत्र एवं दो चँवर शोभायमान हैं, जिनकी देव-दानव सभी वंदना करते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। देवासुरों द्वारा पूजित होने से आप ही वास्तविक अर्हत हैं. 

भगवान ऋषभदेव समस्त लोकों द्वारा पूज्य, सर्वश्रेष्ठ और परमशुद्ध हैं।


(20)

🔸 सरस्वती यत्र वचः प्रवृत्तम्।
🔸 लक्ष्म्या च युक्तं परमं विशुद्धम्॥
🔸 सर्वेश्वरेशं परमार्थबोधं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जिनकी वाणी में स्वयं सरस्वती विराजमान हैं  जो लक्ष्मी के समान पुण्य और ऐश्वर्य से युक्त हैं, जो सर्वेश्वर और परमार्थ बोध के ज्ञाता हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

ऋषभदेव ज्ञान और धर्म के महान आचार्य हैं, जिनकी वाणी मोक्ष का मार्ग दिखाने वाली है


(21)

🔸 धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्।
🔸 सर्वात्मतत्त्वं करुणाप्रधानम्॥
🔸 सर्वज्ञमार्गे स्थितबोधयन्तं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥

📜 अर्थ:
जो धर्म के मूल, परम शुद्ध, सर्वज्ञ एवं करुणास्वरूप हैं, जो सम्यक मार्ग पर स्थित होकर ज्ञान का प्रचार करते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

भगवान ऋषभदेव धर्म, ज्ञान और मोक्षमार्ग की स्थापना करने वाले हैं


सांगानेर जिनालयद्वय का वर्णन

(22)

🔸 सांगानेरे श्री ऋषभप्रसादे।
🔸 साहस्रवर्षप्रतिपत्तिशुद्धे॥
🔸 चन्द्रप्रभे पञ्चशताब्दिवन्द्ये।
🔸 नत्वाऽर्पयामः प्रणतिं जिनेभ्यः॥

📜 अर्थ:
सांगानेर में स्थित 1000 वर्ष प्राचीन श्री ऋषभदेव मंदिर तथा 500 वर्ष प्राचीन श्री चंद्रप्रभ जिनालय को नमन कर, मैं समस्त तीर्थंकरों को श्रद्धा अर्पित करता हूँ।

सांगानेर में दो प्रमुख जैन मंदिर हैं—श्री ऋषभदेव भगवान का 1000 वर्ष प्राचीन मंदिर और श्री चंद्रप्रभु जिनालय जो 500 वर्ष पुराना है

(23)

🔸 ध्वजार्पणे मङ्गलमादधाने।
🔸 देवैर्युतं पुण्यगणैः ससंघैः॥
🔸 स्तोत्रं मया भावनया वितन्यं।
🔸 शरण्यतां नौ जिननाथ एकः॥

📜 अर्थ:
इस ध्वजारोहण के मंगलकारी अवसर पर, देवों और पुण्यात्माओं के समुदाय से युक्त इस महोत्सव में, मैंने इस स्तोत्र की रचना भावनापूर्वक की है। हे जिननाथ! आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं।

यह श्लोक सांगानेर के श्री ऋषभदेव मंदिर और श्री चंद्रप्रभु जिनालय के ध्वजारोहण महोत्सव के संदर्भ में है


(24)

🔸 यस्मै जिनेन्द्राय वरं प्रकाशम्।
🔸 यो मे व्यदाद् तत्वविदां वरिष्ठम्॥
🔸 ज्योतिर्भवानेन कृपातिशक्त्या।
🔸 तस्मै नमस्ते ऋषभाय नित्यम्॥

📜 अर्थ:
जिस जिनेंद्र भगवान ने मुझे सर्वोत्तम ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया, जो समस्त तत्वों के ज्ञाता एवं ज्योतिर्मय हैं, उनकी असीम कृपा से मैं कृतार्थ हूँ, ऐसे ऋषभदेव भगवान को मैं नित्य नमन करता हूँ। इस श्लोक में स्तोत्र के रचयिता ने अपना नाम "ज्योति" भी गुम्फित किया है. 



🌿 संक्षिप्त सारांश

🔹 भगवान ऋषभदेव के दिव्य गुणों, उनकी महिमा और उनके द्वारा स्थापित धर्म का गुणगान किया गया है।
🔹 सांगानेर के 1000 वर्ष प्राचीन श्री ऋषभदेव मंदिर एवं 500 वर्ष प्राचीन श्री चंद्रप्रभु जिनालय की गौरवशाली परंपरा का उल्लेख किया गया है।
🔹 ऋषभदेव को विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों (अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी) एवं तत्वों (धैर्य, ज्ञान, योग, मोक्ष) के प्रतीक रूप में वर्णित किया गया है।
🔹 यह स्तोत्र हमें मोक्षमार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है एवं संयम, ध्यान, ज्ञान और अहिंसा के पथ पर बढ़ने का संदेश देता है।

Thanks, 
Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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Friday, February 28, 2025

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित

यह सर्वविदित तथ्य है की जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव इस युग के आदिपुरुष थे जिन्होंने अपनी प्रज्ञा के वल पर जगत को असि, मसि, कृषि का ज्ञान दिया. उन्होंने संसार के जीवों को सर्वोत्तम पुरुषों की ७२ कलायें एवं   स्त्रियों की ६४ कलाओं का ज्ञान दिया. वे इस आर्यावर्त के प्रथम राजा, प्रथम श्रमण, प्रथम श्रमण, प्रथम सर्वज्ञ  एवं प्रथम तीर्थंकर थे. जैन आगम कल्पसूत्र एवं जिनसेन, वर्धमान सूरी, हेमचंद्राचार्य, मानतुंग सूरी आदि महान आचार्यों ने उनकी महिमा का गान किया है. जैनेतर साहित्य एवं धर्मग्रंथों जैसे वेद, पुराण, श्रीमद्भागवत, त्रिपिटक आदि में भी उनका उल्लेख मिलता है. 

प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव,  शत्रुंजय तीर्थ  

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में स्थान स्थान पर उनका एवं उनकी उत्कृष्ट साधना का वर्णन मिलता है. इसी प्रकार की एक संस्कृत रचना है ऋषभाष्टकम्। जिस में ऋग्वेद के आधार पर श्री ऋषभदेव स्वामी की स्तुति की गई है. 

रचनाशैली 

इस ऋषभाष्टक की रचना में मुख्य रूप से भारवि कवि की गम्भीर एवं गौरवमयी शैली का अनुसरण किया गया है। भारवि अपनी रचनाओं में गूढ़ अर्थ, शक्तिशाली पदविन्यास तथा कठोरता और सरलता का संतुलित समावेश करके यथार्थ को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि के उद्धरणों में तथा पुरुषोत्तम, वातरशन, आर्हत जैसे विशेषणों में भारवि की भांति गंभीरता प्रदान की गई है।

किन्तु, कुछ स्थलों परमाघ कवि की शब्द-चमत्कृति, कालिदास की मधुरता तथा दण्डिन की अलंकार प्रधान सौंदर्यपूर्ण शैली को भी समाहित किया गया है। 

यहाँ पर प्रस्तुत है ऋषभदेव की स्तुति रूप ऋषभाष्टकम् एवं उसका अर्थ. 



II अथ ऋषभाष्टकम् II  

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

(जिनकी महिमा ऋग्वेद में गाई गई है, ऐसे प्रथम तीर्थंकर पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: ऋग्वेद में जिनकी वंदना की गई है, वे पुण्यशील व्यक्तियों द्वारा पूजनीय हैं। उनके ज्ञान की गहराई इतनी है कि वे परम तत्व तक पहुँचने योग्य हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् जो समस्त प्राणियों के मार्गदर्शक हैं। वे पूर्ण विकसित कमल के समान निर्मल और दिव्य हैं।


२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

(जिन्होंने संपूर्ण जगत् को ज्ञान दिया और जिनकी महिमा वेदों में वर्णित है, ऐसे वातरसन श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने समस्त संसार को आचरण का पथ दिखाया और स्वयं भी तपस्या में स्थित रहे। कुशस्थली (द्वारका) में उनका प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ। जिनका वर्णन विनीत और सत्यशील ऋषियों ने किया है, ऐसे वातरस (अमृत स्वरूप) ऋषभदेव को मैं नमन करता हूँ।


