Search

Loading

Friday, March 14, 2025

ऋग्वेद का स्वस्ति मंत्र: तीर्थंकर अरिष्टनेमि और आत्मोत्थान की दिव्य प्रेरणा


परिचय

"स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥" 

यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का 89 वाँ सूक्त है, जो शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयी-संहिता (२५/१४-२३), काण्व संहिता, मैत्रायणी संहिता, तथा ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथों में भी लगभग समान रूप से प्राप्त होता है।

जगत, परिवार और स्वयं के कल्याण हेतु शुभ वचन कहना ही "स्वस्तिवाचन" कहलाता है। भारतीय धार्मिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं में स्वस्तिवाचन मंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

संस्कृत व्याकरण के अनुसार, "स्वस्ति" = "सु" + "अस्ति", जिसका अर्थ है – "मंगल हो, कल्याण हो।"

ऋग्वेद का सर्वत्र प्रचलित मंगलकारी मंत्र केवल लौकिक कल्याण की कामना तक सीमित नहीं है, जैसा कि साधारणतः माना जाता है. इसमें गहरे आध्यात्मिक अर्थ निहित हैं, जिनसे न केवल सामान्य जनसमुदाय, बल्कि तथाकथित विद्वज्जन भी अपरिचित हैं। यदि इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह मन्त्र सर्वज्ञ वाणी से उत्पन्न आत्मकल्याण प्रयोजनार्थ सम्यक् दर्शन,  सम्यग्ज्ञान, एवं कर्म-निर्जरा के पुरुषार्थ की ओर संकेत करता है।

इस मंत्र में 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) का उल्लेख विशेष महत्व रखता है, क्योंकि वे अहिंसा और वैराग्य के प्रतीक हैं। जैसे गरुड़ विषैले सर्पों पर विजय प्राप्त करता है और गारुड़ी मंत्र विष का नाश करता है, वैसे ही तीर्थंकर वाणी अज्ञान, राग-द्वेष रूपी विष को समाप्त करती है। 


तीर्थंकर नेमिनाथ, अजीमगंज, प. बंगाल 

इसी प्रकार, बृहस्पति को देवताओं का गुरु माना जाता है, वैसे ही तीर्थंकर केवल मनुष्यों के ही नहीं, बल्कि देवों के भी गुरु होते हैं और भोगोन्मुख एवं भोगासक्त देवताओं को भी सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। ऐतिहासिक रूप से यादव कुल शिरोमणि अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के चाचा समुद्रविजय और माता शिवादेवी के पुत्र अर्थात श्रीकृष्ण के चचेरे भाई हैं. 

यह लेख इस ऋग्वेद मंत्र को आध्यात्मिक सिद्धांतों की दृष्टि से विश्लेषित करेगा, जिसमें आत्मबल, सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा, और मोक्ष की दिशा को समझाया जाएगा। यह मंत्र केवल एक सांसारिक मंगलकामना सूचक वैदिक मन्त्र नहीं, बल्कि आत्मोत्थान और मोक्षमार्ग का एक गूढ़ संदेश प्रस्तुत करता है।

संहितापाठः

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

पदपाठः

स्वस्ति नः इन्द्रः वृद्धश्रवाः |
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः |
स्वस्ति नः तार्क्ष्यः अरिष्टनेमिः |
स्वस्ति नः बृहस्पतिः दधातु ||


शब्दार्थः (आध्यात्मिक दृष्टिकोण)

  1. स्वस्ति – अभय (निर्भयता), आत्मकल्याण, मोक्षमार्ग की शुभता।
  2. नः – हमारे लिए।
  3. इन्द्रः – आत्मबल का प्रतीक, जो इन्द्रियों को वश में रखे।
  4. वृद्धश्रवाः – जिसकी कीर्ति आत्मज्ञान से बढ़ी हो, जिनकी कीर्ति तीनो लोकों में सर्वाधिक हो ऐसे तीर्थंकर  अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त अति विशिष्ट आत्मा।
  5. पूषा – आत्मा का पोषण करने वाला सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान।
  6. विश्ववेदाः – समस्त लोक के वास्तविक स्वरूप को जानने वाला, सर्वज्ञ।
  7. तार्क्ष्यः – आत्मा की तीव्र गति, जो संसार से विमुक्त होने की क्षमता रखता है; गरुड़ रूप में, जो सर्पों पर विजय प्राप्त करता है, जैसे गारुड़ी मंत्र विष का नाश करता है।
  8. अरिष्टनेमिः – 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ, जिन्होंने अहिंसा का सर्वोच्च आदर्श स्थापित किया।
  9. बृहस्पतिः – जिनवाणी या तीर्थंकरों का उपदेश, जो आत्मज्ञान का स्रोत है; जैसे बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, वैसे ही तीर्थंकर केवल मनुष्यों के ही नहीं, बल्कि देवताओं के भी गुरु होते हैं।
  10. दधातु – प्रदान करे, स्थापित करे।

अन्वयः

इन्द्रः वृद्धश्रवाः नः स्वस्ति दधातु।
पूषा विश्ववेदाः नः स्वस्ति दधातु।
तार्क्ष्यः अरिष्टनेमिः नः स्वस्ति दधातु।
बृहस्पतिः नः स्वस्ति दधातु।

(अर्थात्, आत्मबल से संपन्न, सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान से पोषित, कर्म-रहित, और सच्चे उपदेशक तीर्थंकर श्री नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) हमें आत्मकल्याण की ओर ले जाएँ।)


आध्यात्मिक दृष्टि से विस्तृत व्याख्या

यह मंत्र आत्मकल्याण और मोक्षमार्ग की मंगलकामना का द्योतक है। इसमें आत्मबल, सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा, और आत्मज्ञान के चार महत्वपूर्ण तत्वों का उल्लेख है।

