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Thursday, March 20, 2025

दशराज्ञ संग्राम में इन्द्र-वरुण कृपा: तृत्सु-सुदास की ऋग्वेदीय विजयगाथा


परिचय:

ऋग्वेद मंडल 7, सूक्त 83, मंत्र 6-7 — यह सूक्त महर्षि वसिष्ठ द्वारा रचित है। इसमें दशराज्ञ युद्ध का वर्णन है, जिसमें सुदास तृत्सु वंश का राजा है और उसका संघर्ष दस राजाओं के विरुद्ध है। ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम न केवल वैदिक इतिहास का एक अद्भुत अध्याय है, बल्कि यह आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के बीच होने वाले आंतरिक संघर्ष का गहरा प्रतीक भी है। 

इस लेख में हम ऋग्वेद के सप्तम मंडल के 83वें सूक्त के दो मंत्रों (7.83.6-7) के माध्यम से सुदास और तृत्सु वंश की विजय को एक दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समझने का प्रयास करेंगे। इन्द्र-वरुण कृपा से सुदास विकाररूपी दशराजाओं पर विजय प्राप्त करता है और आत्मा के उत्कर्ष का प्रतीक बनता है। यह सूक्त आत्मिक संघर्ष, इन्द्रियों पर विजय, और धर्म-मार्ग में स्थिर रहने का संदेश देता है।

ऋग्वेद का दशराज्ञ युद्ध: प्रतीकात्मक चित्रण 

मूल मंत्र, पदपाठ, शब्दार्थ, अन्वय और भावार्थ सहित

स्वर सहित: 

यु॒वां ह॑वन्त उ॒भया॑स आ॒जिष्विन्द्रं॑ च॒ वस्वो॒ वरु॑णं च सा॒तये॑ । यत्र॒ राज॑भिर्द॒शभि॒र्निबा॑धितं॒ प्र सु॒दास॒माव॑तं॒ तृत्सु॑भिः स॒ह॥ ऋग्वेद मंत्र 7.83.6

पदपाठ: 

युवाम् । हवन्ते । उभयासः । आजिषु । इन्द्रम् । च । वस्वः । वरुणम् । च । सातये । यत्र । राजभिः । दशभिः । निबाधितम् । प्र । सुदासम् । आवतम् । तृत्सुभिः । सह ॥

शब्दार्थ: युवाम् — तुम दोनों (इन्द्र और वरुण), हवन्ते — आह्वान करते हैं, उभयासः — दोनों ओर के योद्धा, आजिषु — रणभूमि में, इन्द्रम् — इन्द्र को, च — और, वस्वः — धनदाता, वरुणम् — वरुण को, च — और, सातये — सहायता के लिए, यत्र — जहाँ, राजभिः — राजाओं द्वारा, दशभिः — दस राजाओं से, निबाधितम् — घिरा हुआ, प्र — आगे, सुदासम् — सुदास को, आवतम् — सहायता करो, तृत्सुभिः — तृत्सुओं के साथ, सह — सहित।

अन्वय: यत्र दशभिः राजभिः निबाधितं सुदासम् तृत्सुभिः सह प्र आवतम्, युवाम् इन्द्रम् च वरुणम् च वस्वः उभयासः आजिषु सातये हवन्ते।

भावार्थ: हे इन्द्र और वरुण! रणभूमि में दोनों पक्षों के योद्धा तुम्हें सहायता के लिए पुकारते हैं। जहाँ सुदास तृत्सुओं सहित दस राजाओं से घिरा हुआ है, वहाँ तुम दोनों उसकी रक्षा करो।

आध्यात्मिक भावार्थ:

यह मंत्र आत्मा के उस संघर्ष का प्रतीक है जहाँ जीव संसार की रणभूमि में मोह, राग, द्वेष और विकारों रूपी दस इन्द्रिय-राजाओं से घिरा हुआ है। वह अपने भीतर के दिव्य बल (इन्द्र) और मर्यादा (वरुण) को पुकारता है — जो आत्मा के संकल्प, संयम और आत्मशक्ति के प्रतीक हैं। आत्मा जब सत्य में स्थित होकर, अपने भीतर के इन्द्र-वरुण को जागृत करती है, तभी वह इस घेराव से बाहर आ सकती है। यह मंत्र सिखाता है कि आत्मबल, विवेक और संयम से ही जीव इस मोह-माया के जाल से बाहर निकलकर आत्मोद्धार कर सकता है।


स्वर सहित:

दश॒ राजा॑न॒: समि॑ता॒ अय॑ज्यवः सु॒दास॑मिन्द्रावरुणा॒ न यु॑युधुः । स॒त्या नृ॒णाम॑द्म॒सदा॒मुप॑स्तुतिर्दे॒वा ए॑षामभवन्दे॒वहू॑तिषु ॥ ऋग्वेद मंत्र 7.83.7

पदपाठ: 

दश । राजानः । समिता: । अयज्यवः । सुदासम् । इन्द्रावरुणा । न । युयुधुः । सत्या । नृणाम् । अद्मसदाम् । उपस्तुतिः । देवाः । एषाम् । अभवन् । देवहूतिषु ॥

शब्दार्थ: दश राजानः — दस राजा, समिताः — एकत्र हुए, अयज्यवः — यज्ञविहीन, सुदासम् — सुदास को, इन्द्रावरुणा — हे इन्द्र-वरुण!, न युयुधुः — जीत न सके, सत्या — सत्य में स्थित, नृणाम् — मनुष्यों में, अद्मसदाम् — भोजन करने वालों में, उपस्तुतिः — स्तुति के योग्य, देवाः — देवता, एषाम् — इनके, अभवन् — बने, देवहूतिषु — देवताओं की वंदना में।

अन्वय: दश राजानः समिताः अयज्यवः सुदासम् इन्द्रावरुणा न युयुधुः। सत्या नृणाम् अद्मसदाम् उपस्तुतिः एषाम् देवाः देवहूतिषु अभवन्।

भावार्थ: दस राजा यज्ञविहीन होकर सुदास के विरुद्ध एकत्र हुए, किन्तु हे इन्द्र-वरुण! वे सुदास को जीत न सके। सत्य में स्थित मनुष्यों में ये सदा वंदनीय बन गए और देवताओं द्वारा पूजित हुए।

आध्यात्मिक भावार्थ:

दस इन्द्रियों रूपी अधर्मी राजा — जो यज्ञ-विहीन हैं अर्थात संस्कार विहीन एवं विकारी हैं; आत्मा को विकारों में बांधने वाले हैं — वे चाहे जितना भी बल लगाएँ, आत्मा को सत्य और धर्म से डिगा नहीं सकते यदि आत्मा इन्द्र-वरुण स्वरूप आत्मबल और मर्यादा में स्थित हो। सत्य में स्थित साधक देवताओं के समान वंदनीय बन जाता है और विकारों पर विजय प्राप्त करता है। यह मंत्र बताता है कि आत्मा का परम आश्रय सत्य और धर्म है, और वही उसे इस घोर संसार-संग्राम में विजय दिलाता है।


विशेष व्याकरणिक एवं दार्शनिक विश्लेषण — 'तृत्सु' शब्द:

'तृत्सु' शब्द व्याकरण की दृष्टि से पुल्लिंग, बहुवचन, तृतीया विभक्ति में प्रयुक्त हुआ है ("तृत्सुभिः"), जिसका कारक अर्थ 'साथ' अथवा 'द्वारा' है।

  • धातु और व्युत्पत्ति: यह '√तृ' (पार करना, जीतना) धातु से बना है, जो 'त्सु' प्रत्यय से जुड़कर 'तृत्सु' बनता है।

  • सामान्य अर्थ: ऋग्वेद में 'तृत्सु' सुदास के वंश या कुल का नाम है, जो एक यशस्वी और सत्य-धर्म में स्थित योद्धा जाति है।

  • दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ: '√तृ' का अर्थ है — 'पार करना'। इस दृष्टि से 'तृत्सु' वह समूह है जो जीवन-संसार के बंधनों और इन्द्रिय विकारों को पार कर जाने की क्षमता रखता है। यह आत्मा का वह स्वरूप या साधक समुदाय है, जो विकारों से संघर्ष कर संसार-सागर को लांघने में समर्थ है।

  • 'तृत्सु' का प्रयोग केवल ऐतिहासिक वंशवाचक नहीं, बल्कि आत्म-गुणवाचक है — जो 'परम लक्ष्य' को पार कर पाने की शक्ति और सामर्थ्य रखते हैं।

निष्कर्ष :

अतः 'तृत्सु' शब्द का प्रयोग यहाँ गहरे आध्यात्मिक अर्थों में हुआ है — 'विजेता साधक समूह', 'आत्मिक विजेता', 'मुक्ति पथ के पथिक'।

दार्शनिक और आध्यात्मिक विवेचन:

ऋग्वेद के ये मंत्र दशराज्ञ युद्ध के बहाने एक गहन आत्मिक संघर्ष का प्रतीक बन जाते हैं, जहाँ राजा सुदास न केवल बाहरी शत्रुओं से युद्ध कर रहे हैं, बल्कि आत्मा के भीतर के दस इन्द्रिय रूपी शत्रुओं पर विजय का भी संदेश दे रहे हैं। 'दश राजान:' यहाँ दस इन्द्रियों का द्योतक हैं, जो आत्मा को बाँधने और मोक्षमार्ग से विचलित करने वाले बाहरी और आंतरिक द्वार हैं। तृत्सु वंश का सुदास आत्मा का प्रतिनिधि है, जो इन इन्द्रियों को जीतकर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर है।

'सत्या नृणाम्' — यह पद गहराई से बताता है कि सत्य और धर्म में स्थित मनुष्य ही इस संघर्ष में विजयी हो सकता है। देवताओं की 'उपस्तुति' यानी आत्मसमर्पण और आंतरिक साधना आत्मा को परम गति दिलाती है।

यह प्रत्येक जीव का संघर्ष है, जहाँ आत्मा (सुदास) इन्द्रिय-विकारों (दश राजान:) से घिरी है। इन्द्र (बल) और वरुण (मर्यादा) की कृपा अर्थात तप, संयम, विवेक और श्रद्धा का सहारा लेकर आत्मा इस घोर युद्ध में विजयी हो सकती है।

जो आत्मा इन्द्रियों पर विजय पा लेती है, वही सच्चे अर्थों में 'सुदास' बनती है — 'सु' (शुभ) और 'दास' (सेवक) — जो शुभ के प्रति समर्पित है, आत्मा की सेवा में रत है और अन्ततः मोक्षमार्ग का पथिक है।

ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


वरुण का विस्तृत दार्शनिक अर्थ:

वरुण का मूल अर्थ है — जो सबको आवृत्त (घेरने वाला) है, संपूर्ण जगत का अनुशासक और सर्व-संयामी है। वह ऋत (Cosmic Order), सत्य (Truth) और मर्यादा (Discipline) का अधिपति है। वरुण आत्मा का वह पक्ष है जो नियम, मर्यादा, सत्य, आत्म-संयम और नैतिकता में स्थित रहता है।

वरुण का गहरा संबंध समुद्र और जल से है। वह समुद्र का अधिपति है — समुद्र जो अपनी मर्यादा नहीं लाँघता, रत्नों का भंडार है, और जिसकी गहराई आत्म-विश्लेषण और चिंतन की गहराई का प्रतीक है। समुद्र की गंभीरता और स्थिरता आत्मा के गहरे चिंतन और आत्म-संयम का रूपक है।

वरुण जलस्वरूप है — शीतलता, लचीलापन और शुद्धि का प्रतीक। जल जैसा स्वभाव आत्मा में होना चाहिए — शीतल, क्रोध-रहित, द्रव स्वरूप में लचीला और परिस्थिति के अनुसार ढलने वाला, परंतु अपनी शुद्धता और स्वरूप को खोए बिना। जल अन्य सभी वस्तुओं का भी शुद्धिकरण करता है. 