३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो सूर्य के समान सात किरणों से प्रकाशित हैं, जो श्रुतियों में गाए गए हैं, और जो ज्ञान के दीप हैं, ऐसे जिननाथ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनकी आभा सूर्य के समान तेजस्वी है, वेदों में जिनकी स्तुति हुई है और जो अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले दीपक के समान हैं। वे ही संसार की पीड़ा और भय को समाप्त करने वाले जिननाथ हैं।


४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

(जो ज्ञान की गंगा बहाकर लोक का कल्याण करते हैं और जो वेदादि ग्रंथों में स्तुत हैं, ऐसे पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने सात पवित्र नदियों के समान ज्ञान का प्रवाह किया, लोककल्याण हेतु ज्ञानामृत प्रदान किया और जिनका वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में गुणगान किया गया है, ऐसे परम पुरुषोत्तम ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।


५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

(जो अनादि, पवित्र, शुद्ध और जितेन्द्रिय हैं तथा जिनका गुणगान श्रुतिवचनों में किया गया है, ऐसे पुरुष पुण्डरीक श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनका अस्तित्व अनादि है, जो सर्वदा पवित्र और शुद्ध हैं, जिन्होंने अपने समस्त विकारों पर विजय प्राप्त की है और जिनका उल्लेख श्रुति ग्रंथों में हुआ है, वे ही पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक श्री ऋषभदेव हैं।


६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो श्रुतियों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के पूज्य हैं और जिनकी सर्वज्ञता शाश्वत है, ऐसे भगवंत श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और श्रुतियों में सर्वज्ञ कहे गए हैं, जो तपस्वियों के लिए परम आदरणीय हैं और जिनकी सर्वज्ञता एवं दिव्यता शाश्वत है, उन ऋषभदेव को मैं सदा नमन करता हूँ।


७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

(जो सप्तशीर्ष एवं चतुरश्रु रूप में श्रुतियों में वर्णित हैं, ऐसे वातरसन, जिननाथ, आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो सप्तशीर्ष और चतुरश्रु स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के लिए आदर्श हैं और जिनकी दिव्यता समस्त दिशाओं में व्याप्त है, ऐसे प्रथम जिननाथ को मैं श्रद्धा सहित भजता हूँ।


८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

(जो वेदादि पवित्र ग्रंथों में स्तुत हैं, जो सत्य, यथार्थ एवं समता के प्रतीक हैं, ऐसे वृषभ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और अन्य पवित्र ग्रंथों में वर्णित हैं, जो सत्य, न्याय और समता के प्रतीक हैं, जो समस्त विश्व के नाथ हैं, उन वृषभदेव को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

॥इति श्री ऋषभाष्टकं संपूर्णम्॥

ऋषभाष्टक का विस्तृत हिंदी अर्थ


प्रथम तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव स्वामी आदिनाथ की भक्तिपूर्ण स्तुति रूप ऋषभाष्टकम का ऋग्वेद के सन्दर्भ में विशिष्ट अर्थ 

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१६८.४) में जिनकी स्तुति हुई है, वे पुण्यशीलों द्वारा वंदनीय हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् वे सृष्टि के आदि गुरु हैं, जिन्होंने धर्म का पथ प्रशस्त किया। कमलदल के समान उनके गुणों की महिमा निरंतर विकसित होती रहती है।

२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.४६) में ऋत (सत्य) को जानने वाले को महान कहा गया है। ऋषभदेव ने इसी सत्य को प्रकट किया। कुशस्थली में उन्होंने तपस्या कर लोक को संयम का उपदेश दिया। वे वेदों में उल्लिखित अमृत समान ज्ञान के स्रोत हैं।

३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (३.५५.२२) में कहा गया है कि परम सत्य सूर्य के समान तेजस्वी है। ऋषभदेव का ज्ञान भी सूर्य के समान अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता है। वे भव (संसार) भय 
से मुक्त करने वाले ज्ञान-ज्योति स्वरूप जिननाथ हैं।

४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.७५) में सप्त-सिन्धु (सात नदियों) की स्तुति की गई है, जो जीवनदायिनी हैं। उसी प्रकार ऋषभदेव ने लोक के हित में सात प्रकार के दिव्य ज्ञान प्रवाहित किए। उनके उपदेशों का गान वेदों में हुआ है।

५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (४.५८.११) में कहा गया है कि सत्य अनादि और शुद्ध है। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रतीक हैं। वे जितेन्द्रिय हैं और उनकी पवित्रता कमल के समान है।

६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.३९) में कहा गया है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाले को ही मोक्ष मिलता है। ऋषभदेव इसी सत्य की मूर्ति हैं। वे तपस्वियों के आदर्श हैं, जो सर्वज्ञता से विभूषित हैं।

७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.९०) में पुरुषसूक्त के अंतर्गत सप्तशीर्ष पुरुष का वर्णन है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रणेता हैं। वे जिननाथ, वातरस (अमृत स्वरूप ज्ञान) के प्रवर्तक हैं।

८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१९०) में कहा गया है कि सत्य, यथार्थ और समभाव ही परम तत्व हैं। ऋषभदेव इन गुणों के प्रतीक हैं। वे विश्वनाथ हैं, जिनका गुणगान ऋषियों और देवों ने किया है।


॥इति श्री ऋषभाष्टकस्य विशिष्ट हिंदी अर्थः संपूर्णः॥


Thanks, 
Jyoti Kothari 
 (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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Wednesday, February 26, 2025

जैन कालगणना: ब्रह्मांडीय समय की रहस्यमयी संरचना भाग 2


इस लेख के पूर्वभाग में 'समय' से लेकर 'शीर्षप्रहेलिका' तक के काल का वर्णन किया गया है. यह सभी काल गणना संख्यात काल की दृष्टि से किया जाता है. परन्तु जैन दर्शन संख्यात काल से आगे जाकर असंख्यात एवं अनंत काल की भी व्याख्या करता है. असंख्यात एवं अनंत काल की कल्पना करना भी कठिन है परन्तु इसकी समुचित व्याख्या जैन आगमों में उपलब्ध है. लेख के इस भाग में हम  असंख्यात एवं अनंत काल को जैन दर्शन की दृष्टि से समझने का प्रयत्न करेंगे. 

असंख्यात काल की गणना - पल्योपम और सागरोपम

  • असंख्यात काल के दो प्रकार होते हैं:

    1. पल्योपम (Palyaopam)
    2. सागरोपम (Sagaropam)
  • जैन शास्त्रों में दोनों के छह-छह प्रकार बताए गए हैं:

पल्योपम को दर्शाता काल्पनिक चित्र 

(क) पल्योपम के प्रकार
  1. बादर उद्धार पल्योपम
  2. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम
  3. बादर अद्वा पल्योपम
  4. सूक्ष्म अद्वा पल्योपम
  5. बादर क्षेत्र पल्योपम
  6. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम

(ख) सागरोपम के प्रकार

  1. बादर उद्धार सागरोपम
  2. सूक्ष्म उद्धार सागरोपम
  3. बादर अद्वा सागरोपम
  4. सूक्ष्म अद्वा सागरोपम
  5. बादर क्षेत्र सागरोपम
  6. सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम

1. पल्योपम – असंख्यात समय की गणना

  • पल्योपम (Palyaopam) समय मापन की एक विशाल इकाई है। काल की कुछ गणनाओं को अंकों में नहीं बताया जा सकता. वह इतना विशाल होता है की पूर्व में वर्णित शीर्ष प्रहेलिका जैसी विशाल संख्या भी उसके आगे बहुत छोटी हो जाती है. इसलिए जैन आगमों में इसे उपमा के माध्यम से समझाया गया है. पालय का अर्थ गड्ढा होता है और गड्ढे की उपमा से समझाने के कारण इसे पल्योपम कहा जाता है. 
    • यदि हम 1 योजन लंबा, 1 योजन चौड़ा और 1 योजन गहरा एक गोलाकार गड्ढा बनायें. 
    • इस गड्ढे को देवकुरु या उत्तरकुरु के मानवों के मस्तक के मुंडन के बाद गिरे हुए बालों से भर दें
    • इन बालों को 7 बार, हर बार 8-8 टुकड़ों में काट दिया जाए और फिर इस गड्ढे को पूरी तरह भर दिया जाए।
    • यदि क्षण के अंतराल से 1-1 बाल का टुकड़ा बाहर निकाला जाए, तो जिस समय में पूरा कटोरा खाली होगा, उसे "बादर उद्धार पल्योपम" कहा जाता है
    • यह संख्यात समय की श्रेणी में आता है और इसका कोई विशेष उपयोग नहीं होता
    • इसका प्रयोग सूक्ष्म उद्धार पल्योपम को समझाने के लिए किया जाता है।

2. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम

  • पहले वर्णित बड़े बालों के टुकड़ों को और भी सूक्ष्म टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाए।
  • यदि प्रत्येक समय एक-एक सूक्ष्म टुकड़ा बाहर निकाला जाए, और जब तक कटोरा पूरी तरह खाली न हो जाए, उस समय को "सूक्ष्म उद्धार पल्योपम" कहा जाता है।
  • यह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम असंख्यात समय की श्रेणी में आता है
  • 25 कोडाकोडी पल्योपम (2.5 सागरोपम के बराबर) समय में त्रिलोक में जितने द्वीप-समुद्र होते हैं, उनकी संख्याएँ इसमें समाहित होती हैं
  • संक्षेप में, सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का उपयोग द्वीप-समुद्रों की गणना के लिए किया जाता है

3. बादर अद्वा पल्योपम

  • बादर उद्धार पल्योपम में जो बालों के टुकड़े थे, उन्हें हर 100 वर्षों में एक-एक बाहर निकाला जाए
  • जिस समय में कटोरा पूरी तरह खाली हो जाएगा, उसे "बादर अद्वा पल्योपम" कहा जाता है
  • इसमें भी संख्यात वर्षों की गणना होती है
  • इसका भी कोई विशेष उपयोग नहीं होता
  • इसे सूक्ष्म अद्वा पल्योपम को समझाने के लिए बताया गया है।

4. सूक्ष्म अद्वा पल्योपम

  • यदि पहले बताए गए सूक्ष्म उद्धार पल्योपम के बालों के अत्यंत सूक्ष्मतम कणों को भी 100 वर्षों में 1-1 बाहर निकाला जाए,

  • और जब तक पूरा कटोरा खाली न हो जाए, उस समय को "सूक्ष्म अद्वा पल्योपम" कहा जाता है।

  • इसका उपयोग निम्नलिखित गणनाओं के लिए किया जाता है:

    1. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल
    2. जीवों की आयु गणना
    3. कर्मों की स्थिति का निर्धारण
  • सूक्ष्म अद्वा पल्योपम की गणना और उसका महत्व

    इस प्रकार, सूक्ष्म अद्वा पल्योपम का प्रयोग व्यावहारिक रूप से किया जाता है

  •  छह प्रकार के पल्योपम में से चौथे प्रकार "सूक्ष्म अद्वा पल्योपम" असंख्यात  काल की इकाई के रूप में उपयोग किया जाता है

5. बादर क्षेत्र पल्योपम

  • पल्योपम की पहली परिभाषा में वर्णित बालों के कणों को अंदर और बाहर के आकाश क्षेत्र से स्पर्श करने वाले कणों के रूप में विभाजित किया जाए
  • यदि हर समय 1-1 कण बाहर निकाला जाए,
  • और जिस समय तक कटोरा पूरी तरह खाली हो जाए, उसे "बादर क्षेत्र पल्योपम" कहा जाता है
  • इसमें असंख्यात समय चक्र गुजर जाते हैं
  • इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता

6. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम

  • पल्योपम की दूसरी परिभाषा में वर्णित अत्यंत सूक्ष्मतम बालों के कणों को

  • यदि हर समय 1-1 बाहर निकाला जाए,

  • और जब तक पूरा कटोरा खाली न हो जाए,

  • उस समय को "सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम" कहा जाता है

  • सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का समय, बादर क्षेत्र पल्योपम की तुलना में "असंख्यात" गुणा अधिक होता है

  • इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता

1. सागरोपम 

पल्य (गड्ढा) के स्थान पर सागर की उपमासे सागरोपम को समझाया गया है.  10 कोडाकोड़ी अर्थात करोड़ को करोड़ से गुना करने पर प्राप्त संख्या) (कोटि-कोटि) पल्योपम के बराबर 1 सागरोपम होता है। 10 कोड़ाकोड़ी आधुनिक गणना के अनुसार 1000 ट्रिलियन होता है. 

कालचक्र का काल्पनिक कलात्मक चित्रण 

2. कालचक्र 

जैन आगमों के अनुसार एक कालचक्र के दो अंग होते हैं. 1. उत्सर्पिणी 2. अवसर्पिणी। उत्सर्पिणी काल में सुख-समृद्धि बढ़ती हुई एवं अवसर्पिणी काल में घटती हुई होती है. काल चक्र के इन दोनों अंगों को पुनः 6 - 6 भागों में बांटा गया है, जिन्हे आरा कहा जाता है. 

उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी  

6 आरे एवं उनका काल प्रमाण 

पहला सुखमा सुखमा आरा 4 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दूसरा सुखमा 3 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, तीसरा सुखमा दुखमा 2 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, चौथा दुखमा सुखमा 42 हज़ार वर्ष कम 1 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, पांचवां दुखमा 21 हज़ार वर्ष, छठा दुखमा दुखमा 21 हज़ार वर्ष का होता है. यह अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से है, उत्सर्पिणी काल में यह क्रम उल्टा होता है अर्थात दुखमा दुखमा से प्रारम्भ हो कर सुखमा सुखमा में अंत होता है. यह कालचक्र अविराम गति से अनादि से अनंत तक चलता रहता है.  
  • कुल 10 कोडाकोड़ी सागरोपम का 1 उत्सर्पिणी या 1 अवसर्पिणी काल होता है। इस प्रकार एक कालचक्र 20 कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है. 

3. असंख्यात काल और अनंत काल की अवधारणा

  • अब तक बताए गए सभी काल "असंख्यात काल" की श्रेणी में आते हैं
  • लेकिन अब "अनंत काल" की अवधारणा प्रस्तुत की जा रही है, जो कभी समाप्त नहीं होता
  • कालचक्र में अनंत उत्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी = 1 पुद्गलपरावर्त
  • इस प्रकार, अनंत पुद्गलपरावर्त अतीत में भी बीत चुके हैं और भविष्य में भी अनंत मात्रा में आने वाले हैं
  • जैन आगमों में पुद्गल परावर्त के विस्तृत स्वरुप का वर्णन है. विस्तार के भय से पुद्गल परावर्त की गणना यहाँ नहीं दी जा रही है. 

4. आधुनिक विज्ञान और जैन कालगणना की तुलना

  • सामान्यतः आधुनिक विज्ञान को प्रामाणिक माना जाता है परन्तु वास्तविकता ये है की यह भी अनेक अनुमानों एवं परष्पर विरोधी अवधारणाओं पर आधारित है. जबकि जैन दर्शन सर्वज्ञों (केवलज्ञानियों) की दृष्टि पर आधारित होने से निश्चित गणना होती है. 
  • आधुनिक विज्ञान के अनुसार, ब्रह्मांड की उत्पत्ति केवल 13.8 अरब वर्ष (billion years) पहले हुई है। इस सम्बन्ध में भी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता. भिन्न भिन्न वैज्ञानिक मॉडल में भिन्न भिन्न समय बताया जाता है. 
  • विज्ञान के पास इस बात की कोई निश्चित जानकारी नहीं है कि ब्रह्मांड का अंत कब होगा और उसके बाद क्या होगा
  • विज्ञान के सभी निष्कर्ष अनुमानों पर आधारित हैं और वे निश्चित नहीं हैं।
  • इसके विपरीत, जैन दर्शन की कालगणना अनंत काल तक फैली हुई है, जिसमें न केवल भविष्य के अनंत काल की गणना की गई है, बल्कि अतीत के भी अनंत काल का विवरण उपलब्ध है


5. देव और नारकीय लोक में समय की गणना
  • जैन गणना का यह काल केवल दृश्यमान क्षेत्र तक सीमित नहीं है जहाँ मनुष्य एवं पशु पक्षी रहते हैं. 
  • इसके विपरीत, इसकी गणना देव लोक (स्वर्ग) और नारकीय लोक (नरक) में भी की जाती है। जहाँ न सूर्य होता है, न चंद्रमा, और न ही दिन-रात का चक्र। वहाँ भी समय की गणना इस जैन कालगणना के आधार पर ही की जाती है।
  • देव एवं नारकी जीवों की न्यूनतम आयु 10 हज़ार वर्ष एवं अधिकतम आयु 33 सागरोपम होती है. देवताओं और नारकीय जीवों के भी आयुष्य (जीवन अवधि), जन्म और मृत्यु का निर्धारण भी इसी कालगणना के आधार पर किया जाता है

संक्षेप 

✅ असंख्यात काल को "पल्योपम" और "सागरोपम" नामक दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक के छह उप-प्रकार हैं।
✅ पल्योपम एक अत्यंत सूक्ष्म समय इकाई है, जिसकी गणना "बालों के कणों" से की जाती है।

✅ बादर उद्धार पल्योपम और सूक्ष्म उद्धार पल्योपम संख्यात और असंख्यात समय की गणना में भिन्न होते हैं।
✅ सूक्ष्म अद्वा पल्योपम का उपयोग उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, जीवों की आयु और कर्मों की स्थिति की गणना में किया जाता है।
✅ बादर क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम "असंख्यात" समय की अवधारणाएँ हैं, जिनका व्यावहारिक उपयोग नहीं होता।

✅ सूक्ष्म अद्वा पल्योपम को वास्तविक समय मापन के रूप में स्वीकार किया जाता है।

✅ 10 कोडाकोड़ी पल्योपम = 1 सागरोपम और 10 कोडाकोड़ी सागरोपम = 1 उत्सर्पिणी/अवसर्पिणी।
✅ 1 उत्सर्पिणी और 1 अवसर्पिणी = 1 कालचक्र, और यह अनंत कालचक्रों तक चलता रहता है।
✅ जैन कालगणना विज्ञान की तुलना में अधिक विस्तृत है, क्योंकि यह अनंत काल की अवधारणा को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है।
✅ इस कालगणना का उपयोग केवल मानव जीवन के लिए नहीं, बल्कि देव और नारकीय लोकों में भी किया जाता है।

निष्कर्ष:

यह लेख बताता है कि जैन कालगणना केवल गणितीय अवधारणा नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांड के अनंत चक्रों की एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक व्याख्या है। यह न केवल मानव जीवन, बल्कि देव और नारकीय लोकों में भी समय की गणना का आधार है।

भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि


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Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

 
आगामी 30 मार्च 2025, भारतीय नववर्ष 2082 है. इस दिन से विक्रम सम्वत प्रारम्भ होनेवाला है. इस भारतीय नववर्ष को मनाने की जोरदार तैयारी हो रही है. हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा फॉउंडेशन भी इसके लिए जोरदार तैयारी कर रहा है. भारतीय नववर्ष के सम्बन्ध में सर्वप्रथम एक लेख लिखा और फिर धीरे धीरे सम्बंधित लेखों की एक श्रंखला बन गई. यहाँ पर नववर्ष लेखमाला के लेखों की एक सूचि लिंक के साथ दी गई है, जिसके माध्यम से आप सभी लेखों तक पहुँच कर उसे पढ़ सकते हैं. इस लेखमाला के अंतर्गत भविष्य में लिखे जानेवाले लेखों की सूचि भी यहीं दे दी जाएगी. 

आपसे निवेदन है की लेखों को पढ़ने के बाद अपने सुझाव कमेंट बॉक्स में अवश्य देवें। आपके सुझाव हमारे लिए मूल्यवान हैं. इन लेखों को कृपया अग्रेषित एवं साझा करने की भी कृपा करें.  जिससे भारतीय ज्ञान परंपरा को संरक्षित एवं प्रसारित करने के हमारे प्रयत्न को वल मिले. 




1. यह लेख भारतीय नववर्ष की विविध परंपराओं और उनके धार्मिक, खगोलीय, ऐतिहासिक, और सांस्कृतिक महत्व पर प्रकाश डालता है। लेख में विक्रम संवत 2082 के प्रारंभ, विभिन्न क्षेत्रों में मनाए जाने वाले नववर्ष, जैसे उगादि, गुड़ी पड़वा, और चेटीचंड, तथा संवत्सर चक्र के 60 वर्षों के नामों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके अलावा, चांद्र और सौर वर्ष के आधार पर नववर्ष की गणना और उनके महत्व पर भी चर्चा की गई है।
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2. इस लेख में भारतीय पंचांग की वैज्ञानिक संरचना और खगोलीय आधार पर अयन, चातुर्मास, ऋतु, और मास की व्याख्या की गई है। उत्तरायण और दक्षिणायन, तीन चातुर्मास, छह ऋतुएं, और बारह मासों के साथ उनके संबंधित नक्षत्रों और राशियों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। लेख में महीनों के नामकरण और उनके नक्षत्रों के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला गया है।

