ऋग्वेद के इस सूक्त में वातरशनाः मुनियों का वर्णन मिलता है। वातरशनाः शब्द का अर्थ है "वायु को ही वस्त्र मानने वाले", जो जैन परंपरा में निर्वस्त्र दिगंबर मुनियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। जैन धर्म में ये मुनि तप, संयम और आत्म-शुद्धि के मार्ग पर चलते हैं। अब प्रत्येक मंत्र का जैन दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं:
मंत्र 1:
"केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते॥"
सामान्य अर्थ:
केशी मुनि अग्नि को धारण करते हैं, विष का सेवन करते हैं, आकाश और पृथ्वी को धारण करते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाले हैं और स्वयं ज्योतिर्मय कहे जाते हैं।
जैन दृष्टिकोण:
- यहाँ "केशी" का अर्थ भगवान ऋषभदेव और जैन मुनियों से लिया जाता है।
- जैन आगमों में भी कहा गया है कि सच्चे मुनि विष, राग-द्वेष आदि अग्नि को सहन करने वाले होते हैं।
- "ज्योतिरुच्यते" का अर्थ आत्मज्ञान की ज्योति से लिया जा सकता है, जो केवलज्ञान प्राप्त आत्माओं में प्रकट होती है।
मंत्र 2:
"मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत॥"
सामान्य अर्थ:
मुनि वायु को ही अपनी रस्सी मानते हैं, पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं, और मल (मिट्टी) को वस्त्र के रूप में धारण करते हैं। वे वायु के मार्ग पर चलते हैं, जहाँ देवता भी नहीं पहुँच सकते।
जैन दृष्टिकोण:
- वातरशनाः का अर्थ निर्वस्त्र दिगंबर मुनि है, जो वस्त्रों से मुक्त होते हैं और केवल आत्मसंयम के बल पर जीवित रहते हैं।
- "मला वसते" का अर्थ सांसारिक वस्त्रों और भौतिक सुखों से विरक्त जीवन जीने से है।
- जैन ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है कि व्रती मुनि पृथ्वी पर पड़े मिट्टी के टुकड़ों को भी अपना वस्त्र नहीं मानते, बल्कि पूर्ण नग्न रहते हैं।
- "देवासो अविक्षत" का अर्थ है कि देवता भी इनके मार्ग को नहीं समझ सकते, क्योंकि यह अत्यंत कठिन और आत्म-परक मार्ग है। जैन शास्त्रों के अनुसार देवता चारित्र धारण करने में अक्षम हैं अर्थात वे मुनि बनने के अयोग्य हैं. केवल मनुष्य ही जैन मुनि बन सकते हैं.
"वातरशनाः" शब्द की व्याख्या
संधि-विच्छेद:
- वात + रशनाः = वातरशनाः
व्युत्पत्ति:
- "वात" का अर्थ है वायु।
- "रशनाः" का अर्थ है रस्सी (बंधन), कमर-पट्टी, वस्त्र या नियंत्रण।
शब्दार्थ:
- वातरशनाः का सामान्य अर्थ है "वे जो वायु को ही वस्त्र के रूप में धारण करते हैं"।
- इस शब्द का प्रयोग विशेष रूप से उन मुनियों के लिए हुआ है, जो नग्न रहते हैं और कोई वस्त्र धारण नहीं करते।
- इसका जैन संदर्भ में सीधा संबंध दिगंबर मुनियों से है, क्योंकि वे वस्त्र नहीं पहनते और संयम एवं आत्मबल को ही अपनी रक्षा मानते हैं।
मंत्र 3:
"उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम्।
शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ॥"
सामान्य अर्थ:
हम मौन के द्वारा उन्मत्त होकर वायु में स्थित होते हैं। हे मनुष्यों! आप हमारे शरीर को देख सकते हैं, लेकिन हमारी आंतरिक अवस्था को नहीं समझ सकते।
जैन दृष्टिकोण:
- "मौनेय" का अर्थ मौन साधना और आत्म-शुद्धि से लिया जा सकता है, जो जैन मुनियों का एक प्रमुख लक्षण है।
- जैन परंपरा में "महामौन" (पूर्ण मौन) को आत्मा की उन्नति का साधन माना गया है।
- बाहरी लोग मुनियों के शरीर को देखते हैं, लेकिन वे उनके अंदर के आत्मिक विकास को नहीं समझ सकते।
मंत्र 4:
"अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत्।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः॥"
सामान्य अर्थ:
मुनि अंतरिक्ष में उड़ते हैं और सभी रूपों को धारण करते हैं। वे देवताओं के मित्र होते हैं और उनके कल्याण के लिए कार्य करते हैं।
जैन दृष्टिकोण:
- यहाँ "अंतरिक्ष" शब्द को संयम और आत्मोन्नति से लिया जा सकता है, जिससे आत्मा संसार के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष की ओर जाती है।
- "देवस्य देवस्य सखा" का अर्थ यह हो सकता है कि मोक्ष प्राप्त आत्माएँ (सिद्ध) ही असली देवता हैं, और मुनि उन्हीं के पथ पर चलते हैं।
मंत्र 5:
"वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः।
उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः॥"
सामान्य अर्थ:
मुनि वायु के घोड़े हैं, वायु के मित्र हैं, और देवताओं द्वारा प्रेरित होते हैं। वे दोनों समुद्रों (पूर्व और पश्चिम) में निवास करते हैं।
जैन दृष्टिकोण:
- "वातस्य अश्वः" का अर्थ आत्मा की गति और कर्म बंधनों से मुक्ति की प्रक्रिया से लिया जा सकता है।
- जैन मुनि भी कर्मों को समाप्त कर मोक्ष रूपी "समुद्र" तक पहुँचने की यात्रा करते हैं।
- "पूर्व और अपर" का अर्थ जीव के भूतकालीन और भविष्यकालीन जन्मों के बीच का संबंध भी हो सकता है।
मंत्र 6:
"अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन्।
केशी केतस्य विद्वान्सखा स्वादुर्मदिन्तमः॥"
सामान्य अर्थ:
मुनि अप्सराओं, गंधर्वों और मृगों के साथ विचरण करते हैं। लंबे केश वाले ये मुनि ज्ञान के प्रतीक हैं और आनंद के साथी हैं।
जैन दृष्टिकोण:
- जैन मुनि निष्कपट, निर्लिप्त और निरपेक्ष होते हैं, इसलिए उनका संसार के भोगों से कोई लेना-देना नहीं होता।
- "केशी" का अर्थ भी ऋषभदेव से लिया जा सकता है, जो दिगंबर मुनियों के आद्य प्रवर्तक माने जाते हैं।
- "सखा स्वादुर्मदिन्तमः" का अर्थ है ज्ञान और आत्मानंद में स्थित संत।
मंत्र 7:
"वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्नमा।
केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह॥"
सामान्य अर्थ:
वायु ने हमें मथा (प्रेरित) है, और वह बुरे नामों को नष्ट करता है। लंबे केश वाले मुनि विष के पात्र को धारण करते हैं, जिसे उन्होंने रुद्र के साथ पिया था।
जैन दृष्टिकोण:
- यहाँ "वायु" को संयम और आत्मबल के प्रतीक के रूप में लिया जा सकता है, जो जैन मुनियों को पथभ्रष्ट नहीं होने देता।
- "विष" का अर्थ सांसारिक दुखों और कष्टों को सहन करने की क्षमता से लिया जा सकता है।
- "रुद्र" को यदि कर्मनाशक शक्ति का प्रतीक मानें, तो मुनि उसी शक्ति से कर्म बंधनों को समाप्त करते हैं।
निष्कर्ष (जैन दृष्टिकोण से व्याख्या का सार)
- "वातरशनाः" का स्पष्ट संदर्भ जैन मुनियों से है, जो नग्न रहते हैं।
- मुनियों का संयम, मौन, आत्मज्ञान, और विकारों से मुक्त जीवन को इन ऋचाओं में दर्शाया गया है।
- जैन धर्म में कर्मों का नाश और आत्मा की उन्नति का जो मार्ग बताया गया है, वह इन मंत्रों से मेल खाता है।
- भगवान ऋषभदेव और जैन मुनियों की विशेषताएँ इन मंत्रों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं।
अतः, ऋग्वेद के इस सूक्त को जैन मुनियों की साधना और संयम के आदर्शों से जोड़ा जा सकता है।
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