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Monday, March 17, 2025

यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ

भूमिका

यजुर्वेद (18.27) का यह मंत्र वैदिक संस्कृति में पशुपालन, कृषि, और यज्ञ की महत्ता को दर्शाता है। इसमें उत्तम बैल, गाय, और अन्य पशुओं की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है, जो प्राचीन भारतीय समाज की आर्थिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि का प्रतीक थे। वैदिक परंपरा में पशुओं को केवल कृषि एवं दुग्ध उत्पादन के साधन के रूप में ही नहीं, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों, यज्ञीय कर्मों, एवं सामाजिक उन्नति के लिए भी महत्वपूर्ण माना गया है।

इस मंत्र का व्याकरणीय विश्लेषण करने से इसके प्रत्येक पद का शाब्दिक, धात्विक, एवं भाषिक अर्थ स्पष्ट होता है। साथ ही, "ऋषभ" शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के रूप में भी प्रतिष्ठित है। भगवान ऋषभदेव ने कृषि, पशुपालन, और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी, जिससे यह मंत्र जैन दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण बन जाता है।

असि, मसि, कृषि के आद्य प्रणेता ऋषभदेव: मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ

इस लेख में हम इस मंत्र के संहितापाठ, पदपाठ, व्याकरणीय विश्लेषण, अन्वय, एवं वैदिक संदर्भों का अध्ययन करेंगे। साथ ही, जैन दर्शन के दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या करेंगे, जिससे यह स्पष्ट होगा कि यह मंत्र केवल लौकिक अर्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत व्याकरणीय विश्लेषण - भाग 1

(🔹 भाग 1: मंत्र पाठ, पदपाठ एवं व्याकरणीय विश्लेषण)


1. संहितापाठ एवं पदपाठ

संहितापाठ:

"प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

पदपाठ:

"प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। च॒। मे॒। प॒ष्ठौ॒ही। च॒। मे॒। उ॒क्षा। च॒। मे॒। व॒शा। च॒। मे॒। ऋ॒ष॒भः। च॒। मे॒। वे॒हत्। च॒। मे॒। अ॒न॒ड्वान्। च॒। मे॒। धे॒नुः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥"


2. पदों का व्याकरणीय विश्लेषण

शब्द वर्ण विचार (उच्चारण) रूप विचार (शब्द रूप) व्याकरण (विभक्ति, लिंग, वचन) सामान्य अर्थ
पष्ठवाट् प॒ष्ठ॒-वा-ट् पष्ठवाट् (संयुक्त शब्द) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन अच्छा बैल, उत्तम पशु
च॑ अव्यय - और, तथा
मे मे॒ सर्वनाम चतुर्थी विभक्ति, एकवचन मेरे लिए
पष्ठौही प॒ष्ठौ॒ही पष्ठौही स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन अच्छी गाय
उक्षा उ॒क्षा उक्षा (धातु "उक्ष" से बना) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन साँड, बैल
वशा व॒शा वशा स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन दुधारू गाय
ऋषभः ऋ॒ष॒भः ऋषभ (विशेषण) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन श्रेष्ठ, बलशाली बैल
वेहत् वे॒हत् वेहत् पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन विशिष्ट बैल
अनड्वान् अ॒न॒ड्वान् अनड्वान् पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन हल में जोता न गया बैल
धेनुः धे॒नुः धेनु स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन गाय
यज्ञेन य॒ज्ञेन॑ यज्ञ तृतीया विभक्ति, एकवचन यज्ञ के द्वारा
कल्पन्ताम् क॒ल्प॒न्ता॒म् कल्प् (धातु) लोट लकार, प्रार्थनार्थक रूप, बहुवचन योग्य हो, अनुकूल हों

3. अन्वय 

"पष्ठवाट् च मे, पष्ठौही च मे, उक्षा च मे, वशा च मे, ऋषभः च मे, वेहत् च मे, अनड्वान् च मे, धेनुः च मे, यज्ञेन कल्पन्ताम्।"

🔹 सरल अन्वय:
"अच्छे बैल, अच्छी गाय, बलशाली बैल, विशिष्ट बैल, हल में न जोता गया बैल, दुधारू गाय – ये सब मेरे लिए यज्ञ से अनुकूल हों।"