1. इन्द्रः वृद्धश्रवाः – आत्मबल और संयम

  • "इन्द्र" का अर्थ ऐश्वर्ययुक्त होता है. यहाँ ऐश्वर्य से तात्पर्य है आत्मा का ऐश्वर्य अर्थात  आत्मबल, संयम, इन्द्रिय-निग्रह आदि। 
  • "वृद्धश्रवाः" का अर्थ है जिनकी ख्याति आत्मज्ञान एवं लोककल्याण के कारण बढ़ी हो: जिन्होंने अटनागयण के साथ विशिष्ट एवं कठोर पुरुषार्थ (साधना) कर केवलज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त करने के बाद जगत को मोक्ष अर्थात परम सुख का मार्ग दिखाया और जिसके कारण त्रिलोक पूज्यता अर्थात अर्हत अवस्था प्राप्त की हो।

2. पूषा विश्ववेदाः – सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सर्वज्ञता

  • पूषा का अर्थ है "पालन करने वाला", यहाँ इसे आत्मा के पोषण करने वाले सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के रूप में देखा जा सकता है।
  • तीर्थंकर जगत के जीवों को दुःख से निवृत्ति एवं सुखप्राप्ति का मार्ग बताते हैं, स्वयं उस मार्ग पर चल चुके हैं और अनुयायियों को उस मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शक एवं धर्म सारथी हैं. इस अर्थ में जीवों के पालक हैं. 
  • "विश्ववेदाः" का अर्थ है जो समस्त लोक और तत्वों के स्वरूप को जानता है, अर्थात् केवलज्ञानी (सर्वज्ञ).   
  • यह उस आत्मज्ञान का भी सूचक है, जो आत्मा को संसार में भ्रमण करने से रोकता है और उसे मोक्षमार्ग पर अग्रसर करता है।

3. तार्क्ष्यः अरिष्टनेमिः – कर्म-निर्जरा, तीर्थंकर नेमिनाथ और गरुड़ी शक्ति

  • "तार्क्ष्य" गरुड़ का नाम है, जो तीव्र गति से उड़ने वाला और सर्वविघ्न विनाशक है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसे आत्मा की संसार से विमुक्त होने की शक्ति के रूप में देखा जा सकता है।
  • गरुड़ सर्पों पर विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार आत्मा को मोक्षमार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाले कर्मों को नष्ट करना होता है।
  • जिस प्रकार गारुड़ी मंत्र विष का नाश करता है, उसी प्रकार तीर्थंकरों की वाणी (जिनवाणी) अज्ञान, राग-द्वेष और मिथ्यात्व (आत्मिक विष) को समाप्त करती है।
  • "अरिष्टनेमिः" – भगवान नेमिनाथ, जो अहिंसा और मोक्षमार्ग के महान उपदेशक थे।
    • उन्होंने संसार के बंधनों को छोड़कर मोक्ष का पथ चुना।
    • उनका जीवन दर्शाता है कि सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए कोई भी आत्मा कर्म-बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
    • नेमिनाथ का नाम "अरिष्ट" शब्द से जुड़ा है, क्योंकि उन्होंने संसार के संकटों और कर्मों से स्वयं को मुक्त कर लिया था।

4. बृहस्पतिः – जिनवाणी और तीर्थंकरों का उपदेश

  • "बृहस्पति" का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ उपदेशक, अर्थात् तीर्थंकरों की दिव्य वाणी, जो आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है।
  • जिनवाणी सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा दिया गया ज्ञान है, जो आत्मा को मोक्षमार्ग की दिशा में ले जाता है।
  • जैसे बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, उसी प्रकार तीर्थंकर केवल मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि देवों को भी सन्मार्ग दिखाते हैं

5. तीर्थंकर – पालन करने वाले

  • पूषा का अर्थ पालनकर्ता भी होता है।
  • जैन धर्म में तीर्थंकर केवल आत्मकल्याण के मार्गदर्शक ही नहीं होते, बल्कि वे चतुर्विध जैन संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) का भी पालन करने वाले होते हैं।

विशेष विचारणीय बिंदु

  • यह मंत्र आत्म-कल्याण की प्रार्थना है, जिसमें आत्मबल, सम्यक् दृष्टि एवं ज्ञान, कर्म-निर्जरा, और आत्मज्ञान के चार महत्वपूर्ण स्तंभों की बात कही गई है।
  • इसमें किसी बाह्य देवता की स्तुति नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर स्थित दिव्यता और आत्मशक्ति को जाग्रत करने की प्रेरणा है।
  • अरिष्टनेमिः (भगवान नेमिनाथ) का समावेश यह स्पष्ट करता है कि मोक्षमार्ग केवल उन्हीं को प्राप्त होता है, जो संसार से विरक्त होकर आत्मकल्याण की ओर बढ़ते हैं

निष्कर्ष

👉 यह मंत्र आत्मबल, सम्यक् दृष्टि, सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा और तीर्थंकर वाणी के माध्यम से मोक्षमार्ग की मंगलकामना करता है।
👉 तीर्थंकर मनुष्यों के साथ-साथ देवों के भी गुरु होते हैं।
👉 यह मंत्र आध्यात्मिक विष (अज्ञान, राग-द्वेष) को दूर करने वाला गरुड़ी मंत्र के समान कार्य करता है।
👉 तीर्थंकर केवल मार्गदर्शक ही नहीं, बल्कि चतुर्विध संघ के पालक एवं आधारस्तम्भ भी होते हैं. 

यह मंत्र सांसारिक कल्याण के साथ साथ आत्मशुद्धि और मोक्षमार्ग की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।

ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

allvoices

No comments: