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गुरुवार, 20 मार्च 2025

"भारत" नाम की उत्पत्ति: ऋग्वेद, पुराण और जैन आगमों की दृष्टि से

  • भूमिका
  • 'भरत' शब्द भारतीय सांस्कृतिक, वैदिक और पौराणिक साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ऋग्वेद में 'भरत' का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है, वहीं पुराणों और जैन आगमों में 'भरत' चक्रवर्ती के रूप में एक महापुरुष की प्रतिष्ठा प्राप्त है, जो तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र माने गए हैं।

    कालांतर में 'भारत' नाम भी इसी 'भरत' के नाम पर प्रतिष्ठित हुआ। परंतु, क्या ऋग्वेद भाष्यों में वर्णित 'भरत' और पुराणों के 'भरत चक्रवर्ती' एक ही हैं? क्या वैदिक मंत्रों का सीधा संबंध तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत से है? अथवा ऋग्वेद का 'भरत' केवल एक युद्धप्रिय क्षत्रिय गण या वंश का द्योतक है?

    इस लेख में इन्हीं प्रश्नों की गहराई से समीक्षा की गई है। ऋग्वेद के विशिष्ट मंत्रों का सायण, महिधर और उदिताचार्य जैसे प्रमुख भाष्यकारों के मतों सहित विश्लेषण कर, 'भरत' शब्द की वैदिक और पौराणिक अवधारणाओं के तुलनात्मक अध्ययन का प्रयास किया गया है। साथ ही स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविंद और आधुनिक विद्वानों की व्याख्याओं के आलोक में 'भरत' की सांस्कृतिक और दार्शनिक भूमिका को स्पष्ट किया गया है।


    ऋषभपुत्र भरत चक्रवर्ती जिन के नाम पर भारत नाम पड़ा 

    'भरत' शब्द की व्युत्पत्ति (Etymology):


    "संस्कृत धातु 'भृ' (धारणे) से व्युत्पन्न है"

    • इसका अर्थ है — धारण करने वाला, धर्मरक्षक, पालक और वहन करने वाला।

    भृ (धारणे) + क्त (कृदन्त) = भरत:

    • जो धारण करे
    • जो धर्म का, सत्य का, दायित्व का वहन करे
    • पालक, रक्षक, धारणकर्ता

    अर्थ विस्तार:

    • भरत = धारक, रक्षक, कर्तव्यनिष्ठ योद्धा वंश
    • जो राजधर्म, क्षात्रधर्म और सत्य धर्म को धारण करता है, वही 'भरत' कहलाता है।
    • 'भरत' शब्द में कर्तृत्व, वीरता और धर्मरक्षण का भाव समाहित है।

    दार्शनिक दृष्टि से:

    • ऋग्वेद में 'भरत' धर्म धारण करने वाली जाति/गण है।
    • पौराणिक अर्थ में — भरत चक्रवर्ती वह है, जिसने राज्य, धर्म और लोक का धारण किया।
    • इसलिए 'भरत' शब्द ऋग्वैदिक और पौराणिक दोनों में 'धारणकर्ता' और 'धर्म-संस्थापक' का प्रतीक है।

    ✅ मंत्र 1: ऋग्वेद 3.33.11

    मूल मंत्र:

    अया मंहि॑ष्ठा नृ॒णां वि॒श्वा अ॑द्या॒भ्य॑वर्तिन् | यच्छा॑ सि भर॒तो व॑धैः ||

    पदपाठ:

    अयम् । मंहि॑ष्ठः । नृणाम् । विश्वाः । अद्य । अभ्यवर्तिन् । यच्छा । असि । भरतः । वधैः ॥

    अन्वय:

    अयम् इन्द्रः नृणाम् मंहि॑ष्ठः । अद्य विश्वाः अभ्यवर्तिन् । यच्छा असि भरतः वधैः ।


    ✅ सायण भाष्य 

    मूल:
    "भरतः नाम कश्चिद्गणः। तेन सह युद्धे वधैः युध्यसे।"

    अर्थ:
    भरत नामक एक गण है। उससे युद्ध में तू (इन्द्र) वध करता है अर्थात शत्रुओं का संहार करता है।

    ✅ महिधर भाष्य:

    "भरतः नाम गणः। तस्य वधैः — तेषां शत्रूणां वधेन युध्यसे इति।"

    अर्थ:
    'भरत' नाम का एक गण है, उसके शत्रुओं का वध करने में तू (इन्द्र) युध्य हो।

    भावार्थ:

    यह इन्द्र मनुष्यों में सबसे महान है। आज वह सभी शत्रुओं को परास्त करता है। जैसे तूने भरतों के शत्रुओं का वध किया था, वैसे ही कर।


    ✅ मंत्र 2: ऋग्वेद 7.8.4

    मूल मंत्र:

    प्र ये भ॒रता॑नां नि॒ष्षिधः॑ शूर॒ वज्रि॑णः | अ॒र्यो वि॒दद व॑नुष्यति ||

    पदपाठ:

    प्र । ये । भरतानाम् । निष्षिधः । शूरः । वज्रिणः । अर्यः । विदत् । वनुष्यति ॥

    अन्वय:

    शूरः वज्रिणः इन्द्रः ये भरतानाम् निष्षिधः । अर्यः विदत् वनुष्यति ।

    सायण भाष्य:

    मूल मंत्र:
    प्र ये भ॒रता॑नां नि॒ष्षिधः॑ शूर॒ वज्रि॑णः | अ॒र्यो वि॒दद व॑नुष्यति ||

    सायण भाष्य:
    "प्र — प्रकृष्टम्, ये — यः इन्द्रः, भरतानां — भरत नाम्नः गणस्य, निष्षिधः — निषेधकः, शूरः — वीरः, वज्रिणः — वज्रधारी।
    अर्थ: इन्द्र भरत नामक गण के शत्रुओं का विनाश करता है, वज्रधारी शूर है, आर्य जाति की रक्षा करता है।"

    विशेष:
    यहाँ 'भरतानां' को गण विशेष ही कहा है, कोई चक्रवर्ती अर्थ नहीं।

    ✅ महिधर भाष्य:

    "भरतानाम् — भरत गणस्य, निष्षिधः — निषेधकः, वज्रिणः शूरः इन्द्रः।"

    अर्थ:
    इन्द्र, जो भरत गण के शत्रुओं का नाश करता है।

    भावार्थ:

    वज्रधारी शूरवीर इन्द्र भरतों के शत्रुओं का नाश करने वाला है। वह शत्रुओं को पराजित करता है और आर्य विजयी होते हैं।


    ✅ मंत्र 3: ऋग्वेद 6.16.4

    मूल मंत्र:

    भर॑तानां वृष॒भो व॒ज्री इ॒षे नि॒रक॑ व्रजम् | तुर॑णि॒रभ्य॑मावत ||

    पदपाठ:

    भरतानाम् । वृषभः । वज्री । इषे । निरक् । व्रजम् । तुरणिः । अभि । अमावत् ॥

    अन्वय:

    वज्री वृषभः अग्निः भरतानाम् इषे निरक् व्रजम् तुरणिः अभ्यमावत्।

    सायण भाष्य:

    मूल मंत्र:
    भर॑तानां वृष॒भो व॒ज्री इ॒षे नि॒रक॑ व्रजम् | तुर॑णि॒रभ्य॑मावत ||

    सायण भाष्य:
    "भरतानाम् — भरत नाम्नः गणस्य, वृषभः — श्रेष्ठः, वज्री — वज्रधारी अग्निः, इषे — रक्षा हेतु, निरक् — नाशयति, व्रजम् — शत्रुसंघम्, तुरणिः — शीघ्रगामी।"

    अर्थ: भरत गण का श्रेष्ठ वज्रधारी अग्नि शत्रुओं का नाश करता है।

    ✅  महिधर भाष्य:

    "भरतानाम् — भरत गणस्य, वृषभः — श्रेष्ठः अग्निः वज्री।"

    अर्थ:
    भरत गण का श्रेष्ठ वज्रधारी अग्नि, शत्रुओं का नाश करता है।


    ✅ मंत्र 4: ऋग्वेद 10.102.3

    मूल मंत्र:

    समु॒द्रय॑ज्ञा भर॒तं जेष्य॑न्तो वि॒श्वस्मा॑दिन्द्र॒मवा॑हयन् ||

    पदपाठ:

    समुद्र-यज्ञाः । भरतम् । जेष्यन्तः । विश्वस्मात् । इन्द्रम् । अवाहयन् ॥

    अन्वय:

    समुद्रयज्ञाः विश्वस्मात् जेष्यन्तः भरतम् इन्द्रम् अवाहयन्।

     सायण भाष्य:

    मूल मंत्र:
    समु॒द्रय॑ज्ञा भर॒तं जेष्य॑न्तो वि॒श्वस्मा॑दिन्द्र॒मवा॑हयन् ||

    सायण भाष्य:
    "समुद्रयज्ञाः — समुद्र समवाययुक्त यज्ञवन्तः, भरतम् — भरत नाम गणम्, जेष्यन्तः — जयिष्यन्तः, विश्वस्मात् — सर्वेषां शत्रूणाम्, इन्द्रम् — इन्द्रं, अवाहयन् — आह्वयन्।"

    अर्थ: समुद्र जैसे महान यज्ञ करने वाले, भरत गण की विजय के लिए इन्द्र का आह्वान करते हैं।

    ✅ महिधर भाष्य:

    "भरतम् — भरत गणम्, जेष्यन्तः — विजयिष्यन्तः, इन्द्रम् — आह्वयन्।"

    भावार्थ:

    भरतों का वृषभ, वज्रधारी अग्नि, शत्रुओं के समूह को नष्ट कर देता है और तेज गति से सहायता करता है।

    भावार्थ:

    जो समुद्र के समान महान यज्ञ करने वाले हैं, वे भरत को संपूर्ण शत्रुओं पर विजय दिलाने के लिए इन्द्र का आह्वान करते हैं। 

    ✅ वेदार्थदीपिका (उदिताचार्य) — मुख्य बिंदु:

    • वे भी ‘भरत’ = गण / वंश के रूप में ही अर्थ करते हैं।
    • उदाहरण — "भरत नाम गणस्य।"
    • उदिताचार्य किसी भी मंत्र में 'भरत' को चक्रवर्ती भरत नहीं कहते।

    ✅ विश्लेषण:

    • सायणाचार्य स्पष्ट करते हैं कि 'भरत' कोई विशिष्ट व्यक्ति नहीं, बल्कि 'गण' या 'कबीला' है।
    • वह कहीं भी इसे ऋषभदेव पुत्र चक्रवर्ती भरत से नहीं जोड़ते।
    • 'भरत' = युद्धप्रिय क्षत्रिय जाति / वंश — यही अर्थ देते हैं।

    ✅ सारांश:

    सभी मंत्रों में सायणाचार्य 'भरत' को केवल 'गण' या 'वंश' ही मानते हैं।

    • कहीं भी चक्रवर्ती भरत, ऋषभदेव पुत्र या भारतवर्ष की व्याख्या नहीं।
    • 'भरत' = वीर योद्धा गण (tribe/clan)
    • पौराणिक 'भरत' की कल्पना सायण में नहीं है।

    • ऋग्वेद में 'भरत' शब्द का अर्थ — निघण्टु, निरुक्त और भाष्यकारों का विश्लेषण
    • ऋग्वेद के जिन मंत्रों का उल्लेख किया गया है, उन सभी में 'भरत' शब्द के अर्थ को लेकर सायण, महिधर और उदिताचार्य द्वारा 'भरत नामक गण अथवा वंश' के रूप में स्पष्ट किया गया है, किसी चक्रवर्ती राजा भरत या किसी विशेष ऐतिहासिक पात्र के रूप में नहीं। अब आइए निघण्टु और यास्ककृत निरुक्त में 'भरत' शब्द का अर्थ देखें।

  • निघण्टु में 'भरत' शब्द:

    📖 निघण्टु 3.14 (नामा समूह)
    "भरतः सोमम् । विश्वेदेवाः।"

    यहाँ 'भरत' शब्द देवगण के लिए प्रयोग हुआ है, जो सोम का उपभोग करते हैं। इसका सामान्य अर्थ है — 'भरत' वे देवता हैं जो सोम रस का पान करते हैं।

    🌿 निघण्टु के अनुसार 'भरत' का मूल अर्थ:
    'भर' धातु से बना हुआ — जिसका अर्थ होता है धारण करने वाला, पोषण करने वाला, वहन करने वाला।
    'भरत' — जो वहन करे, धारण करे, आगे बढ़ाए।


    निरुक्त में 'भरत' शब्द:

    📖 यास्ककृत निरुक्त (निरुक्त 3.5):
    "भरताः सोमं भरन्ति इति भरताः।"

    अर्थ:
    '
    भरत' वे हैं जो सोम का वहन करते हैं, उसे देवताओं तक पहुँचाते हैं।
    निरुक्त में 'भरत' का अर्थ क्रिया से जुड़ा है — 'भर' धातु से निष्पन्न, अर्थात 'जो वहन करे', 'जो देवकार्य में संलग्न हों'।
    यह अर्थ निघण्टु के साथ पूरी तरह मेल खाता है।

    📖 निरुक्त:
    "भरः पोषणे" — '
    भर' धातु का अर्थ पोषण करना, वहन करना।


    विशेष:

    निरुक्त में 'भरत' शब्द को किसी ऐतिहासिक पात्र, या किसी गण से नहीं जोड़ा गया है।
    यह एक 'कर्तृत्व' (action-based) संज्ञा है — जो 'भर' (धारण/वहन करना) क्रिया से निकला है।
    'भरत' एक देवताओं के समूह का द्योतक है, जिनका कार्य सोम यज्ञ या अन्य कर्म में सम्मिलित होना है।


    निष्कर्ष (निघण्टु और निरुक्त के आधार पर):

    संदर्भ अर्थ विशेष टिप्पणी
    निघण्टु 'भरत' = देवता (जो सोम का पान करते हैं) देववर्ग का संकेत
    निरुक्त 'भरत' = 'जो वहन करे' (विशेषत: सोम या यज्ञ सामग्री का) 'भर' धातु से निष्पन्न, कोई वंश विशेष नहीं

    चारों मंत्रों के सन्दर्भ में निघण्टु-निरुक्त आधारित सम्यक् निष्कर्ष:

    सभी मंत्रों में 'भरत' शब्द का अर्थ कोई 'गण' या 'वंश' विशेष के रूप में है, जो उस समय एक जाति या समुदाय था।
    निघण्टु-निरुक्त के अनुसार भी 'भरत' देवसमूह का बोधक है।
    निघण्टु और निरुक्त में 'चक्रवर्ती राजा भरत' का अर्थ नहीं है तो कहीं भी 'गण' अर्थ भी नहीं है।


    अतिरिक्त विशेष टिप्पणी:

    'भरत' शब्द 'भर' धातु से बना है, जो अत्यंत पुरातन वैदिक शब्द है।
    बाद के महाभारत और पुराणों में 'भरत' शब्द को 'राजा भरत' से जोड़ा गया, किंतु ऋग्वैदिक 'भरत' = देवसमूह ही है।
    ऋग्वेद के परवर्ती अर्वाचीन प्रमुख विद्वानों — सायण, महिधर, और उदिताचार्य — सभी ने भरत को गण माना है, यह उनकी अपनी अवधारणा है, निघण्टु या निरुक्त का मत नहीं।


    अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न — भाष्यकारों द्वारा 'भरत' को 'गण' अर्थ में लेने का आधार:

    उत्तर — शास्त्रीय विश्लेषण:

    1. निघण्टु-निरुक्त में 'भरत' का अर्थ 'देवगण' कब और कैसे?

    • निघण्टु 3.14: "भरतः सोमम्।" — यहाँ 'भरत' का प्रयोग देवताओं के लिए हुआ है जो सोम पान करते हैं।
    • निरुक्त 3.5: "भरताः सोमं भरन्ति इति भरताः।" — 'भर' धातु से 'भरत' बना, अर्थात 'सोम वहन करने वाले'।

    इस संदर्भ में 'भरत' का अर्थ "सोम वहन करने वाले देवगण" है। यह एक सामान्य धात्वर्थ है — 'जो वहन करे' वह 'भरत'।


    📌 2. ऋग्वेद के मंत्रों का विशेष संदर्भ भिन्न है (Contextual Meaning):

    • ऋग्वेद के 3.33.11, 7.8.4, 6.16.4, 10.102.3 जैसे मंत्रों में 'भरत' शब्द ऐसे संदर्भ में आता है जहाँ युद्ध, शत्रु-वध, विजय आदि की बात हो रही है।
    • वहाँ 'सोम पीने वाले देवता' का संदर्भ संदेहास्पद होता है।
    • 'भरत' का 'वध', 'युद्ध', 'गण', 'शत्रु' जैसे शब्दों से संबंध बैठता है।
    • 'भरत' शब्द का प्रयोग युद्धरत, मानव गण/वंश के अर्थ में स्वाभाविक बनता है। अतः भाष्यकारों ने 'निघण्टु' अर्थ के स्थान पर 'संदर्भ' (Contextual Meaning) को प्राथमिकता दी।