वरुण सिखाता है कि शुद्धि, संयम और मर्यादा में रहकर ही आत्मा जीवन-सागर में गोता लगाकर दिव्य रत्न प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार वरुण केवल नियामक नहीं, अपितु आत्मा का वह शीतल, संयमी, लचीला और गहरे चिंतन में स्थिर पक्ष है, जो आत्मा को मर्यादा और ऋत में स्थापित कर मोक्षमार्ग का पथिक बनाता है। 

इन्द्र के विविध पर्यायों का आध्यात्मिक अर्थ:

शक्र (Shakra): शक्ति से सम्पन्न, वह आत्मा का संकल्पबल है, जो भीतर जागता है और आत्मा को दृढ़ बनाता है।

देवराज (Devarāja): देवताओं का राजा। देव यहां इन्द्रियाँ हैं। आत्मा का वह दिव्य स्वरूप जो इन्द्रियों का स्वामी बनकर उन्हें नियंत्रित करता है।

पुरंदर (Purandara): पुर (अहंकार और आसक्ति के दुर्ग) को ध्वस्त करने वाला। आत्मा का वह बल, जो भीतर बसे मिथ्या विश्वासों और कर्मजन्य बंधनों को तोड़ता है।

वज्रपाणि (Vajrapāṇi): वज्रधारी। आत्मा का वह अचल पक्ष जो कठिन से कठिन कर्म और मोह के आघात को झेलने की शक्ति रखता है। विवेक और धैर्य का वज्रधारी। 'वज्र' अत्यंत कठोर है, जो पुर और पर्वत को भेदने में सक्षम है। इसकी तुलना अशनि या कड़कती बिजली से भी की जाती है, जो अंधकार को चीरती है। साधक का हृदय उसी वज्र के समान कठोर होता है — अपने विकारों और मोह के प्रति, किंतु शिरीष पुष्प के समान कोमल होता है समस्त जीवों के प्रति। यही संयम, करुणा और तपस्या का समुचित संतुलन आत्मिक वज्रपाणि को सिद्ध करता है। साधक का यह वज्र उसकी आत्मशक्ति बनकर उसे समस्त विकारों पर अचल बनाता है और उसे मोक्षमार्ग पर अडिग रखता है।

शतक्रतु (Shatakratu): सैकड़ों संकल्प और साधनाओं से समृद्ध। वह आत्मा का वह रूप, जो बार-बार संकल्प करता है, बार-बार गिरकर उठता है, साधना में लगा रहता है।

सहस्राक्ष (Sahasrākṣa): हज़ार नेत्रों वाला। आत्मा का वह जाग्रत पक्ष जो सर्वदर्शी है, जो भीतर-बाहर सब देखता है और कहीं भी मोह में नहीं फँसता।

मघवा (Maghavā): दानशील, उदार। आत्मा का वह रूप जो आत्म-ज्ञान, सत्य और धर्म का दान करता है। लोभ और संग्रह से परे उदारता में स्थित रहता है।

पाकशासन (Pākashāsana): अधर्म और पाप का संहारक। आत्मा का वह तेजस्वी रूप जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं का नाश करता है।


इन्द्र का ऐश्वर्य दार्शनिक अर्थ:

इन्द्र केवल शक्ति का देवता नहीं, वह ऐश्वर्यवाची भी है। 'इन्द्र' का अर्थ है — 'श्रेष्ठ, प्रमुख, सर्वश्रेष्ठ'। आत्मा का वह रूप जो इन्द्रियों का अधिपति बनकर आत्मवैभव को प्राप्त करता है। जब आत्मा इन्द्रियों पर शासन कर लेती है, तब वह बाह्य भोगों की दासी नहीं रह जाती, बल्कि अपने भीतर के दिव्य ऐश्वर्य, ज्ञान, शांति और आनन्द को प्राप्त करती है।

इन्द्र वर्षा के अधिपति भी हैं। वर्षा का अर्थ है — जीवन में संभावनाओं और समृद्धि की वर्षा। वर्षा धरती को उपजाऊ बनाती है। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ है — आत्मा का वह स्वरूप, जो अपनी साधना और तप से भीतर की भूमि को उपजाऊ बनाता है, जहाँ ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और मोक्ष के बीज अंकुरित होते हैं।

अतः इन्द्र ऐश्वर्य, विजय, और आत्म वैभव का वह द्योतक है, जो आत्मा को साधना और विवेक के बल से भीतर समृद्ध और ऊर्जावान बनाता है।


संक्षिप्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:

ऋग्वेद में वर्णित यह युद्ध सुदास और दस राजाओं के मध्य परुष्णी नदी के तट पर घटित हुआ माना जाता है। विश्वामित्र और वसिष्ठ जैसे महर्षियों की भूमिका इस युद्ध में रही। किन्तु यह इतिहास केवल पृष्ठभूमि है, असली युद्ध आत्मा और इन्द्रियों के बीच का है।

 विशेष टिप्पणी — ऐतिहासिक नहीं, आत्मिक युद्ध का रूपक

यह दशराज्ञ युद्ध मात्र ऐतिहासिक युद्ध नहीं है। ऋग्वेद का यह वर्णन एक आध्यात्मिक रूपक है, जो प्रत्येक साधक के भीतर घटित होता है।
'दश राजा' — हमारी दस इन्द्रियाँ और मनोविकार हैं। 'सुदास' — वह आत्मा है जो सत्य, धर्म और साधना के बल से विकारों पर विजय पाती है।
इसलिए इस सूक्त को पढ़ते समय बाह्य इतिहास नहीं, अंतर्यात्रा और आत्मसंघर्ष का चिन्तन आवश्यक है।


जीवन में उपयोगिता (Practical Relevance):

यह सूक्त हमें सिखाता है —

  • रोजमर्रा के जीवन में देश इन्द्रियों के दश विकार हमारे 'दशराज्ञ' हैं।
  • आत्मा को अपने भीतर इन्द्र-वरुण रूपी बल और मर्यादा का आह्वान करना चाहिए।
  • आत्मसंयम, सत्य और धर्म ही इस संसार-संग्राम में विजय के शस्त्र हैं।
  • यही अभ्यास जीवन में शांति, संतुलन और मोक्षमार्ग प्रदान करता है।

उपसंहार:

ऋग्वेद के ये मंत्र केवल किसी ऐतिहासिक विजय के वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि यह आत्मा के परम संघर्ष का प्रतीक हैं। सत्य, धर्म, आत्मबल और साधना का पथ अपनाकर ही आत्मा इस संसार-सागर से पार हो सकती है। यही इन मंत्रों का सनातन और सार्वकालिक संदेश है।

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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Tuesday, March 18, 2025

यजुर्वेद मे ऋषभ वाची मन्त्र

 

भगवान ऋषभदेव केवल जैनों के प्रथम तीर्थंकर नहीं हैं. वैदिक संस्कृति में भी उनका उच्च एवं महत्वपूर्ण स्थान है. उत्तर वैदिक काल में रचित भक्ति साहित्य विशेषकर श्रीमद्भगवद एवं विष्णुपुराण में उनका विशिष्ट उल्लेख मिलता है जिससे सामान्य जन भी परिचित हैं. परन्तु मूल वैदिक संहिताओं में भी ऋषभ देव एवं वृषभ शब्द का बारम्बार उल्लेख मिलता है. 

विशेषकर ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के मन्त्रों में ऋषभ एवं वृषभ शब्दों का उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है. यहाँ पर यजुर्वेद में प्राप्त ऋषभवाची कुछ मन्त्रों का उल्लेख किया जा रहा है. इसी प्रकार ऋग्वेद में प्राप्त ऋषभवाची ऋचाओं का भी संकलन किया जा रहा ही जिसे बाद में प्रस्तुत किया जायेगा. इसी प्रकार दोनों ही वेदों में अनेक वृषभवाची मन्त्र भी हैं, जिनका भी संकलन कर प्रस्तुत किया जायेगा. 

विद्वज्जनों से निवेदन है की इस प्रकार की और भी ऋषभ या वृषभ वाची मन्त्र उनके ध्यान में हो तो कृपया सूचित करें. वैदिक एवं जैन संस्कृति के समन्वय की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है. इस प्रकार के कुछ सूत्रों का अर्थ एवं व्याख्या भी किया गया है, जिसे रुचिशील पाठक यहाँ देख सकते हैं. इस लिंक पर क्लीक कर उन लेखों तक पहुँच सकते हैं. 

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


पूज्य आचार्यों/ मनीषियों से निवेदन है की इस प्रकार सन्दर्भ सहित इन वैदिक मन्त्रों का अर्थ एवं व्याख्या कर सामान्य जनों तक पहुंचाएं एवं भारतीय संस्कृति की इन दो महत्वपूर्ण धाराओं में समन्वय का मार्ग प्रशस्त करें. 

यजुर्वेद मे ऋषभ वाची मन्त्र 

1. प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७


पद पाठ

प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। च॒। मे॒। प॒ष्ठौ॒ही। च॒। मे॒। उ॒क्षा। च॒। मे॒। व॒शा। च॒। मे॒। ऋ॒ष॒भः। च॒। मे॒। वे॒हत्। च॒। मे॒। अ॒न॒ड्वान्। च॒। मे॒। धे॒नुः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२७ ॥

18-27 

अर्थ एवं व्याख्या:  

यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ 


2. होता॑ यक्षदि॒डेडि॒तऽआ॒ जु॒ह्वा॑नः॒ सर॑स्वती॒मिन्द्रं बले॑न व॒र्धय॑न्नृष॒भेण॒ गवे॑न्द्रि॒यम॒श्विनेन्द्रा॑य भेष॒जं यवैः॑ क॒र्कन्धु॑भि॒र्मधु॑ ला॒जैर्न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३२ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। इ॒डा। ई॒डि॒तः। आ॒जुह्वा॑न॒ इत्या॒ऽजुह्वा॑नः। सर॑स्वतीम्। इन्द्र॑म्। बले॑न। व॒र्धय॑न्। ऋ॒ष॒भेण॑। गवा॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒श्विना॑। इन्द्रा॑य। भे॒ष॒जम्। यवैः॑। क॒र्कन्धु॑भि॒रिति॑ क॒र्कन्धु॑ऽभिः। मधु॑। ला॒जैः। न। मास॑रम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३२ ॥

21-32 

3. होता॑ यक्षद॒ग्नि स्वाहाज्य॑स्य स्तो॒काना॒ स्वाहा॒ मेद॑सां॒ पृथ॒क्स्वाहा॒ छाग॑म॒श्विभ्या॒ स्वाहा॒॑ मे॒षꣳ सर॑स्वत्यै॒ स्वाह॑ऽऋष॒भमिन्द्रा॑य सि॒ꣳहाय॒ सह॑सऽइन्द्रि॒यꣳ स्वाहा॒ग्निं न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॒ सोम॑मिन्द्रि॒यꣳ स्वाहेन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णꣳ सवि॒तारं॒ वरु॑णं भि॒षजां॒ पति॒ꣳ स्वाहा॒ वनस्पतिं॑ प्रि॒यं पाथो॒ न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॑ दे॒वाऽआ॑ज्य॒पा जु॑षा॒णोऽअ॒ग्निर्भे॑ष॒जं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥४० ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वाहा॑। आज्य॑स्य। स्तो॒काना॑म्। स्वाहा॑। मेद॑साम्। पृथ॑क्। स्वाहा॑। छाग॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। स्वाहा॑। मे॒षम्। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। ऋ॒ष॒भम्। इन्द्रा॑य। सि॒ꣳहाय॑। सह॑से। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। सोम॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। स॒वि॒तार॑म्। वरु॑णम्। भि॒षजा॑म्। पति॑म्। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। भे॒ष॒जम्। पयः॑। सोमः॑ प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥४० ॥

21-40 

4. होता॑ यक्षद॒श्विनौ॒ छाग॑स्य व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षेता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒त्सर॑स्वतीं मे॒षस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४१ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। छाग॑स्य। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षेता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्सर॑स्वतीम्। मे॒षस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४१ ॥

21-41

5. होता॑ यक्षद॒श्विनौ॒ सर॑स्वती॒मिन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णमि॒मे सोमाः॑ सु॒रामा॑ण॒श्छागै॒र्न मे॒षैर्ऋ॑ष॒भैः सु॒ताः शष्पै॒र्न तोक्म॑भिर्ला॒जैर्मह॑स्वन्तो॒ मदा॒ मास॑रेण॒ परि॑ष्कृताः शु॒क्राः पय॑स्वन्तो॒ऽमृताः॒ प्र॑स्थिता वो मधु॒श्चुत॒स्तान॒श्विना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ वृत्र॒हा जु॒षन्ता॑ सो॒म्यं मधु॒ पिब॑न्तु॒ मद॑न्तु॒ व्यन्तु॒ होत॒र्यज॑ ॥४२ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। सर॑स्वतीम्। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑णमिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। इ॒मे। सोमाः॑। सु॒रामा॑णः। छागैः॑। न। मे॒षैः। ऋ॒ष॒भैः। सु॒ताः। शष्पैः॑। न। तोक्म॑भिरिति॒ तोक्म॑ऽभिः। ला॒जैः। मह॑स्वन्तः। मदाः॑। मास॑रेण। परि॑ष्कृताः। शु॒क्राः। पय॑स्वन्तः। अ॒मृताः॑। प्र॑स्थिता॒ इति॒ प्रऽस्थि॑ताः। वः॒। म॒धु॒श्चुत॒ इति॑ मधु॒ऽश्चुतः॑। तान्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। इन्द्रः॑। सु॒त्रामा॑। वृ॒त्र॒हा। जु॒षन्ता॑म्। सो॒म्यम्। मधु॑। पिब॑न्तु। मद॑न्तु। व्यन्तु॑। होतः॑। यज॑ ॥४२ ॥

21-42 

6. होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ ह॒विष॒ऽआव॑यद॒द्य म॑ध्य॒तो मेद॒ऽउद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस॑न्नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑दे॒वमिन्द्रो॑ जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४५ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। आ। अ॒व॒य॒त्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस॑त्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑त्। ए॒वम्। इन्द्रः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४५ ॥

