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Friday, February 28, 2025

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित

यह सर्वविदित तथ्य है की जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव इस युग के आदिपुरुष थे जिन्होंने अपनी प्रज्ञा के वल पर जगत को असि, मसि, कृषि का ज्ञान दिया. उन्होंने संसार के जीवों को सर्वोत्तम पुरुषों की ७२ कलायें एवं   स्त्रियों की ६४ कलाओं का ज्ञान दिया. वे इस आर्यावर्त के प्रथम राजा, प्रथम श्रमण, प्रथम श्रमण, प्रथम सर्वज्ञ  एवं प्रथम तीर्थंकर थे. जैन आगम कल्पसूत्र एवं जिनसेन, वर्धमान सूरी, हेमचंद्राचार्य, मानतुंग सूरी आदि महान आचार्यों ने उनकी महिमा का गान किया है. जैनेतर साहित्य एवं धर्मग्रंथों जैसे वेद, पुराण, श्रीमद्भागवत, त्रिपिटक आदि में भी उनका उल्लेख मिलता है. 

प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव,  शत्रुंजय तीर्थ  

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में स्थान स्थान पर उनका एवं उनकी उत्कृष्ट साधना का वर्णन मिलता है. इसी प्रकार की एक संस्कृत रचना है ऋषभाष्टकम्। जिस में ऋग्वेद के आधार पर श्री ऋषभदेव स्वामी की स्तुति की गई है. 

रचनाशैली 

इस ऋषभाष्टक की रचना में मुख्य रूप से भारवि कवि की गम्भीर एवं गौरवमयी शैली का अनुसरण किया गया है। भारवि अपनी रचनाओं में गूढ़ अर्थ, शक्तिशाली पदविन्यास तथा कठोरता और सरलता का संतुलित समावेश करके यथार्थ को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि के उद्धरणों में तथा पुरुषोत्तम, वातरशन, आर्हत जैसे विशेषणों में भारवि की भांति गंभीरता प्रदान की गई है।

किन्तु, कुछ स्थलों परमाघ कवि की शब्द-चमत्कृति, कालिदास की मधुरता तथा दण्डिन की अलंकार प्रधान सौंदर्यपूर्ण शैली को भी समाहित किया गया है। 

यहाँ पर प्रस्तुत है ऋषभदेव की स्तुति रूप ऋषभाष्टकम् एवं उसका अर्थ. 



II अथ ऋषभाष्टकम् II  

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

(जिनकी महिमा ऋग्वेद में गाई गई है, ऐसे प्रथम तीर्थंकर पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: ऋग्वेद में जिनकी वंदना की गई है, वे पुण्यशील व्यक्तियों द्वारा पूजनीय हैं। उनके ज्ञान की गहराई इतनी है कि वे परम तत्व तक पहुँचने योग्य हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् जो समस्त प्राणियों के मार्गदर्शक हैं। वे पूर्ण विकसित कमल के समान निर्मल और दिव्य हैं।


२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

(जिन्होंने संपूर्ण जगत् को ज्ञान दिया और जिनकी महिमा वेदों में वर्णित है, ऐसे वातरसन श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने समस्त संसार को आचरण का पथ दिखाया और स्वयं भी तपस्या में स्थित रहे। कुशस्थली (द्वारका) में उनका प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ। जिनका वर्णन विनीत और सत्यशील ऋषियों ने किया है, ऐसे वातरस (अमृत स्वरूप) ऋषभदेव को मैं नमन करता हूँ।


३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो सूर्य के समान सात किरणों से प्रकाशित हैं, जो श्रुतियों में गाए गए हैं, और जो ज्ञान के दीप हैं, ऐसे जिननाथ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनकी आभा सूर्य के समान तेजस्वी है, वेदों में जिनकी स्तुति हुई है और जो अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले दीपक के समान हैं। वे ही संसार की पीड़ा और भय को समाप्त करने वाले जिननाथ हैं।


४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

(जो ज्ञान की गंगा बहाकर लोक का कल्याण करते हैं और जो वेदादि ग्रंथों में स्तुत हैं, ऐसे पुरुषोत्तम श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिन्होंने सात पवित्र नदियों के समान ज्ञान का प्रवाह किया, लोककल्याण हेतु ज्ञानामृत प्रदान किया और जिनका वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में गुणगान किया गया है, ऐसे परम पुरुषोत्तम ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।


५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

(जो अनादि, पवित्र, शुद्ध और जितेन्द्रिय हैं तथा जिनका गुणगान श्रुतिवचनों में किया गया है, ऐसे पुरुष पुण्डरीक श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जिनका अस्तित्व अनादि है, जो सर्वदा पवित्र और शुद्ध हैं, जिन्होंने अपने समस्त विकारों पर विजय प्राप्त की है और जिनका उल्लेख श्रुति ग्रंथों में हुआ है, वे ही पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक श्री ऋषभदेव हैं।


६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

(जो श्रुतियों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के पूज्य हैं और जिनकी सर्वज्ञता शाश्वत है, ऐसे भगवंत श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और श्रुतियों में सर्वज्ञ कहे गए हैं, जो तपस्वियों के लिए परम आदरणीय हैं और जिनकी सर्वज्ञता एवं दिव्यता शाश्वत है, उन ऋषभदेव को मैं सदा नमन करता हूँ।


७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

(जो सप्तशीर्ष एवं चतुरश्रु रूप में श्रुतियों में वर्णित हैं, ऐसे वातरसन, जिननाथ, आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो सप्तशीर्ष और चतुरश्रु स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं, जो तपस्वियों के लिए आदर्श हैं और जिनकी दिव्यता समस्त दिशाओं में व्याप्त है, ऐसे प्रथम जिननाथ को मैं श्रद्धा सहित भजता हूँ।


८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

(जो वेदादि पवित्र ग्रंथों में स्तुत हैं, जो सत्य, यथार्थ एवं समता के प्रतीक हैं, ऐसे वृषभ श्री ऋषभदेव की मैं स्तुति करता हूँ।)

अर्थ: जो वेदों और अन्य पवित्र ग्रंथों में वर्णित हैं, जो सत्य, न्याय और समता के प्रतीक हैं, जो समस्त विश्व के नाथ हैं, उन वृषभदेव को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ।

॥इति श्री ऋषभाष्टकं संपूर्णम्॥

ऋषभाष्टक का विस्तृत हिंदी अर्थ


प्रथम तीर्थंकर देवाधिदेव श्री ऋषभदेव स्वामी आदिनाथ की भक्तिपूर्ण स्तुति रूप ऋषभाष्टकम का ऋग्वेद के सन्दर्भ में विशिष्ट अर्थ 

१ ऋग्वेदवाचः सुकृतिप्रणामाः
यस्योत्तमं वेदविदः स्तुवन्ति।
अजोपनिष्ठं परमार्थगम्यं
तं ऋषभं पूण्डरीकं भजेऽहम्॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१६८.४) में जिनकी स्तुति हुई है, वे पुण्यशीलों द्वारा वंदनीय हैं। "अजोपनिष्ठं" अर्थात् वे सृष्टि के आदि गुरु हैं, जिन्होंने धर्म का पथ प्रशस्त किया। कमलदल के समान उनके गुणों की महिमा निरंतर विकसित होती रहती है।

२ आचर्षिणो यं जगतः समस्तं
कुशस्थलीमास्थितवांश्च योऽभूत्।
श्रुतिर्विनीतैः ऋषिभिः प्रसन्नैः
तं वातरसं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.४६) में ऋत (सत्य) को जानने वाले को महान कहा गया है। ऋषभदेव ने इसी सत्य को प्रकट किया। कुशस्थली में उन्होंने तपस्या कर लोक को संयम का उपदेश दिया। वे वेदों में उल्लिखित अमृत समान ज्ञान के स्रोत हैं।

३ सप्तार्चिषं यो रविवत् प्रकाशं
श्रुतिषु गीते रुचिरं विभाति।
ज्ञानप्रदीपं भवभीतिकर्त्रं
तं जिननाथं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (३.५५.२२) में कहा गया है कि परम सत्य सूर्य के समान तेजस्वी है। ऋषभदेव का ज्ञान भी सूर्य के समान अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता है। वे भव (संसार) भय 
से मुक्त करने वाले ज्ञान-ज्योति स्वरूप जिननाथ हैं।

४ यः सप्त सिन्धून् प्रवहन्न् दिशन्तं
ज्ञानामृतं लोकहिताय दत्तम्।
वेदादिभिः संस्तूयमानं
संस्तूयते तं पुरुषोत्तमं भजे॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.७५) में सप्त-सिन्धु (सात नदियों) की स्तुति की गई है, जो जीवनदायिनी हैं। उसी प्रकार ऋषभदेव ने लोक के हित में सात प्रकार के दिव्य ज्ञान प्रवाहित किए। उनके उपदेशों का गान वेदों में हुआ है।

५ अनादिपूर्वः परमः पवित्रः
शुद्धो जितारिः सततं विनीतः।
श्रुतिवचोभिः परिणीयमानं
तं पुरुषपुण्डरीकं नमामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (४.५८.११) में कहा गया है कि सत्य अनादि और शुद्ध है। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रतीक हैं। वे जितेन्द्रिय हैं और उनकी पवित्रता कमल के समान है।

६ यः श्रुतिषु वर्णित आर्हतेशः
तपस्विनां पूज्यतमः सुपूज्यः।
सर्वज्ञता यस्य हि शाश्वती च
तं भगवन्तं प्रणमाम्यहं सदा॥

अर्थ: ऋग्वेद (१.१६४.३९) में कहा गया है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाले को ही मोक्ष मिलता है। ऋषभदेव इसी सत्य की मूर्ति हैं। वे तपस्वियों के आदर्श हैं, जो सर्वज्ञता से विभूषित हैं।

७ यः सप्तशीर्षः चतुरश्रुगीतः
श्रुतिषु संकीर्तितपूर्वकाले।
वातरसनं जिननाथमाद्यं
तं ऋषभं प्राञ्जलिको भजामि॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.९०) में पुरुषसूक्त के अंतर्गत सप्तशीर्ष पुरुष का वर्णन है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं। ऋषभदेव इसी सत्य के प्रणेता हैं। वे जिननाथ, वातरस (अमृत स्वरूप ज्ञान) के प्रवर्तक हैं।

८ वेदादिभिः अनघैः स्तुतश्च
यो विश्वनाथः सुरमौक्तिकाभिः।
सत्यं यथार्थं च समं सदा यो
तं वृषभं प्रणमामि नित्यं॥

अर्थ: ऋग्वेद (१०.१९०) में कहा गया है कि सत्य, यथार्थ और समभाव ही परम तत्व हैं। ऋषभदेव इन गुणों के प्रतीक हैं। वे विश्वनाथ हैं, जिनका गुणगान ऋषियों और देवों ने किया है।


॥इति श्री ऋषभाष्टकस्य विशिष्ट हिंदी अर्थः संपूर्णः॥


Thanks, 
Jyoti Kothari 
 (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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Wednesday, February 26, 2025

जैन कालगणना: ब्रह्मांडीय समय की रहस्यमयी संरचना भाग 2


इस लेख के पूर्वभाग में 'समय' से लेकर 'शीर्षप्रहेलिका' तक के काल का वर्णन किया गया है. यह सभी काल गणना संख्यात काल की दृष्टि से किया जाता है. परन्तु जैन दर्शन संख्यात काल से आगे जाकर असंख्यात एवं अनंत काल की भी व्याख्या करता है. असंख्यात एवं अनंत काल की कल्पना करना भी कठिन है परन्तु इसकी समुचित व्याख्या जैन आगमों में उपलब्ध है. लेख के इस भाग में हम  असंख्यात एवं अनंत काल को जैन दर्शन की दृष्टि से समझने का प्रयत्न करेंगे. 

असंख्यात काल की गणना - पल्योपम और सागरोपम

  • असंख्यात काल के दो प्रकार होते हैं:

    1. पल्योपम (Palyaopam)
    2. सागरोपम (Sagaropam)
  • जैन शास्त्रों में दोनों के छह-छह प्रकार बताए गए हैं:

पल्योपम को दर्शाता काल्पनिक चित्र 

(क) पल्योपम के प्रकार
  1. बादर उद्धार पल्योपम
  2. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम
  3. बादर अद्वा पल्योपम
  4. सूक्ष्म अद्वा पल्योपम
  5. बादर क्षेत्र पल्योपम
  6. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम

(ख) सागरोपम के प्रकार

  1. बादर उद्धार सागरोपम
  2. सूक्ष्म उद्धार सागरोपम
  3. बादर अद्वा सागरोपम
  4. सूक्ष्म अद्वा सागरोपम
  5. बादर क्षेत्र सागरोपम
  6. सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम

1. पल्योपम – असंख्यात समय की गणना

  • पल्योपम (Palyaopam) समय मापन की एक विशाल इकाई है। काल की कुछ गणनाओं को अंकों में नहीं बताया जा सकता. वह इतना विशाल होता है की पूर्व में वर्णित शीर्ष प्रहेलिका जैसी विशाल संख्या भी उसके आगे बहुत छोटी हो जाती है. इसलिए जैन आगमों में इसे उपमा के माध्यम से समझाया गया है. पालय का अर्थ गड्ढा होता है और गड्ढे की उपमा से समझाने के कारण इसे पल्योपम कहा जाता है. 
    • यदि हम 1 योजन लंबा, 1 योजन चौड़ा और 1 योजन गहरा एक गोलाकार गड्ढा बनायें. 
    • इस गड्ढे को देवकुरु या उत्तरकुरु के मानवों के मस्तक के मुंडन के बाद गिरे हुए बालों से भर दें
    • इन बालों को 7 बार, हर बार 8-8 टुकड़ों में काट दिया जाए और फिर इस गड्ढे को पूरी तरह भर दिया जाए।
    • यदि क्षण के अंतराल से 1-1 बाल का टुकड़ा बाहर निकाला जाए, तो जिस समय में पूरा कटोरा खाली होगा, उसे "बादर उद्धार पल्योपम" कहा जाता है
    • यह संख्यात समय की श्रेणी में आता है और इसका कोई विशेष उपयोग नहीं होता
    • इसका प्रयोग सूक्ष्म उद्धार पल्योपम को समझाने के लिए किया जाता है।

2. सूक्ष्म उद्धार पल्योपम

  • पहले वर्णित बड़े बालों के टुकड़ों को और भी सूक्ष्म टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाए।
  • यदि प्रत्येक समय एक-एक सूक्ष्म टुकड़ा बाहर निकाला जाए, और जब तक कटोरा पूरी तरह खाली न हो जाए, उस समय को "सूक्ष्म उद्धार पल्योपम" कहा जाता है।
  • यह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम असंख्यात समय की श्रेणी में आता है
  • 25 कोडाकोडी पल्योपम (2.5 सागरोपम के बराबर) समय में त्रिलोक में जितने द्वीप-समुद्र होते हैं, उनकी संख्याएँ इसमें समाहित होती हैं
  • संक्षेप में, सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का उपयोग द्वीप-समुद्रों की गणना के लिए किया जाता है

3. बादर अद्वा पल्योपम

  • बादर उद्धार पल्योपम में जो बालों के टुकड़े थे, उन्हें हर 100 वर्षों में एक-एक बाहर निकाला जाए
  • जिस समय में कटोरा पूरी तरह खाली हो जाएगा, उसे "बादर अद्वा पल्योपम" कहा जाता है
  • इसमें भी संख्यात वर्षों की गणना होती है
  • इसका भी कोई विशेष उपयोग नहीं होता
  • इसे सूक्ष्म अद्वा पल्योपम को समझाने के लिए बताया गया है।

4. सूक्ष्म अद्वा पल्योपम

  • यदि पहले बताए गए सूक्ष्म उद्धार पल्योपम के बालों के अत्यंत सूक्ष्मतम कणों को भी 100 वर्षों में 1-1 बाहर निकाला जाए,

  • और जब तक पूरा कटोरा खाली न हो जाए, उस समय को "सूक्ष्म अद्वा पल्योपम" कहा जाता है।

  • इसका उपयोग निम्नलिखित गणनाओं के लिए किया जाता है:

    1. उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल
    2. जीवों की आयु गणना
    3. कर्मों की स्थिति का निर्धारण
  • सूक्ष्म अद्वा पल्योपम की गणना और उसका महत्व

    इस प्रकार, सूक्ष्म अद्वा पल्योपम का प्रयोग व्यावहारिक रूप से किया जाता है

  •  छह प्रकार के पल्योपम में से चौथे प्रकार "सूक्ष्म अद्वा पल्योपम" असंख्यात  काल की इकाई के रूप में उपयोग किया जाता है

5. बादर क्षेत्र पल्योपम

  • पल्योपम की पहली परिभाषा में वर्णित बालों के कणों को अंदर और बाहर के आकाश क्षेत्र से स्पर्श करने वाले कणों के रूप में विभाजित किया जाए
  • यदि हर समय 1-1 कण बाहर निकाला जाए,
  • और जिस समय तक कटोरा पूरी तरह खाली हो जाए, उसे "बादर क्षेत्र पल्योपम" कहा जाता है
  • इसमें असंख्यात समय चक्र गुजर जाते हैं
  • इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता

6. सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम

  • पल्योपम की दूसरी परिभाषा में वर्णित अत्यंत सूक्ष्मतम बालों के कणों को

  • यदि हर समय 1-1 बाहर निकाला जाए,

  • और जब तक पूरा कटोरा खाली न हो जाए,

  • उस समय को "सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम" कहा जाता है

  • सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम का समय, बादर क्षेत्र पल्योपम की तुलना में "असंख्यात" गुणा अधिक होता है

  • इसका भी कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता

1. सागरोपम 

पल्य (गड्ढा) के स्थान पर सागर की उपमासे सागरोपम को समझाया गया है.  10 कोडाकोड़ी अर्थात करोड़ को करोड़ से गुना करने पर प्राप्त संख्या) (कोटि-कोटि) पल्योपम के बराबर 1 सागरोपम होता है। 10 कोड़ाकोड़ी आधुनिक गणना के अनुसार 1000 ट्रिलियन होता है. 

कालचक्र का काल्पनिक कलात्मक चित्रण 

2. कालचक्र 

जैन आगमों के अनुसार एक कालचक्र के दो अंग होते हैं. 1. उत्सर्पिणी 2. अवसर्पिणी। उत्सर्पिणी काल में सुख-समृद्धि बढ़ती हुई एवं अवसर्पिणी काल में घटती हुई होती है. काल चक्र के इन दोनों अंगों को पुनः 6 - 6 भागों में बांटा गया है, जिन्हे आरा कहा जाता है. 

उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी  

6 आरे एवं उनका काल प्रमाण 

पहला सुखमा सुखमा आरा 4 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दूसरा सुखमा 3 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, तीसरा सुखमा दुखमा 2 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, चौथा दुखमा सुखमा 42 हज़ार वर्ष कम 1 कोड़ाकोड़ी सागरोपम, पांचवां दुखमा 21 हज़ार वर्ष, छठा दुखमा दुखमा 21 हज़ार वर्ष का होता है. यह अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से है, उत्सर्पिणी काल में यह क्रम उल्टा होता है अर्थात दुखमा दुखमा से प्रारम्भ हो कर सुखमा सुखमा में अंत होता है. यह कालचक्र अविराम गति से अनादि से अनंत तक चलता रहता है.  
  • कुल 10 कोडाकोड़ी सागरोपम का 1 उत्सर्पिणी या 1 अवसर्पिणी काल होता है। इस प्रकार एक कालचक्र 20 कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है. 

3. असंख्यात काल और अनंत काल की अवधारणा

  • अब तक बताए गए सभी काल "असंख्यात काल" की श्रेणी में आते हैं
  • लेकिन अब "अनंत काल" की अवधारणा प्रस्तुत की जा रही है, जो कभी समाप्त नहीं होता
  • कालचक्र में अनंत उत्सर्पिणी और अनंत अवसर्पिणी = 1 पुद्गलपरावर्त
  • इस प्रकार, अनंत पुद्गलपरावर्त अतीत में भी बीत चुके हैं और भविष्य में भी अनंत मात्रा में आने वाले हैं
  • जैन आगमों में पुद्गल परावर्त के विस्तृत स्वरुप का वर्णन है. विस्तार के भय से पुद्गल परावर्त की गणना यहाँ नहीं दी जा रही है. 

4. आधुनिक विज्ञान और जैन कालगणना की तुलना

  • सामान्यतः आधुनिक विज्ञान को प्रामाणिक माना जाता है परन्तु वास्तविकता ये है की यह भी अनेक अनुमानों एवं परष्पर विरोधी अवधारणाओं पर आधारित है. जबकि जैन दर्शन सर्वज्ञों (केवलज्ञानियों) की दृष्टि पर आधारित होने से निश्चित गणना होती है. 
  • आधुनिक विज्ञान के अनुसार, ब्रह्मांड की उत्पत्ति केवल 13.8 अरब वर्ष (billion years) पहले हुई है। इस सम्बन्ध में भी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता. भिन्न भिन्न वैज्ञानिक मॉडल में भिन्न भिन्न समय बताया जाता है. 
  • विज्ञान के पास इस बात की कोई निश्चित जानकारी नहीं है कि ब्रह्मांड का अंत कब होगा और उसके बाद क्या होगा
  • विज्ञान के सभी निष्कर्ष अनुमानों पर आधारित हैं और वे निश्चित नहीं हैं।
  • इसके विपरीत, जैन दर्शन की कालगणना अनंत काल तक फैली हुई है, जिसमें न केवल भविष्य के अनंत काल की गणना की गई है, बल्कि अतीत के भी अनंत काल का विवरण उपलब्ध है


5. देव और नारकीय लोक में समय की गणना
  • जैन गणना का यह काल केवल दृश्यमान क्षेत्र तक सीमित नहीं है जहाँ मनुष्य एवं पशु पक्षी रहते हैं. 
  • इसके विपरीत, इसकी गणना देव लोक (स्वर्ग) और नारकीय लोक (नरक) में भी की जाती है। जहाँ न सूर्य होता है, न चंद्रमा, और न ही दिन-रात का चक्र। वहाँ भी समय की गणना इस जैन कालगणना के आधार पर ही की जाती है।
  • देव एवं नारकी जीवों की न्यूनतम आयु 10 हज़ार वर्ष एवं अधिकतम आयु 33 सागरोपम होती है. देवताओं और नारकीय जीवों के भी आयुष्य (जीवन अवधि), जन्म और मृत्यु का निर्धारण भी इसी कालगणना के आधार पर किया जाता है

संक्षेप 

✅ असंख्यात काल को "पल्योपम" और "सागरोपम" नामक दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक के छह उप-प्रकार हैं।
✅ पल्योपम एक अत्यंत सूक्ष्म समय इकाई है, जिसकी गणना "बालों के कणों" से की जाती है।

✅ बादर उद्धार पल्योपम और सूक्ष्म उद्धार पल्योपम संख्यात और असंख्यात समय की गणना में भिन्न होते हैं।
✅ सूक्ष्म अद्वा पल्योपम का उपयोग उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, जीवों की आयु और कर्मों की स्थिति की गणना में किया जाता है।
✅ बादर क्षेत्र पल्योपम और सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम "असंख्यात" समय की अवधारणाएँ हैं, जिनका व्यावहारिक उपयोग नहीं होता।

✅ सूक्ष्म अद्वा पल्योपम को वास्तविक समय मापन के रूप में स्वीकार किया जाता है।

✅ 10 कोडाकोड़ी पल्योपम = 1 सागरोपम और 10 कोडाकोड़ी सागरोपम = 1 उत्सर्पिणी/अवसर्पिणी।
✅ 1 उत्सर्पिणी और 1 अवसर्पिणी = 1 कालचक्र, और यह अनंत कालचक्रों तक चलता रहता है।
✅ जैन कालगणना विज्ञान की तुलना में अधिक विस्तृत है, क्योंकि यह अनंत काल की अवधारणा को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करती है।
✅ इस कालगणना का उपयोग केवल मानव जीवन के लिए नहीं, बल्कि देव और नारकीय लोकों में भी किया जाता है।

निष्कर्ष:

यह लेख बताता है कि जैन कालगणना केवल गणितीय अवधारणा नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांड के अनंत चक्रों की एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक व्याख्या है। यह न केवल मानव जीवन, बल्कि देव और नारकीय लोकों में भी समय की गणना का आधार है।

भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि


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Jyoti Kothari (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

 
आगामी 30 मार्च 2025, भारतीय नववर्ष 2082 है. इस दिन से विक्रम सम्वत प्रारम्भ होनेवाला है. इस भारतीय नववर्ष को मनाने की जोरदार तैयारी हो रही है. हिन्दू आध्यात्मिक एवं सेवा फॉउंडेशन भी इसके लिए जोरदार तैयारी कर रहा है. भारतीय नववर्ष के सम्बन्ध में सर्वप्रथम एक लेख लिखा और फिर धीरे धीरे सम्बंधित लेखों की एक श्रंखला बन गई. यहाँ पर नववर्ष लेखमाला के लेखों की एक सूचि लिंक के साथ दी गई है, जिसके माध्यम से आप सभी लेखों तक पहुँच कर उसे पढ़ सकते हैं. इस लेखमाला के अंतर्गत भविष्य में लिखे जानेवाले लेखों की सूचि भी यहीं दे दी जाएगी. 

आपसे निवेदन है की लेखों को पढ़ने के बाद अपने सुझाव कमेंट बॉक्स में अवश्य देवें। आपके सुझाव हमारे लिए मूल्यवान हैं. इन लेखों को कृपया अग्रेषित एवं साझा करने की भी कृपा करें.  जिससे भारतीय ज्ञान परंपरा को संरक्षित एवं प्रसारित करने के हमारे प्रयत्न को वल मिले. 




1. यह लेख भारतीय नववर्ष की विविध परंपराओं और उनके धार्मिक, खगोलीय, ऐतिहासिक, और सांस्कृतिक महत्व पर प्रकाश डालता है। लेख में विक्रम संवत 2082 के प्रारंभ, विभिन्न क्षेत्रों में मनाए जाने वाले नववर्ष, जैसे उगादि, गुड़ी पड़वा, और चेटीचंड, तथा संवत्सर चक्र के 60 वर्षों के नामों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसके अलावा, चांद्र और सौर वर्ष के आधार पर नववर्ष की गणना और उनके महत्व पर भी चर्चा की गई है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/01/blog-post.html

2. इस लेख में भारतीय पंचांग की वैज्ञानिक संरचना और खगोलीय आधार पर अयन, चातुर्मास, ऋतु, और मास की व्याख्या की गई है। उत्तरायण और दक्षिणायन, तीन चातुर्मास, छह ऋतुएं, और बारह मासों के साथ उनके संबंधित नक्षत्रों और राशियों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। लेख में महीनों के नामकरण और उनके नक्षत्रों के प्रभाव पर भी प्रकाश डाला गया है।

3. यह लेख जैन दर्शन में काल की अवधारणा और उसकी सूक्ष्मतम इकाई 'समय' की व्याख्या करता है। लेख में निश्चय काल और व्यवहार काल के भेद, समय की परिभाषा, और आधुनिक विज्ञान में समय मापन की तुलना की गई है। इसके अलावा, काल के विभिन्न प्रकार, जैसे भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, संख्यात, असंख्यात, और अनंत, तथा जैन शास्त्रों में काल की गणना और उसकी जटिल संरचना पर विस्तृत चर्चा की गई है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/1.html 
  • 4. यह लेख चांद्र वर्ष (लूनर ईयर) और सौर वर्ष (सोलर ईयर) की परिभाषा, उनकी विशेषताएँ और उपयोग पर प्रकाश डालता है। चांद्र वर्ष चंद्रमा की गति पर आधारित होता है, जिसमें लगभग 354.36 दिन होते हैं, जबकि सौर वर्ष सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की परिक्रमा पर आधारित होता है, जिसकी अवधि लगभग 365.24 दिन होती है। लेख में बताया गया है कि भारतीय पंचांग में चांद्र और सौर वर्षों का संयोजन कैसे किया जाता है, जिससे धार्मिक पर्वों और कृषि कार्यों का निर्धारण होता है।
  • https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post.html
  • 5. इस लेख में भारतीय पंचांग के पांच प्रमुख अंगों—तिथि, वार, नक्षत्र, योग, और करण—का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है। तिथि चंद्रमा और सूर्य के बीच के कोणीय अंतर पर आधारित होती है; वार सप्ताह के सात दिनों को दर्शाते हैं; नक्षत्र चंद्रमा की स्थिति के अनुसार 27 तारामंडलों में से एक होता है; योग सूर्य और चंद्रमा की संयुक्त स्थिति से बनता है; और करण तिथि के आधे भाग को कहते हैं। ये पांचों अंग किसी भी दिन के शुभ-अशुभ मुहूर्त का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • 6. यह लेख भारतीय खगोलविद्या की प्राचीन परंपरा और उसकी समृद्ध विरासत पर केंद्रित है, विशेष रूप से जंतर मंतर और ग्रीनविच वेधशाला की तुलना के माध्यम से। लेख में बताया गया है कि भारत में उज्जैन, वाराणसी, विदिशा, और नालंदा जैसे स्थानों पर प्राचीन वेधशालाएँ थीं, जहाँ खगोलीय अध्ययन और गणनाएँ की जाती थीं। महाराजा जय सिंह द्वितीय द्वारा स्थापित जंतर मंतर वेधशालाएँ खगोलीय अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण केंद्र थीं। इसके विपरीत, ग्रीनविच वेधशाला यूरोपीय खगोलविद्या का प्रमुख केंद्र रहा है।
  • भारतीय खगोलविद्या की समृद्ध विरासत: जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला

    https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post_21.html
  • 7. इस लेख में प्राचीन भारतीय कालगणना की वैदिक और पारंपरिक समय मापन प्रणालियों का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। वैदिक काल में समय की सूक्ष्मतम इकाई 'त्रुटि' से लेकर बड़ी इकाइयों जैसे 'युग' और 'मन्वंतर' तक की गणना की जाती थी। लेख में दिन और रात के मापन के लिए घटिका, मुहूर्त, अहोरात्र आदि की चर्चा की गई है, साथ ही मास, ऋतु, अयन, और वर्ष की अवधारणाओं को भी स्पष्ट किया गया है। ब्रह्मांडीय और दीर्घकालिक समय इकाइयों जैसे युग और मन्वंतर का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है।
  • https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post_25.html
  • 8. इस लेख में जैन कालगणना के असंख्यात और अनंत समय की अवधारणाओं को विस्तार से समझाया गया है। पल्योपम और सागरोपम जैसी इकाइयों द्वारा असंख्यात समय की गणना की जाती है। कालचक्र उत्सर्पिणी (वृद्धि) और अवसर्पिणी (ह्रास) के दो भागों में अनंत काल तक चलता रहता है। अनंत पुद्गल परावर्त ब्रह्मांडीय समय के अनंत विस्तार को दर्शाता है। आधुनिक विज्ञान की तुलना में, जैन दर्शन अधिक विस्तृत और सुनिश्चित गणना प्रदान करता है। यह गणना न केवल पृथ्वी, बल्कि देवलोक और नारक लोक में भी लागू होती है।
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  • https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_10.html
  • इन लेखों के माध्यम से, भारतीय खगोलविद्या, कालगणना, और पंचांग की समृद्ध परंपरा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को समझने में सहायता मिलती है।


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    Tuesday, February 25, 2025

    जैन कालगणना: ब्रह्मांडीय समय की रहस्यमयी संरचना भाग 1

    जैन दर्शन में काल-समय की अवधारणा

    जैन दर्शन में सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड (लोक-अलोक) की संरचना 6 मुलभुत पदार्थों (षट्द्रव्य) से मानी गई है 1. धर्मास्तिकाय 2. अधर्मास्तिकाय 3. आकाशास्तिकाय 4. पुद्गलास्तिकाय 5. जीवास्तिकाय, एवं  6. काल. इससे यह समझा जा सकता है की जैन सूत्रों में काल को ब्रह्माण्ड के मूल कारक तत्वों में माना गया है. 

    जगत में होनेवाले सभी परिवर्तनों का कारक तत्व काल है. इसे परिवर्तन का निमित्त कारण कहा गया है. व्यवहार में दिन-रात आदि होना, ऋतू परिवर्तन, जन्म-मृत्यु- नवीन-पुरातन आदि होना काल के ही अधीन है. 

    काल को दो प्रकार से समझाया गया है 1. निश्चय काल 2. व्यवहार काल. निश्चय काल काल का वास्तविक-तात्विक स्वरुप है जबकि व्यवहार काल  सूर्य चन्द्रमा आदि की गति के आधार पर लोक व्यवहार में  प्रचलित काल है. निश्चय काल को निरपेक्ष एवं व्यवहार काल को सापेक्ष काल भी कहा जा सकता है.  जैन दर्शन में काल की सूक्ष्तम इकाई "समय" है. कालक्रम में यह समय ही काल का पर्यायवाची शब्द बन गया और समय शब्द से ही लोग काल को समझने लगे हैं. 

    समय: जैन दर्शन में काल की सूक्ष्मतम इकाई

    समय की अवधारणा 

    परिभाषा: धीर गति से चलते हुए एक पुद्गल परमाणु को एक आकाश प्रदेश से निकटतम दूसरे आकाश प्रदेश में पहुँचने में जितना काल लगता है उसे समय कहते हैं. 

    यह परिभाषा आधुनिक काल में परमाणविक घड़ियों से समय मापन की प्रणाली से मेल खाता है, जहाँ उप-परमाण्विक कण के आंदोलन के आधार पर सटीक समय नापा जाता है. जैन दर्शन के अनुसार समय इतना सूक्ष्म है की सामान्य व्यक्ति इसे नहीं जान सकता. मात्र केवलज्ञानी सर्वज्ञ ही इसे जान सकते हैं. समय को अविभाज्य (indivisible) माना जाता है, और यह काल की अत्यंत सूक्ष्मतम इकाई है। इससे अधिक सूक्ष्म किसी भी अन्य माप की संभावना नहीं है।

    असंख्य समय की एक आवलीका होती है और जैन दर्शन में इसी आवलिका को व्यवहार में काल के निर्धारण की लघुतम इकाई माना गया है. आगे हम काल की सूक्ष्म इकाइयों से लेकर वृहत इकाइयों तक की चर्चा करेंगे. 

    विशेष: 6 मुलभुत द्रव्यों में से एक आकाश (Space) की सूक्ष्मतम इकाई प्रदेश है. इसी प्रकार पुद्गल (Matter) की सूक्ष्मतम इकाई परमाणु (Smallest particle) है. जैन दर्शन का परमाणु एक अति सूक्ष्म कण है जो की आधुनिक विज्ञानं के परमाणु से बहुत छोटा है. जैन दर्शन का परमाणु उप-परमाण्विक कण (Sub-atomic particle) जैसे क्वार्क, न्यूट्रिनो आदि से भी सूक्ष्म है. 

    जैन दर्शन के अनुसार, आकाश एक अखंड द्रव्य (indivisible substance) है, जो निष्क्रिय है। पुद्गल (भौतिक तत्व) गतिशील हैं और संपूर्ण लोक (ब्रह्मांड) में व्याप्त रहता हैं

    1. काल की अनादि-अनंतता

    लोकाकाश (ब्रह्माण्ड), एवं पुद्गल अनादि (जिसका कोई आरंभ न हो) अनंत (जिसका कोई अंत न हो) है. आकाश में पुद्गल की गति भी अनादि और अनंत  है। इसी कारण, काल भी मूल रूप से अनादि और अनंत है

    आधुनिक विज्ञान की कालगणना 

    वर्तमान समय में, वैज्ञानिक समय की इकाई को सेकंड मानते हैं। हालाँकि यह समय नापने की सूक्ष्मतम इकाई नहीं है. 

    • वे 1 सेकंड के 1000 अरबवें भाग (10⁻¹² सेकंड) तक का मापन कर सकते हैं, जिसे पिको-सेकंड (Picosecond) कहा जाता है।
    • वर्तमान में सेकंड की सबसे सूक्ष्म गणना झेप्टो-सेकंड (Zeptosecond - 10⁻²¹ सेकंड) तक हो चुकी है।
    • परंतु जैन दर्शन में "समय" की गणना इससे भी अधिक सूक्ष्म मानी जाती है

    काल के प्रकार

    (1) पारंपरिक रूप से काल के तीन प्रकार:

    1. भूतकाल (अतीत)
    2. वर्तमानकाल
    3. भविष्यकाल

    (2) जैन गणना के अनुसार काल के तीन प्रकार:

    1. संख्यात (गिनने योग्य)
    2. असंख्यात (जिसे गिना न जा सके)
    3. अनंत (जिसका कोई अंत न हो)

    (3) जैन शास्त्रों में काल के चार वर्गीकरण:

    1. प्रमाण काल – जैसे वर्ष, पल्योपम आदि। इसे दो प्रकार में विभाजित किया गया है:
      • (क) दिन का प्रमाण
      • (ख) रात्रि का प्रमाण
    2. आयुष्य काल – जीवों की आयु निर्धारित करने वाला काल।
    3. मृत्यु काल – जब जीव अपने जीवन का अंत प्राप्त करता है।
    4. अद्वा काल (व्यवहारिक काल) – जिसे हम अपने दैनिक जीवन में समय के रूप में अनुभव करते हैं।

    जैन दर्शन में काल की गणना और उसकी जटिल संरचना

    • जैन शास्त्रों में काल की गणना जितनी सूक्ष्म बताई गई है, उतनी किसी अन्य प्रणाली में उपलब्ध नहीं है।
    • इसी तरह, काल की विशालता की गणना भी जैन शास्त्रों में जितनी विस्तृत है, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती
    • असंख्यात समय की आवलिका – जैन गणना की अद्भुत इकाई

      • "आवलिका" भी एक जैन पारिभाषिक शब्द है और इसे असंख्यात समय की एक इकाई माना जाता है।
      • जैन शास्त्रों के अनुसार 1 मुहूर्त (48 मिनट) में 1,67,77,216 आवलिकाएँ होती हैं।
      • इसका अर्थ है कि 1 सेकंड में 5825.42222... आवलिकाएँ बीत जाती हैं।
      • हालाँकि, एक आवलिका में कितने सूक्ष्मतम समय होते हैं, इसका कोई निश्चित मापन नहीं है। एक आवलिका में अनगिनत (असंख्यात) समय इकाइयाँ समाहित होती हैं। जैन शास्त्रों में कहा गया है कि असंख्यात का अर्थ है "न गिना जा सकने वाला" या "संख्याओं में व्यक्त न किया जा सकने वाला"

      • कालगणना में श्वासोश्वास: 

      • सामान्यतः श्वासोश्वास का सम्बन्ध सांस लेने और छोड़ने से है परन्तु जैन कालगणना में इसका सन्दर्भ अलग है. नीचे दी गई तालिका से गणना करने पर 1 मुहूर्त में 3773 श्वासोश्वास होते हैं अर्थात एक मिनट में लगभग 78. ध्यान देने योग्य बात ये है की यह समय ह्रदय की स्वाभाविक गति से निकट है. जैन सूत्रकारों ने इसकी व्याख्या अलग प्रकार से की है. "पाय समा उच्छासा" अर्थात 8 मात्रा के एक पद को बोलने में जितना समय लगता है उसे श्वासोश्वास कहा है. जैन परंपरा में स्वाध्याय एवं कायोत्सर्ग में पदों की संख्या के आधार पर समय निर्धारण की विधि प्रचलित है. 
      • व्यवहारिक काल की गणना निम्नलिखित क्रम में दर्शाई गई है:
    समय मापनसापेक्ष मापन
    असंख्यात समय1 आवलिका
    संख्यात आवलिका1 श्वास या 1 उच्छ्वास
    1 श्वास और 1 उच्छ्वास1 श्वासोच्छ्वास (प्राण)
    7 प्राण1 स्तोक
    7 स्तोक1 लव
    38.5 लव1 नालिका (घड़ी)
    2 नालिका (घड़ी)1 मुहूर्त (48 मिनट)
    2.5 नालिका1 घंटा
    60 नालिका (घड़ी)1 अहोरात्र (24 घंटे)
    15 अहोरात्र1 पक्ष (पखवाड़ा)
    2 पक्ष1 महीना
    2 महीने1 ऋतु
    3 ऋतु (6 महीने)1 अयन
    2 अयन (12 महीने)1 वर्ष


                                                                                    

    1. जैन गणना में विशाल समय चक्र


    84,00,000 वर्ष






    1 पूर्वांग
    84,00,000 पूर्वांग1 पूर्व (70 लाख, 56 हजार करोड़ वर्ष)
    84,00,000 पूर्व1 त्रुटितांग
    84,00,000 त्रुटितांग1 त्रुटित
    84,00,000 त्रुटित1 अडडांग
    84,00,000 अडडांग1 अडड


     
    84,00,000 अडड1 अववांग
    84,00,000 अववांग1 अवव
    84,00,000 अवव1 हुहुकांग
    84,00,000 हुहुकांग1 हुहुक
    84,00,000 हुहुक1 उत्पलांग
    84,00,000 उत्पलांग1 उत्पल
    84,00,000 उत्पल1 पद्मांग
    84,00,000 पद्मांग1 पद्म
    84,00,000 पद्म1 नलिनांग
    84,00,000 नलिनांग1 नलिन
    84,00,000 नलिन1 अर्धनिपूरांग
    84,00,000 अर्धनिपूरांग1 अर्धनिपूर
    84,00,000 अर्धनिपूर1 अयुतांग
    84,00,000 अयुतांग1 अयुत
    84,00,000 अयुत1 नयुतांग
    84,00,000 नयुतांग1 नयुत
    84,00,000 नयुत1 प्रयुतांग
    84,00,000 प्रयुतांग1 प्रयुत
    84,00,000 प्रयुत1 चुलिकांग
    84,00,000 चुलिकांग1 चुलिका
    84,00,000 चुलिका1 शीर्षप्रहेलिकांग
    84,00,000 शीर्षप्रहेलिकांग1 शीर्षप्रहेलिका

    2. शीर्षप्रहेलिका की विशाल गणना

    टिप्पणी:

    • यह गणना "माथुरी वाचन" (Mathuri version) के अनुसार है, जिसमें 54 अंक होते हैं और 140 शून्य जोड़े जाते हैं
    • जबकि "वलभी वाचन" (Valabhi version) के अनुसार, इसमें चार अतिरिक्त नाम जोड़े जाते हैं, जिससे गणना 70 अलग-अलग अंकों और 180 अतिरिक्त शून्यों तक पहुँच जाती है। परिणामस्वरूप, कुल 250 अंकों की संख्या बनती है

    (क) माथुरी वाचन के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की गणना:

    (84,00,000)×758,263,253.073,010.241,157,973.569,975,696,406,218,966,848.080,183,296,210(84,00,000) \times 758,263,253.073,010.241,157,973.569,975,696,406,218,966,848.080,183,296,210

    (ख) वलभी वाचन के अनुसार शीर्षप्रहेलिका की गणना:

    (84,00,000)×187,955,179,550,112,595,419,009,699,813,430,770,797,465,494,261,977,747,657,257,345,790,6816(84,00,000) \times 187,955,179,550,112,595,419,009,699,813,430,770,797,465,494,261,977,747,657,257,345,790,6816

    निष्कर्ष:

    • शीर्षप्रहेलिका तक के वर्षों के काल को संख्यात (गिनने योग्य) या व्यवहारिक काल माना जाता है
    • इसके आगे की गणना असंख्यात काल में आती है, जिसे केवल उपमा (अनुपातिक तुलना) के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है
    • भले ही इसका अवधि मापन निश्चित हो, फिर भी इसे अंकों या गणितीय समीकरण द्वारा दर्शाना संभव नहीं है। 
    • यहाँ तक की कालगणना व्यवहार में गणना किये जा सकनेवाले काल के सम्बन्ध में है. इससे अधिक काल असंख्य और अनंत की श्रेणी में आता है. 
    • असंख्यात काल के दो प्रकार होते हैं:
      1. पल्योपम (Palyaopam)
      2. सागरोपम (Sagaropam)  
    पल्योपम, सागरोपम (असंख्यात काल) एवं अनंत काल की चर्चा इसी लेख के दूसरे भाग में करेंगे. 

    संक्षेप 

     समय की अवधारणा पुद्गल की गति से सम्बद्ध है।
     पुद्गल की गति अनादि-अनंत है, इसलिए समय भी अनादि-अनंत है
     सभी भौतिक घटनाएँ आकाश में घटित होती हैं, और काल उन्हीं परिवर्तनों से जुड़ा हुआ है
     व्यावहारिक समय (जिसे हम अनुभव करते हैं) पदार्थों के परिवर्तन से उत्पन्न होता है
    ✅ आवलिका जैन दर्शन की अत्यंत सूक्ष्मतम समय इकाई है, जो आधुनिक वैज्ञानिक गणना से भी अधिक सूक्ष्म है। 
    जैन गणना में असंख्यात संख्याओं का प्रयोग किया गया है, जिन्हें गिना नहीं जा सकता
    ✅ आधुनिक विज्ञान की तुलना में जैन दर्शन की समय गणना अधिक सूक्ष्म है

    ✅ जैन परंपरा में समय को तीन, चार और विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया गया है
    ✅ काल की गणना में व्यवहारिक समय से लेकर अनंतकाल तक की गणना दी गई है

    ✅ काल की गणना 84,00,000 की श्रृंखला में होती है, जो अत्यंत जटिल और विस्तृत है।
    ✅ माथुरी और वलभी वाचन की गणनाएँ भिन्न हैं, जिसमें अंक और शून्य की संख्या में अंतर है।
    ✅ शीर्षप्रहेलिका तक का काल "संख्यात" माना जाता है, लेकिन इसके आगे "असंख्यात" हो जाता है।
    ✅ असंख्यात काल को "पल्योपम" और "सागरोपम" नामक दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक के छह उप-प्रकार हैं।


    सन्दर्भ 

    सम्पूर्ण जैन वाङमय काल के सन्दर्भों से भरा हुआ है. शायद ही ऐसा कोई जैन आगम या शास्त्र हो जिसमे काल की बात न हो. गणितानुयोग के ग्रन्थ में तो यह और भी अधिक है. तत्वार्थ सूत्र में काल के लक्षण बताये हुए हैं. कर्मग्रन्थ में भी इसका विस्तृत विवरण है. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि कथा साहित्य में भी शलाका पुरुषों की आयु एवं आरों के मान निर्धारण किये गए हैं. 

    आभार 

    पुज्य जैन आचार्य नंदिघोष सूरी की गुजराती भाषा की पुस्तक "जैन दर्शन ना वैज्ञानिक रहस्यों" में एक पूरा अध्याय काल के सम्बन्ध में है. इस लेख में अनेक सन्दर्भ एवं गणनाएं उसी में से ली हुई है.  

    Thanks, 

    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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    प्राचीन भारतीय कालगणना: वैदिक और पारंपरिक समय मापन प्रणाली का विस्तृत अध्ययन



    घटी यंत्र, नक्षत्र गणना, ऋषियों के अध्ययन और युग चक्रों का अद्भुत समावेश

    भूमिका

    प्राचीन भारतीय कालगणना एक अत्यंत वैज्ञानिक, विस्तृत और सूक्ष्म प्रणाली थी, जो केवल दैनिक जीवन में समय मापन तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह खगोलीय, प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय घटनाओं के अनुरूप भी थी। आधुनिक समय मापन प्रणाली, जिसमें सेकंड, मिनट और घंटे का प्रयोग होता है, की तुलना में वैदिक प्रणाली अधिक व्यापक थी और यह प्राकृतिक घटनाओं, आकाशीय गति और ब्रह्मांडीय चक्रों पर आधारित थी।

    वैदिक परंपरा में समय की गणना अत्यंत बारीक इकाइयों से लेकर विशाल खगोलीय अवधियों तक की जाती थी। इस प्रणाली में समय को तिथि, नक्षत्र, और चंद्र-सौर चक्रों के आधार पर मापा जाता था। वैदिक ग्रंथों में प्रयुक्त विशेष पारिभाषिक इकाइयाँ प्राकृतिक और ब्रह्मांडीय चक्रों को ध्यान में रखकर परिभाषित की गई थीं। समय मापन की एक महत्वपूर्ण इकाई तिथि थी, जो चंद्रमा की गति पर आधारित होती थी। इसी प्रकार, चंद्र-सौर वर्ष के  चक्र को 12 भागों में विभाजित कर मास अथवा महीने की अवधारणा विकसित की गई थी।

    इस लेख में हम प्राचीन भारतीय समय इकाइयों का विस्तार से अध्ययन करेंगे, उनके आधुनिक तुल्यांकन को समझेंगे और उनके वैज्ञानिक एवं धार्मिक महत्व पर प्रकाश डालेंगे।


    सूक्ष्मतम समय इकाइयाँ: वैदिक कालगणना का अद्भुत विज्ञान
    त्रुटि से पल तक समय की गणना का रहस्य

    1. सूक्ष्मतम समय इकाइयाँ

    वैदिक कालगणना में समय की सबसे सूक्ष्म इकाई त्रुटि (Truti) से लेकर बड़ी इकाइयों तक फैली हुई थी।


    भारतीय इकाईपरिभाषा एवं मापनआधुनिक समय के समकक्ष
    त्रुटि (Truti - तुति)सबसे सूक्ष्म समय इकाई133750\frac{1}{33750} सेकंड (~ 29.6 माइक्रोसेकंड)
    तत्पर (Tatpara - तत्पर)त्रुटि का थोड़ा बड़ा रूप116875\frac{1}{16875} सेकंड (~ 59.2 माइक्रोसेकंड)
    निमेष (Nimesha - निमेष)"आँख झपकने का समय"875\frac{8}{75} सेकंड (~ 0.1067 सेकंड)
    क्षण (Kshana - क्षण)8 निमेष~ 0.853 सेकंड
    काष्ठा (Kāṣṭhā - काष्ठा)15 क्षण~ 12.8 सेकंड
    लव (Lava - लव)15 काष्ठा~ 3.2 मिनट
    कला (Kalā - कला)30 निमेष~ 1.6 मिनट
    विपल (Vipal - विपल)6 लव~ 19.2 मिनट
    पल (Pal - पल)60 विपल (कहीं-कहीं 24 सेकंड भी माना जाता है)~ 19.2 घंटे या 24 सेकंड

    2. दिन और रात के मापन के लिए इकाइयाँ

    (क) घटिका (Ghatika - घटिका) और मुहूर्त (Muhūrta - मुहूर्त)

    • 1 घटिका = 24 मिनट
    • 1 मुहूर्त = 2 घटिका = 48 मिनट
    • पूरे दिन में 30 मुहूर्त होते हैं
    • प्राचीन काल में समय मापन के लिए जलघटिका (जल-घड़ी) एवं सूर्यघटिका का उपयोग होता था। ऋषिमहर्षि एवं खगोलविद नंगी आँखों से सूर्य-चंद्र-नक्षत्रों की स्थिति देखकर भी समय का ज्ञान कर लेते थे. 

    (ख) अहोरात्र (Ahorātra - अहोरात्र)

    • एक दिन और रात को मिलाकर अहोरात्र कहा जाता है, जिसमें 30 मुहूर्त होते हैं।
    • वैदिक समय गणना में दिन सूर्योदय से प्रारंभ होता था, न कि आधी रात से जैसा कि आधुनिक ग्रेगोरियन कैलेंडर में होता है। 
    • सूर्योदय के समय चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार उस दिन की तिथि का निर्धारण होता था. 

    भारतीय ऋतु चक्र: 6 ऋतुओं का समाहार 

    3. मास, ऋतु, एवं वर्ष

    (क) तिथि और चंद्रमास

    • तिथि (Tithi) = चंद्रमा की गति पर आधारित एक दिन
    • एक चंद्रमास में 30 तिथियाँ होती हैं।
    • 12 चंद्रमासों का एक चान्द्रवर्ष होता है, जो नक्षत्रों और चंद्रमा की स्थिति के आधार पर तय किया जाता था।

    (ख) ऋतु और सौर वर्ष

    • एक वर्ष को छह ऋतुओं में विभाजित किया गया था:

      1. वसंत (Spring)
      2. ग्रीष्म (Summer)
      3. वर्षा (Monsoon)
      4. शरद (Autumn)
      5. हेमंत (Pre-winter)
      6. शिशिर (Winter). इसे शीत ऋतु भी कहा जाता है. 
    • सौर वर्ष (Solar Year) वह समय है, जिसमें पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। सौरवर्ष चांद्रवर्ष की अपेक्षा लगभग ११ दिन अधिक का होता है. 

    (ग) अयन (Ayana) और वर्ष

    • उत्तरायण (सूर्य का मकर राशि में प्रवेश, 6 महीने)
    • दक्षिणायन (सूर्य का कर्क राशि में प्रवेश, 6 महीने)
    • 1 वर्ष = 2 अयन (उत्तरायण + दक्षिणायन) = 12 मास


    4. ब्रह्मांडीय और दीर्घकालिक समय इकाइयाँ

    (क) युग (Yuga)

    • हिंदू धर्म में समय को चार युगों में विभाजित किया गया है:

      1. सत्ययुग (Satya Yuga) - 1,728,000 वर्ष
      2. त्रेतायुग (Treta Yuga) - 1,296,000 वर्ष
      3. द्वापरयुग (Dvapara Yuga) - 864,000 वर्ष
      4. कलियुग (Kali Yuga) - 432,000 वर्ष
    • चारों युगों का योग 1 महायुग (Mahayuga) = 4,320,000 वर्ष होता है।

    (ख) मन्वन्तर (Manvantara)

    • 1 मन्वन्तर = 71 महायुग
    • प्रत्येक मन्वन्तर के अंत में संध्याकाल (Sandhya) होता है।

    ब्रह्मा: सृष्टि और काल के अधिपति"
    समय, युग, और सृजन का सनातन चक्र

    (ग) कल्प (Kalpa)

    • 1 कल्प = 1000 महायुग = 4.32 अरब वर्ष
    • ब्रह्मा का "दिन" 1 कल्प के बराबर माना जाता है।

    (घ) ब्रह्मा का जीवनकाल

    • ब्रह्मा का 1 जीवनकाल = 100 ब्रह्मा वर्ष
    • 1 ब्रह्मा वर्ष = 360 कल्प
    • यह वैदिक समय गणना की सबसे बड़ी इकाई है।

    5. निष्कर्ष

    वैदिक कालगणना के मुख्य बिंदु:

    ✅ भारतीय समय गणना सौर और चंद्रमा चक्रों पर आधारित थी।
    सबसे छोटी इकाई त्रुटि (~29.6 माइक्रोसेकंड) से लेकर सबसे बड़ी इकाई ब्रह्मा के जीवन (311 ट्रिलियन वर्ष) तक फैली हुई थी।
    दिन को सूर्योदय से शुरू किया जाता था, न कि आधी रात से।
    घटिका (24 मिनट) और मुहूर्त (48 मिनट) का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता था।
    समय को ब्रह्मांडीय स्तर तक बढ़ाकर युग, महायुग, मन्वन्तर और कल्प में विभाजित किया गया।

    भारतीय समय गणना की वैज्ञानिकता

    भारतीय समय मापन प्रणाली केवल धार्मिक उद्देश्यों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह एक खगोलीय, गणितीय, और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बहुत उन्नत थी। आर्यभट्ट, भास्कराचार्य और वराहमिहिर जैसे खगोलविदों ने इस प्रणाली का प्रयोग खगोलीय गणनाओं और पंचांग निर्माण में किया।

    आज भी, भारतीय पंचांग और वैदिक ज्योतिष इसी प्रणाली पर आधारित हैं, जो इस प्रणाली की उपयोगिता और स्थायित्व को दर्शाता है।

    भारतीय खगोलविद्या की समृद्ध विरासत: जंतर मंतर बनाम ग्रीनविच वेधशाला


    संदर्भ स्रोत

    • सूर्य सिद्धांत
    • आर्यभटीय (आर्यभट्ट)
    • पंचांग और वैदिक साहित्य
    • आधुनिक शोध और अनुसंधान पत्र

    यह वैदिक कालगणना प्रणाली न केवल भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक प्रगति को दर्शाती है, बल्कि यह आज भी धार्मिक और खगोलीय गणनाओं के लिए प्रासंगिक बनी हुई है.

    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
    Proprietor of Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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