॥ अथ श्री सांगानेर मण्डण ऋषभदेव स्तोत्रम् ॥
शुद्धं जिनं ज्ञाननिधानमाद्यं।
संसारभूतेषु दयाप्रधानम्॥
ब्रह्मेव संकल्पधुरं वहन्तं।
ऋषभं नमामि जिनेश्वरं तम्॥ १॥
नाभिस्वरूपात् समजायतासौ।
लोकस्य धातुः प्रथमो विभूतिः॥
प्रजापतेः कर्मपथे स्थितो यः।
स ऋषभोऽयं भवपारदात्रः॥ २॥
विष्णोर्निरस्ताशुभकर्मपाशः।
धर्मस्य यो लोकगुरोः समर्थः॥
राज्ये स्थितो लोकहिताय यश्च।
स ऋषभोऽयं प्रणतिं विधेहि॥ ३॥
गणेश्वरः सञ्जनसंप्रदातः।
संघस्य नाथो मुनिभिः सुपूज्यः॥
ज्ञानं प्रदत्तं जनलोकमार्गे।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ४॥
गर्वेण मत्स्योद्धतहृद्गतेषु।
नष्टेऽपि धर्मे सततं स्थितात्मा॥
यो गरुडोऽयं विषनाशहेतोः।
तं वन्दते वीतरागो वरिष्ठः॥ ५॥
धत्ते निजे दंष्ट्रकृते परात्मा।
संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
रुद्रः स्वयं मोहनिवारणाय।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ६॥
कान्तिप्रदं मोहविनाशकर्तुं।
शं योगिनां सत्यपथस्य गुप्तिम्॥
धर्मस्य यः स्थापयिता पुराणः।
स शंकरोऽयं प्रणमामि नित्यम्॥ ७॥
ईशो नृणामर्थविधेरधिष्ठानम्।
कर्माणि नाशं विधिवद्विधत्ते॥
धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धं।
महेश्वरं तं प्रणमामि नित्यम्॥ ८॥
संहारकर्ते भववासनायाः।
मोक्षस्य यो मूलमहः प्रभूतम्॥
आद्या स शक्तिः सकलेन्द्रियाणां।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ९॥
दैत्यस्य यो मोहविनाशहेतोः।
सत्यं प्रकाशं परमार्थमार्गे॥
काली समस्ताशुभनाशिनी या।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १०॥
योगेश्वरो ध्यानपरः स नित्यं।
संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
महाकालः कालविनाशहेतोः।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ ११॥
दिव्याननं सर्वविलक्षणं यः।
वरदं वर्यं परमं विशुद्धम्॥
वरुणस्वरूपं भवसिन्धुपारं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १२॥
अग्निः स्वयं कर्मविनाशहेतोः।
शुक्लस्य धाता परमार्थसिद्धिम्॥
तप्तं तपो यो भुवने विधत्ते।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १३॥
क्षान्तिप्रदं सर्वसुखानुकूलं।
धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
पृथ्वीसमं योऽपि दयाविधानं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १४॥
अशेषगुण्यान्वितसत्स्वरूपम्।
आकाशवत्तत्त्वमसंशयं यः॥
आकाशसंसारमहादरिद्रं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १५॥
वातात्मजः शुद्धगुणप्रदातः।
मारुत्सुतो यः समदर्शनाय॥
भवाब्धिपारे स्थिरबोधमार्गे।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १६॥
रोगस्य नाशं परमं प्रदातुम्।
अश्विन्यभिख्यातमधर्मरूपम्॥
लोकस्य शुद्धिं प्रथयन्तमाद्यं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १७॥
बुद्धः स्वयं योगविदां वरिष्ठः।
ज्ञानस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
सम्यक्समार्गेण जनेषु पूज्यः।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १८॥