21-45 

7. होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑म॒भि हि पि॒ष्टत॑मया॒ रभि॑ष्ठया रश॒नयाधि॑त। यत्रा॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सोम॑स्य प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॑ सवि॒तुः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॑नि यत्र॒ वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॑सि॒ यत्र॑ दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ तत्रै॒तान् प्र॒स्तुत्ये॑वोप॒स्तुत्ये॑वो॒पाव॑स्रक्ष॒द् रभी॑यसऽइव कृ॒त्वी कर॑दे॒वं दे॒वो वन॒स्पति॑र्जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४६ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। अ॒भि। हि। पि॒ष्टत॑म॒येति॑ पि॒ष्टऽत॑मया। रभि॑ष्ठया। र॒श॒नया॑। अधि॑त। यत्र॑। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। स॒वि॒तुः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑ꣳसि। यत्र॑। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। तत्र॑। ए॒तान्। प्र॒स्तुत्ये॒वेति॑ प्र॒ऽस्तुत्य॑ऽइव। उ॒प॒स्तुत्ये॒वेत्यु॑प॒ऽस्तुत्य॑इव। उपाव॑स्रक्ष॒दित्यु॑प॒ऽअव॑स्रक्षत्। रभी॑यसऽइ॒वेति॒ रभी॑यसःइव। कृ॒त्वी। कर॑त्। ए॒वम्। देवः॑। वन॒स्पतिः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४६ ॥

21-46

8. होता॑ यक्षद॒ग्निꣳ स्वि॑ष्ट॒कृत॒मया॑ड॒ग्नि॒र॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट्सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ड॒ग्नेः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट्सोम॑स्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ट्सवि॒तुः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॒स्यया॑ड् दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॑द॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॒त्स्वं म॑हि॒मान॒माय॑जता॒मेज्या॒ऽइषः॑ कृ॒णोतु॒ सोऽअ॑ध्व॒रा जा॒तवे॑दा जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४७ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वि॒ष्ट॒कृत॒मिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत॑म्। अया॑ट्। अ॒ग्निः। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। स॒वि॒तुः प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑सि। अया॑ट्। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यक्ष॑त्। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। य॒क्ष॒त्। स्वम्। म॒हि॒मान॑म्। आ। य॒ज॒ता॒म्। एज्या॒ इत्या॒ऽइज्याः॑। इषः॑। कृ॒णोतु॑। सः। अ॒ध्व॒रा। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४७ ॥

21-47
 

9. दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णोऽअ॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या सुपिप्प॒लऽइन्द्रा॑य पच्यते॒ मधु॑। ओजो॒ न जू॒ति॑र्ऋ॑ष॒भो न भामं॒ वन॒स्पति॑र्नो॒ दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५६ ॥


पद पाठ

दे॒वः। दे॒वैः। वन॒स्पतिः॑। हिर॑ण्यवर्ण॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्णः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्या। सु॒पि॒प्प॒ल इति॑ सुऽपिप्प॒लः। इन्द्रा॑य। प॒च्य॒ते॒। मधु॑। ओजः॑। न। जू॒तिः। ऋ॒ष॒भः। न। भाम॑म्। वन॒स्पतिः॑। नः॒। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५६ ॥

21-56 

10. अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशा॑न् ब॒ध्नन्न॒श्विभ्यां॒ छाग॒ꣳ सर॑स्वत्यै मे॒षमिन्द्रा॑यऽऋष॒भꣳ सु॒न्वन्न॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या॒ऽइन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ सुरासो॒मान् ॥५९ ॥


पद पाठ

अ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृणी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रो॒डाशा॑न्। ब॒ध्नन्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। छाग॑म्। सर॑स्वत्यै। मे॒षम्। इन्द्रा॑य। ऋ॒ष॒भम्। सु॒न्वन्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्यै। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति सु॒ऽत्राम्णे॑। सु॒रा॒सो॒मानिति॑ सुराऽसो॒मान् ॥५९ ॥

21-59 

11. सू॒प॒स्थाऽअ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभवद॒श्विभ्यां॒ छागे॑न॒ सर॑स्वत्यै मे॒षेणेन्द्रा॑यऽऋष॒भेणाक्षँ॒स्तान् मे॑द॒स्तः प्रति॑ पच॒तागृ॑भीष॒तावी॑वृधन्त पुरो॒डाशै॒रपु॑र॒श्विना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सुरासो॒मान् ॥६० ॥


पद पाठ

सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्थाः। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। छागे॑न। सर॑स्वत्यै। मे॒षेण॑। इन्द्रा॑य। ऋ॒ष॒भेण॑। अक्ष॑न्। तान्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अगृ॑भीषत। अवी॑वृधन्त। पु॒रो॒डाशैः॑। अपुः॑। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। सु॒रा॒सो॒मानिति॑ सुराऽसो॒मान् ॥६० ॥

21-60 


12. उ॒न्न॒त ऋ॑ष॒भो वा॑म॒नस्तऽऐ॑न्द्रावैष्ण॒वाऽउ॑न्न॒तः शि॑तिबा॒हुः शि॑तिपृ॒ष्ठस्तऽऐ॑न्द्राबार्हस्प॒त्याः शुक॑रूपा वाजि॒नाः क॒ल्माषा॑ऽआग्निमारु॒ताः श्या॒माः पौ॒ष्णाः ॥७ ॥


पद पाठ

उ॒न्न॒त इत्यु॑त्ऽन॒तः। ऋ॒ष॒भः। वा॒म॒नः। ते। ऐ॒न्द्रा॒वै॒ष्ण॒वाः। उ॒न्न॒त इत्यु॑त्ऽन॒तः। शि॒ति॒बा॒हुरिति॑ शितिऽबा॒हुः। शि॒ति॒पृ॒ष्ठ इति॑ शितिऽपृ॒ष्ठः। ते। ऐ॒न्द्रा॒बा॒र्ह॒स्प॒त्याः। शुक॑रू॒पा इति॒ शुक॑ऽरू॒पाः। वा॒जि॒नाः। क॒ल्माषाः॑। आ॒ग्नि॒मा॒रु॒ता इत्या॑ग्निमारु॒ताः। श्या॒माः। पौ॒ष्णाः ॥७ ॥

24-7 

13. प॒ष्ठ॒वाहो॑ वि॒राज॑ऽउ॒क्षाणो॑ बृह॒त्याऽऋ॑ष॒भाः क॒कुभे॑ऽन॒ड्वाहः॑ प॒ङ्क्त्यै धे॒नवोऽति॑छन्दसे ॥१३ ॥


पद पाठ

प॒ष्ठ॒वाह॒ इति॑ पष्ठ॒वाहः॑। वि॒राज॒ इति॑ वि॒ऽराजे॑। उ॒क्षाणः॑। बृ॒ह॒त्यै। ऋ॒ष॒भाः। क॒कुभे॑। अ॒न॒ड्वाहः॑। प॒ङ्क्त्यै। धे॒नवः॑। अति॑छन्दस॒ऽइत्यति॑ऽछन्दसे ॥१३।

24-13  

14. होता॑ यक्ष॒त् स्वाहा॑कृतीर॒ग्निं गृ॒हप॑तिं॒ पृथ॒ग्वरु॑णं भेष॒जं कविं॑ क्ष॒त्रमिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। अति॑च्छन्दसं॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं बृ॒हदृ॑ष॒भं गां वयो॒ दध॒द् व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३४ ॥


पद पाठ

होता॑। य॒क्ष॒त्। स्वाहा॑कृती॒रिति॒ स्वाहा॑ऽकृतीः। अ॒ग्निम्। गृ॒हप॑ति॒मिति॑ गृ॒हऽप॑तिम्। पृथ॑क्। वरु॑णम्। भे॒ष॒जम्। क॒विम्। क्ष॒त्रम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। अति॑छन्दस॒मित्यति॑ऽछन्दसम्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। ऋ॒ष॒भम्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३४ ॥

28-34  


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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Monday, March 17, 2025

यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ

भूमिका

यजुर्वेद (18.27) का यह मंत्र वैदिक संस्कृति में पशुपालन, कृषि, और यज्ञ की महत्ता को दर्शाता है। इसमें उत्तम बैल, गाय, और अन्य पशुओं की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है, जो प्राचीन भारतीय समाज की आर्थिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि का प्रतीक थे। वैदिक परंपरा में पशुओं को केवल कृषि एवं दुग्ध उत्पादन के साधन के रूप में ही नहीं, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों, यज्ञीय कर्मों, एवं सामाजिक उन्नति के लिए भी महत्वपूर्ण माना गया है।

इस मंत्र का व्याकरणीय विश्लेषण करने से इसके प्रत्येक पद का शाब्दिक, धात्विक, एवं भाषिक अर्थ स्पष्ट होता है। साथ ही, "ऋषभ" शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के रूप में भी प्रतिष्ठित है। भगवान ऋषभदेव ने कृषि, पशुपालन, और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी, जिससे यह मंत्र जैन दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण बन जाता है।

असि, मसि, कृषि के आद्य प्रणेता ऋषभदेव: मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ

इस लेख में हम इस मंत्र के संहितापाठ, पदपाठ, व्याकरणीय विश्लेषण, अन्वय, एवं वैदिक संदर्भों का अध्ययन करेंगे। साथ ही, जैन दर्शन के दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या करेंगे, जिससे यह स्पष्ट होगा कि यह मंत्र केवल लौकिक अर्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत व्याकरणीय विश्लेषण - भाग 1

(🔹 भाग 1: मंत्र पाठ, पदपाठ एवं व्याकरणीय विश्लेषण)


1. संहितापाठ एवं पदपाठ

संहितापाठ:

"प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

पदपाठ:

"प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। च॒। मे॒। प॒ष्ठौ॒ही। च॒। मे॒। उ॒क्षा। च॒। मे॒। व॒शा। च॒। मे॒। ऋ॒ष॒भः। च॒। मे॒। वे॒हत्। च॒। मे॒। अ॒न॒ड्वान्। च॒। मे॒। धे॒नुः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥"


2. पदों का व्याकरणीय विश्लेषण

शब्द वर्ण विचार (उच्चारण) रूप विचार (शब्द रूप) व्याकरण (विभक्ति, लिंग, वचन) सामान्य अर्थ
पष्ठवाट् प॒ष्ठ॒-वा-ट् पष्ठवाट् (संयुक्त शब्द) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन अच्छा बैल, उत्तम पशु
च॑ अव्यय - और, तथा
मे मे॒ सर्वनाम चतुर्थी विभक्ति, एकवचन मेरे लिए
पष्ठौही प॒ष्ठौ॒ही पष्ठौही स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन अच्छी गाय
उक्षा उ॒क्षा उक्षा (धातु "उक्ष" से बना) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन साँड, बैल
वशा व॒शा वशा स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन दुधारू गाय
ऋषभः ऋ॒ष॒भः ऋषभ (विशेषण) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन श्रेष्ठ, बलशाली बैल
वेहत् वे॒हत् वेहत् पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन विशिष्ट बैल
अनड्वान् अ॒न॒ड्वान् अनड्वान् पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन हल में जोता न गया बैल
धेनुः धे॒नुः धेनु स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन गाय
यज्ञेन य॒ज्ञेन॑ यज्ञ तृतीया विभक्ति, एकवचन यज्ञ के द्वारा
कल्पन्ताम् क॒ल्प॒न्ता॒म् कल्प् (धातु) लोट लकार, प्रार्थनार्थक रूप, बहुवचन योग्य हो, अनुकूल हों

3. अन्वय 

"पष्ठवाट् च मे, पष्ठौही च मे, उक्षा च मे, वशा च मे, ऋषभः च मे, वेहत् च मे, अनड्वान् च मे, धेनुः च मे, यज्ञेन कल्पन्ताम्।"

🔹 सरल अन्वय:
"अच्छे बैल, अच्छी गाय, बलशाली बैल, विशिष्ट बैल, हल में न जोता गया बैल, दुधारू गाय – ये सब मेरे लिए यज्ञ से अनुकूल हों।"


4. व्याकरणीय विशेषताएँ और विशेष व्याख्या

  1. पष्ठवाट्, उक्षा, वशा, ऋषभ, वेहत, अनड्वान, धेनु – सभी संज्ञाएँ हैं।
  2. यज्ञेन – तृतीया विभक्ति में "करण कारक" है, अर्थात यज्ञ के माध्यम से इनका कल्याण हो।
  3. कल्पन्ताम् – लोट लकार में बहुवचन रूप, जो इच्छा या प्रार्थना का सूचक है।


यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत विश्लेषण - भाग 2

(🔹 भाग 2: अन्वय पाठ, सामान्य अर्थ एवं वैदिक संदर्भ)


1. अन्वय पाठ (व्याकरणीय क्रम में सार्थक संकलन)

संहितापाठ:
"प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

अन्वय (व्याकरण के अनुसार क्रमबद्धता):
"पष्ठवाट् च मे कल्पन्ताम्, पष्ठौही च मे कल्पन्ताम्, उक्षा च मे कल्पन्ताम्, वशा च मे कल्पन्ताम्, ऋषभः च मे कल्पन्ताम्, वेहत् च मे कल्पन्ताम्, अनड्वान् च मे कल्पन्ताम्, धेनुः च मे कल्पन्ताम्। यज्ञेन कल्पन्ताम्।"

🔹 सरल अन्वय:
"हे यज्ञ! उत्तम बैल, उत्तम गाय, बलशाली बैल, विशेष बैल, हल में न जोता गया बैल, दुधारू गाय – ये सब मेरे लिए तुम्हारे माध्यम से अनुकूल हो जाएँ।"

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसका निम्न प्रकार से अर्थ किया है. 