4. व्याकरणीय विशेषताएँ और विशेष व्याख्या

  1. पष्ठवाट्, उक्षा, वशा, ऋषभ, वेहत, अनड्वान, धेनु – सभी संज्ञाएँ हैं।
  2. यज्ञेन – तृतीया विभक्ति में "करण कारक" है, अर्थात यज्ञ के माध्यम से इनका कल्याण हो।
  3. कल्पन्ताम् – लोट लकार में बहुवचन रूप, जो इच्छा या प्रार्थना का सूचक है।


यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत विश्लेषण - भाग 2

(🔹 भाग 2: अन्वय पाठ, सामान्य अर्थ एवं वैदिक संदर्भ)


1. अन्वय पाठ (व्याकरणीय क्रम में सार्थक संकलन)

संहितापाठ:
"प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

अन्वय (व्याकरण के अनुसार क्रमबद्धता):
"पष्ठवाट् च मे कल्पन्ताम्, पष्ठौही च मे कल्पन्ताम्, उक्षा च मे कल्पन्ताम्, वशा च मे कल्पन्ताम्, ऋषभः च मे कल्पन्ताम्, वेहत् च मे कल्पन्ताम्, अनड्वान् च मे कल्पन्ताम्, धेनुः च मे कल्पन्ताम्। यज्ञेन कल्पन्ताम्।"

🔹 सरल अन्वय:
"हे यज्ञ! उत्तम बैल, उत्तम गाय, बलशाली बैल, विशेष बैल, हल में न जोता गया बैल, दुधारू गाय – ये सब मेरे लिए तुम्हारे माध्यम से अनुकूल हो जाएँ।"

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसका निम्न प्रकार से अर्थ किया है. 

 स्वामी जी ने पष्ठवाट् का अर्थ पीठ से भार उठानेवाले मेरे हाथी, ऊँट आदि, पष्ठौही का अर्थ पीठ से भार उठाने वाली  घोड़ी, ऊँटनी आदि अर्थ किया है. उन्होंने पशुशिक्षा को यज्ञकर्म कहा है. अर्थात जो पशुओं को अच्छी शिक्षा देके कार्यों में सयुक्त करते हैं, वे अपने प्रयोजन सिद्ध करके सुखी होते हैं.



 





2. सामान्य अर्थ एवं व्याख्या

(क) सामान्य अर्थ - लौकिक संदर्भ में

विशेष रूप से यज्ञ के माध्यम से इस मंत्र में उत्तम पशुओं की प्राप्ति की कामना की गई है। पशु, विशेष रूप से बैल और गाय, प्राचीन वैदिक समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण थे।

🔹 शब्दों के अर्थ एवं संदर्भ:

  1. पष्ठवाट् – उत्तम बैल, जो खेती एवं भार वहन के लिए उपयुक्त हो।
  2. पष्ठौही – उत्तम गाय, जो दूध देने में श्रेष्ठ हो।
  3. उक्षा – बलशाली साँड, प्रजनन एवं कृषि कार्य के लिए उपयोगी।
  4. वशा – विशेष रूप से उपयोगी गाय, जो अधिक दूध देती हो।
  5. ऋषभः – सर्वोत्तम बैल, नेतृत्व करने वाला पशु।
  6. वेहत् – बलवान, विशिष्ट प्रजाति का बैल।
  7. अनड्वान् – ऐसा बैल जिसे हल में न जोता गया हो, शुद्ध एवं स्वतंत्र।
  8. धेनुः – गाय, जो पोषण एवं समृद्धि का प्रतीक है।
  9. यज्ञेन कल्पन्ताम् – इन सभी पशुओं को यज्ञ के द्वारा अनुकूल बनाया जाए, जिससे वे हमारे जीवन में समृद्धि लाएँ।

👉 वैदिक संस्कृति में, यज्ञ के माध्यम से समृद्धि की प्राप्ति की कामना की जाती थी, जिसमें उत्तम पशुधन की प्राप्ति अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती थी।