स्फटिकसिंहासनमास्तु यस्य।
छत्रत्रयं चामरयुग्ममेतत्॥
देवासुरैश्चाभिवन्द्यमानम्।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ १९॥
सरस्वती यत्र वचः प्रवृत्तम्।
लक्ष्म्या च युक्तं परमं विशुद्धम्॥
सर्वेश्वरेशं परमार्थबोधं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ २०॥
धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्।
सर्वात्मतत्त्वं करुणाप्रधानम्॥
सर्वज्ञमार्गे स्थितबोधयन्तं।
तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥ २१॥
सांगानेरे श्री ऋषभप्रसादे।
साहस्रवर्षप्रतिपत्तिशुद्धे॥
चन्द्रप्रभे पञ्चशताब्दिवन्द्ये।
नत्वाऽर्पयामः प्रणतिं जिनेभ्यः॥ २२॥
ध्वजार्पणे मङ्गलमादधाने।
देवैर्युतं पुण्यगणैः ससंघैः॥
स्तोत्रं मया भावनया वितन्यं।
शरण्यतां नौ जिननाथ एकः॥ २३॥
यस्मै जिनेन्द्राय वरं प्रकाशम्।
यो मे व्यदाद् तत्वविदां वरिष्ठः॥
ज्योतिर्भवानेन कृपातिशक्त्या।
तस्मै नमस्ते ऋषभाय नित्यम्॥ २४॥
॥ अथ श्री सांगानेर मण्डण ऋषभदेव स्तोत्रम् अर्थम् ॥
(1)
🔸 शुद्धं जिनं ज्ञाननिधानमाद्यं।
🔸 संसारभूतेषु दयाप्रधानम्॥
🔸 ब्रह्मेव संकल्पधुरं वहन्तं।
🔸 ऋषभं नमामि जिनेश्वरं तम्॥
📜 अर्थ:
जो पूर्णतया शुद्ध, संपूर्ण ज्ञान के भंडार, संसार के प्राणियों के प्रति करुणा रखने वाले, तथा धर्मरूपी संकल्प को धारण करने वाले हैं, ऐसे भगवान ऋषभदेव को मैं नमन करता हूँ।
भगवान ऋषभदेव संपूर्ण ज्ञान के दाता और मोक्षमार्ग के प्रथम उपदेशक होने से ब्रह्मस्वरूप हैं.
(2)
🔸 नाभिस्वरूपात् समजायतासौ।
🔸 लोकस्य धातुः प्रथमो विभूतिः॥
🔸 प्रजापतेः कर्मपथे स्थितो यः।
🔸 स ऋषभोऽयं भवपारदात्रः॥
📜 अर्थ:
जो राजा नाभिराज के पुत्र रूप में प्रकट हुए, जो लोक में पहले महान विभूति हैं, जिन्होंने कर्म के मार्ग को मोक्ष की ओर प्रवाहित किया, वे ऋषभदेव ही संसार सागर से पार उतारने वाले हैं। जैसे ब्रह्मा (प्रजापिता) विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए वैसे ही आप भी नाभिराजा के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए हैं. समस्त प्रजा को लोकधर्म एवं आत्मधर्म की शिक्षा देने के कारण आप ही वास्तविक प्रजापिता हैं.
भगवान ऋषभदेव पहले तीर्थंकर थे और उन्होंने ही मोक्षमार्ग का प्रथम उपदेश दिया। अपनी राज्यावस्था में तत्कालीन प्रजा को असि, मसि, कृषि, पुरुषों की 72 एवं स्त्रियों की 64 कलाओं का ज्ञान प्रदान कर इस भरत भूमि को कर्मभूमि बनाया था.
(3)
🔸 विष्णोर्निरस्ताशुभकर्मपाशः।
🔸 धर्मस्य यो लोकगुरोः समर्थः॥
🔸 राज्ये स्थितो लोकहिताय यश्च।
🔸 स ऋषभोऽयं प्रणतिं विधेहि॥
📜 अर्थ:
जिन्होंने अशुभ कर्मों के बंधनों को समाप्त किया, जो धर्म के आचार्य और लोकगुरु हैं, जो पहले राजसत्ता संभालकर लोकहित में कार्यरत हुए, ऐसे ऋषभदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। जिस प्रकार विष्णु को जगत का पालनकर्ता कहा गया है वैसे ही आपने राज्यावस्था में प्रजापालन किया एवं तीर्थंकर बनने के बाद धर्मराज्य (चतुर्विध संघ) का संचालन किया.