 स्वामी जी ने पष्ठवाट् का अर्थ पीठ से भार उठानेवाले मेरे हाथी, ऊँट आदि, पष्ठौही का अर्थ पीठ से भार उठाने वाली  घोड़ी, ऊँटनी आदि अर्थ किया है. उन्होंने पशुशिक्षा को यज्ञकर्म कहा है. अर्थात जो पशुओं को अच्छी शिक्षा देके कार्यों में सयुक्त करते हैं, वे अपने प्रयोजन सिद्ध करके सुखी होते हैं.



 





2. सामान्य अर्थ एवं व्याख्या

(क) सामान्य अर्थ - लौकिक संदर्भ में

विशेष रूप से यज्ञ के माध्यम से इस मंत्र में उत्तम पशुओं की प्राप्ति की कामना की गई है। पशु, विशेष रूप से बैल और गाय, प्राचीन वैदिक समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण थे।

🔹 शब्दों के अर्थ एवं संदर्भ:

  1. पष्ठवाट् – उत्तम बैल, जो खेती एवं भार वहन के लिए उपयुक्त हो।
  2. पष्ठौही – उत्तम गाय, जो दूध देने में श्रेष्ठ हो।
  3. उक्षा – बलशाली साँड, प्रजनन एवं कृषि कार्य के लिए उपयोगी।
  4. वशा – विशेष रूप से उपयोगी गाय, जो अधिक दूध देती हो।
  5. ऋषभः – सर्वोत्तम बैल, नेतृत्व करने वाला पशु।
  6. वेहत् – बलवान, विशिष्ट प्रजाति का बैल।
  7. अनड्वान् – ऐसा बैल जिसे हल में न जोता गया हो, शुद्ध एवं स्वतंत्र।
  8. धेनुः – गाय, जो पोषण एवं समृद्धि का प्रतीक है।
  9. यज्ञेन कल्पन्ताम् – इन सभी पशुओं को यज्ञ के द्वारा अनुकूल बनाया जाए, जिससे वे हमारे जीवन में समृद्धि लाएँ।

👉 वैदिक संस्कृति में, यज्ञ के माध्यम से समृद्धि की प्राप्ति की कामना की जाती थी, जिसमें उत्तम पशुधन की प्राप्ति अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती थी।


(ख) वैदिक संदर्भ एवं पुरातन संस्कृति में इस मंत्र का स्थान

  1. पशुधन का महत्व: वैदिक काल में पशुधन समृद्धि एवं शक्ति का प्रतीक था। उत्तम बैल एवं गायें कृषि एवं दुग्ध उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
  2. यज्ञ की भूमिका: यह मंत्र इस विश्वास को प्रकट करता है कि यज्ञ करने से श्रेष्ठ पशु प्राप्त हो सकते हैं, जो समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
  3. ऋषभ का महत्त्व: "ऋषभ" शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में श्रेष्ठता, अग्रणी शक्ति एवं आध्यात्मिक नेतृत्व के लिए किया जाता है।

3. वैदिक मंत्रों से तुलनात्मक दृष्टि

ऋग्वेद में भी पशुधन की समृद्धि के लिए मंत्र मिलते हैं, जैसे –

  • ऋग्वेद (1.162.2): "गोमन्तं अनड्वानं अश्वावन्तं हविष्मन्तं पुरुषं न इष्टे।"
    • इसमें भी गो, अनड्वान, अश्व एवं अन्य पशुओं की प्राप्ति की कामना की गई है।

यजुर्वेद में पशुधन और यज्ञ का संबंध कई मंत्रों में दिखता है, जैसे –

  • यजुर्वेद (12.71): "धेनुर्मे रसमायुषं दधातु।"
    • यहाँ धेनु (गाय) को आयु एवं रस (जीवनशक्ति) देने वाली बताया गया है।

📌 स्पष्ट है कि वैदिक परंपरा में पशुओं को केवल आर्थिक साधन ही नहीं, बल्कि धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का भी कारक माना गया है।


निष्कर्ष

✅ यह मंत्र उत्तम पशुओं की प्राप्ति एवं उनके कल्याण की कामना से संबंधित है।
✅ यज्ञ को इन पशुओं की वृद्धि एवं शुद्धि का माध्यम माना गया है।
✅ ऋषभ (श्रेष्ठ बैल) यहाँ विशेष स्थान रखता है, जो जैन परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण होगा।

यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत विश्लेषण - भाग 3

(🔹 भाग 3: जैन दृष्टि से विश्लेषण एवं निष्कर्ष)


1. मंत्र में "ऋषभ" का जैन दृष्टि से विश्लेषण

मूल मंत्र:
"प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

🔹 "ऋषभ" शब्द की व्याख्या:

  1. वैदिक दृष्टि से:

    • यहाँ "ऋषभ" का सामान्य अर्थ है श्रेष्ठ बैल, जो कृषि एवं पशुधन के लिए उपयोगी होता है।
    • वैदिक साहित्य में "ऋषभ" का प्रयोग बलशाली, सर्वोत्तम, एवं नेतृत्वकर्ता के रूप में किया जाता है।
  2. जैन दृष्टि से:

    • जैन परंपरा में "ऋषभ" केवल एक बलशाली बैल का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का नाम है।
    • भगवान ऋषभदेव ही प्रथम युगपुरुष माने जाते हैं, जिन्होंने मनुष्यों को कृषि, पशुपालन, लेखन, शस्त्रविद्या (असि), व्यापार (वाणिज्य) और अन्य आवश्यक कलाओं का ज्ञान दिया।
    • जैन आगमों के अनुसार, ऋषभदेव ने मानव समाज को सर्वप्रथम संगठित एवं शिक्षित किया।  
    • यह मंत्र इस विचार को संकेत कर सकता है कि ऋषभदेव के मार्गदर्शन से मानव जाति ने पशुपालन, कृषि आदि की व्यवस्था सीखी।

🔹 संभावित जैन-वैदिक संबंध:

  • यदि "ऋषभ" का अर्थ केवल "श्रेष्ठ बैल" लिया जाए, तब भी यह ऋषभदेव के युग में हुई कृषि क्रांति का प्रतीक हो सकता है।
  • यदि "ऋषभ" को प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में लिया जाए, तो यह मंत्र उनकी शिक्षा, कृषि संस्कृति, एवं समाज व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है।

2. यज्ञ और जैन परिप्रेक्ष्य

मंत्र में "यज्ञ" का प्रयोग:
"य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्" – वैदिक दृष्टि से इस मंत्र में यहाँ "यज्ञ" के माध्यम से पशुधन की समृद्धि की बात कही गई है।

🔹 जैन दृष्टि से यज्ञ का अर्थ:

  1. वेदों में यज्ञ:

    • ऐसा कहा जाता है की वैदिक यज्ञों में प्राचीनकाल में पशुबलि दी जाती थी।
    • यह मंत्र पशुओं की समृद्धि की प्रार्थना कर रहा है, जो संभवतः यज्ञीय पशुबलि के विरोध में कहा गया हो
    • जैन धर्म  वैदिक पशुबलि-प्रधान यज्ञों का विरोध करता है.  
  2. जैन दृष्टि से यज्ञ:

    • "यज्ञ" का वास्तविक अर्थ है – आत्मशुद्धि एवं सत्य की साधना।
    • जैन धर्म में यज्ञ = अहिंसा, दान, त्याग, स्वाध्याय एवं तप।
    • यह मंत्र ऋषभदेव द्वारा स्थापित अहिंसा पर आधारित कृषि एवं समाज संरचना को भी प्रतिबिंबित करता है।

3. अन्य पदों का जैन संदर्भ में विश्लेषण

वैदिक शब्द लौकिक संदर्भ जैन संदर्भ
पष्ठवाट् (श्रेष्ठ बैल) उत्तम कृषि बैल ऋषभदेव द्वारा स्थापित कृषि संस्कृति
पष्ठौही (श्रेष्ठ गाय) उत्तम दुग्ध गाय गौ-पालन एवं अहिंसक समाज निर्माण
उक्षा (साँड) बलशाली पशु ऋषभदेव द्वारा सिखाई गई कृषि में प्रयुक्त
वशा (दुग्धगाय) दूध देने वाली गाय गौ-पालन से प्राप्त आहार व्यवस्था
अनड्वान (हल में न जोता गया बैल) स्वतंत्र बैल आत्म-संयम एवं मोक्ष-मार्ग का प्रतीक
धेनु (गाय) दूध देने वाली माता अहिंसा, करुणा एवं परोपकार का प्रतीक
ऋषभ श्रेष्ठ बैल ऋषभदेव – प्रथम तीर्थंकर, जिन्होंने सभ्यता को दिशा दी
यज्ञेन कल्पन्ताम् (यज्ञ द्वारा योग्य हों) यज्ञ के माध्यम से पशुधन का विकास अहिंसा, त्याग, तपस्या द्वारा समाज उन्नति

4. निष्कर्ष – जैन दृष्टि से मंत्र का व्यापक अर्थ

📌 1. "ऋषभ" शब्द का प्रयोग बैल के लिए नहीं, बल्कि शिक्षा प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के लिए भी किया गया है. 
📌 2. यह मंत्र कृषि एवं पशुपालन के विकास की बात करता है, जो ऋषभदेव द्वारा स्थापित सभ्यता के अनुरूप है।
📌 3. "यज्ञ" का अर्थ यहाँ आत्म-संयम, शुद्धि एवं धर्म का पालन भी लिया जा सकता है, जो जैन दृष्टि से स्वीकार्य है।
📌 4. पशुबलि-प्रधान यज्ञों का विरोध करते हुए, इस मंत्र में पशुओं की समृद्धि की बात की गई है, जो अहिंसक समाज व्यवस्था की ओर संकेत करता है।

अतः यह मंत्र वैदिक कृषि, ऋषभदेव की शिक्षाओं, एवं अहिंसा आधारित सामाजिक व्यवस्था के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध स्थापित कर सकता है।

📌 इस मंत्र का व्यापक अर्थ यह दर्शाता है कि भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्था और वैदिक युग की कृषि आधारित संरचना में कई समानताएँ थीं।

📌 यज्ञ, कृषि, एवं पशुपालन को ऋषभदेव की शिक्षाओं से जोड़कर देखा जा सकता है, जो अहिंसा एवं समाज-व्यवस्था की आधारशिला बने।

✅ भाग 1: मंत्र पाठ, पदपाठ एवं व्याकरणीय विश्लेषण।
✅ भाग 2: अन्वय पाठ, सामान्य अर्थ एवं वैदिक संदर्भ।
✅ भाग 3: जैन दृष्टि से गहन विश्लेषण एवं निष्कर्ष।

ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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असि, मसि, कृषि के आद्य प्रणेता ऋषभदेव: मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ


ऋषभदेव द्वारा समाज, शिक्षा एवं अर्थव्यवस्था का निर्माण

भूमिका

भगवान ऋषभदेव केवल पहले तीर्थंकर ही नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के प्रथम मार्गदर्शक भी थे। उन्होंने मनुष्यों को संस्कृति, शिक्षा, कृषि, व्यापार एवं अर्थव्यवस्था का प्रथम ज्ञान प्रदान किया। इससे पूर्व मानव समाज पूर्णतः असंगठित था, लोग वनों में रहते थे. वृक्षों से प्राप्त फलादि का भोजन करते थे. जैन शास्त्रों में इन्हे कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है जो इन सरल प्रकृति के मनुष्यों की सभी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता था. उस समय कृषि, पशुपालन, व्यापार यहाँ तक की अग्नि का उपयोग भी नहीं जानते थे.  

जैन शास्त्रों के अनुसार ऋषभदेव ने भरत क्षेत्र को अकर्मभूमि से कर्मभूमि में रूपांतरित किया. शिक्षा, कला एवं ज्ञानहीन जनसमुदाय को विभिन्न प्रकार की शिक्षा देकर उन्हें योग्य एवं कर्मशील बनाया. प्रत्येक व्यक्तो को उसकी आतंरिक योग्यता के अनुसार शिक्षा दे कर समाजव्यवस्था की संरचना में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने शारीरिक अवस्थाओं के अनुसार स्त्री एवं पुरुषों को अलग अलग प्रकार की विद्या एवं कला का ज्ञान दिया. 

ऋषभदेव ने मनुष्यों को चार प्रमुख विधाएँ सिखाईं, इसलिए उन्हें इन विद्याओं का आद्यप्रणेता कहा जाता है. ये विद्याएं आज भी मानव सभ्यता को आलोकित कर रही है. अतः वे मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ माने जाते हैं. 

  1. असि (शस्त्रविद्या एवं सुरक्षा व्यवस्था)
  2. मसि (लेखन कला एवं ज्ञान प्रसार)
  3. कृषि (खेती एवं पशुपालन)
  4. शिल्प एवं पुरुषों की 72 तथा स्त्रियों की 64 कलाएँ
ऋषभदेव की महिमा केवल जैन शास्त्रों में ही नहीं अपितु वेद-पुराणों में भी वर्णित है. ऋग्वेद, यजुर्वेद, विष्णुपुराण, आदिपुराण, श्रीमद्भागवत आदि अनेक वैदिक ग्रंथों में उनकी महिमा का गान किया गया है. 

1. असि (शस्त्रविद्या) – समाज में अनुशासन एवं सुरक्षा की स्थापना

🔹 ऋषभदेव ने आत्मरक्षा के लिए शस्त्रविद्या (असि) की शिक्षा दी, जिससे समाज में अनुशासन एवं सुरक्षा बनी रहे।
🔹 इस विद्या से समाज को संरक्षा, युद्ध नीति, एवं सामूहिक व्यवस्था का ज्ञान मिला।
🔹 उन्होंने समाज को सिखाया कि हिंसा केवल रक्षा के लिए होनी चाहिए, आक्रमण के लिए नहीं।

👉 अर्थव्यवस्था में योगदान: राज्य की स्थापना के लिए सैन्य बल आवश्यक था, जो व्यापार, कृषि एवं अन्य कार्यों की रक्षा कर सके। असि विद्या के बिना सुशासन एवं समाज को संगठित करना कठिन था।

2. मसि (लेखन, शिक्षा एवं ज्ञान का प्रसार)

🔹 ऋषभदेव ने सर्वप्रथम लिपि का विकास किया एवं  लेखन कला (मसि) का ज्ञान दिया, जिससे भाषा एवं ज्ञान संरक्षित किया जा सके।
🔹लिपि के बिना संस्कृति का विकास कठिन था।
🔹 इससे मनुष्य अपने अनुभवों, सिद्धांतों, व्यापारिक सौदों एवं समाज के नियमों को लिखकर भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचा सका।
🔹 इससे अध्ययन, प्रशासन एवं ज्ञानार्जन की परंपरा को वल मिला। 

3. कृषि (खेती एवं पशुपालन) – आत्मनिर्भर समाज की नींव

🔹 ऋषभदेव के पूर्व मानव वनों में रहता था एवं भोजन के लिए फल-फूल आदि पर निर्भर था।
🔹 उन्होंने पहली बार कृषि (खेती करने की विधि) सिखाई, जिससे मानव भोजन के लिए आत्मनिर्भर हो सके।
🔹 उन्होंने सिखाया कि कौन-से बीज बोने चाहिए, किस ऋतु में क्या उगता है, एवं सिंचाई कैसे करनी चाहिए।
🔹 इसके साथ ही उन्होंने गौ-पालन एवं पशुपालन की परंपरा भी स्थापित की।

 कृषि एवं पशुपालन ने ही प्राथमिक रूप से वाणिज्य की प्रक्रिया प्रारम्भ करने में योगदान दिया. 

👉 अर्थव्यवस्था में योगदान: खेती एवं पशुपालन ने व्यापार एवं संपन्नता को जन्म दिया। अतिरिक्त उत्पादन से वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) की परंपरा शुरू हुई।

4. 72 एवं 64 कलाएँ – पूर्ण समाज की स्थापना

ऋषभदेव ने न केवल शस्त्र, लेखन एवं कृषि का ज्ञान दिया, बल्कि कला, शिल्प एवं विज्ञान को भी बढ़ावा दिया।
उन्होंने पुरुषों को 72 कलाएँ एवं स्त्रियों को 64 कलाएँ सिखाईं, जिससे समाज का बहुआयामी विकास हो सके।

(क) 72 पुरुषों की कलाएँ – शिल्प एवं व्यापार का विकास

🔹 इनमें अभियांत्रिकी, स्थापत्य कला, धातु विज्ञान, आभूषण निर्माण, अश्वविद्या, रथ सञ्चालन, चिकित्सा, संगीत, योग, वस्त्र निर्माण, व्यापार, प्रशासन, गणित, ज्योतिष एवं अन्य तकनीकी विधाएँ शामिल थीं। इससे पुरुष समाज श्रम, व्यापार, एवं शासन व्यवस्था में दक्ष हुआ।

(ख) 64 स्त्रियों की कलाएँ – समाज एवं संस्कृति का संवर्धन

🔹 स्त्रियों को भी विभिन्न कलाओं का ज्ञान दिया गया, जिनमें चित्रकला, संगीत, नृत्य, पाककला, वस्त्र निर्माण, सौंदर्य शास्त्र, चिकित्सा, कढ़ाई, लेखन एवं अन्य विधाएँ थीं। इससे समाज में संस्कृति, कला, एवं पारिवारिक संगठन का विकास हुआ।

ध्यान देने योग्य बात ये है की ऋषभदेव ने पाककला जैसी कुछ बहु उपयोगी कला पुरुष एवं स्त्री दोनों की सिखलाई. इन कलाओं का समावेश 72 एवं 64 दोनों प्रकार की कलाओं में है. 

👉 अर्थव्यवस्था एवं समाज व्यवस्था में योगदान:
✔ शिल्प और व्यापार ने अर्थव्यवस्था को गति दी।
✔ तकनीकी कौशल से समाज में नवाचार (Innovation) आया।
✔ स्थापत्य कला (Architecture) ने नगर निर्माण की शुरुआत की।


ऋषभदेव द्वारा समाज निर्माण की प्रमुख उपलब्धियाँ

1. शासन व्यवस्था: ऋषभदेव से इक्ष्वाकु वंश प्रारम्भ हुआ. वे इस अवसर्पिणी काल में पहले राजा बने, जिन्होंने शासन की एक व्यवस्थित प्रणाली स्थापित की। उन्होंने विनीता नगरी (अयोध्या) को अपनी राजधानी बनाई. 

उनके दीक्षा लेने के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत ने अपने राज्य का विस्तार किया और इस आर्यावर्त के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट बने. उन्हीके नाम से इस भूमि का नाम भारत हुआ. 
 2. कृषि विद्या: खेती एवं पशुपालन की शुरुआत कर मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाया।
 3. व्यापार: वस्तु-विनिमय प्रणाली एवं अर्थव्यवस्था की नींव रखी।
 4. सैन्य एवं सुरक्षा: असि विद्या (शस्त्र विद्या) द्वारा समाज की रक्षा के लिए व्यवस्था बनाई।
 5. ज्ञान एवं शिक्षा: मसि विद्या (लेखन कला) से शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की।
 6. कला एवं शिल्प: 72 एवं 64 कलाओं की शिक्षा देकर समाज में कुशलता एवं संस्कृति का विकास किया।
 7. सामाजिक व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था की प्राचीनतम नींव रखी (राजनीति, व्यापार, शिल्प, एवं कृषि में विशेषज्ञता के अनुसार वर्गीकरण हुआ, अर्थात कर्मानुसार वर्ण; जो बाद में विकृत होकर जातिवाद में बदल गया)।
 8. वैराग्य एवं मोक्षमार्ग: अंत में, उन्होंने राजपाट त्यागकर दीक्षा ली, केवलज्ञान प्राप्त किया, सर्वज्ञ बनकर उपदेश दिया और त्याग और मोक्ष की राह दिखलाई। उन्होंने उस काल में इस भूमि पर श्रमण संस्कृति की नींव रखी. 


निष्कर्ष

ऋषभदेव केवल धार्मिक गुरु नहीं, बल्कि पहले समाज सुधारक एवं शिक्षक थे।
उन्होंने शस्त्रविद्या, लेखन, कृषि, व्यापार, एवं कला-संस्कृति का ज्ञान देकर समाज को संगठित किया।
आज की अर्थव्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा प्रणाली, एवं वैज्ञानिक सोच का प्रारंभिक आधार उन्होंने रखा।
उनकी शिक्षा से ही समाज व्यवस्थित हुआ, जिससे बाद में नगर, राज्य, एवं सभ्यताओं का निर्माण हुआ।
वे केवल एक महान तीर्थंकर ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के प्रथम पथप्रदर्शक भी थे। 


अतः ऋषभदेव का योगदान केवल धार्मिक क्षेत्र में नहीं, बल्कि समाज, शासन, अर्थव्यवस्था एवं विज्ञान के हर क्षेत्र में अतुलनीय है।
📖 उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रेरणा देती हैं कि कैसे आत्मनिर्भरता, अनुशासन, और ज्ञान द्वारा समाज को उन्नत किया जा सकता है।

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि



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Jyoti Kothari 
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Sunday, March 16, 2025

ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


🔷 परिचय

ऋग्वेद (मंडल 7, सूक्त 18, मंत्र 22) की यह ऋचा सुदास एवं दस राजाओं के युद्ध से संबंधित है, जिसे "दशराज्ञ युद्ध" के नाम से जाना जाता है। यह वैदिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण युद्ध था, जिसमें कहा जाता है कि राजा सुदास और उनके प्रतिद्वंद्वी दस राजाओं के संघ के बीच घोर संग्राम हुआ। इस युद्ध को ब्रम्हर्षि वशिष्ठ एवं महर्षि विश्वमित्र के बीच का युद्ध भी माना जाता है. इस युद्ध में वशिष्ठ की ओर से युद्ध करते हुए राजा सुदास (तृत्सु वंश) विजयी हुए, जबकि विश्वमित्र की और से युद्धरत पुरु वंश के राजा संवरण और उनके 9 साथी- अलीन, अनु, भृगु, भालन, द्रुह्यु, मत्स्य, परसु, पुरू और पणि परास्त हुए.  

इस सूक्त की कई ऋचाएँ इस युद्ध से संबंधित हैं, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर इसमें अर्जुन्य विचार, आत्मोत्थान, एवं मोक्षमार्ग का संकेत मिलता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है की वैदिक साहित्यों में विश्वमित्र को एक वलवान, तपस्वी परन्तु अहंकारी एवं क्रोधी ऋषि के रूपमे बताया गया है जबकि वशिष्ठ को ब्रम्हज्ञानी, शांत, स्थिर, निरभिमानी, क्षमाशील ऋषि के रूप में जाना जाता है. इस युद्ध में विश्वमित्र की और से युद्ध करनेवाले 10 राजाओं की पराजय एवं वशिष्ठ की और से युद्धरत अकेले सुदास की विजय आत्मा की १० इन्द्रियों पर विजय की और स्पष्ट इंगित करता है जिसकी चर्चा आगे करेंगे. 

विशेष रूप से इस मंत्र में "अर्हन्नग्ने" शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। "अर्हन्" शब्द प्राचीन शास्त्रों में पूजनीय, श्रेष्ठ एवं मोक्षमार्ग में प्रतिष्ठित व्यक्ति को संदर्भित करता है। यह शब्द उन आत्माओं के लिए प्रयुक्त होता है, जो पुण्य, ज्ञान और निर्वाण प्राप्ति की योग्य होती हैं। अतः यह शब्द विशुद्ध आध्यात्मिक अर्थों में पूर्ण रूप से कर्म-निर्जरा करके मोक्ष की स्थिति तक पहुँचने वाली आत्माओं की ओर संकेत करता है।

इस मंत्र के गहन विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें आत्मशुद्धि, ज्ञान की उपलब्धि एवं सद्गुणों के महत्व को उजागर किया गया है।

इस मंत्र का संबंध दशराज्ञ युद्ध से है, जिसका सामान्य अर्थ ऊपर दिया जा चुका है। अब इसके आध्यात्मिक संदर्भ का विश्लेषण करते हैं।

🔷 "दशराज्ञ युद्ध" का व्याकरणिक विश्लेषण

1️⃣ पद विभाजन

👉 "दशराज्ञ युद्ध" = "दश" + "राज्ञ" + "युद्ध"

2️⃣ प्रत्येक शब्द का व्याकरणिक विश्लेषण

(A) "दश" (दशन्) – संख्यावाचक विशेषण
📌 मूल रूप: "दशन्" (संस्कृत संख्यावाचक शब्द)
📌 रूप:

  • यह विशेषण (Adjective) है और संख्या को दर्शाता है।

  • यह नपुंसकलिंग (Neuter Gender) में प्रयुक्त होता है।

  • विभक्ति: प्रथमा विभक्ति एकवचन (Nominative Singular)।

  • संदर्भ: यहाँ दस राजाओं के समूह को इंगित करता है।

(B) "राज्ञ" (राजन्) – संज्ञा रूप
📌 मूल रूप: "राजन्" (राजा)
📌 रूप:

  • "राजन्" शब्द पंचमी विभक्ति बहुवचन (Ablative Plural) में "राज्ञ:" रूप में प्रयुक्त होता है।

  • "दशराज्ञ" = दस राजाओं से संबंधित (संपूर्ण दस राजाओं का समाहार)।

  • यह एक बहुव्रीहि समास (Bahuvrīhi Compound) भी हो सकता है, जिसका अर्थ "जो दस राजाओं से संबंधित हो"।

(C) "युद्ध" – नपुंसकलिंग संज्ञा
📌 मूल रूप: "युद्ध" (युद्ध, संग्राम)
📌 रूप:

  • नपुंसकलिंग (Neuter Gender) संज्ञा।

  • यह शब्द प्रथमा विभक्ति (Nominative Singular) में प्रयुक्त हुआ है।

  • यदि "दशराज्ञ युद्ध" को तत्पुरुष समास माना जाए, तो यह "दस राजाओं का युद्ध" का अर्थ देता है।

  • यदि इसे बहुव्रीहि समास माना जाए, तो "वह युद्ध जिसमें दस राजा सम्मिलित हों" अर्थ बनता है।

3️⃣ समास विश्लेषण

📌 "दशराज्ञ युद्ध" में दो संभावनाएँ हैं:

1️⃣ तत्पुरुष समास
"दशराज्ञ" + "युद्ध" = "दस राजाओं का युद्ध"

