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शनिवार, 22 मार्च 2025

ऋक्-यजुःसंपदा का पुराण-प्रवाह: अग्नि पुराण


भूमिका:

वैदिक साहित्य में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा वैदिक धर्मावलम्बियों का दैनंदिन क्रियाकलाप, धार्मिक अनुष्ठान आदि सामान्यतः पुराणों के आधार पर ही चलता है. हर हिन्दू के घर में मृत्यु के समय पढ़े जाने वाले गरुड़ पुराण से कौन अपरिचित है? 

ऐसी आस्था है की सभी 18 पुराणों और 18 उप पुराणों के रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं. यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से प्राणों का रचना काल अत्यंत विस्तृत है, लगभग ईशा की दूसरी शताब्दी से 13 वीं  शताब्दी तक. इनमे से अग्नि पुराण सर्वाधिक विस्तृत पुराणों में से एक है. वेदों में भी अग्नि ही प्रमुख देवता हैं, अतः उनके आधार पर रचा गया पुराण भी पुराणों की श्रृंखला में अपना विशिष्ट स्थान रखता है. 

अग्नि पुराण एक अत्यंत महत्वपूर्ण और विशिष्ट पुराण है, क्योंकि इसमें केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि धर्म, नीति, वास्तु, शास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, स्थापत्य, युद्धनीति आदि बहुविध विषयों का समावेश है। इसे एन्साइक्लोपीडिक पुराण भी कहा जाता है।

ऋक् और यजुः — वैदिक ज्ञान की वह अमूल्य संपदा है, जिसमें ब्रह्माण्ड के रहस्य, धर्म के मूल स्वरूप, यज्ञीय कर्मकांड और मानव जीवन के आदर्श सूत्रों का समावेश है। इन्हीं वैदिक निधियों की सांस्कृतिक और लौकिक धारा में प्रवाहित होकर अग्नि पुराण जन्म लेता है।

अग्नि पुराण कोई मात्र पुराण कथा नहीं, अपितु यह ऋग्वेदीय स्तुतियों और यजुर्वेदीय यज्ञीय विधानों का पुराण-प्रवाह है, जिसमें धर्म, विज्ञान, आयुर्वेद, वास्तु, धनुर्वेद, ज्योतिष और लोकधर्म का अद्भुत समन्वय दिखता है।

यह पुराण वैदिक मूल्यों को लोक व्यवहार में उतारते हुए —
✅ यज्ञ और अग्नि की महिमा,
✅ राजधर्म और नीति शास्त्र,
✅ आयुर्वेद और ज्योतिष विद्या,
✅ वास्तु और शिल्पशास्त्र,
✅ तंत्र-मंत्र और साधना मार्ग —


इन सबको एक वैदिक-पुराणिक सेतु के रूप में प्रस्तुत करता है।

ऋक्-यजुः संपदा से समृद्ध यह पुराण न केवल श्रद्धा का विषय है, अपितु शोध, अध्ययन और वैदिक परंपरा के व्यवहारिक पक्ष को समझने का एक अनुपम साधन है।


🔥 अग्नि पुराण का विषय-वस्तु (Subject Matter):

अग्नि पुराण मुख्यतः अग्नि देवता और महर्षि वसिष्ठ के संवाद रूप में रचा गया है। इसमें वैदिक धर्म, स्मृति, पुराण, कला, विज्ञान और तंत्र तक को समाहित किया गया है।

मुख्य विषय एवं उपविषय (Sub-topics):

विषय उपविषय (Sub-topics)
धर्म और उपासना तीर्थ, व्रत, दान, श्राद्ध, यज्ञ, जप, पूजा विधि, तीर्थों का वर्णन
पुराण कथा अवतार कथाएँ, सृष्टि रचना, मन्वंतर, राजवंश, धर्मशास्त्र
राजधर्म एवं राजनीति राजा के कर्तव्य, मंत्रणा, दंडनीति, युद्धनीति, कूटनीति
वास्तुशास्त्र नगर योजना, मंदिर निर्माण, गृह निर्माण, मूर्ति शिल्प
आयुर्वेद चिकित्सा, रोग-निदान, औषधियाँ, रसायन विज्ञान
धनुर्वेद (युद्धशास्त्र) धनुष, अस्त्र-शस्त्र निर्माण, युद्ध नीति, सैन्य संगठन
ज्योतिष और गणित ग्रह, नक्षत्र, राशियाँ, मुहूर्त, कालचक्र, तिथि, पंचांग, ज्यामिति
तंत्र-मंत्र तांत्रिक अनुष्ठान, साधना विधि, मंत्र सिद्धि, कवच निर्माण
शिल्प और चित्रकला मूर्ति निर्माण, चित्रांकन के नियम, रंगशास्त्र
नाट्यशास्त्र और काव्य रस, अलंकार, नाट्यशास्त्र, काव्य रचना के नियम

अग्नि पुराण और वेदों का संबंध (Connection with the Vedas):

अग्नि पुराण अनेक स्थानों पर वेदों का आधार लेकर विषयों को प्रस्तुत करता है:

  1. यज्ञ और अग्नि की महिमा – अग्नि पुराण में अग्नि के विविध स्वरूपों और यज्ञीय अनुष्ठानों का विस्तार से वर्णन है, जो सीधे ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद से जुड़ा है।
  2. धर्मशास्त्र एवं स्मृति ग्रंथों का सार – अग्नि पुराण वैदिक कर्मकांड के साथ-साथ मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति के धर्म और आचार संहिताओं को समेटता है।
  3. आयुर्वेद और ज्योतिष – इन विषयों की जड़ें अथर्ववेद में मानी जाती हैं। अग्नि पुराण में भी वैदिक आयुर्वेद और वैदिक ज्योतिष का विस्तार से वर्णन है।
  4. राजधर्म और दंडनीतिशुक्ल यजुर्वेद के शान्ति और दण्डसूक्त, मनुस्मृति और वेदांगों के अनुसार शासक के धर्म का प्रतिपादन।
  5. वास्तु और शिल्पयजुर्वेद के शिल्पसूक्तों के प्रभाव में भवन निर्माण, मूर्ति विज्ञान और नगर रचना के सिद्धांत।
  6. तंत्र साधना और मंत्र विद्या – वैदिक ऋचाओं के साथ तांत्रिक विधियों का समावेश, कई मंत्र वेदों से उद्धृत हैं।
  7. नाट्य और काव्य – वेदों में वर्णित संगीत और नाद ब्रह्म सिद्धांत के आधार पर काव्य और नाट्यशास्त्र का विकास।

