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Thursday, March 20, 2025

दशराज्ञ संग्राम में इन्द्र-वरुण कृपा: तृत्सु-सुदास की ऋग्वेदीय विजयगाथा


परिचय:

ऋग्वेद मंडल 7, सूक्त 83, मंत्र 6-7 — यह सूक्त महर्षि वसिष्ठ द्वारा रचित है। इसमें दशराज्ञ युद्ध का वर्णन है, जिसमें सुदास तृत्सु वंश का राजा है और उसका संघर्ष दस राजाओं के विरुद्ध है। ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम न केवल वैदिक इतिहास का एक अद्भुत अध्याय है, बल्कि यह आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के बीच होने वाले आंतरिक संघर्ष का गहरा प्रतीक भी है। 

इस लेख में हम ऋग्वेद के सप्तम मंडल के 83वें सूक्त के दो मंत्रों (7.83.6-7) के माध्यम से सुदास और तृत्सु वंश की विजय को एक दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समझने का प्रयास करेंगे। इन्द्र-वरुण कृपा से सुदास विकाररूपी दशराजाओं पर विजय प्राप्त करता है और आत्मा के उत्कर्ष का प्रतीक बनता है। यह सूक्त आत्मिक संघर्ष, इन्द्रियों पर विजय, और धर्म-मार्ग में स्थिर रहने का संदेश देता है।

ऋग्वेद का दशराज्ञ युद्ध: प्रतीकात्मक चित्रण 

मूल मंत्र, पदपाठ, शब्दार्थ, अन्वय और भावार्थ सहित

स्वर सहित: 

यु॒वां ह॑वन्त उ॒भया॑स आ॒जिष्विन्द्रं॑ च॒ वस्वो॒ वरु॑णं च सा॒तये॑ । यत्र॒ राज॑भिर्द॒शभि॒र्निबा॑धितं॒ प्र सु॒दास॒माव॑तं॒ तृत्सु॑भिः स॒ह॥ ऋग्वेद मंत्र 7.83.6

पदपाठ: 

युवाम् । हवन्ते । उभयासः । आजिषु । इन्द्रम् । च । वस्वः । वरुणम् । च । सातये । यत्र । राजभिः । दशभिः । निबाधितम् । प्र । सुदासम् । आवतम् । तृत्सुभिः । सह ॥

शब्दार्थ: युवाम् — तुम दोनों (इन्द्र और वरुण), हवन्ते — आह्वान करते हैं, उभयासः — दोनों ओर के योद्धा, आजिषु — रणभूमि में, इन्द्रम् — इन्द्र को, च — और, वस्वः — धनदाता, वरुणम् — वरुण को, च — और, सातये — सहायता के लिए, यत्र — जहाँ, राजभिः — राजाओं द्वारा, दशभिः — दस राजाओं से, निबाधितम् — घिरा हुआ, प्र — आगे, सुदासम् — सुदास को, आवतम् — सहायता करो, तृत्सुभिः — तृत्सुओं के साथ, सह — सहित।

अन्वय: यत्र दशभिः राजभिः निबाधितं सुदासम् तृत्सुभिः सह प्र आवतम्, युवाम् इन्द्रम् च वरुणम् च वस्वः उभयासः आजिषु सातये हवन्ते।

भावार्थ: हे इन्द्र और वरुण! रणभूमि में दोनों पक्षों के योद्धा तुम्हें सहायता के लिए पुकारते हैं। जहाँ सुदास तृत्सुओं सहित दस राजाओं से घिरा हुआ है, वहाँ तुम दोनों उसकी रक्षा करो।

आध्यात्मिक भावार्थ:

यह मंत्र आत्मा के उस संघर्ष का प्रतीक है जहाँ जीव संसार की रणभूमि में मोह, राग, द्वेष और विकारों रूपी दस इन्द्रिय-राजाओं से घिरा हुआ है। वह अपने भीतर के दिव्य बल (इन्द्र) और मर्यादा (वरुण) को पुकारता है — जो आत्मा के संकल्प, संयम और आत्मशक्ति के प्रतीक हैं। आत्मा जब सत्य में स्थित होकर, अपने भीतर के इन्द्र-वरुण को जागृत करती है, तभी वह इस घेराव से बाहर आ सकती है। यह मंत्र सिखाता है कि आत्मबल, विवेक और संयम से ही जीव इस मोह-माया के जाल से बाहर निकलकर आत्मोद्धार कर सकता है।


स्वर सहित:

दश॒ राजा॑न॒: समि॑ता॒ अय॑ज्यवः सु॒दास॑मिन्द्रावरुणा॒ न यु॑युधुः । स॒त्या नृ॒णाम॑द्म॒सदा॒मुप॑स्तुतिर्दे॒वा ए॑षामभवन्दे॒वहू॑तिषु ॥ ऋग्वेद मंत्र 7.83.7