  • अर्थ: दस राजाओं द्वारा लड़ा गया संग्राम।

2️⃣ बहुव्रीहि समास
"दशराज्ञ युद्ध" = "वह युद्ध जिसमें दस राजा सम्मिलित हों"

  • अर्थ: यह युद्ध उन दस राजाओं के समूह से संबंधित है, जिन्होंने राजा सुदास के विरुद्ध युद्ध किया।

4️⃣ निष्कर्ष

📌 "दशराज्ञ युद्ध" शब्द तत्पुरुष समास और बहुव्रीहि समास दोनों प्रकार से व्याख्यायित किया जा सकता है।
📌 "दश" (संख्या) + "राज्ञ" (राजाओं से संबंधित) + "युद्ध" (संग्राम) = दस राजाओं से जुड़ा युद्ध।
📌 इसका ऐतिहासिक संदर्भ राजा सुदास और उनके प्रतिद्वंद्वी दस राजाओं के संघर्ष से है।
📌 व्याकरणिक दृष्टि से यह "प्रथमा विभक्ति" (Nominative Case) में प्रयुक्त हुआ है, जो इसे एक विशिष्ट संज्ञा बना देता है।


🔷 "दशराज्ञ युद्ध" और दस इन्द्रियों के बीच आध्यात्मिक साम्यता

👉 "दशराज्ञ युद्ध" में दस राजा आपस में संघर्षरत थे, जो राजा सुदास के विरुद्ध संगठित होकर लड़े। यह केवल एक लौकिक युद्ध नहीं, बल्कि अंतर्मन में सतत चलने वाले इन्द्रिय-संघर्ष का भी प्रतीक हो सकता है।

इसी प्रकार, हमारे भीतर भी दस इन्द्रियों का संघर्ष निरंतर चलता रहता है –

1️⃣ पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (Five Sense Organs)

  • चक्षु (आँखें) – रूप को देखने की शक्ति।

  • श्रवण (कान) – ध्वनि को सुनने की शक्ति।

  • घ्राण (नाक) – गंध को ग्रहण करने की शक्ति।

  • रसना (जीभ) – स्वाद का अनुभव करने की शक्ति।

  • त्वचा (स्पर्श) – संवेदनाओं को ग्रहण करने की शक्ति।

➡️ यदि इनका संयम न हो तो आत्मा इनकी दासता में आ जाती है।

2️⃣ पाँच कर्मेंद्रियाँ (Five Action Organs)

  • वाक् (वाणी) – बोलने की क्रिया।

  • पाणि (हाथ) – ग्रहण करने की क्रिया।

  • पाद (पैर) – गमन करने की क्रिया।

  • उपस्थ (जननेंद्रिय) – सृजन और सुख-संबंधी क्रिया।

  • गुदा (मलत्यागेंद्रिय) – त्याग करने की क्रिया।

➡️ यदि इन्द्रियाँ संयम में रहें, तो आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ➡️ यदि इन्द्रियाँ अनियंत्रित हो जाएँ, तो वे आत्मा को संसार के जाल में बाँध देती हैं।

👉 इस प्रकार, "दशराज्ञ युद्ध" आत्मा और इन्द्रियों के बीच का एक आध्यात्मिक संघर्ष भी है। 👉 जो इस युद्ध में विजय प्राप्त करता है, वही वास्तविक "अर्ह" (मोक्षपथगामी) होता है। 👉 यह केवल एक लौकिक युद्ध का वर्णन नहीं है, बल्कि आत्मशुद्धि, मोक्ष और पवित्रता के आध्यात्मिक संदेश को भी दर्शाता है।

🔷 ऋग्वेद 7.18.22 – संहितापाठ

द्वे नप्तुर्देववतः शते गोर्द्वा रथा वधूमन्ता सुदासः। अर्हन्नग्ने पैजवनस्य दानं होतेव सद्म पर्येमि रेभन्॥

🔷 पदपाठ

द्वे नप्तुः देववतः शते गौः द्वौ रथौ वधूमन्तौ सुदासः। अर्हन् अग्ने पैजवनस्य दानं होता इव सद्म परीयामि रेभन्॥

🔷 शब्दार्थ

  • द्वे (Dve) – दो।

  • नप्तुः (Naptuḥ) – वंशज, उत्तराधिकारी, या शिष्य।

  • देववतः (Devavataḥ) – दिव्य गुणों से युक्त, देवों से संबंधित।

  • शते (Śate) – सौ (संख्या सूचक)।

  • गौः (Gauḥ) – गौ, जो शुद्धता और समृद्धि का प्रतीक है।

  • द्वौ (Dvau) – दो।

  • रथौ (Rathau) – रथ, जो आध्यात्मिक एवं लौकिक यात्रा का प्रतीक है।

  • वधूमन्तौ (Vadhūmantau) – वधू सहित, स्त्रियों से संपन्न।

  • सुदासः (Sudāsaḥ) – राजा सुदास, जिसका शाब्दिक अर्थ "शुद्ध दाता" है।

  • अर्हन् (Arhan) – पूजनीय, श्रेष्ठ, आत्मशुद्ध व्यक्ति, जो मोक्ष के योग्य हो।

  • अग्ने (Agne) – अग्नि, जो पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है।

  • पैजवनस्य (Paijavanasya) – पैजवना वंश से संबंधित, या उस वंश की संपत्ति।

  • दानं (Dānaṁ) – दान, त्याग, पुण्यकर्म।

  • होता (Hotā) – यज्ञकर्ता, यज्ञ करने वाला पुरोहित।

  • इव (Iva) – समान, जैसा कि।

  • सद्म (Sadma) – घर, आश्रय, स्थान।

  • परीयामि (Pariyāmi) – परिभ्रमण करना, प्रयास करना, यश का विस्तार करना।

  • रेभन् (Rebhan) – गूँजना, उच्च स्वर में प्रतिध्वनित होना।

🔷 अन्वय (वाक्य संरचना)

सुदासः (शुद्ध आत्मा/युद्ध में विजयी राजा) द्वे नप्तुः देववतः शते गौः द्वौ रथौ वधूमन्तौ ददाति। (दिव्य गुणों से युक्त सौ गौ, दो रथ, और वधू सहित अन्य उपहार दान करता है।)

अर्हन् अग्ने! (हे अग्नि! जो अर्हत् है, पूजनीय है, पवित्रता का प्रतीक है।)

पैजवनस्य दानं होतेव सद्म पर्येमि रेभन्। (हे यज्ञकर्ता! मैं पैजवना के दान की प्रतिष्ठा में विचरण करता हूँ और इसका यश उच्च स्वर में गूँजता है।)

🔷 आध्यात्मिक व्याख्या

📌 इस मंत्र में द्वे नप्तुः देववतः शते गौः का संदर्भ सांसारिक एवं आध्यात्मिक संपन्नता से है।
📌 सुदास का अर्थ केवल राजा नहीं, बल्कि शुद्ध देने वाला, पुण्यात्मा भी होता है।
📌 अर्हन् अग्ने – यहाँ अग्नि को मोक्ष के योग्य, पवित्रता का प्रतीक और अर्हत् स्थिति को प्राप्त आत्मा के रूप में देखा जा सकता है।
📌 दान और यश की गूँज (परीयामि रेभन्) – यह आत्मा के पुण्यकर्म और धर्ममयी वाणी के प्रचार का भी प्रतीक हो सकता है।

🔷 निष्कर्ष

🔹 इस ऋचा में "अर्हन्" शब्द का प्रयोग मोक्षगामी आत्मा, पूर्ण शुद्ध व्यक्ति और पवित्र अग्नि के प्रतीक के रूप में हुआ है।
🔹 यह मंत्र आत्मिक उन्नति, कर्म-निर्जरा, त्याग और आत्मज्ञान की प्रेरणा देता है।
🔹 "अग्नि" और "अर्हन्" का समन्वय आत्मा की शुद्धता, तपस्या और मोक्ष-पथ की ओर संकेत करता है।
🔹 इसमें यज्ञ, दान और संयम के माध्यम से कर्म-निर्जरा एवं आत्मिक उत्थान का भी गूढ़ संकेत है।

🔷 ऋग्वेद 7.18.22: आत्मोत्थान और अर्हन् तत्व का आध्यात्मिक संदेश

🔷 "द्वे नप्तुः" का विश्लेषण

संस्कृत व्याकरण के अनुसार:

  • "द्वे" = दो।

  • "नप्तुः" = "नप्तृ" (Naptru) शब्द से बना है, जिसका अर्थ "वंशज, शिष्य, या उत्तराधिकारी" होता है।

यदि "नप्तुः" को शिष्य/उत्तराधिकारी के रूप में लें, तो:

  • "द्वे नप्तुः" = दो प्रकार के अनुयायी।

  • यह दो मार्गों—ज्ञानमार्गी (स्वाध्याय और साधना करने वाले) और कर्ममार्गी (धर्मकर्म में प्रवृत्त) को इंगित कर सकता है।

  • यह आत्मा के ज्ञान और कर्म की संभावनाओं को दर्शाता है।

यदि "नप्तुः" को वंशज के रूप में लें, तो:

  • यह संभवतः दो वंशों या दो समूहों को इंगित कर सकता है, जो इस युद्ध में शामिल थे।

  • यह सुदास के दो प्रमुख समर्थकों या शत्रुओं को भी दर्शा सकता है।

🔷 "देववतः" का विश्लेषण

  • "देव" = दिव्यता, प्रकाश, शुद्धता।

  • "वत्" प्रत्यय = जिससे संपन्न हो।

  • "देववतः" वह आत्मा हो सकती है, जो दिव्यता को प्राप्त कर चुकी हो या जो देवगुणों से संपन्न हो।

  • यह केवल लौकिक देवताओं तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा की दिव्य अवस्था को भी इंगित कर सकता है।

  • "देववतः" आत्मा के दिव्यता की ओर बढ़ने, शुद्धता प्राप्त करने, और सम्यक् ज्ञान से युक्त होने का संकेत करता है।

🔷 "शते" का विश्लेषण

संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार:

  • "शत" = मूल रूप से "सौ" का सूचक है।

  • लेकिन "शते" (द्वितीया विभक्ति) का प्रयोग केवल संख्यावाचक अर्थ में ही नहीं, बल्कि "पूर्णता" के लिए भी किया जाता है।

संभावित आध्यात्मिक संकेत:

  • वैदिक साहित्य में "शत" का प्रयोग कभी-कभी "असीमितता" या "पूर्णता" के लिए होता है।

  • यदि यह "गौ" के साथ प्रयोग हुआ है, तो इसका तात्पर्य केवल "100 गाएँ" नहीं, बल्कि पूर्ण ज्ञान या सभी इन्द्रियों के संयमित होने की स्थिति भी हो सकता है।

  • "शते गौः" = पूर्ण इन्द्रिय संयम, शुद्धता, और आत्मा की पूर्ण निर्मलता।

🔷 "गौ" शब्द और गौ-दान का आध्यात्मिक संकेत

संस्कृत में "गौ" के विभिन्न अर्थ:

  • गाय (शुद्धता और जीवन देने वाली शक्ति का प्रतीक)।

  • इन्द्रियाँ (संवेदनाएँ जो बाहरी जगत से ज्ञान ग्रहण करती हैं)।

  • धारा, गति, प्रकाश, वेदवाणी (ज्ञान का प्रवाह)।

  • पृथ्वी (जो सबको धारण करती है)।

100 गौ-दान का आध्यात्मिक अर्थ:

  • यदि "गौ" = इन्द्रियाँ मानी जाएँ, तो "100 गौ-दान" का तात्पर्य:

    • 100 संख्या बड़ा संख्यात्मक प्रतीक हो सकता है, जो इन्द्रिय-विजय की पूर्णता को दर्शाता है।

    • यह समस्त इन्द्रियों के संयम, त्याग और नियंत्रण की ओर संकेत करता है।

    • "गौ-दान" का अर्थ केवल गायों को दान करना नहीं, बल्कि आत्मा के विकारी भावों को त्यागना भी हो सकता है।

    • "गौ" का संबंध "ज्ञान और प्रकाश" से भी है, अतः 100 गौ का दान = 100 बार ज्ञान या तप का अभ्यास।

🔷 निष्कर्ष

  • "अर्हन्" शब्द मोक्षगामी आत्मा, पूर्ण शुद्ध व्यक्ति और पवित्र अग्नि के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

  • यह मंत्र आत्मिक उन्नति, कर्म-निर्जरा, त्याग और आत्मज्ञान की प्रेरणा देता है।

  • "अग्नि" और "अर्हन्" का समन्वय आत्मा की शुद्धता, तपस्या और मोक्ष-पथ की ओर संकेत करता है।

  • इसमें यज्ञ, दान और संयम के माध्यम से कर्म-निर्जरा एवं आत्मिक उत्थान का भी गूढ़ संकेत है।

🔷 "रथ", "गौ", और "वधूमन्त" शब्दों का गूढ़ आध्यात्मिक अर्थ

ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रयुक्त इन शब्दों के लौकिक अर्थों के साथ-साथ गहरे आध्यात्मिक संकेत भी निहित हैं। ये आत्मसंयम, इन्द्रिय-नियंत्रण और मोक्षमार्ग की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।