    👉 इससे निष्कर्ष निकलता है की भाष्यकारों ने प्राचीन निघण्टु-निरुक्त के अर्थ के स्थान पर अपने अनुसार सन्दर्भ निकाल कर अर्थ किया है।


    📌 4. ऐतिहासिकता और वैदिक परंपरा: 'भरत' एक प्रसिद्ध ऋग्वैदिक 'गण' भी था।

    • 'भरत' नामक एक मानव गण या वंश वैदिक काल में था, जिससे भरत वंश और आगे चलकर भारत नाम पड़ा — यह भाष्यकारों की मान्यता है, किंतु यह संदेह के घेरे में है।
    • पुराणकार इस व्याख्या से सहमत नहीं हैं। सभी वेद भाष्यकार 'भरत' को प्राचीन मानव वंश/गण मानते हैं। परन्तु निघण्टु, निरुक्त या पुराण में इसका समर्थन नहीं है।
    • भाष्यकारों का ऐसा मानना केवल उनकी अपनी मान्यता ही है। वर्तमान इतिहासज्ञ संभवतः भाष्य को ही प्रमाण मानकर भरत को गण मान बैठे हैं, उन्होंने प्राचीन निघण्टु, निरुक्त को देखने का प्रयास ही नहीं किया।

    अंतिम प्रमाणयुक्त निष्कर्ष:

    • भाष्यकारों ने निघण्टु-निरुक्त में निरुक्त का 'संदर्भ प्रधान अर्थ ग्रहण नियम' अपनाया और 'भरत' शब्द का अर्थ 'मानव गण/वंश' किया। परन्तु ऐसा करने में उन्होंने अपनी मान्यता का ही प्रतिपादन किया। भाष्यकारों की स्वयं की मान्यता अनुसार: 
    • 'भरत' = देवगण अर्थ केवल उन मंत्रों में होगा जहाँ सोमपान, यज्ञ, देवता आदि का संदर्भ हो।
    • 'भरत' = मानव गण/वंश अर्थ तब होगा जब प्रसंग युद्ध, शत्रु-वध, विजय आदि हो।

    1. क्या निघण्टु में 'भरत' को मानव गण या वंश कहा गया है?

    📖 निघण्टु प्रमाण:
    निघण्टु 3.14 — "भरतः सोमम्।"

    यहाँ 'भरत' देवगण है, मानव गण या वंश का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं।

    निष्कर्ष: निघण्टु में 'भरत' शब्द का प्रयोग देवगण अर्थ में है। मानव गण या वंश का कोई प्रमाण नहीं।


    2. क्या यास्क के निरुक्त में 'भरत' मानव गण या वंश है?

    📖 निरुक्त प्रमाण (3.5):
    "भरताः सोमं भरन्ति इति भरताः।"

    • यास्क 'भर' धातु से व्युत्पत्ति करते हैं — "जो वहन करे, वह भरत।"
    • संदर्भ सोम वहन करने का है, देवताओं का है।
    • कहीं भी 'मानव गण' या 'भरत वंश' का संकेत नहीं।

    📖 निरुक्त (निरुक्त 7.14):
    जहाँ यास्क 'भरत' शब्द का कोई अलग मानव गण अर्थ देते हों — ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता।

    निष्कर्ष: निरुक्त में भी 'भरत' मानव गण या वंश अर्थ नहीं है। यह केवल धात्वर्थ ('भर' धातु) और देवताओं के लिए आता है।


    3. क्या वैदिक मंत्रों में 'भरत' मानव गण या वंश के रूप में प्रमाणित है?

    अब मूल वेद मंत्रों की ओर आते हैं।

    📖 ऋग्वेद 3.33.11:
    "अयम् मंहि॑ष्ठा नृ॒णां वि॒श्वा अ॑द्या॒भ्य॑वर्तिन् । यच्छा॑ सि भर॒तो व॑धैः ॥"

    • सायण और महिधर ने यहाँ 'भरत' को गण नाम माना है, परंतु स्वयं मंत्र में स्पष्टतः मानव वंश या गण का उल्लेख नहीं है, केवल 'भरत' शब्द है।

    📖 ऋग्वेद 7.8.4:
    "प्र ये भ॒रता॑नां नि॒ष्षिधः॑ शूर॒ वज्रि॑णः । अ॒र्यो वि॒दद व॑नुष्यति ॥"

    • 'भरतानाम्' बहुवचन है, जिससे 'किसी समूह' का बोध होता है।
    • यहाँ भी 'गण' अर्थ सायण-भाष्य से आता है, मंत्र स्वतः किसी मानव वंश का नाम लेकर नहीं कहता।

    📖 ऋग्वेद 6.16.4 और 10.102.3 भी ऐसा ही है।


    नोट:

    • ऋग्वेद के इन मंत्रों में 'भरत' नाम आता है, और कभी-कभी वह 'भरतानाम्' बहुवचन में आता है, लेकिन कहीं भी स्पष्ट 'मानव वंश' या 'भारतवर्ष' शब्द नहीं है।

    4. निष्कर्ष — शुद्ध वैदिक प्रमाण क्या कहता है?

    ग्रंथ स्थिति
    निघण्टु 'भरत' = देवता (सोम पान करने वाले)
    निरुक्त 'भरत' = 'भर' धातु से 'वहन करने वाले', सोम वहन करने वाले देवता
    ऋग्वेद मंत्र संदर्भ और भाषा से 'गण' संकेत मान लिया गया है, पर 'मानव वंश' का कोई प्रमाण नहीं

    5. उपसंहार — 'भारत' नाम का भारतवर्ष से संबंध बाद की परंपरा है:

    • वैदिक मूल ग्रंथों में कहीं भी 'भरत' का सीधा अर्थ 'मानव वंश' या 'भारतवर्ष' का जनक — यह प्रमाणित नहीं है।
    • 'भरत' शब्द मंत्र में है, पर मानव गण अर्थ केवल भाष्यकार जोड़ते हैं, मूल मंत्र नहीं।

    अतः शुद्ध वैदिक उत्तर:

    👉 निघण्टु और निरुक्त में 'भरत' = देवगण (सोम वहन करने वाले) हैं।
    👉 ऋग्वेद में संदर्भ 'गण' का हो सकता है, पर 'मानव वंश' का प्रत्यक्ष प्रमाण नही                       ✅ 
    भाष्यकारों की कालानुक्रमिक स्थिति और ऐतिहासिक प्राथमिकता का विश्लेषण:विशाल जैन आगम (ईशा पूर्व ५वीं शताब्दी से ईशा पूर्व दूसरी शताब्दी तक) ) एवं अन्य साहित्य (ईशा की दूसरी से १२ वीं शताब्दी तक) ऋषभदेव को प्रथम तीर्थंकर एवं भरत को प्रथम चक्रवर्ती के रूप में चित्रित करता है. वैदिक साहित्य में पुराणों का भी यही अभिमत है. अनेक बौद्ध ग्रंथों में भी इसी प्रकार के सन्दर्भ पाए जाते हैं. 

     ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि मूल वेदों में भी ऋषभ, वृषभ, भरत, अर्हत आदि शब्द बारम्बार उपयोग किये गए हैं. परन्तु भाष्यकारों ने उनके अर्थ अलग सन्दर्भ में किया है जिसका वर्णन लेख के पूर्वभाग में किया जा चूका है. अब इन सभी उल्लेखों के प्राचीनता/ अर्वाचीनता पर विचार करते हैं: 

     मुख्य वेद भाष्यकारों (सायण, महिधर, उदिताचार्य/वेदार्थदीपिका) की कालावधि (Period) का विवरण —     ✅ 1. सायणाचार्य (Sayana Acharya) काल: 14वीं शताब्दी (लगभग 1315 – 1387 ई.) स्थान: विजयनगर साम्राज्य, दक्षिण भारत विशेषता: सम्पूर्ण वेदों पर सायणाचार्य का सर्वाधिक प्रसिद्ध भाष्य; उनके समय के हरिहर और बुक्का राजाओं का संरक्षण प्राप्त। महत्व: सर्वाधिक प्रमाणिक वेद भाष्यकारों में गिने जाते हैं। 

    ✅ 2. महिधर (Mahidhara) काल: 16वीं शताब्दी (लगभग 1580 – 1600 ई.) स्थान: उत्तरी भारत (संभवतः मध्य भारत के आसपास) विशेषता: यजुर्वेद पर 'मन्त्रब्राह्मण भाष्य' तथा अन्य वेद मंत्रों पर स्वतंत्र भाष्य लिखा। महत्व: सायण के बाद का प्रमुख भाष्यकार, सरल भाषा में वेद मंत्रों का अर्थ। 