(ख) वैदिक संदर्भ एवं पुरातन संस्कृति में इस मंत्र का स्थान

  1. पशुधन का महत्व: वैदिक काल में पशुधन समृद्धि एवं शक्ति का प्रतीक था। उत्तम बैल एवं गायें कृषि एवं दुग्ध उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
  2. यज्ञ की भूमिका: यह मंत्र इस विश्वास को प्रकट करता है कि यज्ञ करने से श्रेष्ठ पशु प्राप्त हो सकते हैं, जो समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
  3. ऋषभ का महत्त्व: "ऋषभ" शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में श्रेष्ठता, अग्रणी शक्ति एवं आध्यात्मिक नेतृत्व के लिए किया जाता है।

3. वैदिक मंत्रों से तुलनात्मक दृष्टि

ऋग्वेद में भी पशुधन की समृद्धि के लिए मंत्र मिलते हैं, जैसे –

  • ऋग्वेद (1.162.2): "गोमन्तं अनड्वानं अश्वावन्तं हविष्मन्तं पुरुषं न इष्टे।"
    • इसमें भी गो, अनड्वान, अश्व एवं अन्य पशुओं की प्राप्ति की कामना की गई है।

यजुर्वेद में पशुधन और यज्ञ का संबंध कई मंत्रों में दिखता है, जैसे –

  • यजुर्वेद (12.71): "धेनुर्मे रसमायुषं दधातु।"
    • यहाँ धेनु (गाय) को आयु एवं रस (जीवनशक्ति) देने वाली बताया गया है।

📌 स्पष्ट है कि वैदिक परंपरा में पशुओं को केवल आर्थिक साधन ही नहीं, बल्कि धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का भी कारक माना गया है।


निष्कर्ष

✅ यह मंत्र उत्तम पशुओं की प्राप्ति एवं उनके कल्याण की कामना से संबंधित है।
✅ यज्ञ को इन पशुओं की वृद्धि एवं शुद्धि का माध्यम माना गया है।
✅ ऋषभ (श्रेष्ठ बैल) यहाँ विशेष स्थान रखता है, जो जैन परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण होगा।

यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत विश्लेषण - भाग 3

(🔹 भाग 3: जैन दृष्टि से विश्लेषण एवं निष्कर्ष)


1. मंत्र में "ऋषभ" का जैन दृष्टि से विश्लेषण

मूल मंत्र:
"प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

🔹 "ऋषभ" शब्द की व्याख्या:

  1. वैदिक दृष्टि से:

    • यहाँ "ऋषभ" का सामान्य अर्थ है श्रेष्ठ बैल, जो कृषि एवं पशुधन के लिए उपयोगी होता है।
    • वैदिक साहित्य में "ऋषभ" का प्रयोग बलशाली, सर्वोत्तम, एवं नेतृत्वकर्ता के रूप में किया जाता है।
  2. जैन दृष्टि से:

    • जैन परंपरा में "ऋषभ" केवल एक बलशाली बैल का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का नाम है।
    • भगवान ऋषभदेव ही प्रथम युगपुरुष माने जाते हैं, जिन्होंने मनुष्यों को कृषि, पशुपालन, लेखन, शस्त्रविद्या (असि), व्यापार (वाणिज्य) और अन्य आवश्यक कलाओं का ज्ञान दिया।
    • जैन आगमों के अनुसार, ऋषभदेव ने मानव समाज को सर्वप्रथम संगठित एवं शिक्षित किया।  
    • यह मंत्र इस विचार को संकेत कर सकता है कि ऋषभदेव के मार्गदर्शन से मानव जाति ने पशुपालन, कृषि आदि की व्यवस्था सीखी।

🔹 संभावित जैन-वैदिक संबंध:

  • यदि "ऋषभ" का अर्थ केवल "श्रेष्ठ बैल" लिया जाए, तब भी यह ऋषभदेव के युग में हुई कृषि क्रांति का प्रतीक हो सकता है।
  • यदि "ऋषभ" को प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में लिया जाए, तो यह मंत्र उनकी शिक्षा, कृषि संस्कृति, एवं समाज व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है।

