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Friday, February 28, 2025

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित


यह सर्वविदित तथ्य है की जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव इस युग के आदिपुरुष थे जिन्होंने अपनी प्रज्ञा के वल पर जगत को असि, मसि, कृषि का ज्ञान दिया. उन्होंने संसार के जीवों को सर्वोत्तम पुरुषों की ७२ कलायें एवं   स्त्रियों की ६४ कलाओं का ज्ञान दिया. वे इस आर्यावर्त के प्रथम राजा, प्रथम श्रमण, प्रथम सर्वज्ञ  एवं प्रथम तीर्थंकर थे. जैन आगम कल्पसूत्र एवं जिनसेन, वर्धमान सूरी, हेमचंद्राचार्य, मानतुंग सूरी आदि महान आचार्यों ने उनकी महिमा का गान किया है. जैनेतर साहित्य एवं धर्मग्रंथों जैसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, विभिन्न पुराणों, श्रीमद्भागवत, त्रिपिटक आदि में भी उनका उल्लेख मिलता है. 

प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव,  शत्रुंजय तीर्थ  

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में स्थान स्थान पर उनका एवं उनकी उत्कृष्ट साधना का वर्णन मिलता है. इसी प्रकार की एक अद्भुत संस्कृत रचना है ऋषभाष्टकम्। जिस में ऋग्वेद के आधार पर श्री ऋषभदेव स्वामी की स्तुति की गई है. किन्ही महा प्रभाविक अज्ञात महर्षि की यह रचना आश्चर्य चकित करनेवाली है और प्राचीन भारतीय मनीषा की समन्वयात्मक भावना को प्रस्फुटित करती है. वेदों के विशेषकर ऋग्वेद के मन्त्रों को अंतर्गुम्फित कर जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति करना कोई साधारण काम नहीं है. यह कार्य कोई महा मनीषी ही कर सकते हैं. साथ ही यह भी गौर करने लायक है की उन्होंने इस स्तोत्र में अपना नाम भी नहीं दिया, कैसी निष्पृहता रही होगी?  

इस बात का आश्चर्य है की ऐसी अद्भुत सुन्दर कृति अभी तक अप्रकाशित एवं अप्रसिद्ध क्यों है? यह महाप्रभाविक स्तोत्र श्रद्धालुओं द्वारा नित्य पठन के योग्य है. 

रचनाशैली 

इस ऋषभाष्टक की रचना में मुख्य रूप से भारवि कवि की गम्भीर एवं गौरवमयी शैली का अनुसरण किया गया है। भारवि अपनी रचनाओं में गूढ़ अर्थ, शक्तिशाली पदविन्यास तथा कठोरता और सरलता का संतुलित समावेश करके यथार्थ को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि के उद्धरणों में तथा पुरुषोत्तम, वातरशन, आर्हत जैसे विशेषणों में भारवि की गंभीरता दृष्टिगोचर होती है।

किन्तु, कुछ स्थलों परमाघ कवि की शब्द-चमत्कृति, कालिदास की मधुरता तथा दण्डिन की अलंकार प्रधान सौंदर्यपूर्ण शैली को भी समाहित किया गया है। 

यहाँ पर प्रस्तुत है ऋषभदेव की स्तुति रूप ऋषभाष्टकम् एवं उसका अर्थ. 


II अथ ऋषभाष्टकम् II  

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

(जिनकी महिमा ऋग्वेद में गाई गई है, ऐसे प्रथम तीर्थंकर पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: ऋग्वेद में जिनकी वंदना की गई है, वे पुण्यशील व्यक्तियों द्वारा पूजनीय हैं। उनके ज्ञान की गहराई इतनी है कि वे परम तत्व तक पहुँचने योग्य हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् जो समस्त प्राणियों के मार्गदर्शक हैं। वे पूर्ण विकसित कमल के समान निर्मल और दिव्य हैं।


२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

(जिन्होंने संपूर्ण जगत् को ज्ञान दिया और जिनकी महिमा वेदों में वर्णित है, ऐसे वातरसन श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने समस्त संसार को आचरण का पथ दिखाया और स्वयं भी तपस्या में स्थित रहे। कुशस्थली (द्वारका) में उनका प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ। जिनका वर्णन विनीत और सत्यशील ऋषियों ने किया है, ऐसे वातरसन  (अमृत स्वरूप) ऋषभदेव को मैं नमन करता हूँ।