    ✅ 3. उदिताचार्य (Uditacharya) — वेदार्थदीपिका लेखक काल: अनुमानित 17वीं शताब्दी स्थान: उत्तर भारत विशेषता: वेदों पर 'वेदार्थदीपिका' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना। महत्व: सायण और महिधर के बाद का विद्वान, जिसने वैदिक मंत्रों की व्याख्या सरल शैली में की। 

    निष्कर्ष: 

    ✅ ऐतिहासिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में वैदिक-शैव-जैन संबंध और भाष्यकारों का दृष्टिकोण: भाष्यकार काल (Century) एवं  विशेष योगदान:                                                                                                                              
  • सायण, महिधर, उदिताचार्य जैसे वेद भाष्यकार 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच हुए हैं।
  • जबकि आगम, पुराण यहाँ तक की हेमचंद्राचार्य का त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र इससे कई शताब्दियाँ पूर्व रचे जा चुके हैं।
  • इस आधार पर पुराणों और जैन ग्रंथों की ऐतिहासिक प्राथमिकता और उनकी परंपरा में प्राचीनता अधिक है।
  • वेद भाष्यकारों का कार्य मूल मंत्रों पर था, लेकिन कई अर्थ सीमित और बाद के दृष्टिकोण से हैं, जबकि पुराणों में वंश परंपरा और धर्म-प्रतिष्ठा का स्पष्ट चित्रण है।

  • ✅ ऐतिहासिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में वैदिक-शैव-जैन संबंध और भाष्यकारों का दृष्टिकोण:
  • सायणाचार्य, महिधर और उदिताचार्य जैसे वेद भाष्यकार 14वीं से 17वीं शताब्दी के बीच सक्रिय थे। यह काल भारत के इतिहास में भारी धार्मिक और दार्शनिक संघर्ष का काल था।

    📌 1. दक्षिण भारत में सायणाचार्य का काल (14वीं शताब्दी):

    • सायणाचार्य विजयनगर साम्राज्य के संरक्षण में थे, जिसे हरिहर-बुक्का जैसे राजाओं ने स्थापित किया था।
    • विजयनगर साम्राज्य का एक मुख्य उद्देश्य ही दक्षिण भारत में पुनः वैदिक-हिंदू संस्कृति की स्थापना और विस्तार था, क्योंकि उस समय तक जैन, बौद्ध और इस्लामिक प्रभाव दक्षिण में मजबूत हो चुके थे।
    • उस काल में जैन धर्म का प्रभाव दक्षिण भारत में बहुत था, विशेषकर कर्नाटक, आंध्र, तमिलनाडु में।
    • विजयनगर शासकों ने शैव, वैष्णव और वैदिक पुनरुत्थान को बढ़ावा दिया, और धीरे-धीरे जैन और बौद्ध प्रभाव कमजोर हुआ।

    📌 2. क्या सायणाचार्य और अन्य भाष्यकार कट्टर थे?

    • सायणाचार्य स्वयं 'शैव' थे और उन्होंने वेदों का भाष्य राजकीय संरक्षण में लिखा।
    • उनके भाष्यों में 'जैन' या 'बौद्ध' सिद्धांतों का प्रत्यक्ष खंडन तो नहीं मिलता परन्तु सायण ने किसी भी वैदिक मंत्र का कभी भी जैन या बौद्ध से जोड़कर अर्थ नहीं किया, यहाँ तक की उस काल के वैदिक जगत में सुप्रतिष्ठित पुराणों एवं बहुप्रचलित श्रीमद्भागवत (वैष्णव) के उद्धरणों को भी स्पर्श नहीं किया   — यह उनकी वैदिक-शैव  पक्षधरता और सीमितता दर्शाता है।
    • महिधर और उदिताचार्य ने भी इसी वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाया।

    📌 3. वैदिक बनाम जैन संघर्ष का संकेत:

    • ऐतिहासिक रूप से 12वीं-13वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में जैन परंपरा बहुत प्रभावशाली थी।
    • 14वीं शताब्दी से शैव और वैष्णव  पुनर्जागरण ने जैन प्रभाव को चुनौती दी।
    • विशेषकर विजयनगर काल में जैन मंदिरों का ह्रास और शैव-वैष्णव मंदिरों का निर्माण इसका प्रमाण है।
    • उस काल के साहित्य और स्थापत्य कला में भी यह बदलाव दिखता है।
    • यह संघर्ष सीधा शस्त्र युद्ध नहीं था, बल्कि दार्शनिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक था।

    📌 4. क्या यह संघर्ष भाष्यकारों की दृष्टि में झलकता है?

    • सायण और अन्य भाष्यकारों ने जानबूझकर 'भरत' जैसे शब्दों को केवल वैदिक/शैव संदर्भ में ही सीमित किया।
    • केवल जैन परंपरा ही नहीं अपितु पुराणों एवं श्रीमद्भागवद आदि ग्रंथों में 'भरत' और 'ऋषभदेव' के महत्व को जानने के बावजूद, उन्होंने कोई संबद्धता नहीं जोड़ी।
    • यह सम्भवतः उनकी अपनी वैदिक शैव परंपरा की रक्षा और पुनर्स्थापना का उद्देश्य था।"
    • वे अपनी रचना में 'जैन दार्शनिक प्रभाव' को स्वीकार नहीं करना चाहते थे, क्योंकि यह उनके संरक्षण और काल की मांग भी थी।

    निष्कर्ष :

    यहाँ यह भी विचारणीय है कि सायण, महिधर और उदिताचार्य जैसे भाष्यकार जिस कालखंड में सक्रिय थे, वह भारत में वैदिक-शैव पुनर्जागरण का काल था। विशेषकर सायणाचार्य विजयनगर के शैव शासकों के संरक्षण में थे, जहाँ जैन प्रभाव कम करने के प्रयास स्पष्ट दिखते हैं। संभवतः इसी कारण उनके भाष्य वैदिक दृष्टिकोण में सीमित रहे और उन्होंने 'भरत' जैसे शब्दों की व्याख्या को कभी जैन चक्रवर्ती भरत या ऋषभदेव से जोड़ने का प्रयास नहीं किया।

    यह ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संघर्ष उस काल में परोक्ष रूप से विद्यमान था, जो भाष्य परंपरा में भी झलकता है।

  • क्या किसी वैदिक भाष्यकार ने ऋग्वेद के भरत को तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत (चक्रवर्ती) के रूप में स्वीकारा है? 

    नहीं, ऋग्वेद के प्रमुख भाष्यकार — सायणाचार्य, महिधर, उदिताचार्य, वेदर्थदीपिका, या अन्य प्राचीन वैदिक टीकाकार — किसी ने भी 'भरत' शब्द का सीधा संबंध तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती से नहीं जोड़ा है।
    ✔ वेद में 'भरत' को सामान्यतः 'एक वीर क्षत्रिय जाति', 'युद्धप्रिय गण', या 'भरत वंश' के रूप में लिया गया है, जिसका संबंध सुदास, त्रित्सु आदि से है।

    सायण भाष्य में भी 'भरत' शब्द का अर्थ —
    "भरतः नाम कश्चिद्गणः" — एक वीर गण या वंश — के रूप में ही किया गया है।

    ✅ ऋग्वेद भाष्यों के 'भरत' एवं पुराणीय 'भरत' 

    पक्षऋग्वेदपुराण / भागवत
    व्याख्याएक वीर योद्धा वंश / गणऋषभदेव का पुत्र, चक्रवर्ती सम्राट
    स्रोतसायण, महिधर, प्राचीन वैदिक टीकाकारभागवत पुराण, विष्णु पुराण, अन्य पुराण
    भारतवर्ष नामअप्रसक्तभरत चक्रवर्ती के नाम पर
    सीधा संबंधनहींहाँ, विशिष्ट कथा से

    ✅ निष्कर्ष:

    • ऋग्वेद में 'भरत' शब्द वीर योद्धा वंश या कबीले के लिए आता है, जो इन्द्र-अग्नि के प्रिय हैं।
    • कोई वैदिक भाष्यकार 'भरत' को ऋषभदेव का पुत्र नहीं मानता।
    • पुराणों में 'भरत' का निर्माण 'भारतवर्ष' के नामकरण और चक्रवर्ती परंपरा को प्रतिष्ठित करने हेतु हुआ।
    • यह दो अलग संदर्भ हैं:
      • ऋग्वेदिक भाष्य के 'भरत' = योद्धा वंश।
      • पुराणीय 'भरत' = ऋषभदेव का पुत्र, भारतवर्ष के नाम का आधार।

    ऋग्वेद में 'भरत' शब्द की सायण भाष्य में व्याख्या मुख्यतः 'गण' या 'वंश' रूप में हुई है, न कि पुराणीय चक्रवर्ती भरत के रूप में।

    महिधरउदिताचार्य और वेदार्थदीपिका में उपलब्ध ‘भरत’ मंत्रों के भाष्य संदर्भ में भी तीनों ने 'भरत' को 'गण' / 'वंश' के रूप में ही लिया है, कहीं भी पुराणीय चक्रवर्ती भरत का संदर्भ नहीं है।


    ✅ सारांश 

    भाष्यकारभरत का अर्थचक्रवर्ती भरत उल्लेख
    सायणाचार्यभरत नाम गण या वंश❌ नहीं
    महिधरभरत = गण❌ नहीं
    उदिताचार्य (वेदार्थदीपिका)भरत = गण / वीर जाति❌ नहीं

    ✅ निष्कर्ष:
    तीनों वेद भाष्यकार 'भरत' को केवल 'गण' या 'वंश' के अर्थ में ही लेते हैं।
    कोई भी उसे ऋषभदेव पुत्र चक्रवर्ती भरत से जोड़ने का प्रयास नहीं करता।


    ✅ पुराण एवं भागवत में 'भरत' वंश की स्थापना और वंशगत महिमा:

    श्रीमद्भागवत एवं अन्य पुराणों में उल्लेख है:

    "नाभिस्तु जनयामास पुत्रं मरुदेव्याः मनोहरम्। ऋषभं क्षत्रियश्रेष्ठं सर्वक्षत्रियसत्तमम्॥"

    अर्थ: मनु के पुत्र नाभि ने मरुदेवी से अत्यंत मनोहर पुत्र ऋषभ को उत्पन्न किया, जो क्षत्रियों में श्रेष्ठ, समस्त क्षत्रिय वंश का आदिपुरुष और सर्वश्रेष्ठ था।

    यह श्लोक स्पष्ट करता है कि ऋषभदेव समस्त क्षत्रिय वंश के मूल हैं और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती से ही 'भारतवर्ष' का नाम पड़ा।

    यह दृष्टि ऋग्वेद के 'भरत वंश' और पुराण के 'भरत चक्रवर्ती' को जोड़ने में दार्शनिक और सांस्कृतिक आधार देती है, जहाँ 'भरत' केवल एक जाति नहीं, बल्कि धर्म, पराक्रम और वंश की प्रतिष्ठा का प्रतीक बनता है।

    ✅ पुराणों और श्रीमद्भागवत में 'भरत' को ऋषभदेव का पुत्र क्यों कहा गया?

    कारण और आधार:

    1. भागवत पुराण (5.3 - 5.7) में स्पष्ट वर्णन है कि:

      • भगवान ऋषभदेव ने 'भरत' नामक पुत्र को राज्य सौंपा।
      • उसी भरत के नाम पर 'भारतवर्ष' नाम पड़ा।
    2. विशेष आधार:

      • पुराणों एवं श्रीमद्भगवद में भरत एवं ऋषभदेव का जो सम्बन्ध दर्शया गया है वह ऐतिहासिक है. उस समय तक समूर्ण भारतवर्ष में वैदिक एवं जैन दोनों ही संस्कृति में यही सत्य धारा प्रवाहित थी. 
      • पुराणों का उद्देश्य वेदों की विस्तृत व्याख्या कर वंशपरंपरा को जोड़ना है, इसलिए उन्होंने 'भरत' को एक चक्रवर्ती सम्राट के रूप में महिमामंडित किया।

      • 'भारत' नाम के भूभाग की प्रतिष्ठा हेतु यह कथा तत्कालीन आर्यावर्त में निर्विवाद रूप से प्रचलित थी  एवं यह कथा 'भारतवर्ष' के नामकरण का आधार थी।
      • यह 'भरत' पौराणिक एवं जैन 'ऋषभदेव के पुत्र' हैं, न कि ऋग्वैदिक भाष्यकारों के भरत गण
      • भरत गण संभवतः परवर्ती काल के भाष्यकारों की स्वयं की कल्पना है, जिसका समर्थन किसी भी प्राचीन ग्रंथों में नहीं मिलता.  
      

    क्या ऋग्वैदिक भाष्य के 'भरत-ऋषभदेव' पौराणिक एवं जैन भरत-ऋषभदेव से जोड़े जा सकते हैं?

    🔎 संभावना का आधार (Philosophical and Conceptual Bridge):

    1. भरत नाम में साम्य:

      • ऋग्वेद और पुराण — दोनों में ‘भरत’ एक वीर योद्धा, धर्मनिष्ठ वंश का प्रतीक है।
      • पुराणों एवं जैन ग्रंथों में भरत चक्रवर्ती ऋषभदेव पुत्र, धर्म-स्थापक चक्रवर्ती हैं।
      • दोनों ही धर्म और शक्ति के आदर्श रूप में प्रतिष्ठित हैं।
    2. ऋग्वेद भाष्यों में भरतों की पहचान:

      • 'भरत' एक ऐसा वंश है, जो इन्द्र और अग्नि की कृपा से विजयी होता है।
      • 'इन्द्र' शक्ति का, 'अग्नि' आत्मशुद्धि और ज्ञान का प्रतीक।
      • यह चित्रण जैन और पौराणिक भरत चक्रवर्ती के ही "ज्ञान-धर्म और शक्ति-संपन्न सम्राट" स्वरूप से मेल खाता है।
    3. ऋषभदेव और भरत — धर्म एवं चक्र का आदर्श:

      • पुराणों में ऋषभदेव का पुत्र भरत चक्रवर्ती "आत्म-धर्म में स्थित, सम्राट और भारतवर्ष का नामदाता" है।
      • ऋग्वेद में भी 'भरत' का चित्रण धर्मवीर योद्धा वंश के रूप में आता है।
    4. अर्थ का विस्तृत आयाम:

      • यदि हम  'भरत' को केवल भाष्यकारों के जाति/गण न मानकर "धर्मरक्षक वंश, आदर्श मानव-वंश" के रूप में लें तो यह ऋषभदेव के पुत्र भरत और भारतवर्ष के संकल्पना से आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से जोड़ सकता है।

    संभावित निष्कर्ष / Viable Alignment:

    1. शाब्दिक रूप से ऋग्वेद भाष्य और पुराणीय भरत में भिन्नता है, क्योंकि वैदिक भाष्यकार 'भरत' को 'गण' मानते हैं।
    2. लेकिन दार्शनिक और सांस्कृतिक दृष्टि से यह एक ही मूल प्रतीक — धर्म-पराक्रम, सत्य और शक्ति का प्रतिनिधि बनता है।
    3. यद्यपि सभी वैदिक भाष्य जैन ग्रंथों एवं पुराणों के बहुत बाद में रचे गए तथापि यहाँ एक भावनात्मक, दार्शनिक और सांस्कृतिक सेतुबंध  (Philosophical Bridge) स्थापित होता है:
      • ऋग्वेद के भाष्यकारों का 'भरत' वंश का आदर्श विकास, पुराणों में भरत चक्रवर्ती के रूप में हुआ।
      • 'भरत' ऋषभदेव पुत्र के रूप में आत्मिक चक्रवर्ती है, जो ऋग्वेदिक 'धर्मरत वंश' की चरम परिणति है।

    उपसंहार:

    शास्त्रीय दृष्टि से भले ही सीधा सन्दर्भ न हो,
    परंतु दार्शनिक, सांस्कृतिक और आत्मिक दृष्टि से — ऋग्वैदिक भाष्यों के 'भरत' और पौराणिक 'भरत चक्रवर्ती' को जोड़ा जा सकता है।

    "यह जोड़ ऋषभदेव की धर्म-परंपरा और भारतवर्ष के आदर्श स्वरूप का वैदिक संस्कृति से समन्वय करता है।"

    ✅ विशेष दार्शनिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण:

    कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्राचार्य के त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र जैसे जैन ग्रंथों में भरत चक्रवर्ती की विजय यात्रा में इन्द्र को उनकी सहायता करते हुए दिखाया गया है।

    ठीक उसी प्रकार, ऋग्वेद के उपरोक्त मंत्रों में भरत वंश को इन्द्र की कृपा और शक्ति प्राप्त होती है।

    • ऋग्वेद भाष्य में: भरत वंश इन्द्र-अग्नि के सहारे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है।

    • जैन परंपरा में: इन्द्र स्वयं तीर्थंकरों की पूजा व वंदना करता है।

    यहाँ महत्वपूर्ण अंतर यह है कि:

    • वैदिक संदर्भ में मनुष्य इन्द्र की सहायता चाहता है और उसकी स्तुति करता है।

    • जैन दर्शन में इन्द्र स्वयं तीर्थंकरों की अर्चना करता है।

    यह दार्शनिक अंतर स्पष्ट करता है कि:

    • वैदिक साहित्य में इन्द्र शक्ति और विजय का अधिष्ठाता देवता है।

    • जैन साहित्य में इन्द्र संस्कार और सम्मान का प्रतीक है, जो आत्मज्ञान और धर्म के आगे नतमस्तक होता है।

    अतः दोनों परंपराओं में 'भरत' और 'इन्द्र' का संबंध भले ही अलग संदर्भ में हो, किन्तु दोनों ही स्थानों पर धर्म, विजय और उच्च आदर्शों की स्थापना का प्रतीक बनता है।

    ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 136 के 7 मंत्रों का जैन दृष्टिकोण से विश्लेषण

    ✅ स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविंद और अन्य विद्वानों की व्याख्या:

    1. स्वामी दयानंद सरस्वती (Maharshi Dayanand Saraswati):

    • ऋग्वेद भाष्य: स्वामी दयानंद ने 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' और 'ऋग्वेद भाष्य' की रचना की, जिसमें उन्होंने वैदिक मंत्रों की व्याख्या की है।

    • 'भरत' का संदर्भ: स्वामी दयानंद ने 'भरत' को एक विशेष वंश या जनजाति के रूप में संदर्भित किया है। उनके अनुसार, 'भरत' एक प्रमुख और धार्मिक वंश था, जो वैदिक काल में विशेष रूप से प्रतिष्ठित था।

    • मंत्र 3.33.11 पर टिप्पणी: इस मंत्र में 'भरत' वंश के शत्रुओं के विनाश के लिए इंद्र की स्तुति की गई है। स्वामी दयानंद ने इसे धार्मिक और नैतिक मूल्यों की रक्षा के संदर्भ में व्याख्यायित किया है।

    • मंत्र 7.8.4 पर टिप्पणी: यहाँ इंद्र को 'भरत' वंश के शत्रुओं का नाश करने वाला बताया गया है। स्वामी दयानंद ने इसे धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के रूप में देखा है।

    • मंत्र 6.16.4 पर टिप्पणी: इस मंत्र में अग्नि को 'भरत' वंश का रक्षक बताया गया है। स्वामी दयानंद ने अग्नि को ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक मानते हुए, इसे आत्मिक उन्नति से जोड़ा है।

    • मंत्र 10.102.3 पर टिप्पणी: यहाँ 'भरत' वंश की विजय के लिए इंद्र का आह्वान किया गया है। स्वामी दयानंद ने इसे सत्य और धर्म की विजय के प्रतीक के रूप में व्याख्यायित किया है।

    1. महर्षि अरविंद (Maharshi Aurobindo):

    • वेदों पर दृष्टिकोण: महर्षि अरविंद ने वेदों की आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक व्याख्या की है। उन्होंने वेदों को मानव चेतना की आंतरिक यात्रा के रूप में देखा है।

    • 'भरत' का संदर्भ: अरविंद ने 'भरत' को आत्मा के आध्यात्मिक साधक के रूप में देखा है, जो आंतरिक शत्रुओं (जैसे अज्ञान, अहंकार) से संघर्ष करता है।

    • मंत्रों की व्याख्या: अरविंद के अनुसार, इन मंत्रों में 'भरत' आत्मा का प्रतीक है, जो इंद्र (दिव्य शक्ति) और अग्नि (आत्मिक प्रकाश) की सहायता से आंतरिक विकारों पर विजय प्राप्त करता है।

      1. अन्य विद्वानों की व्याख्या:

      • सामान्य दृष्टिकोण: अनेक आधुनिक विद्वानों ने 'भरत' को एक प्रमुख वैदिक जनजाति या वंश के रूप में स्वीकार किया है, जो धर्म और सत्य के मार्ग पर अग्रसर था। यह भाष्य का ही दृष्टिकोण है. 

      • आधुनिक व्याख्या: कुछ सत्यान्वेषी आधुनिक विद्वानों ने 'भरत' को भारतवर्ष के प्रतीक के रूप में देखा है, जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर का प्रतिनिधित्व करता है।

      ✅ तुलनात्मक विश्लेषण 

    स्वामी दयानंद सरस्वती का दृष्टिकोण सायण, महिधर और वेदार्थदीपिका जैसे पारंपरिक वेद भाष्यकारों से अधिक निकट है, जहाँ 'भरत' एक ऐतिहासिक और वीर वंश या गण के रूप में व्याख्यायित है और इन्द्र-अग्नि उनकी बाह्य विजय में सहायक देवता हैं।

    इसके विपरीत, महर्षि अरविंद का दृष्टिकोण हमारी दार्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या के अत्यंत समीप है। उन्होंने 'भरत' को आत्मा का साधक माना है, जो आंतरिक शत्रुओं (अज्ञान, अहंकार) से संघर्ष करता है और इन्द्र-अग्नि (दिव्यता और प्रकाश) की सहायता से आत्म-विजय प्राप्त करता है। यह पूर्णतः हमारे जैन और आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य से मेल खाता है।

    ✅ निष्कर्ष:

    ऋग्वेद में 'भरत' का उल्लेख वीरता, धर्म, और इन्द्र-अग्नि जैसे देवताओं की कृपा प्राप्त वंश के रूप में होता है। 'भरत' केवल एक जाति या वंश नहीं, बल्कि एक ऐसा प्रतीक है जो सत्य, धर्म और विजय के मार्ग पर अग्रसर है।

    ऋग्वेदीय भाष्य में  'भरत' बनाम पौराणिक 'भरत चक्रवर्ती' — तुलनात्मक सार-तालिका

    पक्ष / तत्वऋग्वेद भाष्य के 'भरत' (Vedic Bharat)पौराणिक 'भरत चक्रवर्ती' (Puranic Bharat Chakravarti)
    उल्लेख स्रोतऋग्वेद, सायण, महिधर, उदिताचार्य, वेदार्थदीपिकाभागवत पुराण, विष्णु पुराण, जैन आगम, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र
    अर्थ / स्वरूपयुद्धप्रिय क्षत्रिय वंश / गण (Tribe/Clan)तीर्थंकर ऋषभदेव का पुत्र, चक्रवर्ती सम्राट
    मुख्य भूमिकाइन्द्र-अग्नि द्वारा संरक्षण प्राप्त योद्धा गणधर्म, सत्य और शक्ति का प्रतिष्ठापक, भारतवर्ष का नामदाता
    दार्शनिक दृष्टि सेबाह्य विजय और युद्ध में श्रेष्ठ क्षत्रिय वंशआत्म-धर्म में स्थित, सम्पूर्ण क्षत्रिय वंश का आदिपुरुष, आंतरिक विजय का आदर्श
    इन्द्र का संबंधइन्द्र भरत गण का रक्षक, शत्रु विनाशकजैन परंपरा में इन्द्र स्वयं भरत-ऋषभदेव की पूजा करता है
    भारतवर्ष नामकरण संबंधअप्रासंगिक (कोई सीधा उल्लेख नहीं)भरत चक्रवर्ती के नाम पर 'भारतवर्ष' की प्रतिष्ठा
    सांस्कृतिक स्थानएक वीर योद्धा वंश, ऋग्वैदिक आर्यों का प्रमुख गणआदर्श धर्म-सम्राट, चक्रवर्ती, सम्पूर्ण भारत का सांस्कृतिक प्रतीक
    भाष्यकारों की मान्यतासायण, महिधर, उदिताचार्य — केवल 'गण' अर्थपुराण, भागवत, जैन आगम — चक्रवर्ती अर्थ
    सीधा संबंध ऋषभदेव से❌ नहीं ✅ हाँ — ऋषभदेव पुत्र भरत

    अंतिम निष्कर्ष 

    • ऋग्वेद भाष्यों में 'भरत' = वीर क्षत्रिय वंश या गण, कोई चक्रवर्ती व्यक्तित्व नहीं।
    • पुराण-जैन परंपरा में 'भरत' = ऋषभदेव पुत्र, चक्रवर्ती सम्राट, भारतवर्ष का प्रतिष्ठापक
    • दार्शनिक और सांस्कृतिक दृष्टि से दोनों का मेल संभव है, किंतु शाब्दिक रूप से दोनों की अलग पहचान है।
    • यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है की सभी वैदिक भाष्य कि रचना वेदों की रचना से लगभग 3000 वर्षों के बाद हुई. यह काल खंड पौराणिक एवं जैन आगमों यहाँ तक की मूल जैन कथा साहित्य की रचना के समय से भी बहुत बाद का है. वेदों के भाष्यों को ही वेद मान लेना किसी भी प्रकार से युक्तिसंगत एवं बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है.
    • पुराण शब्द का अर्थ ही प्राचीन है अर्थात श्रुति के माध्यम से उपलब्ध ज्ञान के भंडार को पुराणों में संचित किया गया. 
    • सभी पुराण एक मत से ऋषभदेव एवं भरत की महत्ता को रेखांकित करते हैं एवं भारतवर्ष का नामकरण ऋषभदेव के पुत्र भरत पर होना मानते हैं. जैन और पौराणिक मतों में अत्यंत साम्यता है. पुराणों की प्राचीनता एवं प्राचीन जैन आगमों से समानता ही इसकी सत्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है. 
    • इसलिए प्राचीन पौराणिक उद्धरणों के मुकाबले अर्वाचीन वैदिक भाष्यों की व्याख्या को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता है. 