2. यज्ञ और जैन परिप्रेक्ष्य

मंत्र में "यज्ञ" का प्रयोग:
"य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्" – वैदिक दृष्टि से इस मंत्र में यहाँ "यज्ञ" के माध्यम से पशुधन की समृद्धि की बात कही गई है।

🔹 जैन दृष्टि से यज्ञ का अर्थ:

  1. वेदों में यज्ञ:

    • ऐसा कहा जाता है की वैदिक यज्ञों में प्राचीनकाल में पशुबलि दी जाती थी।
    • यह मंत्र पशुओं की समृद्धि की प्रार्थना कर रहा है, जो संभवतः यज्ञीय पशुबलि के विरोध में कहा गया हो
    • जैन धर्म  वैदिक पशुबलि-प्रधान यज्ञों का विरोध करता है.  
  2. जैन दृष्टि से यज्ञ:

    • "यज्ञ" का वास्तविक अर्थ है – आत्मशुद्धि एवं सत्य की साधना।
    • जैन धर्म में यज्ञ = अहिंसा, दान, त्याग, स्वाध्याय एवं तप।
    • यह मंत्र ऋषभदेव द्वारा स्थापित अहिंसा पर आधारित कृषि एवं समाज संरचना को भी प्रतिबिंबित करता है।

3. अन्य पदों का जैन संदर्भ में विश्लेषण

वैदिक शब्द लौकिक संदर्भ जैन संदर्भ
पष्ठवाट् (श्रेष्ठ बैल) उत्तम कृषि बैल ऋषभदेव द्वारा स्थापित कृषि संस्कृति
पष्ठौही (श्रेष्ठ गाय) उत्तम दुग्ध गाय गौ-पालन एवं अहिंसक समाज निर्माण
उक्षा (साँड) बलशाली पशु ऋषभदेव द्वारा सिखाई गई कृषि में प्रयुक्त
वशा (दुग्धगाय) दूध देने वाली गाय गौ-पालन से प्राप्त आहार व्यवस्था
अनड्वान (हल में न जोता गया बैल) स्वतंत्र बैल आत्म-संयम एवं मोक्ष-मार्ग का प्रतीक
धेनु (गाय) दूध देने वाली माता अहिंसा, करुणा एवं परोपकार का प्रतीक
ऋषभ श्रेष्ठ बैल ऋषभदेव – प्रथम तीर्थंकर, जिन्होंने सभ्यता को दिशा दी
यज्ञेन कल्पन्ताम् (यज्ञ द्वारा योग्य हों) यज्ञ के माध्यम से पशुधन का विकास अहिंसा, त्याग, तपस्या द्वारा समाज उन्नति

4. निष्कर्ष – जैन दृष्टि से मंत्र का व्यापक अर्थ

📌 1. "ऋषभ" शब्द का प्रयोग बैल के लिए नहीं, बल्कि शिक्षा प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के लिए भी किया गया है. 
📌 2. यह मंत्र कृषि एवं पशुपालन के विकास की बात करता है, जो ऋषभदेव द्वारा स्थापित सभ्यता के अनुरूप है।
📌 3. "यज्ञ" का अर्थ यहाँ आत्म-संयम, शुद्धि एवं धर्म का पालन भी लिया जा सकता है, जो जैन दृष्टि से स्वीकार्य है।
📌 4. पशुबलि-प्रधान यज्ञों का विरोध करते हुए, इस मंत्र में पशुओं की समृद्धि की बात की गई है, जो अहिंसक समाज व्यवस्था की ओर संकेत करता है।

अतः यह मंत्र वैदिक कृषि, ऋषभदेव की शिक्षाओं, एवं अहिंसा आधारित सामाजिक व्यवस्था के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध स्थापित कर सकता है।

📌 इस मंत्र का व्यापक अर्थ यह दर्शाता है कि भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्था और वैदिक युग की कृषि आधारित संरचना में कई समानताएँ थीं।

📌 यज्ञ, कृषि, एवं पशुपालन को ऋषभदेव की शिक्षाओं से जोड़कर देखा जा सकता है, जो अहिंसा एवं समाज-व्यवस्था की आधारशिला बने।