पदपाठ: 

दश । राजानः । समिता: । अयज्यवः । सुदासम् । इन्द्रावरुणा । न । युयुधुः । सत्या । नृणाम् । अद्मसदाम् । उपस्तुतिः । देवाः । एषाम् । अभवन् । देवहूतिषु ॥

शब्दार्थ: दश राजानः — दस राजा, समिताः — एकत्र हुए, अयज्यवः — यज्ञविहीन, सुदासम् — सुदास को, इन्द्रावरुणा — हे इन्द्र-वरुण!, न युयुधुः — जीत न सके, सत्या — सत्य में स्थित, नृणाम् — मनुष्यों में, अद्मसदाम् — भोजन करने वालों में, उपस्तुतिः — स्तुति के योग्य, देवाः — देवता, एषाम् — इनके, अभवन् — बने, देवहूतिषु — देवताओं की वंदना में।

अन्वय: दश राजानः समिताः अयज्यवः सुदासम् इन्द्रावरुणा न युयुधुः। सत्या नृणाम् अद्मसदाम् उपस्तुतिः एषाम् देवाः देवहूतिषु अभवन्।

भावार्थ: दस राजा यज्ञविहीन होकर सुदास के विरुद्ध एकत्र हुए, किन्तु हे इन्द्र-वरुण! वे सुदास को जीत न सके। सत्य में स्थित मनुष्यों में ये सदा वंदनीय बन गए और देवताओं द्वारा पूजित हुए।

आध्यात्मिक भावार्थ:

दस इन्द्रियों रूपी अधर्मी राजा — जो यज्ञ-विहीन हैं अर्थात संस्कार विहीन एवं विकारी हैं; आत्मा को विकारों में बांधने वाले हैं — वे चाहे जितना भी बल लगाएँ, आत्मा को सत्य और धर्म से डिगा नहीं सकते यदि आत्मा इन्द्र-वरुण स्वरूप आत्मबल और मर्यादा में स्थित हो। सत्य में स्थित साधक देवताओं के समान वंदनीय बन जाता है और विकारों पर विजय प्राप्त करता है। यह मंत्र बताता है कि आत्मा का परम आश्रय सत्य और धर्म है, और वही उसे इस घोर संसार-संग्राम में विजय दिलाता है।


विशेष व्याकरणिक एवं दार्शनिक विश्लेषण — 'तृत्सु' शब्द:

'तृत्सु' शब्द व्याकरण की दृष्टि से पुल्लिंग, बहुवचन, तृतीया विभक्ति में प्रयुक्त हुआ है ("तृत्सुभिः"), जिसका कारक अर्थ 'साथ' अथवा 'द्वारा' है।

  • धातु और व्युत्पत्ति: यह '√तृ' (पार करना, जीतना) धातु से बना है, जो 'त्सु' प्रत्यय से जुड़कर 'तृत्सु' बनता है।

  • सामान्य अर्थ: ऋग्वेद में 'तृत्सु' सुदास के वंश या कुल का नाम है, जो एक यशस्वी और सत्य-धर्म में स्थित योद्धा जाति है।

  • दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ: '√तृ' का अर्थ है — 'पार करना'। इस दृष्टि से 'तृत्सु' वह समूह है जो जीवन-संसार के बंधनों और इन्द्रिय विकारों को पार कर जाने की क्षमता रखता है। यह आत्मा का वह स्वरूप या साधक समुदाय है, जो विकारों से संघर्ष कर संसार-सागर को लांघने में समर्थ है।

  • 'तृत्सु' का प्रयोग केवल ऐतिहासिक वंशवाचक नहीं, बल्कि आत्म-गुणवाचक है — जो 'परम लक्ष्य' को पार कर पाने की शक्ति और सामर्थ्य रखते हैं।

निष्कर्ष :

अतः 'तृत्सु' शब्द का प्रयोग यहाँ गहरे आध्यात्मिक अर्थों में हुआ है — 'विजेता साधक समूह', 'आत्मिक विजेता', 'मुक्ति पथ के पथिक'।

दार्शनिक और आध्यात्मिक विवेचन:

ऋग्वेद के ये मंत्र दशराज्ञ युद्ध के बहाने एक गहन आत्मिक संघर्ष का प्रतीक बन जाते हैं, जहाँ राजा सुदास न केवल बाहरी शत्रुओं से युद्ध कर रहे हैं, बल्कि आत्मा के भीतर के दस इन्द्रिय रूपी शत्रुओं पर विजय का भी संदेश दे रहे हैं। 'दश राजान:' यहाँ दस इन्द्रियों का द्योतक हैं, जो आत्मा को बाँधने और मोक्षमार्ग से विचलित करने वाले बाहरी और आंतरिक द्वार हैं। तृत्सु वंश का सुदास आत्मा का प्रतिनिधि है, जो इन इन्द्रियों को जीतकर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर है।