३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो सूर्य के समान सात किरणों से प्रकाशित हैं, जो श्रुतियों में गाए गए हैं, और जो ज्ञान के दीप हैं, ऐसे जिननाथ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनकी आभा सूर्य के समान तेजस्वी है, वेदों में जिनकी स्तुति हुई है और जो अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले दीपक के समान हैं। वे ही संसार की पीड़ा और भय को समाप्त करने वाले जिननाथ हैं।


४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

(जो ज्ञान की गंगा बहाकर लोक का कल्याण करते हैं और जो वेदादि ग्रंथों में स्तुत हैं, ऐसे पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने सात पवित्र नदियों के समान ज्ञान का प्रवाह किया, लोककल्याण हेतु ज्ञानामृत प्रदान किया और जिनका वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में गुणगान किया गया है, ऐसे परम पुरुषोत्तम ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।


५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

(जो अनादि, पवित्र, शुद्ध और जितेन्द्रिय हैं तथा जिनका गुणगान श्रुतिवचनों में किया गया है, ऐसे पुरुष पुण्डरीक श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनका अस्तित्व अनादि है, जो सर्वदा पवित्र और शुद्ध हैं, जिन्होंने अपने समस्त विकारों पर विजय प्राप्त की है और जिनका उल्लेख श्रुति ग्रंथों में हुआ है, वे ही पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक श्री ऋषभदेव हैं।


६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो श्रुतियों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के पूज्य हैं और जिनकी सर्वज्ञता शाश्वत है, ऐसे भगवंत श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और श्रुतियों में सर्वज्ञ कहे गए हैं, जो तपस्वियों के लिए परम आदरणीय हैं और जिनकी सर्वज्ञता एवं दिव्यता शाश्वत है, उन ऋषभदेव को मैं सदा नमन करता हूँ।


७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

(जो सप्तशीर्ष एवं चतुरश्रु रूप में श्रुतियों में वर्णित हैं, ऐसे वातरसन, जिननाथ, आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो सप्तशीर्ष और चतुरश्रु स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के लिए आदर्श हैं और जिनकी दिव्यता समस्त दिशाओं में व्याप्त है, ऐसे प्रथम जिननाथ को मैं श्रद्धा सहित भजता हूँ।


८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

(जो वेदादि पवित्र ग्रंथों में स्तुत हैं, जो सत्य, यथार्थ एवं समता के प्रतीक हैं, ऐसे वृषभ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और अन्य पवित्र ग्रंथों में वर्णित हैं, जो सत्य, न्याय और समता के प्रतीक हैं, जो समस्त विश्व के नाथ हैं, उन वृषभदेव को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

॥इति श्री ऋषभाष्टकं संपूर्णम्॥

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

ऋषभाष्टक का विस्तृत हिंदी अर्थ


प्रथम तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव स्वामी आदिनाथ की भक्तिपूर्ण स्तुति रूप ऋषभाष्टकम का ऋग्वेद के सन्दर्भ में विशिष्ट अर्थ 

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१६८.४) में जिनकी स्तुति हुई है, वे पुण्यशीलों द्वारा वंदनीय हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् वे सृष्टि के आदि गुरु हैं, जिन्होंने धर्म का पथ प्रशस्त किया। कमलदल के समान उनके गुणों की महिमा निरंतर विकसित होती रहती है।

२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.४६) में ऋत (सत्य) को जानने वाले को महान कहा गया है। ऋषभदेव ने इसी सत्य को प्रकट किया। कुशस्थली में उन्होंने तपस्या कर लोक को संयम का उपदेश दिया। वे वेदों में उल्लिखित अमृत समान ज्ञान के स्रोत हैं।

३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (३.५५.२२) में कहा गया है कि परम सत्य सूर्य के समान तेजस्वी है। ऋषभदेव का ज्ञान भी सूर्य के समान अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता है। वे भव (संसार) भय 
से मुक्त करने वाले ज्ञान-ज्योति स्वरूप जिननाथ हैं।

४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.७५) में सप्त-सिन्धु (सात नदियों) की स्तुति की गई है, जो जीवनदायिनी हैं। उसी प्रकार ऋषभदेव ने लोक के हित में सात प्रकार के दिव्य ज्ञान प्रवाहित किए। उनके उपदेशों का गान वेदों में हुआ है।

५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (४.५८.११) में कहा गया है कि सत्य अनादि और शुद्ध है। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रतीक हैं। वे जितेन्द्रिय हैं और उनकी पवित्रता कमल के समान है।

६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.३९) में कहा गया है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाले को ही मोक्ष मिलता है। ऋषभदेव इसी सत्य की मूर्ति हैं। वे तपस्वियों के आदर्श हैं, जो सर्वज्ञता से विभूषित हैं।

७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.९०) में पुरुषसूक्त के अंतर्गत सप्तशीर्ष पुरुष का वर्णन है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रणेता हैं। वे जिननाथ, वातरस (अमृत स्वरूप ज्ञान) के प्रवर्तक हैं।

८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१९०) में कहा गया है कि सत्य, यथार्थ और समभाव ही परम तत्व हैं। ऋषभदेव इन गुणों के प्रतीक हैं। वे विश्वनाथ हैं, जिनका गुणगान ऋषियों और देवों ने किया है।

॥इति श्री ऋषभाष्टकस्य विशिष्ट हिंदी अर्थः संपूर्णः॥



"ऋषभाष्टकम्" का विस्तृत अन्वय, पदपाठ, शब्दार्थ और भावार्थ

1. श्लोक

ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः यस्य उत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति। अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

पदपाठ:

ऋग्वेद-वाचः | सुकृति-प्रणामाः | यस्य | उत्तमं | वेद-विदः | स्तुवन्ति | अज-उपनिष्ठं | परमार्थ-गम्यं | तं | ऋषभं | पूण्डरीकं | भजे | अहम्॥

शब्दार्थ:

  • ऋग्वेदवाचः - ऋग्वेद की वाणी (ऋचाएँ)

  • सुकृतिप्रणामाः - पुण्यात्माओं के प्रणाम

  • यस्य - जिसके

  • उत्तमं - सर्वोत्तम

  • वेदविदः - वेदज्ञ पुरुष

  • स्तुवन्ति - स्तुति करते हैं

  • अजोपनिष्ठं - अज (अजन्मा, वृषभ) में उपनिष्ट (स्थापित) जो है

  • परमार्थगम्यं - परमार्थ (मोक्ष) को उपलब्ध कराने वाला

  • ऋषभं - ऋषभदेव को

  • पूण्डरीकं - कमलवत् निर्मल (या कमलरूपी)

  • भजे - मैं भजता हूँ

  • अहम् - मैं

अन्वय:

अहं तं ऋषभं पूण्डरीकं भजे, यस्य ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः च उत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति, यः अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं च अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस कमलवत् निर्मल भगवान् ऋषभदेव की भक्ति करता हूँ, जिनकी स्तुति वेदज्ञ श्रेष्ठ पुरुष करते हैं, जिनके चरणों में पुण्यात्माएँ प्रणाम करते हैं, जो अज (वृषभ या अजन्मा) में स्थित हैं और जो परमार्थ (मोक्ष) को देने वाले हैं।


2. श्लोक

आचर्षिणो यं जगतः समस्तं कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्। श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

पदपाठ:

आचर्षिणः | यं | जगतः | समस्तं | कुशस्थलीम् | आस्थितवान् | च | यः | अभूत् | श्रुतिः | विनीतैः | ऋषिभिः | प्रसन्नैः | तं | वातरसं | प्रणमामि | नित्यं॥

शब्दार्थ:

  • आचर्षिणः - जिनका आचरण (पालन) करने वाले (शिष्यगण)

  • जगतः समस्तं - सम्पूर्ण जगत्

  • कुशस्थलीम् - पावन भूमि (कुश से युक्त क्षेत्र, संभवतः अयोध्या)

  • आस्थितवान् - निवास किया

  • श्रुतिः - वेद

  • विनीतैः ऋषिभिः - विनीत (नम्र) ऋषियों द्वारा

  • प्रसन्नैः - प्रसन्नचित्त से

  • वातरसं - वातरसं (भगवान ऋषभ का एक नाम)

  • प्रणमामि - मैं प्रणाम करता हूँ

  • नित्यं - सदा

अन्वय:

अहं तं वातरसं नित्यं प्रणमामि, यं आचर्षिणः जगतः समस्तं च आचरन्ति, यः कुशस्थलीम् आस्थितवान्, यं श्रुतिः विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः च वंद्यते।

भावार्थ:

मैं उन भगवान वातरसं (ऋषभदेव) को सदा प्रणाम करता हूँ, जिनका आचरण सम्पूर्ण जगत् करता है, जिन्होंने पुण्यभूमि कुशस्थली में निवास किया और जिनकी स्तुति विनीत व प्रसन्न ऋषियों द्वारा वेद में की गई है।


3. श्लोक

सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति। ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

पदपाठ:

सप्त-अर्चिषं | यः | रविवत् | प्रकाशं | श्रुतिषु | गीते | रुचिरं | विभाति | ज्ञान-प्रदीपं | भव-भीति-कर्त्रं | तं | जिननाथं | प्रणमामि | अहं | सदा॥