✅ भाग 1: मंत्र पाठ, पदपाठ एवं व्याकरणीय विश्लेषण।
✅ भाग 2: अन्वय पाठ, सामान्य अर्थ एवं वैदिक संदर्भ।
✅ भाग 3: जैन दृष्टि से गहन विश्लेषण एवं निष्कर्ष।

ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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Thursday, March 13, 2025

ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्र: व्याकरण, अर्थ एवं जैन दृष्टिकोण


विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में स्थान स्थान पर ऋषभदेव का उल्लेख प्राप्त होता है. इन मन्त्रों/ऋचाओं में ऋषभदेव का अत्यंत उच्च स्थान है. इसी सन्दर्भ में ऋग्वेद के 10 वें मंडल के सूक्त १६६ एवं १६७ का यहाँ पर अर्थ किया जा रहा है. इन दोनों मन्त्रों में ऋषभदेव की प्रार्थना एवं महिमा का वर्णन है. 

मंत्र 1:
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्।
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥

स्रोत: ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 166, मंत्र 1

मंत्र 2:
ऋषभो वैराजः, ऋषभः शाक्वरो भीमसेनो वा। सपत्नघ्नम्॥
स्रोत: ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 167, मंत्र 1


पदपाठ (संधि-विच्छेद सहित)

मंत्र 1:

ऋषभम्। मा। समानानाम्। सपत्नानाम्। विषासहिम्।
हन्तारम्। शत्रूणाम्। कृधि। विराजम्। गोपतिम्। गवाम्॥

मंत्र 2:

ऋषभः। वैराजः। ऋषभः। शाक्वरः। भीमसेनः। वा। सपत्नघ्नम्॥


व्याकरणिक विश्लेषण

शब्द विभक्ति / लिंग / वचन प्रचलित अर्थ समीचीन अर्थ
ऋषभम् / ऋषभः द्वितीया/प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन श्रेष्ठ, प्रमुख, नेता ऋषभदेव, आत्म-निर्देश, आत्मा, जिन (जिनेन्द्र)
वैराजः प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन वैराज से संबंधित, तेजस्वी वैराग्यवान, मुनि
शाक्वरः प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन शक्तिशाली, दिव्य संयम से युक्त
भीमसेनः प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन अत्यंत बलशाली, योद्धा आत्मबल से संपन्न, विषय-कषायों के लिए भयंकर 
मा संबोधन, प्रथम पुरुष, एकवचन मुझे आत्म-निवेदन
समानानाम् षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन समान स्तर वालों का समभाव रखने वालों का
सपत्नानाम् षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन विरोधियों का विकारों (कषायों) का
विषासहिम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन विष सहने वाला, विजेता कषायों को सहन करने वाला
हन्तारम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन संहारक राग-द्वेष का नाश करने वाला
शत्रूणाम् षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन शत्रुओं का कर्म शत्रु का
कृधि लोट् लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन बना आत्म-विकास करा
विराजम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन तेजस्वी, प्रभावशाली आत्म-प्रकाश से युक्त
गोपतिम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन गो (गायों) का स्वामी इंद्रियों का स्वामी (जितेन्द्रिय)
गवाम् षष्ठी, स्त्रीलिंग, बहुवचन गायों का इंद्रियों का

अन्वय (शब्दों को क्रमबद्ध कर अर्थपूर्ण वाक्य बनाना)

मंत्र 1:

हे इन्द्र! मुझे समान जनों में श्रेष्ठ (ऋषभम्), प्रतिद्वंद्वियों पर विजयी (विषासहिम्), शत्रुओं का संहारक (हन्तारम्), तेजस्वी (विराजम्), और इंद्रियों का स्वामी (गोपतिम्) बनाओ।

मंत्र 2:

श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, संयमयुक्त, आत्मबल से संपन्न, या विकारों को नष्ट करने वाला बनाओ।


प्रचलित सामान्य अर्थ

मंत्र 1:  

"हे इन्द्र! मुझे मेरे समान जनों में श्रेष्ठ बनाओ, प्रतिद्वंद्वियों पर विजय दिलाओ, शत्रुओं का संहारक बनाओ, तेजस्वी बनाओ, और गायों का स्वामी बनाओ।"