🔷 "रथ" और इन्द्रिय संयम का संकेत

  • "रथ" संस्कृत में √रम् धातु से बना है, जिसका अर्थ गति करना या यात्रा करना है। यह आत्मा की सांसारिक और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है।

  • संस्कृत में "रथ" शरीर का भी प्रतीक है। इसके घोड़े इन्द्रियों के समान हैं, जिन्हें वल्गा (लगाम) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यदि ये अनियंत्रित हों, तो आत्मा मोह, राग-द्वेष और विकारों में फंस सकती है। यदि लगाम दृढ़ हो, तो आत्मा धर्म के पथ पर आगे बढ़ती है।

  • अतः, "रथ" वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा इन्द्रिय-नियंत्रण के साथ मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर हो सकती है।

🔷 "द्वौ रथौ" = ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ

  • "द्वौ" का अर्थ दो और "रथौ" द्विवचन रूप में दो रथों को इंगित करता है। यह आत्मा के दो प्रमुख साधनों को दर्शाता है:

    • पहला रथ ज्ञानेंद्रियों का है, जो आत्मा को बाह्य जगत का अनुभव कराते हैं।

    • दूसरा रथ कर्मेंद्रियों का है, जो आत्मा को संसार में प्रवृत्त कराते हैं।

  • यदि इन दोनों रथों को संयम से चलाया जाए, तो आत्मा मोक्षमार्ग की ओर बढ़ती है, अन्यथा यह संसार रूपी भंवर में उलझाने वाला युद्ध बन जाता है।

🔷 "वधूमन्त" और मुक्तिवधू का संकेत

  • संस्कृत में "वधूमन्त" = "वधू (पत्नी) + मन्त (युक्त)"। इसका सामान्य अर्थ "जिसके पास वधू हो" है, परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुक्तिवधू (मोक्ष-लक्ष्मी) की ओर भी संकेत करता है।

  • आध्यात्मिक साहित्य में "वधू" को केवल सांसारिक स्त्री न मानकर, आत्मा की परम दशा (मोक्ष) से जोड़ा गया है।

  • "मोक्ष-लक्ष्मी" या "मुक्तिवधू" वह अवस्था है, जहाँ आत्मा अपने अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करती है।

  • "वधूमन्त" शब्द केवल सांसारिक विवाह ही नहीं, बल्कि आत्मा और मोक्ष के मिलन का भी प्रतीक हो सकता है। यह संयमी जीवन, इन्द्रिय-विजय, और अंततः आत्मा के अंतिम गंतव्य (मोक्ष) की ओर संकेत करता है।

🔷 "सुदासः" का विश्लेषण

  • "सु" (शुद्ध, अच्छा) + "दास" (सेवक) = जो शुद्ध और धर्म का सेवक हो।

  • "सुदास" केवल राजा का नाम नहीं, बल्कि आत्मा की स्थिति को भी दर्शाता है, जो धर्म, संयम और ज्ञान की सेवा में स्थित हो।

  • यह इन्द्रिय-संयम और आत्मा की तपस्या को दर्शाता है।

  • राजा "सुदास" को "शुद्ध दाता" कहा जाता है, जो इन्द्रियों के संघर्ष में विजयी होने का प्रयास करता है।

🔷 शब्दों के लौकिक एवं आध्यात्मिक संकेत

शब्दलौकिक अर्थआध्यात्मिक संकेत
रथयुद्ध का वाहनआत्मा का शरीर, जो इन्द्रिय-संयम से नियंत्रित रहता है।
गौगायें (पशु)इन्द्रियाँ, ज्ञान, प्रकाश, और तपस्या का प्रतीक।
गौ दानगायों को दान करनाइन्द्रिय-त्याग, ज्ञानार्जन, आत्म-शुद्धि।
वधूमन्तविवाह से युक्त व्यक्तिमुक्तिवधू (मोक्ष-लक्ष्मी), आत्मा की परम दशा।

🔷 निष्कर्ष

  • "रथ" आत्म-संयम का प्रतीक है।

  • "गौ" इन्द्रिय-नियंत्रण, ज्ञान और तपस्या को दर्शाती है।

  • "वधूमन्त" आत्मा और मोक्ष के मिलन का प्रतीक है।

  • "अर्हन्" शुद्ध चेतना और समस्त कर्मों से मुक्त आत्मा को इंगित करता है।

🔷 "अर्हन्" – शुद्ध चेतना, समस्त कर्मों से मुक्त आत्मा

  • "अर्ह" (√अर्ह्) धातु से बना है, जिसका अर्थ है "पूजनीय, योग्य, मोक्ष के अधिकारी"।

  • "अर्हन्" = "जो पूर्ण शुद्ध होकर समस्त कर्मों को भस्म कर चुका हो।"

  • यह मोक्ष की अंतिम स्थिति को दर्शाता है, जहाँ आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान और शुद्धता को प्राप्त करती है।

"अर्हन्नग्ने" की गहराई एवं ऋषिमण्डल स्तोत्र से संबंध

"आद्यंताक्षर संलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यत्स्थितं।"

📌 वर्णमाला का प्रथम और अंतिम अक्षर

📌 वर्णमाला के "अ" और "ह" के बीच सम्पूर्णता का संकेत

संस्कृत वर्णमाला का प्रथम अक्षर अ एवं अंतिम अक्षर ह है. यदि वर्णमाला की दृष्टि से देखें तो अ एवं ह के बीच सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है. प्रकारांतर से यह भी कहा जा सकता है "अह" में सम्पूर्ण जगत संसार समाहित है.  

  • "अह" का अर्थ = संपूर्ण जगत।

  • जब "अह" में अग्नि तत्त्व ("र्") जुड़ता है, तो यह "अर्ह" बनता है।

  • इसी प्रकार, "अहं" शब्द में अग्निबीज स्वरूप रेफ लगता है, तो वह "अर्हं" बनता है, अर्थात अहंकार को ध्यानरूपी अग्नि से जलाने वाला अर्हं होता है।

  • "अग्नि" केवल लौकिक अग्नि नहीं, बल्कि ज्ञान-ज्योति है, जो आत्मा को मोह से मुक्त करती है।

    • "अर्हन्नग्ने" का प्रयोग अग्नि को एक ऐसे तत्व के रूप में प्रस्तुत करता है, जो आत्मशुद्धि, त्याग, और मोक्ष का माध्यम है।

    • "अर्हन्" शब्द केवल पूजनीय व्यक्ति को इंगित नहीं करता, बल्कि वह आत्मा को भी इंगित करता है, जो समस्त कर्मों को जलाकर पूर्ण निर्मलता (निर्वाण) को प्राप्त कर लेती है।

🔷 "अर्हन्" की परिभाषा

  • "अर्हन्" वह है, जिसने केवल इन्द्रियों को ही नहीं, बल्कि समस्त कर्मों को भी जला दिया हो।

  • "जिन" इन्द्रियों को जीतकर आत्म-विजय प्राप्त करता है, लेकिन "अर्हन्" वह है, जो इस अग्नि द्वारा अपने समस्त कर्मों को जलाकर पूर्ण निर्मल हो चुका हो।

  • "अर्हन्" आत्मा की परम शुद्ध अवस्था को दर्शाता है, जहाँ कोई कर्म शेष नहीं रह जाता।

  • "अर्ह" शब्द में "अ" और "ह" (वर्णमाला के प्रथम और अंतिम अक्षर) का समावेश है, जो समस्त जगत को दर्शाता है।

  • "अर्हन्" वह है, जिसने इस समस्त जगत को जान लिया और उसे पार कर लिया।

📌 "अर्हन्" वह है, जो केवल इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने तक सीमित नहीं, बल्कि समस्त कर्मों को नष्ट करके शुद्ध आत्मा की स्थिति में पहुँच चुका है। 📌 "अर्ह" शब्द अग्नि तत्व से संबंधित है, जो आत्मा के समस्त विकारों को भस्म कर शुद्ध चेतना को प्रकट करता है।

🔷 "जिन" – इन्द्रिय-विजेता (The Conqueror of the Senses)

📌 संस्कृत व्युत्पत्ति:

  • "जि" (√जि) धातु से बना है, जिसका अर्थ है "विजय प्राप्त करना"।

  • "जिन" = "जो समस्त इन्द्रियों और विकारों पर विजय प्राप्त कर चुका हो।"

🔷 "जिन" और "अर्हन्" में अंतर और साम्यता

विशेषताजिनअर्हन्
अर्थइन्द्रिय-विजेतासमस्त कर्मों को नष्ट करने वाला
मुख्य विशेषताआत्मा ने समस्त इन्द्रियों और राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर लीआत्मा पूर्णतः शुद्ध हो चुकी है, कोई कर्म शेष नहीं
संस्कृत व्युत्पत्ति√जि (विजय)√अर्ह (योग्यता, मोक्ष अधिकारी)
प्रयोगतीर्थंकरों के लिए, क्योंकि वे इन्द्रिय-विजेता हैंमोक्ष प्राप्त आत्माओं के लिए, क्योंकि वे समस्त कर्मों से मुक्त हैं
आध्यात्मिक लक्ष्यआत्म-विजय (इन्द्रिय संयम)आत्म-मुक्ति (कर्मों का पूर्ण क्षय)
दशराज्ञ युद्ध से संबंधसुदास आत्मा है, जो दस इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर रहा हैइन्द्रिय विजय के बाद आत्मा पूर्ण निर्मल हो चुकी है

🔷 निष्कर्ष: तीर्थंकर दोनों ही हैं – "जिन" भी और "अर्हन्" भी

📌 "जिन" वह है, जो दस इन्द्रियों को जीत चुका है और आत्मा को इन्द्रियों के अधीन नहीं रहने देता। 📌 "अर्हन्" वह है, जो इस आत्म-विजय के बाद समस्त कर्मों को भी भस्म कर पूर्ण निर्मल हो चुका है। 📌 "जिन" और "अर्हन्" दोनों ही मोक्ष की ओर जाने के दो चरण हैं – पहले इन्द्रिय संयम, फिर कर्मों का क्षय। 📌 तीर्थंकर इसीलिए "जिन" और "अर्हन्" दोनों कहे जाते हैं, क्योंकि वे न केवल स्वयं मुक्त होते हैं, बल्कि अन्य को भी इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

🚩 इस ऋचा की व्याख्या में दशराज्ञ युद्ध एवं रथ का सम्बन्ध जितेन्द्रियत्व अर्थात "जिन" से है और "अर्हन्" शब्द तो ऋचा में ही है।

यहाँ तीर्थंकर शब्द के साथ जिन और अर्हन को सम्मिलित करने का सन्दर्भ है. जिसका विस्तार बाद में "रेभन्" और "पर्येमि" के सन्दर्भ में किया जायेगा. 

🔷 "पैजवन" का विस्तृत अर्थ

📌 संस्कृत व्युत्पत्ति:

  • "पैजवन" = पैजवना वंश से संबंधित या संरक्षक।

  • "पाज" (Pāja) धातु से संबंधित हो सकता है, जिसका अर्थ पालन, सुरक्षा, पोषण होता है।

  • यह किसी विशेष दानदाता, यज्ञकर्ता, या आध्यात्मिक संरक्षक को भी संदर्भित कर सकता है।

📌 संभावित आध्यात्मिक संकेत:

  • "पैजवन" केवल एक वंश का नाम नहीं, बल्कि इसका अर्थ "संरक्षक" (Sanrakshak) भी हो सकता है।

  • यह कोई ऐसा व्यक्ति या तत्व भी हो सकता है, जो आत्म-कल्याण एवं मोक्ष मार्ग का संरक्षक हो।

🔷 3️⃣ "दानं" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "दा" (देना) + "न" (प्रक्रिया या भाव) = त्याग, परोपकार, आत्म-निवेदन।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह केवल बाह्य "दान" (गायें, संपत्ति आदि का दान) नहीं, बल्कि आत्मा का राग-द्वेष का त्याग, कर्म-निर्जरा और मोक्ष की दिशा में बढ़ना भी हो सकता है।

  • "दान" का सही अर्थ है आत्मा द्वारा अपनी आसक्तियों का समर्पण।

🚩 संभावित व्याख्या: "दानं" = कर्म-निर्जरा, त्याग, और आत्म-शुद्धि।

🔷 4️⃣ "होतेव" का विश्लेषण

📌 व्याकरणिक विश्लेषण:

  • "होतेव" – इसमें "होता" (यज्ञकर्ता, जो यज्ञ में मंत्रों का उच्चारण करता है) और "इव" (समान) का मेल है।

  • इसका अर्थ हुआ, "जिस प्रकार यज्ञकर्ता यज्ञ को संपन्न करता है, उसी प्रकार यह कार्य किया गया।"

  • यह संपूर्ण कर्म-त्याग और मोक्ष-मार्ग की ओर संकेत करता है।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • आत्मा यज्ञकर्ता की तरह अपने कर्मों को भस्म कर ज्ञान की अग्नि में तपती है।

  • यह तप, स्वाध्याय, और संयम की प्रक्रिया का प्रतीक हो सकता है।

🚩 संभावित व्याख्या: "होतेव" = जो आत्म-तपस्या में रत हो और कर्मों का क्षय कर रहा हो।

🔷 5️⃣ "सद्म" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "सद्म" = घर, निवास।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह मोक्ष, परमगति, और आत्मा के अंतिम विश्राम-स्थान को इंगित कर सकता है।