ऋषभदेव ने राज्य व्यवस्था को सुसंगठित किया और फिर सन्यास धारण किया।
(4)
🔸 गणेश्वरः सञ्जनसंप्रदातः।
🔸 संघस्य नाथो मुनिभिः सुपूज्यः॥
🔸 ज्ञानं प्रदत्तं जनलोकमार्गे।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो समाज के प्रथम प्रवर्तक, संघ के नायक, मुनियों द्वारा वंदनीय, एवं जिन्होंने ज्ञान का प्रकाश मानव समाज को प्रदान किया, ऐसे जिनेश्वर की मैं शरण लेता हूँ। जिस प्रकार गणेश प्रथम पूज्य देवता माने जाते हैं वैसे ही आप भी लोक में प्रथम पूज्य हैं. धर्म संघ (गण) को धारण करने वाले एवं धर्मसंघ के स्वामी आप ही गणेश्वर और गणपति हैं.
भगवान ऋषभदेव ने अवसर्पिणी काल में प्रथम बार साधु, साध्वी, श्रावक, और श्राविकाओं के संघ की स्थापना की।
(5)
🔸 गर्वेण मत्स्योद्धतहृद्गतेषु।
🔸 नष्टेऽपि धर्मे सततं स्थितात्मा॥
🔸 यो गरुडोऽयं विषनाशहेतोः।
🔸 तं वन्दतां वीतरागो वरिष्ठः॥
📜 अर्थ:
जो गर्वरूपी मत्स्य (अहंकार के कारण डूबे हुए जीवों) को उद्धार करने वाले, धर्म के नष्ट हो जाने पर भी स्थिर रहते हैं, जो संसार रूपी विष का नाश करने वाले हैं, ऐसे श्रेष्ठ वीतराग ऋषभदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।
तीर्थंकर ऋषभदेव ने अहंकार, मोह और अज्ञान का नाश कर धर्म की स्थापना की।
(6)
🔸 धत्ते निजे दंष्ट्रकृते परात्मा।
🔸 संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
🔸 रुद्रः स्वयं मोहनिवारणाय।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो स्वयं अपने तप और ज्ञान के तेज से संसार का नाश करने में प्रवृत्त हैं, जो मोह को समाप्त करने वाले हैं, ऐसे भगवान जिनेंद्र की मैं शरण लेता हूँ। जैसे रूद्र का क्रोध अति भयंकर होता है उसी प्रकार आपने अपने तेज से मोहनीय कर्म एवं संसारवासना का नाश किया है.
ऋषभदेव अज्ञान और मोह का नाश कर सच्चे ज्ञान का प्रकाश लाने वाले हैं।
(7)
🔸 कान्तिप्रदं मोहविनाशकर्तुं।
🔸 शं योगिनां सत्यपथस्य गुप्तिम्॥
🔸 धर्मस्य यः स्थापयिता पुराणः।
🔸 स शंकरोऽयं प्रणमामि नित्यम्॥
📜 अर्थ:
जो मोहरूपी अंधकार को समाप्त कर कान्ति (ज्ञान) प्रदान करने वाले हैं, जो योगियों के लिए शांति स्वरूप हैं, जिन्होंने धर्म की स्थापना की, ऐसे भगवान को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। धर्म की स्थापना कर जगत का कल्याण (शं) करने के कारण हे प्रभु! आप ही शंकर हैं.
ऋषभदेव योग, संयम, ध्यान और तप के मूल होने से परम कल्याणकारी हैं.
(8)
🔸 ईशो नृणामर्थविधेरधिष्ठानम्।
🔸 कर्माणि नाशं विधिवत्करोति॥
🔸 धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धं।
🔸 महेश्वरं तं प्रणमामि नित्यम्॥
📜 अर्थ:
जो समस्त प्राणियों के कर्मों के फल को विधिवत नष्ट करने वाले, धर्म के मूल स्वरूप, परम विशुद्ध, एवं सच्चे महेश्वर (सर्वोच्च भगवान) हैं, उन ऋषभदेव को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।
ऋषभदेव मोक्षमार्ग के प्रथम प्रदर्शक थे, जिन्होंने संसार को कर्मों के बंधन से मुक्त होने की विधि बताई।
(9)
🔸 संहारकर्ते भववासनायाः।
🔸 मोक्षस्य यो मूलमहः प्रभूतम्॥
🔸 आद्या स शक्तिः सकलेन्द्रियाणां।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो भववासनाओं (संसार की इच्छाओं) का संहार करने वाले, मोक्ष के परम तेजस्वी स्वरूप, एवं समस्त इंद्रियों पर संयम रखने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। भववासना का संहार करनेवाले आप ही आद्या शक्ति स्वरुप हैं.