मंत्र 2:

"श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, दिव्य शक्ति से संपन्न, भीमसेन जैसा बलशाली या शत्रुओं का नाश करने वाला।"


समीचीन अर्थ 

मंत्र 1:

"हे भगवान ऋषभदेव! मुझे समान साधकों में श्रेष्ठ बनाओ, आंतरिक विकारों (कषायों) पर विजय दिलाओ, राग-द्वेष का नाश करने वाला बनाओ, आत्म-तेज से युक्त करो, और इंद्रियों का स्वामी अर्थात जितेन्द्रिय या जिन बनाओ।"

मंत्र 2:

"भगवान ऋषभदेव त्यागमूर्ति हैं, वे आत्मबल से संपन्न हैं, संयम और आत्मज्ञान से पूर्ण हैं, और वे विकारों को नष्ट करने वाले हैं।"


निष्कर्ष (दोनों मंत्रों के बीच संबंध)

मंत्र प्रचलित सामान्य अर्थ समीचीन अर्थ (जैन दृष्टिकोण से)
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥ "हे इन्द्र! मुझे श्रेष्ठ, शत्रुओं का नाश करने वाला, तेजस्वी और गोधन का स्वामी बनाओ।" "हे भगवान ऋषभदेव! मुझे आत्म-विजयी, विकारों का नाश करने वाला, और जितेन्द्रिय बनाओ।"
ऋषभो वैराजः, ऋषभः शाक्वरो भीमसेनो वा। सपत्नघ्नम्। "श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, दिव्य शक्ति से संपन्न, भीमसेन जैसा बलशाली या शत्रुओं का नाश करने वाला।" "भगवान ऋषभदेव त्यागमूर्ति, आत्मबल में अद्वितीय, और विकारों को नष्ट करने वाले हैं।"

संक्षेप में प्रमुख अंतर

  1. सपत्नघ्नम् (शत्रुनाशक):

    • वैदिक दृष्टि से – भौतिक शत्रुओं का नाश करने वाला।
    • जैन दृष्टि से – विकारों, कर्मों और कषायों का नाश करने वाला।
  2. गोपति (गायों का स्वामी):

    • वैदिक दृष्टि से – गोधन का स्वामी, राजा।
    • जैन दृष्टि से – इंद्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय।
  3. ऋषभ (श्रेष्ठ):

    • वैदिक दृष्टि से – श्रेष्ठ योद्धा, नेता।
    • जैन दृष्टि से – प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आत्मा।

निष्कर्ष

  • दोनों मंत्रों में "ऋषभ" का प्रयोग श्रेष्ठता और बल के प्रतीक के रूप में हुआ है।
  • वैदिक संदर्भ में यह बाह्य शक्ति, युद्ध और राजनीतिक श्रेष्ठता से संबंधित हो सकता है।
  • जैन संदर्भ में यह  प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आत्मबल, संयम, तप और विकारों के नाश का प्रतीक है।
  • "सपत्नघ्न" का वैदिक अर्थ शत्रु पर विजय है, जबकि जैन दर्शन इसे आत्मिक विकारों का नाश मानता है।

इस प्रकार, इन ऋचाओं का अर्थ भौतिक सत्ता और आध्यात्मिक सत्ता दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है और वेदों की व्यापक व्याख्या को दर्शाता है।


Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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Wednesday, March 12, 2025

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण


भारत की अनादिकालीन सनातन संस्कृति में दो धाराएं सदा से सतत प्रवाहमान है जिन्हे वार्हत और आर्हत अथवा वैदिक व श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता है. जब दो धाराएं सामानांतर बहती है तो उनमे एक जैसे अनेक तत्व होते हैं तो अंतर्विरोध भी. अनेक स्थानों पर दोनों एक जैसे दिखते हैं, होते हैं और कई स्थानों पर मतभिन्नता भी होती है. यही इस सामानांतर धाराओं का वैशिष्ट्य भी है और सौंदर्य भी. और यही भारतवर्ष का, इस आर्यावर्त की पावन भूमि का शाश्वत उद्घोष है और यही इसे वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करनेवाला विश्वगुरु भी बनता है. 