विशेषताएँ (Highlights):

✅ यह पुराण ज्ञान, विज्ञान, धर्म और लोकव्यवहार का अद्भुत संगम है।
✅ इसे प्रायोगिक ग्रंथ (Practical Treatise) भी माना जाता है।
वैदिक परंपरा का विस्तार करते हुए लोकधर्म और व्यवहार शास्त्र तक पहुँचता है।
✅ इसकी बहु-विषयकता इसे अद्वितीय बनाती है।


संक्षिप्त निष्कर्ष:

अग्नि पुराण वेदों की परंपरा को आगे बढ़ाता है और उसमें लौकिक जीवन, विज्ञान, चिकित्सा, शिल्प और तंत्र-मंत्र तक जोड़ देता है। यह वैदिक संस्कृति का विस्तारित और विकसित रूप है, जो भारतीय जीवन के हर पहलू को छूता है।

1. अग्नि पुराण का वैदिक स्वरूप और भूमिका:

  • अग्नि पुराण स्वयं को वैदिक परंपरा का वाहक बताता है।
  • "अग्नि" स्वयं वेदों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता हैं, विशेष रूप से ऋग्वेद में, जहाँ अग्नि सूक्त (ऋग्वेद 1.1.1) से ही शुरुआत होती है।
  • अग्नि पुराण में यज्ञ, हवन, अग्नि साधना और यज्ञिय कर्मों का विस्तार है, जो सीधे यजुर्वेद और ऋग्वेद दोनों से जुड़ते हैं।

2. अग्नि पुराण में यज्ञ और वेदों का स्पष्ट समन्वय (विशेषकर यजुर्वेद से):

  • अग्नि पुराण में यज्ञीय विधियाँ, हवन, आहुति मंत्र, और यज्ञों का फल बार-बार वर्णित है।
  • यज्ञ का मूल स्रोत यजुर्वेद है, और अग्नि पुराण उसी परंपरा का विस्तार है।
  • कई स्थलों पर यजुर्वेदीय मन्त्रों का संदर्भ आता है, जैसे –
    • अग्नि स्थापना
    • ग्रहण, संक्रांति, श्राद्ध आदि में आहुति विधि
    • "इदं न मम" भाव का प्रतिपादन

उदाहरण – अग्नि पुराण में यज्ञीय आहुति में "स्वाहा", "वषट्", "हुं" आदि प्रयोग, यजुर्वेदी परंपरा की पुष्टि करते हैं।


3. ऋग्वेदीय ऋचाओं का संदर्भ और प्रभाव:

  • यद्यपि अग्नि पुराण मुख्यतः स्मृति और पुराण परंपरा का ग्रंथ है, फिर भी इसमें ऋग्वेदीय सूक्तों और मंत्रों की झलक है।
  • अग्नि पुराण में कई बार अग्नि सूक्त, पुरुष सूक्त आदि का उल्लेख या भावानुवाद आता है।
  • देवताओं की स्तुति, विशेषकर अग्नि, इन्द्र, वरुण आदि की प्रशंसा ऋग्वेद से ली गई है।
  • उदाहरण: अग्नि पुराण में अग्नि की प्रशंसा में अनेक श्लोक वैदिक शैली में हैं, जो ऋग्वेद के प्रथम मंडल से प्रेरित हैं।

4. आयुर्वेद, वास्तु, धनुर्वेद आदि का आधार अथर्ववेद में अधिक है, किंतु यजुष और ऋक का मूल प्रवाह स्पष्ट है:

  • आयुर्वेदिक वर्णन वैदिक औषध सूक्तों (अथर्ववेद) से जुड़ा है।
  • वास्तु और स्थापत्य में भी यजुर्वेदी शिल्पसूक्तों का प्रभाव है।
  • युद्ध और धनुर्वेद में यजुर्वेदी युद्ध विधानों का झलक स्पष्ट है।

5. प्रत्यक्ष वेद उद्धरण / समन्वय:

  • अग्नि पुराण में वैदिक मंत्रों का सीधा पाठ कम है, लेकिन अनेक विधान "ऋचः" और "यजुषी" कहकर वैदिक परंपरा को उद्धृत करते हैं।
  • कई बार वाक्य आता है – "एष वै वेदः", "वेदविहितं कर्म", "ऋचाम् अनुसारम्", जिससे वेद का संदर्भ स्पष्ट है।

6. निष्कर्ष (Conclusion):

पक्ष उत्तर
क्या अग्नि पुराण का वैदिक परंपरा से संबंध है? हाँ, अत्यंत गहरा
विशेष रूप से ऋग्वेद और यजुर्वेद से? यजुर्वेद से प्रत्यक्ष, यज्ञ और कर्मकांड में स्पष्ट संबंधऋग्वेद से स्तुति, देवत्व और मंत्रों के भाव में संबंध
प्रत्यक्ष वैदिक मंत्र उद्धरण? सीमित मात्रा में, अधिकतर भावानुवाद और परंपरा
वैदिक प्रभाव का स्वरूप? कर्मकांड, यज्ञ, पूजा विधि, दान, श्राद्ध आदि में

विशेष टिप्पणी:

अग्नि पुराण वेद नहीं है, लेकिन यह वेदों का व्यवहारिक और लौकिक विस्तार है।
यह यजुर्वेदीय कर्मकांड का प्रायोगिक ग्रंथ बनता है और ऋग्वेदीय देव स्तुति और भावना को लोकधर्म में रूपांतरित करता है।

अग्नि पुराण में कई स्थानों पर वैदिक मंत्रों का उल्लेख और उनका अनुप्रयोग मिलता है, विशेषकर ऋग्वेद और यजुर्वेद से संबंधित मंत्रों का। आइए, कुछ उदाहरणों के माध्यम से इस संबंध को समझते हैं:


1. अग्नि पुराण में ऋग्वेद मंत्रों का अनुप्रयोग:

अध्याय 259 में, अग्नि पुराण में ऋग्वेद के मंत्रों के उपयोग का वर्णन मिलता है। उदाहरण के लिए:

"मैं अब तुम्हें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के मंत्रों के अनुप्रयोग का वर्णन करूंगा, जो दोहराने पर भोग और मोक्ष प्रदान करते हैं और (हवन में) आहुति देने के लिए उपयोग किए जाते हैं, जैसा कि पुष्कर ने राम को बताया था।"

यहाँ, ऋग्वेद के मंत्रों के विशेष अनुप्रयोग का उल्लेख है, जो यज्ञ और हवन में प्रयुक्त होते हैं।


2. ऋग्वेद के प्रथम मंत्र और अग्नि पुराण का संबंध:

ऋग्वेद का प्रथम मंत्र अग्नि की स्तुति में है:

"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥" 

इस मंत्र में अग्नि को यज्ञ का पुरोहित, ऋत्विज, होतार और रत्नों का दाता कहा गया है। अग्नि पुराण में भी अग्नि की महिमा और यज्ञ में उनकी भूमिका का विस्तार से वर्णन मिलता है, जो इस ऋग्वेद मंत्र से मेल खाता है।


1. अग्नि पुराण में यजुर्वेद मंत्रों का संदर्भ:

अग्नि पुराण, अध्याय 141, श्लोक 2, 5, 6, 30, 32, 116, 117, 118, 119, 120, 121 में नवग्रह यज्ञ की महिमा और विधि का वर्णन है। इन श्लोकों में यज्ञ के माध्यम से लक्ष्मी, शांति, दृष्टि, आयु आदि की प्राप्ति की बात कही गई है। यह यजुर्वेद के यज्ञीय परंपरा से मेल खाती है, जहाँ यज्ञ के माध्यम से विभिन्न कामनाओं की पूर्ति का उल्लेख है। (awgp.org)


2. यजुर्वेद में अग्नि की स्तुति:

यजुर्वेद में यज्ञीय क्रियाओं और मंत्रों का विशेष स्थान है। यजुर्वेद में अग्नि देवता की स्तुति में कई मंत्र हैं। अग्नि पुराण में यज्ञ की विधियों, आहुति मंत्रों और अनुष्ठानों का वर्णन यजुर्वेद के अनुरूप है। उदाहरण के लिए, यजुर्वेद में:

"अग्निर्ज्योतिरजः प्राणो मृत्युः..."

इस मंत्र में अग्नि को ज्योति, प्राण और अमृत के रूप में वर्णित किया गया है, जो अग्नि पुराण में अग्नि की महिमा से संबंधित श्लोकों से मेल खाता है। इस प्रकार के मंत्र अग्नि की विभिन्न भूमिकाओं का वर्णन करते हैं, जो अग्नि पुराण में विस्तृत रूप से मिलते हैं।

3. अग्नि पुराण में मेधा सूक्त का उल्लेख:

अग्नि पुराण में मेधा सूक्त का उल्लेख मिलता है, जो यजुर्वेद से संबंधित है। उदाहरण के लिए:

"मेधां मे वरुणो ददातु मेधामग्निः प्रजापतिः। मेधामिन्द्रश्च वायुश्च मेधां धाता ददातु मे॥"
— यजुर्वेद 36.21

इस मंत्र में वरुण, अग्नि, प्रजापति, इन्द्र, वायु और धाता से मेधा (बुद्धि) की प्रार्थना की गई है। अग्नि पुराण में भी मेधा की प्राप्ति के लिए इसी प्रकार की प्रार्थनाएँ मिलती हैं। (vichaarsankalan.wordpress.com)

4. अग्नि पुराण में सप्तजिह्वा का वर्णन:

अग्नि की सात जिह्वाओं (जीभों) का वर्णन अग्नि पुराण में मिलता है, जो वैदिक परंपरा से संबंधित है। ये सात जिह्वाएँ हैं: हिरण्य, गगना, रक्त, कृष्णा, सुप्रभा, बहुरूपा, अतिरक्ता। 

सारांश 

अग्नि पुराण और यजुर्वेद के बीच गहरा संबंध है. अग्नि पुराण में यजुर्वेद के मंत्रों का प्रत्यक्ष उद्धरण सीमित है, लेकिन यज्ञीय विधियों, अग्नि की महिमा, मेधा की प्रार्थना आदि विषयों में यजुर्वेद के मंत्रों का संदर्भ मिलता है। यह दर्शाता है कि अग्नि पुराण और यजुर्वेद के बीच एक गहरा संबंध है, विशेषकर यज्ञ और अग्नि से संबंधित विषयों में।

अग्नि पुराण एवं तीर्थंकर ऋषभदेव व चक्रवर्ती भरत  

अग्नि पुराण (अध्याय 107, श्लोक 11–12):

श्लोक: 

"ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात् भरतो भवेत्।
भरताद् भारतं वर्षं, जम्बूद्वीपे व्यपदिशेत्।"

हिंदी अनुवाद: "ऋषभ का जन्म मरुदेवी से हुआ; ऋषभ से भरत का जन्म हुआ; भरत से जम्बूद्वीप में वह क्षेत्र 'भारतवर्ष' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।"

अग्निपुराण का यह श्लोक इसे जैन परंपरा से भी जोड़ता है. 

असि, मसि, कृषि के आद्य प्रणेता ऋषभदेव: मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ 

निष्कर्ष:

अग्नि पुराण और वेदों के बीच गहरा संबंध है। विशेषकर, ऋग्वेद और यजुर्वेद के मंत्रों का उल्लेख और उनका अनुप्रयोग अग्नि पुराण में मिलता है, जो वैदिक परंपरा और पुराणिक साहित्य के बीच की कड़ी को प्रकट करता है। इसी प्रकार वेदों में प्राप्त ऋषभ एवं भरत के सन्दर्भ का विस्तार भी अग्निपुराण में किया गया है. इस तरह यह वैदिक एवं जैन संस्कृति के मध्य भी एक सेतु का काम करता है. 