शब्दार्थ:

  • सप्तार्चिषं - सात प्रकार की किरणों वाला (सूर्य की तरह)

  • रविवत् - सूर्य के समान

  • प्रकाशं - प्रकाशमान

  • श्रुतिषु - वेदों में

  • गीते - गाया हुआ

  • रुचिरं - सुंदर

  • विभाति - प्रकाशित होता है

  • ज्ञानप्रदीपं - ज्ञान का दीपक

  • भवभीतिकर्त्रं - संसार भय को हरने वाला

  • जिन्नाथं - जिननाथ (विजेता भगवान)

  • प्रणमामि - मैं प्रणाम करता हूँ

  • सदा - सदा

अन्वय:

अहं सदा तं जिननाथं प्रणमामि, यः सप्तार्चिषं रविवत् प्रकाशं रुचिरं श्रुतिषु गीते विभाति, यः ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं च अस्ति।

भावार्थ:

मैं उन जिननाथ भगवान को सदा प्रणाम करता हूँ, जो सात प्रकार की किरणों से सूर्य के समान प्रकाशित हैं, जिनका वर्णन वेदों में हुआ है, जो सुंदरता से विभूषित हैं, जो ज्ञान के दीपक हैं और संसार रूपी भय का नाश करते हैं।


4. श्लोक

यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

पदपाठ:

यः | सप्त | सिन्धून् | प्रवहन् | दिशन्तं | ज्ञान-अमृतं | लोक-हिताय | दत्तम् | वेद-आदिभिः | संस्तूयमानं | संस्तूयते | तं | पुरुष-उत्तमं | भजे॥

शब्दार्थ:

  • सप्त सिन्धून् - सात नदियाँ (ज्ञानरूपी सात धाराएँ)

  • प्रवहन् - प्रवाहित करने वाला

  • दिशन्तं - दिशाओं में फैलाने वाला

  • ज्ञानामृतं - अमृत स्वरूप ज्ञान

  • लोकहिताय - लोक कल्याण के लिए

  • दत्तम् - दिया हुआ

  • वेदादिभिः - वेद आदि ग्रंथों द्वारा

  • संस्तूयमानं - जिसकी स्तुति की जाती है

  • पुरुषोत्तमं - श्रेष्ठ पुरुष

  • भजे - मैं भजता हूँ

अन्वय:

अहं तं पुरुषोत्तमं भजे, यः सप्त सिन्धून् प्रवहन् दिशन्तं ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तं, वेदादिभिः संस्तूयमानं संस्तूयते।

भावार्थ:

मैं उस पुरुषोत्तम भगवान ऋषभदेव का भजन करता हूँ, जिन्होंने सात ज्ञान-नदियों के रूप में अमृतमय ज्ञान प्रवाहित कर समस्त दिशाओं में फैलाया, जो लोकहित के लिए दिया गया, और जिनकी वेदादि ग्रंथों में स्तुति की गई है।


5. श्लोक

अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

पदपाठ:

अनादि-पूर्वः | परमः | पवित्रः | शुद्धः | जित-arih | सततं | विनीतः | श्रुति-वचोभिः | परिणीयमानं | तं | पुरुष-पुण्डरीकं | नमामि॥

शब्दार्थ:

  • अनादिपूर्वः - जिसका कोई आदि नहीं, अनादि

  • परमः - सर्वोच्च

  • पवित्रः - अत्यन्त पवित्र

  • शुद्धः - निर्मल

  • जितारिः - शत्रुओं पर विजय पाने वाला

  • सततं विनीतः - सदा विनम्र

  • श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं - वेदवाक्यों द्वारा वर्णित

  • पुरुषपुण्डरीकं - पुरुषों में कमल के समान श्रेष्ठ

  • नमामि - मैं नमन करता हूँ

अन्वय:

अहं तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि, यः अनादिपूर्वः परमः पवित्रः शुद्धः जितारिः सततं विनीतः च, यः श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस पुरुषपुण्डरीक भगवान ऋषभदेव को नमस्कार करता हूँ, जो अनादि, परम पवित्र, शुद्ध, शत्रुजयी, सदा विनम्र हैं और जिनका वेदवाक्यों में विस्तार से वर्णन किया गया है।


6. श्लोक

यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

पदपाठ:

यः | श्रुतिषु | वर्णितः | आर्हत-ईशः | तपस्विनां | पूज्यतमः | सुपूज्यः | सर्वज्ञता | यस्य | हि | शाश्वती | च | तं | भगवन्तं | प्रणमामि | अहं | सदा॥