पाश्चात्य विद्वान भारत की इस खूबी को पहचान ही नहीं पाए अथवा जानबूझ कर इसे अनदेखा किया. इन दोनों संस्कृतियों की विभाजक रेखा अत्यंत सूक्ष्म है और कब यह मिल जाती है और कब अलग हो जाती, यह पहचानना अत्यंत कठिन है. ये बात इन संस्कृतियों और इतिहास की गहराई में गोता लगानेवाले मर्मज्ञों को ही ज्ञात होता है. 

अर्हत, ऋषभ, भरत, अरिष्टनेमि, वातरसन जैसे श्रमण (आर्हत या जैन) संस्कृति में बहुप्रचलित शब्द वेदों, पुराणों, श्रीमद्भागवद आदि वैदिक ग्रंथों में बहुलता से मिलता है. इन शब्दों के अर्थ में मतभिन्नता भी है. इस लेखमाला का उद्देश्य समन्वित दृष्टिकोण से ऋग्वेद, यजुर्वेद, पुराण, श्रीमद्भागवद आदि ग्रंथों में पाए जानेवाले इन शब्दों के अर्थों का तार्किक विश्लेषण कर समन्वय के तत्व स्थापित करना है. 

वेद-विज्ञान लेखमाला के लेखों की सूचि 


1. यह लेख 'ऋषभाष्टकम्' स्तोत्र के मूल श्लोकों एवं उसका हिंदी अर्थ प्रदान करता है, जिससे पाठक भगवान ऋषभदेव की महिमा और गुणों को समझ सकते हैं। इस स्तोत्र में ऋग्वेद के आधार पर तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति की गई है. 

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post_28.html

2. इस लेख में ऋग्वेद की एक विशेष ऋचा का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'अर्हंत' शब्द का उल्लेख है, जो जैन धर्म में तीर्थंकरों के लिए प्रयुक्त होता है।

ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_81.html

3. यह लेख ऋग्वेद की एक ऋचा का शब्दार्थ, अन्वयार्थ और व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक उसकी गहराई से समझ प्राप्त कर सकें।

विभिन्न दृष्टिकोणों से ऋग्वेद की ऋचा का विश्लेषण – शब्दार्थ, अन्वयार्थ एवं विस्तृत व्याकरण सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_13.html

4. इस लेख में ऋग्वेद की ऋचा 70.74.22 का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'ऋत', 'वृषभ' और 'धर्मध्वनि' जैसे महत्वपूर्ण वैदिक अवधारणाओं की व्याख्या की गई है।

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/707422.html

5. यह लेख आचार्य कोत्स और आचार्य यास्क के वेदों पर विचारों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिससे वेदों की व्याख्या की प्राचीन परंपराओं की समझ मिलती है।
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6. इस लेख में गणधरवाद में वेदों की व्याख्या की विभिन्न परंपराओं का विश्लेषण किया गया है, जो गणधरवाद ग्रन्थ में वेदों के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है।
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7. यह लेख ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्रों का व्याकरणिक, भाषाशास्त्रीय और दार्शनिक विश्लेषण करता है। इसमें प्रचलित सामान्य अर्थ और समीचीन दृष्टि से व्याख्या प्रस्तुत की गई है, जो आत्मबल, संयम और विकारों के नाश को दर्शाती है।

ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्र: व्याकरण, अर्थ एवं जैन दृष्टिकोण

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8. वातरशनाः शब्द ऋग्वेद में नग्न मुनियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है "जो वायु को ही वस्त्र मानते हैं।" यह दिगंबर जैन मुनियों से मेल खाता है, जो पूर्ण संयम और आत्मबल के प्रतीक हैं। यह लेख वैदिक और जैन संदर्भ में इसकी व्याख्या करता है।

ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 136 के 7 मंत्रों का जैन दृष्टिकोण से विश्लेषण