    परिशिष्ट 

    ✅ आधुनिक विद्वानों की दृष्टि और सांस्कृतिक प्रतीक:

    Several scholars have interpreted the term 'Bharat' in the Rigveda as representing the broader cultural and spiritual identity of India, aligning it with the concept of 'Bharatvarsha.' Notable among them are:

    1. B. D. Chattopadhyaya: In his anthology, The Concept of Bharatavarsha and Other Essays, Chattopadhyaya examines the socio-political and cultural developments in ancient India, discussing how the idea of 'Bharatavarsha' symbolizes the enduring cultural unity and identity of the Indian subcontinent. (hasp.ub.uni-heidelberg.de)

    2. David Frawley: In The Rig Veda and the History of India, Frawley posits that the Rigvedic references to the Bharatas reflect the foundational culture that spread throughout India, giving the land its traditional name, Bharatavarsha. He suggests that the Rigveda serves not only as a spiritual document but also as a record of the early socio-political landscape of ancient India. (exoticindiaart.com)

    3. Shrikant G. Talageri: In his work, The Rigveda: A Historical Analysis, Talageri explores the historical and cultural significance of the Rigvedic hymns, asserting that the Bharatas mentioned therein were instrumental in shaping the cultural identity that evolved into the concept of Bharatavarsha. (ia801707.us.archive.org)

    These interpretations highlight a perspective that views the Rigvedic 'Bharat' not merely as a tribe but as a representation of the emerging cultural and spiritual ethos that eventually defined the Indian subcontinent as Bharatavarsha.


    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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    दशराज्ञ संग्राम में इन्द्र-वरुण कृपा: तृत्सु-सुदास की ऋग्वेदीय विजयगाथा


    परिचय:

    ऋग्वेद मंडल 7, सूक्त 83, मंत्र 6-7 — यह सूक्त महर्षि वसिष्ठ द्वारा रचित है। इसमें दशराज्ञ युद्ध का वर्णन है, जिसमें सुदास तृत्सु वंश का राजा है और उसका संघर्ष दस राजाओं के विरुद्ध है। ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम न केवल वैदिक इतिहास का एक अद्भुत अध्याय है, बल्कि यह आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के बीच होने वाले आंतरिक संघर्ष का गहरा प्रतीक भी है। 

    इस लेख में हम ऋग्वेद के सप्तम मंडल के 83वें सूक्त के दो मंत्रों (7.83.6-7) के माध्यम से सुदास और तृत्सु वंश की विजय को एक दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समझने का प्रयास करेंगे। इन्द्र-वरुण कृपा से सुदास विकाररूपी दशराजाओं पर विजय प्राप्त करता है और आत्मा के उत्कर्ष का प्रतीक बनता है। यह सूक्त आत्मिक संघर्ष, इन्द्रियों पर विजय, और धर्म-मार्ग में स्थिर रहने का संदेश देता है।

    ऋग्वेद का दशराज्ञ युद्ध: प्रतीकात्मक चित्रण 

    मूल मंत्र, पदपाठ, शब्दार्थ, अन्वय और भावार्थ सहित

    स्वर सहित: 

    यु॒वां ह॑वन्त उ॒भया॑स आ॒जिष्विन्द्रं॑ च॒ वस्वो॒ वरु॑णं च सा॒तये॑ । यत्र॒ राज॑भिर्द॒शभि॒र्निबा॑धितं॒ प्र सु॒दास॒माव॑तं॒ तृत्सु॑भिः स॒ह॥ ऋग्वेद मंत्र 7.83.6

    पदपाठ: 

    युवाम् । हवन्ते । उभयासः । आजिषु । इन्द्रम् । च । वस्वः । वरुणम् । च । सातये । यत्र । राजभिः । दशभिः । निबाधितम् । प्र । सुदासम् । आवतम् । तृत्सुभिः । सह ॥

    शब्दार्थ: युवाम् — तुम दोनों (इन्द्र और वरुण), हवन्ते — आह्वान करते हैं, उभयासः — दोनों ओर के योद्धा, आजिषु — रणभूमि में, इन्द्रम् — इन्द्र को, च — और, वस्वः — धनदाता, वरुणम् — वरुण को, च — और, सातये — सहायता के लिए, यत्र — जहाँ, राजभिः — राजाओं द्वारा, दशभिः — दस राजाओं से, निबाधितम् — घिरा हुआ, प्र — आगे, सुदासम् — सुदास को, आवतम् — सहायता करो, तृत्सुभिः — तृत्सुओं के साथ, सह — सहित।

    अन्वय: यत्र दशभिः राजभिः निबाधितं सुदासम् तृत्सुभिः सह प्र आवतम्, युवाम् इन्द्रम् च वरुणम् च वस्वः उभयासः आजिषु सातये हवन्ते।

    भावार्थ: हे इन्द्र और वरुण! रणभूमि में दोनों पक्षों के योद्धा तुम्हें सहायता के लिए पुकारते हैं। जहाँ सुदास तृत्सुओं सहित दस राजाओं से घिरा हुआ है, वहाँ तुम दोनों उसकी रक्षा करो।

    आध्यात्मिक भावार्थ:

    यह मंत्र आत्मा के उस संघर्ष का प्रतीक है जहाँ जीव संसार की रणभूमि में मोह, राग, द्वेष और विकारों रूपी दस इन्द्रिय-राजाओं से घिरा हुआ है। वह अपने भीतर के दिव्य बल (इन्द्र) और मर्यादा (वरुण) को पुकारता है — जो आत्मा के संकल्प, संयम और आत्मशक्ति के प्रतीक हैं। आत्मा जब सत्य में स्थित होकर, अपने भीतर के इन्द्र-वरुण को जागृत करती है, तभी वह इस घेराव से बाहर आ सकती है। यह मंत्र सिखाता है कि आत्मबल, विवेक और संयम से ही जीव इस मोह-माया के जाल से बाहर निकलकर आत्मोद्धार कर सकता है।


    स्वर सहित:

    दश॒ राजा॑न॒: समि॑ता॒ अय॑ज्यवः सु॒दास॑मिन्द्रावरुणा॒ न यु॑युधुः । स॒त्या नृ॒णाम॑द्म॒सदा॒मुप॑स्तुतिर्दे॒वा ए॑षामभवन्दे॒वहू॑तिषु ॥ ऋग्वेद मंत्र 7.83.7

    पदपाठ: 

    दश । राजानः । समिता: । अयज्यवः । सुदासम् । इन्द्रावरुणा । न । युयुधुः । सत्या । नृणाम् । अद्मसदाम् । उपस्तुतिः । देवाः । एषाम् । अभवन् । देवहूतिषु ॥

    शब्दार्थ: दश राजानः — दस राजा, समिताः — एकत्र हुए, अयज्यवः — यज्ञविहीन, सुदासम् — सुदास को, इन्द्रावरुणा — हे इन्द्र-वरुण!, न युयुधुः — जीत न सके, सत्या — सत्य में स्थित, नृणाम् — मनुष्यों में, अद्मसदाम् — भोजन करने वालों में, उपस्तुतिः — स्तुति के योग्य, देवाः — देवता, एषाम् — इनके, अभवन् — बने, देवहूतिषु — देवताओं की वंदना में।

    अन्वय: दश राजानः समिताः अयज्यवः सुदासम् इन्द्रावरुणा न युयुधुः। सत्या नृणाम् अद्मसदाम् उपस्तुतिः एषाम् देवाः देवहूतिषु अभवन्।