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि

क्यों कहलाया यह देश भारत? जानिए ऋषभदेव और भरत से जुड़ा वैदिक और पौराणिक सत्य


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Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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बुधवार, 12 मार्च 2025

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण


भारत की अनादिकालीन सनातन संस्कृति में दो धाराएं सदा से सतत प्रवाहमान है जिन्हे वार्हत और आर्हत अथवा वैदिक व श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता है. जब दो धाराएं सामानांतर बहती है तो उनमे एक जैसे अनेक तत्व होते हैं तो अंतर्विरोध भी. अनेक स्थानों पर दोनों एक जैसे दिखते हैं, होते हैं और कई स्थानों पर मतभिन्नता भी होती है. यही इस सामानांतर धाराओं का वैशिष्ट्य भी है और सौंदर्य भी. और यही भारतवर्ष का, इस आर्यावर्त की पावन भूमि का शाश्वत उद्घोष है और यही इसे वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करनेवाला विश्वगुरु भी बनता है. 

पाश्चात्य विद्वान भारत की इस खूबी को पहचान ही नहीं पाए अथवा जानबूझ कर इसे अनदेखा किया. इन दोनों संस्कृतियों की विभाजक रेखा अत्यंत सूक्ष्म है और कब यह मिल जाती है और कब अलग हो जाती, यह पहचानना अत्यंत कठिन है. ये बात इन संस्कृतियों और इतिहास की गहराई में गोता लगानेवाले मर्मज्ञों को ही ज्ञात होता है. 

अर्हत, ऋषभ, भरत, अरिष्टनेमि, वातरसन जैसे श्रमण (आर्हत या जैन) संस्कृति में बहुप्रचलित शब्द वेदों, पुराणों, श्रीमद्भागवद आदि वैदिक ग्रंथों में बहुलता से मिलता है. इन शब्दों के अर्थ में मतभिन्नता भी है. इस लेखमाला का उद्देश्य समन्वित दृष्टिकोण से ऋग्वेद, यजुर्वेद, पुराण, श्रीमद्भागवद आदि ग्रंथों में पाए जानेवाले इन शब्दों के अर्थों का तार्किक विश्लेषण कर समन्वय के तत्व स्थापित करना है. 

वेद-विज्ञान लेखमाला के लेखों की सूचि 


1. यह लेख 'ऋषभाष्टकम्' स्तोत्र के मूल श्लोकों एवं उसका हिंदी अर्थ प्रदान करता है, जिससे पाठक भगवान ऋषभदेव की महिमा और गुणों को समझ सकते हैं। इस स्तोत्र में ऋग्वेद के आधार पर तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति की गई है. 

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post_28.html

2. इस लेख में ऋग्वेद की एक विशेष ऋचा का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'अर्हंत' शब्द का उल्लेख है, जो जैन धर्म में तीर्थंकरों के लिए प्रयुक्त होता है।

ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_81.html

3. यह लेख ऋग्वेद की एक ऋचा का शब्दार्थ, अन्वयार्थ और व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक उसकी गहराई से समझ प्राप्त कर सकें।

विभिन्न दृष्टिकोणों से ऋग्वेद की ऋचा का विश्लेषण – शब्दार्थ, अन्वयार्थ एवं विस्तृत व्याकरण सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_13.html

4. इस लेख में ऋग्वेद की ऋचा 70.74.22 का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'ऋत', 'वृषभ' और 'धर्मध्वनि' जैसे महत्वपूर्ण वैदिक अवधारणाओं की व्याख्या की गई है।

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/707422.html

5. यह लेख आचार्य कोत्स और आचार्य यास्क के वेदों पर विचारों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिससे वेदों की व्याख्या की प्राचीन परंपराओं की समझ मिलती है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_12.html

6. इस लेख में गणधरवाद में वेदों की व्याख्या की विभिन्न परंपराओं का विश्लेषण किया गया है, जो गणधरवाद ग्रन्थ में वेदों के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_62.html

7. यह लेख ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्रों का व्याकरणिक, भाषाशास्त्रीय और दार्शनिक विश्लेषण करता है। इसमें प्रचलित सामान्य अर्थ और समीचीन दृष्टि से व्याख्या प्रस्तुत की गई है, जो आत्मबल, संयम और विकारों के नाश को दर्शाती है।

ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्र: व्याकरण, अर्थ एवं जैन दृष्टिकोण

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_7.html

8. वातरशनाः शब्द ऋग्वेद में नग्न मुनियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है "जो वायु को ही वस्त्र मानते हैं।" यह दिगंबर जैन मुनियों से मेल खाता है, जो पूर्ण संयम और आत्मबल के प्रतीक हैं। यह लेख वैदिक और जैन संदर्भ में इसकी व्याख्या करता है।

ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 136 के 7 मंत्रों का जैन दृष्टिकोण से विश्लेषण

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/10-136-7.html

9. स्वस्ति मंत्र केवल लौकिक मंगलकामना नहीं, बल्कि आत्मोत्थान और मोक्षमार्ग की प्रेरणा है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि, अहिंसा और वैराग्य के प्रतीक हैं, जिनकी वाणी अज्ञान व राग-द्वेष को समाप्त करती है। यह लेख स्वस्तिवाचन के आध्यात्मिक रहस्य और आत्मकल्याण की गूढ़ प्रेरणा को उजागर करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_14.html

10. ऋग्वेद 7.18.22 की यह ऋचा केवल दशराज्ञ युद्ध का विवरण नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रियों के बीच संघर्ष का आध्यात्मिक संकेत भी देती है। "अर्हन्नग्ने" केवल लौकिक अग्नि नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि की ज्वाला है। "पर्येमि रेभन्" में दिव्यध्वनि का प्रसार छुपा है, जो मोक्षमार्ग की दिशा में प्रेरित करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_16.html

11. ​यजुर्वेद (18.27) में उत्तम बैल, गाय और अन्य पशुओं की प्रार्थना की गई है, जो वैदिक समाज की आर्थिक और आध्यात्मिक समृद्धि के प्रतीक थे। 'ऋषभ' शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से संबंधित है। उन्होंने कृषि, पशुपालन और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी।
यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ                                                                            https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/1827.html

12. भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को असि (शस्त्रविद्या), मसि (लेखन कला), कृषि (खेती और पशुपालन) और शिल्प (कला एवं विज्ञान) की शिक्षा दी। उन्होंने पुरुषों को 72 और स्त्रियों को 64 कलाएँ सिखाईं, जिससे समाज का बहुआयामी विकास हुआ। इससे मा नव सभ्यता संगठित हुई और समाज निर्माण के आधारस्तंभ स्थापित हुए।

13. यहाँ प्रस्तुत यजुर्वेदीय मंत्रों में 'ऋषभ' शब्द का उल्लेख करते हुए भगवान ऋषभदेव की वैदिक संस्कृति में प्रतिष्ठा को दर्शाया गया है। यजुर्वेद के मन्त्रों का यह संकलन जैन और वैदिक परंपराओं के समन्वय का महत्वपूर्ण प्रयास है, जो ऋग्वेद और यजुर्वेद के ऋषभवाची मंत्रों के माध्यम से इस संबंध को उजागर करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_18.html

14. ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम केवल एक ऐतिहासिक युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के संघर्ष का अद्भुत प्रतीक है। यह लेख सुदास की विजयगाथा के माध्यम से आत्मबल, सत्य और धर्म की स्थापना का ऋग्वेदीय संदेश सामने लाता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_20.html

15. 'भरत' शब्द वैदिक, पौराणिक और जैन साहित्य में भिन्न अर्थों में प्रतिष्ठित है। ऋग्वेद भाष्य में 'भरत' वीर क्षत्रिय गण है, वहीं पुराणों व जैन परंपरा में वह ऋषभदेव पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं। यह लेख इन दोनों दृष्टियों का ऐतिहासिक और दार्शनिक विश्लेषण करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_11.html

16. क्या आप जानते हैं भारत का नाम कैसे पड़ा? यह लेख वेद, पुराण और जैन आगमों से प्रमाणित करता है कि 'भारतवर्ष' का नामकरण दुष्यंत पुत्र भरत से नहीं, बल्कि ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत से हुआ। जानिए इस गौरवशाली इतिहास की सच्चाई।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_22.html

17. यह आलेख वैदिक परंपरा में अग्नि पुराण की महत्ता को रेखांकित करता है। ऋक् और यजुः संपदा से समृद्ध यह पुराण धर्म, नीति, आयुर्वेद, वास्तु, धनुर्वेद, ज्योतिष और तंत्र सहित विविध विषयों का गहन संगम है, जो वैदिक मूल्यों का व्यवहारिक रूप में अनुपम प्रस्तुतीकरण करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_2.html

18. पुराण भारतीय संस्कृति और धर्म का जीवंत दर्पण हैं। जानिए पुराण शब्द का अर्थ, शास्त्रीय लक्षण, रचनाकाल, 18 महापुराण और उपपुराणों की विस्तृत सूची, प्रमुख विषयवस्तु और ऐतिहासिक महत्व। यह लेख वेदों के पूरक इन ग्रंथों का सार प्रस्तुत करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_23.html

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भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

Jyoti Kothari 
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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित


यह सर्वविदित तथ्य है की जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव इस युग के आदिपुरुष थे जिन्होंने अपनी प्रज्ञा के वल पर जगत को असि, मसि, कृषि का ज्ञान दिया. उन्होंने संसार के जीवों को सर्वोत्तम पुरुषों की ७२ कलायें एवं   स्त्रियों की ६४ कलाओं का ज्ञान दिया. वे इस आर्यावर्त के प्रथम राजा, प्रथम श्रमण, प्रथम सर्वज्ञ  एवं प्रथम तीर्थंकर थे. जैन आगम कल्पसूत्र एवं जिनसेन, वर्धमान सूरी, हेमचंद्राचार्य, मानतुंग सूरी आदि महान आचार्यों ने उनकी महिमा का गान किया है. जैनेतर साहित्य एवं धर्मग्रंथों जैसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, विभिन्न पुराणों, श्रीमद्भागवत, त्रिपिटक आदि में भी उनका उल्लेख मिलता है. 

प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव,  शत्रुंजय तीर्थ  

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में स्थान स्थान पर उनका एवं उनकी उत्कृष्ट साधना का वर्णन मिलता है. इसी प्रकार की एक अद्भुत संस्कृत रचना है ऋषभाष्टकम्। जिस में ऋग्वेद के आधार पर श्री ऋषभदेव स्वामी की स्तुति की गई है. किन्ही महा प्रभाविक अज्ञात महर्षि की यह रचना आश्चर्य चकित करनेवाली है और प्राचीन भारतीय मनीषा की समन्वयात्मक भावना को प्रस्फुटित करती है. वेदों के विशेषकर ऋग्वेद के मन्त्रों को अंतर्गुम्फित कर जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति करना कोई साधारण काम नहीं है. यह कार्य कोई महा मनीषी ही कर सकते हैं. साथ ही यह भी गौर करने लायक है की उन्होंने इस स्तोत्र में अपना नाम भी नहीं दिया, कैसी निष्पृहता रही होगी?  

इस बात का आश्चर्य है की ऐसी अद्भुत सुन्दर कृति अभी तक अप्रकाशित एवं अप्रसिद्ध क्यों है? यह महाप्रभाविक स्तोत्र श्रद्धालुओं द्वारा नित्य पठन के योग्य है. 

रचनाशैली 

इस ऋषभाष्टक की रचना में मुख्य रूप से भारवि कवि की गम्भीर एवं गौरवमयी शैली का अनुसरण किया गया है। भारवि अपनी रचनाओं में गूढ़ अर्थ, शक्तिशाली पदविन्यास तथा कठोरता और सरलता का संतुलित समावेश करके यथार्थ को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि के उद्धरणों में तथा पुरुषोत्तम, वातरशन, आर्हत जैसे विशेषणों में भारवि की गंभीरता दृष्टिगोचर होती है।

किन्तु, कुछ स्थलों परमाघ कवि की शब्द-चमत्कृति, कालिदास की मधुरता तथा दण्डिन की अलंकार प्रधान सौंदर्यपूर्ण शैली को भी समाहित किया गया है। 

यहाँ पर प्रस्तुत है ऋषभदेव की स्तुति रूप ऋषभाष्टकम् एवं उसका अर्थ. 


II अथ ऋषभाष्टकम् II  

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

(जिनकी महिमा ऋग्वेद में गाई गई है, ऐसे प्रथम तीर्थंकर पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: ऋग्वेद में जिनकी वंदना की गई है, वे पुण्यशील व्यक्तियों द्वारा पूजनीय हैं। उनके ज्ञान की गहराई इतनी है कि वे परम तत्व तक पहुँचने योग्य हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् जो समस्त प्राणियों के मार्गदर्शक हैं। वे पूर्ण विकसित कमल के समान निर्मल और दिव्य हैं।


२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

(जिन्होंने संपूर्ण जगत् को ज्ञान दिया और जिनकी महिमा वेदों में वर्णित है, ऐसे वातरसन श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने समस्त संसार को आचरण का पथ दिखाया और स्वयं भी तपस्या में स्थित रहे। कुशस्थली (द्वारका) में उनका प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ। जिनका वर्णन विनीत और सत्यशील ऋषियों ने किया है, ऐसे वातरसन  (अमृत स्वरूप) ऋषभदेव को मैं नमन करता हूँ।


३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो सूर्य के समान सात किरणों से प्रकाशित हैं, जो श्रुतियों में गाए गए हैं, और जो ज्ञान के दीप हैं, ऐसे जिननाथ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनकी आभा सूर्य के समान तेजस्वी है, वेदों में जिनकी स्तुति हुई है और जो अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले दीपक के समान हैं। वे ही संसार की पीड़ा और भय को समाप्त करने वाले जिननाथ हैं।


४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

(जो ज्ञान की गंगा बहाकर लोक का कल्याण करते हैं और जो वेदादि ग्रंथों में स्तुत हैं, ऐसे पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने सात पवित्र नदियों के समान ज्ञान का प्रवाह किया, लोककल्याण हेतु ज्ञानामृत प्रदान किया और जिनका वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में गुणगान किया गया है, ऐसे परम पुरुषोत्तम ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।


५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

(जो अनादि, पवित्र, शुद्ध और जितेन्द्रिय हैं तथा जिनका गुणगान श्रुतिवचनों में किया गया है, ऐसे पुरुष पुण्डरीक श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनका अस्तित्व अनादि है, जो सर्वदा पवित्र और शुद्ध हैं, जिन्होंने अपने समस्त विकारों पर विजय प्राप्त की है और जिनका उल्लेख श्रुति ग्रंथों में हुआ है, वे ही पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक श्री ऋषभदेव हैं।


६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो श्रुतियों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के पूज्य हैं और जिनकी सर्वज्ञता शाश्वत है, ऐसे भगवंत श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और श्रुतियों में सर्वज्ञ कहे गए हैं, जो तपस्वियों के लिए परम आदरणीय हैं और जिनकी सर्वज्ञता एवं दिव्यता शाश्वत है, उन ऋषभदेव को मैं सदा नमन करता हूँ।


७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

(जो सप्तशीर्ष एवं चतुरश्रु रूप में श्रुतियों में वर्णित हैं, ऐसे वातरसन, जिननाथ, आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो सप्तशीर्ष और चतुरश्रु स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के लिए आदर्श हैं और जिनकी दिव्यता समस्त दिशाओं में व्याप्त है, ऐसे प्रथम जिननाथ को मैं श्रद्धा सहित भजता हूँ।


८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

(जो वेदादि पवित्र ग्रंथों में स्तुत हैं, जो सत्य, यथार्थ एवं समता के प्रतीक हैं, ऐसे वृषभ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और अन्य पवित्र ग्रंथों में वर्णित हैं, जो सत्य, न्याय और समता के प्रतीक हैं, जो समस्त विश्व के नाथ हैं, उन वृषभदेव को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

॥इति श्री ऋषभाष्टकं संपूर्णम्॥

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

ऋषभाष्टक का विस्तृत हिंदी अर्थ


प्रथम तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव स्वामी आदिनाथ की भक्तिपूर्ण स्तुति रूप ऋषभाष्टकम का ऋग्वेद के सन्दर्भ में विशिष्ट अर्थ 

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१६८.४) में जिनकी स्तुति हुई है, वे पुण्यशीलों द्वारा वंदनीय हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् वे सृष्टि के आदि गुरु हैं, जिन्होंने धर्म का पथ प्रशस्त किया। कमलदल के समान उनके गुणों की महिमा निरंतर विकसित होती रहती है।

२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.४६) में ऋत (सत्य) को जानने वाले को महान कहा गया है। ऋषभदेव ने इसी सत्य को प्रकट किया। कुशस्थली में उन्होंने तपस्या कर लोक को संयम का उपदेश दिया। वे वेदों में उल्लिखित अमृत समान ज्ञान के स्रोत हैं।

३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (३.५५.२२) में कहा गया है कि परम सत्य सूर्य के समान तेजस्वी है। ऋषभदेव का ज्ञान भी सूर्य के समान अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता है। वे भव (संसार) भय 
से मुक्त करने वाले ज्ञान-ज्योति स्वरूप जिननाथ हैं।

४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.७५) में सप्त-सिन्धु (सात नदियों) की स्तुति की गई है, जो जीवनदायिनी हैं। उसी प्रकार ऋषभदेव ने लोक के हित में सात प्रकार के दिव्य ज्ञान प्रवाहित किए। उनके उपदेशों का गान वेदों में हुआ है।

५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (४.५८.११) में कहा गया है कि सत्य अनादि और शुद्ध है। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रतीक हैं। वे जितेन्द्रिय हैं और उनकी पवित्रता कमल के समान है।

६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.३९) में कहा गया है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाले को ही मोक्ष मिलता है। ऋषभदेव इसी सत्य की मूर्ति हैं। वे तपस्वियों के आदर्श हैं, जो सर्वज्ञता से विभूषित हैं।

७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.९०) में पुरुषसूक्त के अंतर्गत सप्तशीर्ष पुरुष का वर्णन है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रणेता हैं। वे जिननाथ, वातरस (अमृत स्वरूप ज्ञान) के प्रवर्तक हैं।

८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१९०) में कहा गया है कि सत्य, यथार्थ और समभाव ही परम तत्व हैं। ऋषभदेव इन गुणों के प्रतीक हैं। वे विश्वनाथ हैं, जिनका गुणगान ऋषियों और देवों ने किया है।

॥इति श्री ऋषभाष्टकस्य विशिष्ट हिंदी अर्थः संपूर्णः॥



"ऋषभाष्टकम्" का विस्तृत अन्वय, पदपाठ, शब्दार्थ और भावार्थ

1. श्लोक

ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः यस्य उत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति। अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

पदपाठ:

ऋग्वेद-वाचः | सुकृति-प्रणामाः | यस्य | उत्तमं | वेद-विदः | स्तुवन्ति | अज-उपनिष्ठं | परमार्थ-गम्यं | तं | ऋषभं | पूण्डरीकं | भजे | अहम्॥

शब्दार्थ:

  • ऋग्वेदवाचः - ऋग्वेद की वाणी (ऋचाएँ)

  • सुकृतिप्रणामाः - पुण्यात्माओं के प्रणाम

  • यस्य - जिसके

  • उत्तमं - सर्वोत्तम

  • वेदविदः - वेदज्ञ पुरुष

  • स्तुवन्ति - स्तुति करते हैं

  • अजोपनिष्ठं - अज (अजन्मा, वृषभ) में उपनिष्ट (स्थापित) जो है

  • परमार्थगम्यं - परमार्थ (मोक्ष) को उपलब्ध कराने वाला

  • ऋषभं - ऋषभदेव को

  • पूण्डरीकं - कमलवत् निर्मल (या कमलरूपी)

  • भजे - मैं भजता हूँ

  • अहम् - मैं

अन्वय:

अहं तं ऋषभं पूण्डरीकं भजे, यस्य ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः च उत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति, यः अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं च अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस कमलवत् निर्मल भगवान् ऋषभदेव की भक्ति करता हूँ, जिनकी स्तुति वेदज्ञ श्रेष्ठ पुरुष करते हैं, जिनके चरणों में पुण्यात्माएँ प्रणाम करते हैं, जो अज (वृषभ या अजन्मा) में स्थित हैं और जो परमार्थ (मोक्ष) को देने वाले हैं।


2. श्लोक

आचर्षिणो यं जगतः समस्तं कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्। श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

पदपाठ:

आचर्षिणः | यं | जगतः | समस्तं | कुशस्थलीम् | आस्थितवान् | च | यः | अभूत् | श्रुतिः | विनीतैः | ऋषिभिः | प्रसन्नैः | तं | वातरसं | प्रणमामि | नित्यं॥

शब्दार्थ:

  • आचर्षिणः - जिनका आचरण (पालन) करने वाले (शिष्यगण)

  • जगतः समस्तं - सम्पूर्ण जगत्

  • कुशस्थलीम् - पावन भूमि (कुश से युक्त क्षेत्र, संभवतः अयोध्या)

  • आस्थितवान् - निवास किया

  • श्रुतिः - वेद

  • विनीतैः ऋषिभिः - विनीत (नम्र) ऋषियों द्वारा

  • प्रसन्नैः - प्रसन्नचित्त से

  • वातरसं - वातरसं (भगवान ऋषभ का एक नाम)

  • प्रणमामि - मैं प्रणाम करता हूँ

  • नित्यं - सदा

अन्वय:

अहं तं वातरसं नित्यं प्रणमामि, यं आचर्षिणः जगतः समस्तं च आचरन्ति, यः कुशस्थलीम् आस्थितवान्, यं श्रुतिः विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः च वंद्यते।

भावार्थ:

मैं उन भगवान वातरसं (ऋषभदेव) को सदा प्रणाम करता हूँ, जिनका आचरण सम्पूर्ण जगत् करता है, जिन्होंने पुण्यभूमि कुशस्थली में निवास किया और जिनकी स्तुति विनीत व प्रसन्न ऋषियों द्वारा वेद में की गई है।


3. श्लोक

सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति। ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

पदपाठ:

सप्त-अर्चिषं | यः | रविवत् | प्रकाशं | श्रुतिषु | गीते | रुचिरं | विभाति | ज्ञान-प्रदीपं | भव-भीति-कर्त्रं | तं | जिननाथं | प्रणमामि | अहं | सदा॥

शब्दार्थ:

  • सप्तार्चिषं - सात प्रकार की किरणों वाला (सूर्य की तरह)

  • रविवत् - सूर्य के समान

  • प्रकाशं - प्रकाशमान

  • श्रुतिषु - वेदों में

  • गीते - गाया हुआ

  • रुचिरं - सुंदर

  • विभाति - प्रकाशित होता है

  • ज्ञानप्रदीपं - ज्ञान का दीपक

  • भवभीतिकर्त्रं - संसार भय को हरने वाला

  • जिन्नाथं - जिननाथ (विजेता भगवान)

  • प्रणमामि - मैं प्रणाम करता हूँ

  • सदा - सदा

अन्वय:

अहं सदा तं जिननाथं प्रणमामि, यः सप्तार्चिषं रविवत् प्रकाशं रुचिरं श्रुतिषु गीते विभाति, यः ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं च अस्ति।

भावार्थ:

मैं उन जिननाथ भगवान को सदा प्रणाम करता हूँ, जो सात प्रकार की किरणों से सूर्य के समान प्रकाशित हैं, जिनका वर्णन वेदों में हुआ है, जो सुंदरता से विभूषित हैं, जो ज्ञान के दीपक हैं और संसार रूपी भय का नाश करते हैं।


4. श्लोक

यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

पदपाठ:

यः | सप्त | सिन्धून् | प्रवहन् | दिशन्तं | ज्ञान-अमृतं | लोक-हिताय | दत्तम् | वेद-आदिभिः | संस्तूयमानं | संस्तूयते | तं | पुरुष-उत्तमं | भजे॥

शब्दार्थ:

  • सप्त सिन्धून् - सात नदियाँ (ज्ञानरूपी सात धाराएँ)

  • प्रवहन् - प्रवाहित करने वाला

  • दिशन्तं - दिशाओं में फैलाने वाला

  • ज्ञानामृतं - अमृत स्वरूप ज्ञान

  • लोकहिताय - लोक कल्याण के लिए

  • दत्तम् - दिया हुआ

  • वेदादिभिः - वेद आदि ग्रंथों द्वारा

  • संस्तूयमानं - जिसकी स्तुति की जाती है

  • पुरुषोत्तमं - श्रेष्ठ पुरुष

  • भजे - मैं भजता हूँ

अन्वय:

अहं तं पुरुषोत्तमं भजे, यः सप्त सिन्धून् प्रवहन् दिशन्तं ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तं, वेदादिभिः संस्तूयमानं संस्तूयते।

भावार्थ:

मैं उस पुरुषोत्तम भगवान ऋषभदेव का भजन करता हूँ, जिन्होंने सात ज्ञान-नदियों के रूप में अमृतमय ज्ञान प्रवाहित कर समस्त दिशाओं में फैलाया, जो लोकहित के लिए दिया गया, और जिनकी वेदादि ग्रंथों में स्तुति की गई है।


5. श्लोक

अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

पदपाठ:

अनादि-पूर्वः | परमः | पवित्रः | शुद्धः | जित-arih | सततं | विनीतः | श्रुति-वचोभिः | परिणीयमानं | तं | पुरुष-पुण्डरीकं | नमामि॥

शब्दार्थ:

  • अनादिपूर्वः - जिसका कोई आदि नहीं, अनादि

  • परमः - सर्वोच्च

  • पवित्रः - अत्यन्त पवित्र

  • शुद्धः - निर्मल

  • जितारिः - शत्रुओं पर विजय पाने वाला

  • सततं विनीतः - सदा विनम्र

  • श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं - वेदवाक्यों द्वारा वर्णित

  • पुरुषपुण्डरीकं - पुरुषों में कमल के समान श्रेष्ठ

  • नमामि - मैं नमन करता हूँ

अन्वय:

अहं तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि, यः अनादिपूर्वः परमः पवित्रः शुद्धः जितारिः सततं विनीतः च, यः श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस पुरुषपुण्डरीक भगवान ऋषभदेव को नमस्कार करता हूँ, जो अनादि, परम पवित्र, शुद्ध, शत्रुजयी, सदा विनम्र हैं और जिनका वेदवाक्यों में विस्तार से वर्णन किया गया है।


6. श्लोक

यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

पदपाठ:

यः | श्रुतिषु | वर्णितः | आर्हत-ईशः | तपस्विनां | पूज्यतमः | सुपूज्यः | सर्वज्ञता | यस्य | हि | शाश्वती | च | तं | भगवन्तं | प्रणमामि | अहं | सदा॥

शब्दार्थ:

  • श्रुतिषु वर्णितः - वेदों में वर्णित

  • आर्हतेशः - आर्हतों के ईश्वर, जिनेन्द्र

  • तपस्विनां पूज्यतमः - तपस्वियों में अत्यन्त पूज्य

  • सुपूज्यः - श्रेष्ठ पूज्य

  • सर्वज्ञता - सम्पूर्ण ज्ञान

  • शाश्वती - शाश्वत (सनातन)

  • भगवन्तं - भगवान को

  • प्रणमामि - प्रणाम करता हूँ

  • सदा - सदा

अन्वय:

अहं सदा तं भगवन्तं प्रणमामि, यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः, यः तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः च, यस्य सर्वज्ञता शाश्वती अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस भगवान ऋषभदेव को सदा प्रणाम करता हूँ, जो वेदों में वर्णित आर्हतों के ईश्वर हैं, तपस्वियों में अत्यन्त पूज्य हैं और जिनकी सर्वज्ञता शाश्वत है।


7. श्लोक

यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

पदपाठ:

यः | सप्त-शीर्षः | चतुर-श्रु-गीतः | श्रुतिषु | संकीर्तितः | पूर्व-काले | वात-रसं | जिन-नाथं | आद्यं | तं | ऋषभं | प्राञ्जलिकः | भजामि॥

शब्दार्थ:

  • सप्तशीर्षः - सात शिखर वाला (प्रतीक रूप में महानता का बोधक)

  • चतुरश्रुगीतः - चारों दिशाओं में जिसकी कीर्ति गाई जाती है

  • श्रुतिषु संकीर्तितः - वेदों में जिनका संकीर्तन हुआ है

  • पूर्वकाले - प्राचीन काल में

  • वातरसं - वातरसं (ऋषभदेव का नाम)

  • जिन्नाथमाद्यं - जिननाथों में आदि, प्रथम

  • प्राञ्जलिकः - हाथ जोड़कर

  • भजामि - मैं भजता हूँ

अन्वय:

अहं प्राञ्जलिकः तं ऋषभं भजामि, यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः च, यः श्रुतिषु पूर्वकाले संकीर्तितः, यः वातरसं जिननाथमाद्यं अस्ति।

भावार्थ:

मैं हाथ जोड़कर उस ऋषभदेव भगवान का भजन करता हूँ, जो सात शिखरों वाले हैं, चारों दिशाओं में जिनकी कीर्ति गाई जाती है, जो वेदों में प्राचीन काल से संकीर्तित हैं और जो जिननाथों में प्रथम हैं।


8. श्लोक

वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

पदपाठ:

वेद-आदिभिः | अनघैः | स्तुतः | च | यः | विश्व-नाथः | सुर-मौक्तिकाभिः | सत्यं | यथार्थं | च | समं | सदा | यः | तं | वृषभं | प्रणमामि | नित्यं॥

शब्दार्थ:

  • वेदादिभिः अनघैः - वेदादि निर्दोष ग्रंथों द्वारा

  • स्तुतः - स्तुति किया गया

  • विश्वनाथः - सम्पूर्ण विश्व के स्वामी

  • सुरमौक्तिकाभिः - देवमणियों (देवों द्वारा)

  • सत्यं यथार्थं च समं - सत्य, यथार्थ और समभाव युक्त

  • वृषभं - वृषभ (ऋषभदेव)

  • प्रणमामि नित्यं - मैं सदा प्रणाम करता हूँ

अन्वय:

अहं नित्यं तं वृषभं प्रणमामि, यः वेदादिभिः अनघैः स्तुतः, यः विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः पूज्यः, यः सत्यं यथार्थं च समं सदा अस्ति।

भावार्थ:

मैं उस वृषभ (ऋषभदेव) को सदा प्रणाम करता हूँ, जिनकी वेदादि निर्दोष ग्रंथों में स्तुति की गई है, जो सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हैं, देवों द्वारा मणिरत्नों के समान पूजित हैं और जो सदा सत्य, यथार्थ और समभाव युक्त हैं।


समापन भावार्थ:

"ऋषभाष्टकम्" भगवान ऋषभदेव की महानता, उनकी वेदसम्मत वंदना और उनकी दिव्यता का स्तुतिगान है। यह स्तोत्र ऋषभदेव को आदि तीर्थंकर, ज्ञान और सत्य के स्रोत तथा लोकहितकारी के रूप में प्रस्तुत करता है। उनके गुणों का स्मरण और वंदन आत्मकल्याण और मोक्षमार्ग का सशक्त साधन है।


Thanks, 
Jyoti Kothari 
 (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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