शब्दार्थ:

  • श्रुतिषु वर्णितः - वेदों में वर्णित

  • आर्हतेशः - आर्हतों के ईश्वर, जिनेन्द्र

  • तपस्विनां पूज्यतमः - तपस्वियों में अत्यन्त पूज्य

  • सुपूज्यः - श्रेष्ठ पूज्य

  • सर्वज्ञता - सम्पूर्ण ज्ञान

  • शाश्वती - शाश्वत (सनातन)

  • भगवन्तं - भगवान को

  • प्रणमामि - प्रणाम करता हूँ

  • सदा - सदा

अन्वय:

अहं सदा तं भगवन्तं प्रणमामि, यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः, यः तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः च, यस्य सर्वज्ञता शाश्वती अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस भगवान ऋषभदेव को सदा प्रणाम करता हूँ, जो वेदों में वर्णित आर्हतों के ईश्वर हैं, तपस्वियों में अत्यन्त पूज्य हैं और जिनकी सर्वज्ञता शाश्वत है।


7. श्लोक

यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

पदपाठ:

यः | सप्त-शीर्षः | चतुर-श्रु-गीतः | श्रुतिषु | संकीर्तितः | पूर्व-काले | वात-रसं | जिन-नाथं | आद्यं | तं | ऋषभं | प्राञ्जलिकः | भजामि॥

शब्दार्थ:

  • सप्तशीर्षः - सात शिखर वाला (प्रतीक रूप में महानता का बोधक)

  • चतुरश्रुगीतः - चारों दिशाओं में जिसकी कीर्ति गाई जाती है

  • श्रुतिषु संकीर्तितः - वेदों में जिनका संकीर्तन हुआ है

  • पूर्वकाले - प्राचीन काल में

  • वातरसं - वातरसं (ऋषभदेव का नाम)

  • जिन्नाथमाद्यं - जिननाथों में आदि, प्रथम

  • प्राञ्जलिकः - हाथ जोड़कर

  • भजामि - मैं भजता हूँ

अन्वय:

अहं प्राञ्जलिकः तं ऋषभं भजामि, यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः च, यः श्रुतिषु पूर्वकाले संकीर्तितः, यः वातरसं जिननाथमाद्यं अस्ति।

भावार्थ:

मैं हाथ जोड़कर उस ऋषभदेव भगवान का भजन करता हूँ, जो सात शिखरों वाले हैं, चारों दिशाओं में जिनकी कीर्ति गाई जाती है, जो वेदों में प्राचीन काल से संकीर्तित हैं और जो जिननाथों में प्रथम हैं।


8. श्लोक

वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

पदपाठ:

वेद-आदिभिः | अनघैः | स्तुतः | च | यः | विश्व-नाथः | सुर-मौक्तिकाभिः | सत्यं | यथार्थं | च | समं | सदा | यः | तं | वृषभं | प्रणमामि | नित्यं॥

शब्दार्थ:

  • वेदादिभिः अनघैः - वेदादि निर्दोष ग्रंथों द्वारा

  • स्तुतः - स्तुति किया गया

  • विश्वनाथः - सम्पूर्ण विश्व के स्वामी

  • सुरमौक्तिकाभिः - देवमणियों (देवों द्वारा)

  • सत्यं यथार्थं च समं - सत्य, यथार्थ और समभाव युक्त

  • वृषभं - वृषभ (ऋषभदेव)

  • प्रणमामि नित्यं - मैं सदा प्रणाम करता हूँ

अन्वय:

अहं नित्यं तं वृषभं प्रणमामि, यः वेदादिभिः अनघैः स्तुतः, यः विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः पूज्यः, यः सत्यं यथार्थं च समं सदा अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस वृषभ (ऋषभदेव) को सदा प्रणाम करता हूँ, जिनकी वेदादि निर्दोष ग्रंथों में स्तुति की गई है, जो सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हैं, देवों द्वारा मणिरत्नों के समान पूजित हैं और जो सदा सत्य, यथार्थ और समभाव युक्त हैं।


समापन भावार्थ:

"ऋषभाष्टकम्" भगवान ऋषभदेव की महानता, उनकी वेदसम्मत वंदना और उनकी दिव्यता का स्तुतिगान है। यह स्तोत्र ऋषभदेव को आदि तीर्थंकर, ज्ञान और सत्य के स्रोत तथा लोकहितकारी के रूप में प्रस्तुत करता है। उनके गुणों का स्मरण और वंदन आत्मकल्याण और मोक्षमार्ग का सशक्त साधन है।


Thanks, 
Jyoti Kothari 
 (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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