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9. स्वस्ति मंत्र केवल लौकिक मंगलकामना नहीं, बल्कि आत्मोत्थान और मोक्षमार्ग की प्रेरणा है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि, अहिंसा और वैराग्य के प्रतीक हैं, जिनकी वाणी अज्ञान व राग-द्वेष को समाप्त करती है। यह लेख स्वस्तिवाचन के आध्यात्मिक रहस्य और आत्मकल्याण की गूढ़ प्रेरणा को उजागर करता है।
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10. ऋग्वेद 7.18.22 की यह ऋचा केवल दशराज्ञ युद्ध का विवरण नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रियों के बीच संघर्ष का आध्यात्मिक संकेत भी देती है। "अर्हन्नग्ने" केवल लौकिक अग्नि नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि की ज्वाला है। "पर्येमि रेभन्" में दिव्यध्वनि का प्रसार छुपा है, जो मोक्षमार्ग की दिशा में प्रेरित करता है।
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11. ​यजुर्वेद (18.27) में उत्तम बैल, गाय और अन्य पशुओं की प्रार्थना की गई है, जो वैदिक समाज की आर्थिक और आध्यात्मिक समृद्धि के प्रतीक थे। 'ऋषभ' शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से संबंधित है। उन्होंने कृषि, पशुपालन और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी।
यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ                                                                            https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/1827.html

12. भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को असि (शस्त्रविद्या), मसि (लेखन कला), कृषि (खेती और पशुपालन) और शिल्प (कला एवं विज्ञान) की शिक्षा दी। उन्होंने पुरुषों को 72 और स्त्रियों को 64 कलाएँ सिखाईं, जिससे समाज का बहुआयामी विकास हुआ। इससे मा नव सभ्यता संगठित हुई और समाज निर्माण के आधारस्तंभ स्थापित हुए।

13. यहाँ प्रस्तुत यजुर्वेदीय मंत्रों में 'ऋषभ' शब्द का उल्लेख करते हुए भगवान ऋषभदेव की वैदिक संस्कृति में प्रतिष्ठा को दर्शाया गया है। यजुर्वेद के मन्त्रों का यह संकलन जैन और वैदिक परंपराओं के समन्वय का महत्वपूर्ण प्रयास है, जो ऋग्वेद और यजुर्वेद के ऋषभवाची मंत्रों के माध्यम से इस संबंध को उजागर करता है।
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14. ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम केवल एक ऐतिहासिक युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के संघर्ष का अद्भुत प्रतीक है। यह लेख सुदास की विजयगाथा के माध्यम से आत्मबल, सत्य और धर्म की स्थापना का ऋग्वेदीय संदेश सामने लाता है।
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15. 'भरत' शब्द वैदिक, पौराणिक और जैन साहित्य में भिन्न अर्थों में प्रतिष्ठित है। ऋग्वेद भाष्य में 'भरत' वीर क्षत्रिय गण है, वहीं पुराणों व जैन परंपरा में वह ऋषभदेव पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं। यह लेख इन दोनों दृष्टियों का ऐतिहासिक और दार्शनिक विश्लेषण करता है।
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16. क्या आप जानते हैं भारत का नाम कैसे पड़ा? यह लेख वेद, पुराण और जैन आगमों से प्रमाणित करता है कि 'भारतवर्ष' का नामकरण दुष्यंत पुत्र भरत से नहीं, बल्कि ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत से हुआ। जानिए इस गौरवशाली इतिहास की सच्चाई।
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17. यह आलेख वैदिक परंपरा में अग्नि पुराण की महत्ता को रेखांकित करता है। ऋक् और यजुः संपदा से समृद्ध यह पुराण धर्म, नीति, आयुर्वेद, वास्तु, धनुर्वेद, ज्योतिष और तंत्र सहित विविध विषयों का गहन संगम है, जो वैदिक मूल्यों का व्यवहारिक रूप में अनुपम प्रस्तुतीकरण करता है।
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18. पुराण भारतीय संस्कृति और धर्म का जीवंत दर्पण हैं। जानिए पुराण शब्द का अर्थ, शास्त्रीय लक्षण, रचनाकाल, 18 महापुराण और उपपुराणों की विस्तृत सूची, प्रमुख विषयवस्तु और ऐतिहासिक महत्व। यह लेख वेदों के पूरक इन ग्रंथों का सार प्रस्तुत करता है।
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भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)



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