यह श्लोक भगवान ऋषभदेव की महान तपशक्ति और संयम पर बल देता है।
(10)
🔸 दैत्यस्य यो मोहविनाशहेतोः।
🔸 सत्यं प्रकाशं परमार्थमार्गे॥
🔸 काली समस्ताशुभनाशिनी या।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो मोह और अज्ञान के नाशक, सत्य एवं प्रकाश के दाता, एवं समस्त अशुभ कर्मों का नाश करने वाले हैं, उन जिनेन्द्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। जिस प्रकार देवी काली रक्तवीज रूप प्रकार आप भी मोहरूपी दैत्यों का संहार कर समस्त अशुभ का नाश करनेवाले हैं.
भगवान ऋषभदेव ने अज्ञान-मोह रूपी अंधकार को समाप्त कर सत्य मार्ग का प्रकाश फैलाया।
(11)
🔸 योगेश्वरो ध्यानपरः स नित्यं।
🔸 संसारनाशे सततं प्रवृत्तः॥
🔸 महाकालः कालविनाशहेतोः।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो योगियों के स्वामी, सदा ध्यानमग्न, संसार नाश करने में प्रवृत्त, एवं काल के भी विनाशक हैं, उन जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। आपने मोक्ष जाकर अजर अमर पद प्राप्त किया. काल अर्थात मृत्यु का ही नाश कर दिया, अतः आप ही महाकाल हैं.
भगवान ऋषभदेव ध्यान योग और मोक्ष मार्ग के प्रथम उपदेशक थे।
(12)
🔸 दिव्याननं सर्वविलक्षणं यः।
🔸 वरदं वर्यं परमं विशुद्धम्॥
🔸 वरुणस्वरूपं भवसिन्धुपारं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो दिव्य स्वरूप वाले, सबसे अलग, श्रेष्ठतम, मोक्षमार्ग में पार लगाने वाले हैं, उन जिनेन्द्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। दुस्तर भवसिंधु से पार लगानेवाले आप ही वरुण देव हैं.
ऋषभदेव मोक्षमार्ग के द्वारा संसार रूपी समुद्र से पार लगाने वाले परम ज्ञानी हैं।
(13)
🔸 अग्निः स्वयं कर्मविनाशहेतोः।
🔸 शुक्लस्य धात्रं परमार्थसिद्धिम्॥
🔸 तप्तं तपो यो भुवने विदध्यात्।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो स्वयं अग्निरूप होकर अशुभ कर्मों का नाश करते हैं, जो शुक्ल ध्यान के धारक एवं मोक्ष के प्रदाता हैं, जो तपस्या को अपने जीवन का आधार बनाकर संसार को तपोमय बनाते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण लेता हूँ। तप की अग्नि से जिन्होंने अपने समस्त कर्म को नष्ट किया वे श्री ऋषभ देव ही वास्तविक अग्निदेव हैं.
भगवान ऋषभदेव ने महान तप किया और संसार को संयम, तप और ध्यान का मार्ग दिखाया।
🔸 क्षान्तिप्रदं सर्वसुखानुकूलं।
🔸 धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
🔸 पृथ्वी समं योऽपि दयाविधानं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो क्षमा और शांति प्रदान करने वाले हैं, जो समस्त सुखों के अनुकूल धर्म के मूल स्वरूप हैं, जो पृथ्वी की भांति सहनशील और दयावान हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
पृथ्वी धैर्य, सहनशीलता और पोषण का प्रतीक है, इसी प्रकार ऋषभदेव भी असीम धैर्य और दया से युक्त हैं।
(15)
🔸 अशेषगुण्यान्वितसत्त्रधाम।
🔸 आकाशवत्तत्त्वमसंशयं यः॥
🔸 आकाशसंसारमहादरिद्रं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो संपूर्ण गुणों से परिपूर्ण हैं, जो आकाश की भांति अनंत और शुद्ध तत्वस्वरूप हैं, जो संसार रूपी विपत्ति के आकाश में मोक्ष का प्रकाश फैलाने वाले हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
आकाश असीम और अकलुष (निर्मल) होता है, इसी प्रकार ऋषभदेव भी निर्मल, असीम ज्ञानस्वरूप और अनंतगुणी हैं।
(16)
🔸 वातात्मजः शुद्धगुणप्रदातः।
🔸 मारुत्सुतो यः समदर्शनाय॥
🔸 भवाब्धिपारे स्थिरबोधमार्गे।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो वायु के समान सबको शुद्धता और निर्मलता प्रदान करने वाले हैं, जो संसार सागर से पार लगाने के लिए स्थिर बोध मार्ग का उपदेश देने वाले हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। मरुदेवी माता के नंदन होने से आप मरुत (वायुदेव) कहलाये जा सकते हैं.
वायु सर्वत्र व्याप्त और जीवन का आधार है, इसी प्रकार ऋषभदेव ज्ञान, धर्म और मोक्ष का संचार करने वाले हैं।
(17)
🔸 रोगस्य नाशं परमं प्रदातुम्।
🔸 अश्विन्यभिख्यातमधर्मरूपम्॥
🔸 लोकस्य शुद्धिं प्रथयन्तमाद्यं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो सभी रोगों के नाशक हैं, जो अशुभ कर्मों से मुक्त करने वाले हैं, जो समस्त लोक में शुद्धता का प्रचार करने वाले हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। देव चिकित्सक अश्वनीकुमार द्वय रोगों के हर्ता देव हैं. भवरोग के नाशक आप ही अश्वनीकुमार हैं.
ऋषभदेव सच्चे धर्म की स्थापना कर अज्ञान, मोह और अशुभ कर्मों को समाप्त कर भवरोग का नाश करने वाले हैं।
(18)
🔸 बुद्धः स्वयं योगविदां वरिष्ठः।
🔸 ज्ञानस्य मूलं परमं विशुद्धम्॥
🔸 सम्यक्समार्गेण जनेषु पूज्यः।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो स्वयं महान योगी हैं, जो ज्ञान के मूल स्वरूप एवं परम शुद्ध हैं, जो सम्यक् मार्ग (सही राह) से संसार को मोक्ष प्रदान करते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। समस्त योगों को जाने वाले हे ऋषभदेव! आप ही बुद्ध हैं. सम्यग सन्मार्ग की ओर प्रेरित करनेवाले आप ही सम्यक सम्बुद्ध हैं!
ऋषभदेव ज्ञान, ध्यान और तप के महान आचार्य हैं और सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के प्रदाता हैं।
(19)
🔸 स्फटिकसिंहासनमास्तु यस्य।
🔸 छत्रत्रयं चामरयुग्ममेतत्॥
🔸 देवासुरैश्चाभिवन्द्यमानम्।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जिनका स्फटिक का शुद्ध सिंहासन है, जिनके मस्तक पर तीन छत्र एवं दो चँवर शोभायमान हैं, जिनकी देव-दानव सभी वंदना करते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। देवासुरों द्वारा पूजित होने से आप ही वास्तविक अर्हत हैं.
भगवान ऋषभदेव समस्त लोकों द्वारा पूज्य, सर्वश्रेष्ठ और परमशुद्ध हैं।
(20)
🔸 सरस्वती यत्र वचः प्रवृत्तम्।
🔸 लक्ष्म्या च युक्तं परमं विशुद्धम्॥
🔸 सर्वेश्वरेशं परमार्थबोधं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जिनकी वाणी में स्वयं सरस्वती विराजमान हैं जो लक्ष्मी के समान पुण्य और ऐश्वर्य से युक्त हैं, जो सर्वेश्वर और परमार्थ बोध के ज्ञाता हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
ऋषभदेव ज्ञान और धर्म के महान आचार्य हैं, जिनकी वाणी मोक्ष का मार्ग दिखाने वाली है।
(21)
🔸 धर्मस्य मूलं परमं विशुद्धम्।
🔸 सर्वात्मतत्त्वं करुणाप्रधानम्॥
🔸 सर्वज्ञमार्गे स्थितबोधयन्तं।
🔸 तं नः प्रपद्ये शरणं जिनेशम्॥
📜 अर्थ:
जो धर्म के मूल, परम शुद्ध, सर्वज्ञ एवं करुणास्वरूप हैं, जो सम्यक मार्ग पर स्थित होकर ज्ञान का प्रचार करते हैं, ऐसे जिनेंद्र भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
भगवान ऋषभदेव धर्म, ज्ञान और मोक्षमार्ग की स्थापना करने वाले हैं।
सांगानेर जिनालयद्वय का वर्णन
(22)
🔸 सांगानेरे श्री ऋषभप्रसादे।
🔸 साहस्रवर्षप्रतिपत्तिशुद्धे॥
🔸 चन्द्रप्रभे पञ्चशताब्दिवन्द्ये।
🔸 नत्वाऽर्पयामः प्रणतिं जिनेभ्यः॥
📜 अर्थ:
सांगानेर में स्थित 1000 वर्ष प्राचीन श्री ऋषभदेव मंदिर तथा 500 वर्ष प्राचीन श्री चंद्रप्रभ जिनालय को नमन कर, मैं समस्त तीर्थंकरों को श्रद्धा अर्पित करता हूँ।
सांगानेर में दो प्रमुख जैन मंदिर हैं—श्री ऋषभदेव भगवान का 1000 वर्ष प्राचीन मंदिर और श्री चंद्रप्रभु जिनालय जो 500 वर्ष पुराना है।
🔸 साहस्रवर्षप्रतिपत्तिशुद्धे॥
🔸 चन्द्रप्रभे पञ्चशताब्दिवन्द्ये।
🔸 नत्वाऽर्पयामः प्रणतिं जिनेभ्यः॥
सांगानेर में स्थित 1000 वर्ष प्राचीन श्री ऋषभदेव मंदिर तथा 500 वर्ष प्राचीन श्री चंद्रप्रभ जिनालय को नमन कर, मैं समस्त तीर्थंकरों को श्रद्धा अर्पित करता हूँ।
(23)
🔸 ध्वजार्पणे मङ्गलमादधाने।
🔸 देवैर्युतं पुण्यगणैः ससंघैः॥
🔸 स्तोत्रं मया भावनया वितन्यं।
🔸 शरण्यतां नौ जिननाथ एकः॥
📜 अर्थ:
इस ध्वजारोहण के मंगलकारी अवसर पर, देवों और पुण्यात्माओं के समुदाय से युक्त इस महोत्सव में, मैंने इस स्तोत्र की रचना भावनापूर्वक की है। हे जिननाथ! आप ही मेरी एकमात्र शरण हैं।
यह श्लोक सांगानेर के श्री ऋषभदेव मंदिर और श्री चंद्रप्रभु जिनालय के ध्वजारोहण महोत्सव के संदर्भ में है।
(24)
🔸 यस्मै जिनेन्द्राय वरं प्रकाशम्।
🔸 यो मे व्यदाद् तत्वविदां वरिष्ठम्॥
🔸 ज्योतिर्भवानेन कृपातिशक्त्या।
🔸 तस्मै नमस्ते ऋषभाय नित्यम्॥
📜 अर्थ:
जिस जिनेंद्र भगवान ने मुझे सर्वोत्तम ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया, जो समस्त तत्वों के ज्ञाता एवं ज्योतिर्मय हैं, उनकी असीम कृपा से मैं कृतार्थ हूँ, ऐसे ऋषभदेव भगवान को मैं नित्य नमन करता हूँ। इस श्लोक में स्तोत्र के रचयिता ने अपना नाम "ज्योति" भी गुम्फित किया है.
🌿 संक्षिप्त सारांश
🔹 भगवान ऋषभदेव के दिव्य गुणों, उनकी महिमा और उनके द्वारा स्थापित धर्म का गुणगान किया गया है।
🔹 सांगानेर के 1000 वर्ष प्राचीन श्री ऋषभदेव मंदिर एवं 500 वर्ष प्राचीन श्री चंद्रप्रभु जिनालय की गौरवशाली परंपरा का उल्लेख किया गया है।
🔹 ऋषभदेव को विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों (अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी) एवं तत्वों (धैर्य, ज्ञान, योग, मोक्ष) के प्रतीक रूप में वर्णित किया गया है।
🔹 यह स्तोत्र हमें मोक्षमार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है एवं संयम, ध्यान, ज्ञान और अहिंसा के पथ पर बढ़ने का संदेश देता है।
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