3. यह लेख जैन दर्शन में काल की अवधारणा और उसकी सूक्ष्मतम इकाई 'समय' की व्याख्या करता है। लेख में निश्चय काल और व्यवहार काल के भेद, समय की परिभाषा, और आधुनिक विज्ञान में समय मापन की तुलना की गई है। इसके अलावा, काल के विभिन्न प्रकार, जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, संख्यात, असंख्यात, और अनंत, तथा जैन शास्त्रों में काल की गणना और उसकी जटिल संरचना पर विस्तृत चर्चा की गई है।
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  • 4. यह लेख चांद्र वर्ष (लूनर ईयर) और सौर वर्ष (सोलर ईयर) की परिभाषा, उनकी विशेषताएँ और उपयोग पर प्रकाश डालता है। चांद्र वर्ष चंद्रमा की गति पर आधारित होता है, जिसमें लगभग 354.36 दिन होते हैं, जबकि सौर वर्ष सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की परिक्रमा पर आधारित होता है, जिसकी अवधि लगभग 365.24 दिन होती है। लेख में बताया गया है कि भारतीय पंचांग में चांद्र और सौर वर्षों का संयोजन कैसे किया जाता है, जिससे धार्मिक पर्वों और कृषि कार्यों का निर्धारण होता है।
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  • 5. इस लेख में भारतीय पंचांग के पांच प्रमुख अंगों—तिथि, वार, नक्षत्र, योग, और करण—का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है। तिथि चंद्रमा और सूर्य के बीच के कोणीय अंतर पर आधारित होती है; वार सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं; नक्षत्र चंद्रमा की स्थिति के अनुसार 27 तारामंडलों में से एक होता है; योग सूर्य और चंद्रमा की संयुक्त स्थिति से बनता है; और करण तिथि के आधे भाग को कहते हैं। ये पांचों अंग किसी भी दिन के शुभ-अशुभ मुहूर्त का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • 6. यह लेख भारतीय खगोलविद्या की प्राचीन परंपरा और उसकी समृद्ध विरासत पर केंद्रित है, विशेष रूप से जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला की तुलना के माध्यम से। लेख में बताया गया है कि भारत में उज्जैन, वाराणसी, विदिशा, और नालंदा जैसे स्थानों पर प्राचीन वेधशालाएँ थीं, जहाँ खगोलीय अध्ययन और गणनाएँ की जाती थीं। महाराजा जय सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित जंतर मंतर वेधशालाएँ खगोलीय अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण केंद्र थीं। इसके विपरीत, ग्रीनविच वेधशाला यूरोपीय खगोलविद्या का प्रमुख केंद्र रहा है।
  • भारतीय खगोलविद्या की समृद्ध विरासत: जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला

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  • 7. इस लेख में प्राचीन भारतीय कालगणना की वैदिक और पारंपरिक समय मापन प्रणालियों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। वैदिक काल में समय की सूक्ष्मतम इकाई 'त्रुटि' से लेकर बड़ी इकाइयों जैसे 'युग' और 'मन्वंतर' तक की गणना की जाती थी। लेख में दिन और रात के मापन के लिए घटिका, मुहूर्त, अहोरात्र आदि की चर्चा की गई है, साथ ही मास, ऋतु, अयन, और वर्ष की अवधारणाओं को भी स्पष्ट किया गया है। ब्रह्मांडीय और दीर्घकालिक समय इकाइयों जैसे युग और मन्वंतर का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है।
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  • 8. इस लेख में जैन कालगणना के असंख्यात और अनंत समय की अवधारणाओं को विस्तार से समझाया गया है। पल्योपम और सागरोपम जैसी इकाइयों द्वारा असंख्यात समय की गणना की जाती है। कालचक्र उत्सर्पिणी (वृद्धि) और अवसर्पिणी (ह्रास) के दो भागों में अनंत काल तक चलता रहता है। अनंत पुद्गल परावर्त ब्रह्मांडीय समय के अनंत विस्तार को दर्शाता है। आधुनिक विज्ञान की तुलना में, जैन दर्शन अधिक विस्तृत और सुनिश्चित गणना प्रदान करता है। यह गणना न केवल पृथ्वी, बल्कि देवलोक और नारक लोक में भी लागू होती है।
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  • इन लेखों के माध्यम से, भारतीय खगोलविद्या, कालगणना, और पंचांग की समृद्ध परंपरा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने में सहायता मिलती है।


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