'सत्या नृणाम्' — यह पद गहराई से बताता है कि सत्य और धर्म में स्थित मनुष्य ही इस संघर्ष में विजयी हो सकता है। देवताओं की 'उपस्तुति' यानी आत्मसमर्पण और आंतरिक साधना आत्मा को परम गति दिलाती है।

यह प्रत्येक जीव का संघर्ष है, जहाँ आत्मा (सुदास) इन्द्रिय-विकारों (दश राजान:) से घिरी है। इन्द्र (बल) और वरुण (मर्यादा) की कृपा अर्थात तप, संयम, विवेक और श्रद्धा का सहारा लेकर आत्मा इस घोर युद्ध में विजयी हो सकती है।

जो आत्मा इन्द्रियों पर विजय पा लेती है, वही सच्चे अर्थों में 'सुदास' बनती है — 'सु' (शुभ) और 'दास' (सेवक) — जो शुभ के प्रति समर्पित है, आत्मा की सेवा में रत है और अन्ततः मोक्षमार्ग का पथिक है।

ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


वरुण का विस्तृत दार्शनिक अर्थ:

वरुण का मूल अर्थ है — जो सबको आवृत्त (घेरने वाला) है, संपूर्ण जगत का अनुशासक और सर्व-संयामी है। वह ऋत (Cosmic Order), सत्य (Truth) और मर्यादा (Discipline) का अधिपति है। वरुण आत्मा का वह पक्ष है जो नियम, मर्यादा, सत्य, आत्म-संयम और नैतिकता में स्थित रहता है।

वरुण का गहरा संबंध समुद्र और जल से है। वह समुद्र का अधिपति है — समुद्र जो अपनी मर्यादा नहीं लाँघता, रत्नों का भंडार है, और जिसकी गहराई आत्म-विश्लेषण और चिंतन की गहराई का प्रतीक है। समुद्र की गंभीरता और स्थिरता आत्मा के गहरे चिंतन और आत्म-संयम का रूपक है।

वरुण जलस्वरूप है — शीतलता, लचीलापन और शुद्धि का प्रतीक। जल जैसा स्वभाव आत्मा में होना चाहिए — शीतल, क्रोध-रहित, द्रव स्वरूप में लचीला और परिस्थिति के अनुसार ढलने वाला, परंतु अपनी शुद्धता और स्वरूप को खोए बिना। जल अन्य सभी वस्तुओं का भी शुद्धिकरण करता है. 

वरुण सिखाता है कि शुद्धि, संयम और मर्यादा में रहकर ही आत्मा जीवन-सागर में गोता लगाकर दिव्य रत्न प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार वरुण केवल नियामक नहीं, अपितु आत्मा का वह शीतल, संयमी, लचीला और गहरे चिंतन में स्थिर पक्ष है, जो आत्मा को मर्यादा और ऋत में स्थापित कर मोक्षमार्ग का पथिक बनाता है। 

इन्द्र के विविध पर्यायों का आध्यात्मिक अर्थ:

शक्र (Shakra): शक्ति से सम्पन्न, वह आत्मा का संकल्पबल है, जो भीतर जागता है और आत्मा को दृढ़ बनाता है।

देवराज (Devarāja): देवताओं का राजा। देव यहां इन्द्रियाँ हैं। आत्मा का वह दिव्य स्वरूप जो इन्द्रियों का स्वामी बनकर उन्हें नियंत्रित करता है।

पुरंदर (Purandara): पुर (अहंकार और आसक्ति के दुर्ग) को ध्वस्त करने वाला। आत्मा का वह बल, जो भीतर बसे मिथ्या विश्वासों और कर्मजन्य बंधनों को तोड़ता है।

वज्रपाणि (Vajrapāṇi): वज्रधारी। आत्मा का वह अचल पक्ष जो कठिन से कठिन कर्म और मोह के आघात को झेलने की शक्ति रखता है। विवेक और धैर्य का वज्रधारी। 'वज्र' अत्यंत कठोर है, जो पुर और पर्वत को भेदने में सक्षम है। इसकी तुलना अशनि या कड़कती बिजली से भी की जाती है, जो अंधकार को चीरती है। साधक का हृदय उसी वज्र के समान कठोर होता है — अपने विकारों और मोह के प्रति, किंतु शिरीष पुष्प के समान कोमल होता है समस्त जीवों के प्रति। यही संयम, करुणा और तपस्या का समुचित संतुलन आत्मिक वज्रपाणि को सिद्ध करता है। साधक का यह वज्र उसकी आत्मशक्ति बनकर उसे समस्त विकारों पर अचल बनाता है और उसे मोक्षमार्ग पर अडिग रखता है।

शतक्रतु (Shatakratu): सैकड़ों संकल्प और साधनाओं से समृद्ध। वह आत्मा का वह रूप, जो बार-बार संकल्प करता है, बार-बार गिरकर उठता है, साधना में लगा रहता है।

सहस्राक्ष (Sahasrākṣa): हज़ार नेत्रों वाला। आत्मा का वह जाग्रत पक्ष जो सर्वदर्शी है, जो भीतर-बाहर सब देखता है और कहीं भी मोह में नहीं फँसता।

मघवा (Maghavā): दानशील, उदार। आत्मा का वह रूप जो आत्म-ज्ञान, सत्य और धर्म का दान करता है। लोभ और संग्रह से परे उदारता में स्थित रहता है।

पाकशासन (Pākashāsana): अधर्म और पाप का संहारक। आत्मा का वह तेजस्वी रूप जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं का नाश करता है।


इन्द्र का ऐश्वर्य दार्शनिक अर्थ:

इन्द्र केवल शक्ति का देवता नहीं, वह ऐश्वर्यवाची भी है। 'इन्द्र' का अर्थ है — 'श्रेष्ठ, प्रमुख, सर्वश्रेष्ठ'। आत्मा का वह रूप जो इन्द्रियों का अधिपति बनकर आत्मवैभव को प्राप्त करता है। जब आत्मा इन्द्रियों पर शासन कर लेती है, तब वह बाह्य भोगों की दासी नहीं रह जाती, बल्कि अपने भीतर के दिव्य ऐश्वर्य, ज्ञान, शांति और आनन्द को प्राप्त करती है।

इन्द्र वर्षा के अधिपति भी हैं। वर्षा का अर्थ है — जीवन में संभावनाओं और समृद्धि की वर्षा। वर्षा धरती को उपजाऊ बनाती है। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ है — आत्मा का वह स्वरूप, जो अपनी साधना और तप से भीतर की भूमि को उपजाऊ बनाता है, जहाँ ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और मोक्ष के बीज अंकुरित होते हैं।

अतः इन्द्र ऐश्वर्य, विजय, और आत्म वैभव का वह द्योतक है, जो आत्मा को साधना और विवेक के बल से भीतर समृद्ध और ऊर्जावान बनाता है।


संक्षिप्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:

ऋग्वेद में वर्णित यह युद्ध सुदास और दस राजाओं के मध्य परुष्णी नदी के तट पर घटित हुआ माना जाता है। विश्वामित्र और वसिष्ठ जैसे महर्षियों की भूमिका इस युद्ध में रही। किन्तु यह इतिहास केवल पृष्ठभूमि है, असली युद्ध आत्मा और इन्द्रियों के बीच का है।

 विशेष टिप्पणी — ऐतिहासिक नहीं, आत्मिक युद्ध का रूपक

यह दशराज्ञ युद्ध मात्र ऐतिहासिक युद्ध नहीं है। ऋग्वेद का यह वर्णन एक आध्यात्मिक रूपक है, जो प्रत्येक साधक के भीतर घटित होता है।
'दश राजा' — हमारी दस इन्द्रियाँ और मनोविकार हैं। 'सुदास' — वह आत्मा है जो सत्य, धर्म और साधना के बल से विकारों पर विजय पाती है।
इसलिए इस सूक्त को पढ़ते समय बाह्य इतिहास नहीं, अंतर्यात्रा और आत्मसंघर्ष का चिन्तन आवश्यक है।


जीवन में उपयोगिता (Practical Relevance):

यह सूक्त हमें सिखाता है —

  • रोजमर्रा के जीवन में देश इन्द्रियों के दश विकार हमारे 'दशराज्ञ' हैं।
  • आत्मा को अपने भीतर इन्द्र-वरुण रूपी बल और मर्यादा का आह्वान करना चाहिए।
  • आत्मसंयम, सत्य और धर्म ही इस संसार-संग्राम में विजय के शस्त्र हैं।
  • यही अभ्यास जीवन में शांति, संतुलन और मोक्षमार्ग प्रदान करता है।

उपसंहार:

ऋग्वेद के ये मंत्र केवल किसी ऐतिहासिक विजय के वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि यह आत्मा के परम संघर्ष का प्रतीक हैं। सत्य, धर्म, आत्मबल और साधना का पथ अपनाकर ही आत्मा इस संसार-सागर से पार हो सकती है। यही इन मंत्रों का सनातन और सार्वकालिक संदेश है।

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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