  • आत्मा का संस्कारों और भटकाव से मुक्त होकर शाश्वत शांति में स्थित होना।

🚩 संभावित व्याख्या: "सद्म" = मोक्ष, परमगति।

🔷 6️⃣ "पर्येमि" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "परि" = चारों ओर।

  • "यामि" = गमन करना, घूमना।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह आत्मा के संसार में भटकने या मोक्षमार्ग की ओर चलने का प्रतीक हो सकता है।

  • यह ज्ञान के प्रसार और धर्म का प्रचार भी हो सकता है।

🚩 संभावित व्याख्या: "पर्येमि" = आत्मा की गति—या तो संसार में, या ज्ञानमार्ग में।

🔷 7️⃣ "रेभन्" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "रेभ" = ध्वनि, प्रतिध्वनि।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह धर्म और सत्य की प्रतिध्वनि को दर्शा सकता है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती है।

  • यह ज्ञान और तप की शक्ति को भी दर्शा सकता है, जो आत्मा में गूँजती रहती है।

🚩 संभावित व्याख्या: "रेभन्" = धर्म की गूंज, आत्मज्ञान का प्रसार।

🔷 अंतिम निष्कर्ष

शब्दलौकिक अर्थआध्यात्मिक संकेत
पैजवनपैजवना वंश का व्यक्तिसंरक्षक, आत्म-संरक्षक, धर्मपालक
द्वौ रथौदो रथज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ (इन्द्रियों का युग्म)
शतेसौपूर्णता, संपूर्ण इन्द्रिय संयम, आत्म-शुद्धि
द्वे नप्तुःदो वंशज या शिष्यदो प्रकार के जीव—ज्ञानमार्गी और कर्ममार्गी, या संसारी और मोक्षगामी आत्मा

🔷 शब्दों का व्याकरणिक विश्लेषण एवं अंतिम रूपांतरण

शब्दव्याकरणिक रूपअर्थआध्यात्मिक संकेत
द्वे (Dve)संख्यावाचक विशेषण, द्विवचनदोसंसार में दो प्रमुख मार्ग: ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग।
नप्तुः (Naptuḥ)नप्तृ (वंशज, उत्तराधिकारी), षष्ठी विभक्ति बहुवचनदो वंशजआत्मा के दो मार्ग—एक जो इन्द्रियों में फंसी है, और दूसरी जो मोक्षमार्गी है।
देववतः (Devavataḥ)विशेषण, षष्ठी विभक्तिदेवगुणों से संपन्न, दिव्य गुणों से युक्तजो आध्यात्मिक उन्नति में स्थित हो और मोक्षमार्ग में अग्रसर हो।
शते (Śate)संख्यावाचक विशेषण, द्वितीया विभक्तिसौपूर्णता, संपूर्ण इन्द्रिय संयम, आत्मशुद्धि।
दानं (Dānaṁ)द्वितीया विभक्तिदानआत्मिक त्याग, कर्म-निर्जरा, और इन्द्रियों का समर्पण।
होतेव (Hotā Iva)"होता + इव"यज्ञकर्ता के समानजो यज्ञ के माध्यम से आत्मशुद्धि प्राप्त करता है।
सद्म (Sadma)द्वितीया विभक्तिघर, आश्रयमोक्ष, आत्मा का अंतिम गंतव्य।
पर्येमि (Pariyāmi)कर्ता क्रिया रूपघूमना, भटकनाआत्मा का कर्मबद्ध संसार में चक्रण।
रेभन् (Rebhan)कर्ता क्रिया रूपगूंजना, प्रतिध्वनि करनाधर्म की गूंज, आत्मज्ञान का प्रचार।

🔷 निष्कर्ष: संपूर्ण ऋचा का गूढ़ आध्यात्मिक सार

संभावित महत्वपूर्ण शब्दव्याकरणिक रूपअर्थआध्यात्मिक संकेत
द्वे नप्तुःसंख्यावाचक विशेषण, द्विवचनदो प्रकार के जीवज्ञानमार्गी एवं कर्ममार्गी, या संसारी एवं मोक्षगामी।
देववतःविशेषण, षष्ठी विभक्तिदेवगुणों से संपन्न, दिव्य गुणों से युक्तजो आध्यात्मिक उन्नति में स्थित हो और मोक्षमार्ग में अग्रसर हो।
शते गौःसंख्यावाचक विशेषण, स्त्रीलिंग संज्ञासौ गौ (इन्द्रियाँ)संपूर्ण इन्द्रिय संयम और आत्मज्ञान।
द्वौ रथौसंख्यावाचक विशेषण, द्विवचनदो रथआत्मा के दो मुख्य साधन: ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ।
वधूमन्तविशेषण, पुल्लिंग एकवचनवधू सहितमुक्तिवधू, मोक्ष की प्राप्ति।
सुदासः"सु" (शुद्ध) + "दास" (सेवक)जो धर्म का शुद्ध सेवक होआत्मा जो संयम और तपस्या द्वारा शुद्ध हो।
अर्हन्नग्ने"अर्हन् + अग्ने" संबोधन रूपअर्ह अग्निवह अग्नि जो केवल लौकिक नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने वाली ज्ञान-ज्योति है।
पैजवनस्यषष्ठी विभक्तिपैजवना वंशधर्म संरक्षक, आत्म-संरक्षक।
दानंद्वितीया विभक्तिदानआत्मिक त्याग, कर्म-निर्जरा, और इन्द्रियों का समर्पण।
होतेव"होता + इव"यज्ञकर्ता के समानजो यज्ञ के माध्यम से आत्मशुद्धि प्राप्त करता है।
सद्मद्वितीया विभक्तिघर, आश्रयमोक्ष, आत्मा का अंतिम गंतव्य।
पर्येमिकर्ता क्रिया रूपघूमना, भटकनाआत्मा का कर्मबद्ध संसार में चक्रण।
रेभन्कर्ता क्रिया रूपगूंजना, प्रतिध्वनि करनाधर्म की गूंज, आत्मज्ञान का प्रचार।


🔷 व्याकरणिक परीक्षण: क्या "रेभन्" और "पर्येमि" दिव्यध्वनि के लिए प्रयोग हो सकते हैं?


📌 संस्कृत व्युत्पत्ति और व्याकरणिक विश्लेषण

1️⃣ "रेभन्" = दिव्यध्वनि का गूढ़ संकेत?

  • "रेभ" धातु का मूल अर्थ है गूंजना, प्रतिध्वनित होना, ध्वनि करना।

  • "रेभन्" वर्तमान कालिक कर्तरि प्रयोग में क्रियापद है, जिसका अर्थ होता है "जो गूंज रहा है" या "जो प्रतिध्वनित हो रहा है"।

  • संस्कृत में "रेभ्" धातु का प्रयोग किसी विशेष ध्वनि, वाणी, या घोषणा के लिए भी होता है।

📌 क्या यह दिव्यध्वनि का संकेत हो सकता है?

  • हाँ, "रेभन्" केवल साधारण प्रतिध्वनि तक सीमित नहीं है।

  • यह ऐसी ध्वनि भी हो सकती है, जो अपने आप उत्पन्न हो और स्वतः गूंजती रहे—जैसे तीर्थंकर की दिव्यध्वनि।

  • तीर्थंकर की वाणी स्वयं उत्पन्न होती है, किसी भाषा में बंधी नहीं होती, और सभी प्राणियों को उनकी भाषा में समझ में आती है—यह विशेषता "रेभन्" के अर्थ से सामंजस्य रखती है।

✅ संभावित व्याख्या: "रेभन्" = तीर्थंकर की दिव्यध्वनि/धर्मध्वनि , जो आत्मज्ञान के बाद स्वतः गूंजती है और समस्त संसार में धर्म का प्रसार करती है।

2️⃣ "पर्येमि" = विश्वव्यापी दिव्यध्वनि?

  • "परि" उपसर्ग = चारों ओर, सर्वव्यापक रूप से।

  • "यम्" धातु = गति करना, घूमना, विस्तार होना।

  • "पर्येमि" = मैं चारों ओर घूमता हूँ, मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ।

📌 क्या यह दिव्यध्वनि के विस्तार का संकेत हो सकता है?

  • हाँ, "पर्येमि" केवल लौकिक गमन तक सीमित नहीं, बल्कि व्यापक प्रसार और फैलाव को भी दर्शाता है।

  • तीर्थंकर की दिव्यध्वनि केवल सीमित स्थान तक नहीं रहती, बल्कि समस्त लोक में प्रवाहित होती है।

  • यह विस्तारित दिव्यध्वनि, जो सम्पूर्ण संसार में ज्ञान की गूंज पैदा करती है, "पर्येमि" से अभिव्यक्त की जा सकती है।

✅ संभावित व्याख्या: "पर्येमि" = तीर्थंकर की विश्वव्यापी दिव्यध्वनि, जो सम्पूर्ण लोक में धर्म और आत्मज्ञान का प्रसार करती है।

3️⃣ क्या यह अर्थ ऋग्वेद 7.18.22 के व्याकरण में सही बैठता है?

📌 मूल वाक्यांश: "होतेव सद्म पर्येमि रेभन्"

👉 "होतेव" (यज्ञकर्ता के समान), 👉 "सद्म" (आश्रय, मोक्ष), 👉 "पर्येमि" (चारों ओर व्याप्त होना), 👉 "रेभन्" (गूंजना, ध्वनि करना)।

✅ संभावित अर्थ: "मैं यज्ञकर्ता के समान मोक्ष की ओर बढ़ रहा हूँ और मेरी वाणी (दिव्यध्वनि) सम्पूर्ण जगत में गूंज रही है।"

🔷 निष्कर्ष:

  • "रेभन्" और "पर्येमि" तीर्थंकर की दिव्यध्वनि के लिए उपयुक्त हैं।

  • इस ऋचा में लौकिक युद्ध के साथ-साथ आत्मा के मोक्षमार्ग की गहरी आध्यात्मिक व्याख्या छिपी हुई है।

👉 अर्थ:

➡️ दो प्रकार के जीव (द्वे नप्तुः) – एक जो संसार में बंधे हैं और दूसरे जो मोक्षमार्ग पर हैं, देवत्व प्राप्त कर पूर्णता (शते) की ओर बढ़ते हैं। ➡️ गौ (इन्द्रियाँ) और दो रथ (ज्ञानेंद्रियाँ व कर्मेंद्रियाँ) आत्मा के लिए मार्गदर्शक हैं— यदि संयमित हों, तो मोक्ष की ओर ले जाते हैं। ➡️ वधूमन्त (मुक्तिवधू) का अर्थ आत्मा की मोक्ष प्राप्ति है, जो संयम और तपस्या के माध्यम से संभव होती है। ➡️ सुदास वह आत्मा है, जिसने संयम, धर्म और ज्ञान के बल पर दशराज्ञ युद्ध (इन्द्रियों के संघर्ष) में विजय प्राप्त कर ली है। ➡️ अर्हन्नग्ने – वह दिव्य अग्नि, जो आत्मा को शुद्ध कर उसे "अर्ह" (मोक्षगामी) बनाती है। ➡️ पैजवनस्य दानं – मोक्ष मार्ग पर अग्रसर आत्मा का सबसे बड़ा दान, अर्थात राग-द्वेष का त्याग। ➡️ होतेव – यह आत्मा तपस्वी यज्ञकर्ता के समान है, जो संसार रूपी अग्नि में अपने बंधनों का त्याग कर रहा है। ➡️ सद्म – यह आत्मा का परमगति (मोक्ष) है, जो परम विश्रांति का स्थान है। ➡️ पर्येमि रेभन् – यह तीर्थंकर की दिव्यध्वनि है, जो सम्पूर्ण लोक में गूँजती है और मोक्षमार्ग का संकेत देती है।

🔷 ऋचा का अंतिम समग्र अर्थ

➡️ यह मंत्र आत्मा के मोक्षमार्ग की मंगलकामना करता है। ➡️ यह आत्मबल, सम्यक् दृष्टि, सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा और तीर्थंकर वाणी के माध्यम से आत्मोत्थान की दिशा में प्रेरित करता है। ➡️ यह युद्ध केवल लौकिक युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रियों के संघर्ष का प्रतीक भी है।

🔷 निष्कर्ष: 🚩 यह ऋचा केवल दशराज्ञ युद्ध का संदर्भ नहीं, बल्कि आत्मा के मोक्षमार्ग की यात्रा को भी दर्शाती है। 🚩 "शते" केवल "सौ" नहीं, बल्कि पूर्णता का संकेत करता है। 🚩 "अर्हन्नग्ने" आत्मा की पूर्ण शुद्धता को इंगित करता है। 🚩 "गौ," "द्वौ रथौ" इन्द्रिय संयम और ज्ञानार्जन को दर्शाते हैं। 🚩 "वधूमन्त" मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति को इंगित करता है। 🚩 "सुदास" संयम और धर्म का प्रतीक है। 🚩 "दशराज्ञ युद्ध" आत्मा और इन्द्रियों के संघर्ष का प्रतीक है। 🚩 "पर्येमि रेभन्" तीर्थंकर की दिव्यध्वनि है, जो संपूर्ण जगत में गूँजती है और मोक्षमार्ग की ओर प्रेरित करती है।

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि

 
Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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