    भावार्थ: दस राजा यज्ञविहीन होकर सुदास के विरुद्ध एकत्र हुए, किन्तु हे इन्द्र-वरुण! वे सुदास को जीत न सके। सत्य में स्थित मनुष्यों में ये सदा वंदनीय बन गए और देवताओं द्वारा पूजित हुए।

    आध्यात्मिक भावार्थ:

    दस इन्द्रियों रूपी अधर्मी राजा — जो यज्ञ-विहीन हैं अर्थात संस्कार विहीन एवं विकारी हैं; आत्मा को विकारों में बांधने वाले हैं — वे चाहे जितना भी बल लगाएँ, आत्मा को सत्य और धर्म से डिगा नहीं सकते यदि आत्मा इन्द्र-वरुण स्वरूप आत्मबल और मर्यादा में स्थित हो। सत्य में स्थित साधक देवताओं के समान वंदनीय बन जाता है और विकारों पर विजय प्राप्त करता है। यह मंत्र बताता है कि आत्मा का परम आश्रय सत्य और धर्म है, और वही उसे इस घोर संसार-संग्राम में विजय दिलाता है।


    विशेष व्याकरणिक एवं दार्शनिक विश्लेषण — 'तृत्सु' शब्द:

    'तृत्सु' शब्द व्याकरण की दृष्टि से पुल्लिंग, बहुवचन, तृतीया विभक्ति में प्रयुक्त हुआ है ("तृत्सुभिः"), जिसका कारक अर्थ 'साथ' अथवा 'द्वारा' है।

    • धातु और व्युत्पत्ति: यह '√तृ' (पार करना, जीतना) धातु से बना है, जो 'त्सु' प्रत्यय से जुड़कर 'तृत्सु' बनता है।

    • सामान्य अर्थ: ऋग्वेद में 'तृत्सु' सुदास के वंश या कुल का नाम है, जो एक यशस्वी और सत्य-धर्म में स्थित योद्धा जाति है।

    • दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ: '√तृ' का अर्थ है — 'पार करना'। इस दृष्टि से 'तृत्सु' वह समूह है जो जीवन-संसार के बंधनों और इन्द्रिय विकारों को पार कर जाने की क्षमता रखता है। यह आत्मा का वह स्वरूप या साधक समुदाय है, जो विकारों से संघर्ष कर संसार-सागर को लांघने में समर्थ है।

    • 'तृत्सु' का प्रयोग केवल ऐतिहासिक वंशवाचक नहीं, बल्कि आत्म-गुणवाचक है — जो 'परम लक्ष्य' को पार कर पाने की शक्ति और सामर्थ्य रखते हैं।

    निष्कर्ष :

    अतः 'तृत्सु' शब्द का प्रयोग यहाँ गहरे आध्यात्मिक अर्थों में हुआ है — 'विजेता साधक समूह', 'आत्मिक विजेता', 'मुक्ति पथ के पथिक'।

    दार्शनिक और आध्यात्मिक विवेचन:

    ऋग्वेद के ये मंत्र दशराज्ञ युद्ध के बहाने एक गहन आत्मिक संघर्ष का प्रतीक बन जाते हैं, जहाँ राजा सुदास न केवल बाहरी शत्रुओं से युद्ध कर रहे हैं, बल्कि आत्मा के भीतर के दस इन्द्रिय रूपी शत्रुओं पर विजय का भी संदेश दे रहे हैं। 'दश राजान:' यहाँ दस इन्द्रियों का द्योतक हैं, जो आत्मा को बाँधने और मोक्षमार्ग से विचलित करने वाले बाहरी और आंतरिक द्वार हैं। तृत्सु वंश का सुदास आत्मा का प्रतिनिधि है, जो इन इन्द्रियों को जीतकर आत्मोन्नति की ओर अग्रसर है।

    'सत्या नृणाम्' — यह पद गहराई से बताता है कि सत्य और धर्म में स्थित मनुष्य ही इस संघर्ष में विजयी हो सकता है। देवताओं की 'उपस्तुति' यानी आत्मसमर्पण और आंतरिक साधना आत्मा को परम गति दिलाती है।

    यह प्रत्येक जीव का संघर्ष है, जहाँ आत्मा (सुदास) इन्द्रिय-विकारों (दश राजान:) से घिरी है। इन्द्र (बल) और वरुण (मर्यादा) की कृपा अर्थात तप, संयम, विवेक और श्रद्धा का सहारा लेकर आत्मा इस घोर युद्ध में विजयी हो सकती है।

    जो आत्मा इन्द्रियों पर विजय पा लेती है, वही सच्चे अर्थों में 'सुदास' बनती है — 'सु' (शुभ) और 'दास' (सेवक) — जो शुभ के प्रति समर्पित है, आत्मा की सेवा में रत है और अन्ततः मोक्षमार्ग का पथिक है।

    ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


    वरुण का विस्तृत दार्शनिक अर्थ:

    वरुण का मूल अर्थ है — जो सबको आवृत्त (घेरने वाला) है, संपूर्ण जगत का अनुशासक और सर्व-संयामी है। वह ऋत (Cosmic Order), सत्य (Truth) और मर्यादा (Discipline) का अधिपति है। वरुण आत्मा का वह पक्ष है जो नियम, मर्यादा, सत्य, आत्म-संयम और नैतिकता में स्थित रहता है।

    वरुण का गहरा संबंध समुद्र और जल से है। वह समुद्र का अधिपति है — समुद्र जो अपनी मर्यादा नहीं लाँघता, रत्नों का भंडार है, और जिसकी गहराई आत्म-विश्लेषण और चिंतन की गहराई का प्रतीक है। समुद्र की गंभीरता और स्थिरता आत्मा के गहरे चिंतन और आत्म-संयम का रूपक है।

    वरुण जलस्वरूप है — शीतलता, लचीलापन और शुद्धि का प्रतीक। जल जैसा स्वभाव आत्मा में होना चाहिए — शीतल, क्रोध-रहित, द्रव स्वरूप में लचीला और परिस्थिति के अनुसार ढलने वाला, परंतु अपनी शुद्धता और स्वरूप को खोए बिना। जल अन्य सभी वस्तुओं का भी शुद्धिकरण करता है. 

    वरुण सिखाता है कि शुद्धि, संयम और मर्यादा में रहकर ही आत्मा जीवन-सागर में गोता लगाकर दिव्य रत्न प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार वरुण केवल नियामक नहीं, अपितु आत्मा का वह शीतल, संयमी, लचीला और गहरे चिंतन में स्थिर पक्ष है, जो आत्मा को मर्यादा और ऋत में स्थापित कर मोक्षमार्ग का पथिक बनाता है। 

    इन्द्र के विविध पर्यायों का आध्यात्मिक अर्थ:

    शक्र (Shakra): शक्ति से सम्पन्न, वह आत्मा का संकल्पबल है, जो भीतर जागता है और आत्मा को दृढ़ बनाता है।

    देवराज (Devarāja): देवताओं का राजा। देव यहां इन्द्रियाँ हैं। आत्मा का वह दिव्य स्वरूप जो इन्द्रियों का स्वामी बनकर उन्हें नियंत्रित करता है।

    पुरंदर (Purandara): पुर (अहंकार और आसक्ति के दुर्ग) को ध्वस्त करने वाला। आत्मा का वह बल, जो भीतर बसे मिथ्या विश्वासों और कर्मजन्य बंधनों को तोड़ता है।

    वज्रपाणि (Vajrapāṇi): वज्रधारी। आत्मा का वह अचल पक्ष जो कठिन से कठिन कर्म और मोह के आघात को झेलने की शक्ति रखता है। विवेक और धैर्य का वज्रधारी। 'वज्र' अत्यंत कठोर है, जो पुर और पर्वत को भेदने में सक्षम है। इसकी तुलना अशनि या कड़कती बिजली से भी की जाती है, जो अंधकार को चीरती है। साधक का हृदय उसी वज्र के समान कठोर होता है — अपने विकारों और मोह के प्रति, किंतु शिरीष पुष्प के समान कोमल होता है समस्त जीवों के प्रति। यही संयम, करुणा और तपस्या का समुचित संतुलन आत्मिक वज्रपाणि को सिद्ध करता है। साधक का यह वज्र उसकी आत्मशक्ति बनकर उसे समस्त विकारों पर अचल बनाता है और उसे मोक्षमार्ग पर अडिग रखता है।

    शतक्रतु (Shatakratu): सैकड़ों संकल्प और साधनाओं से समृद्ध। वह आत्मा का वह रूप, जो बार-बार संकल्प करता है, बार-बार गिरकर उठता है, साधना में लगा रहता है।

    सहस्राक्ष (Sahasrākṣa): हज़ार नेत्रों वाला। आत्मा का वह जाग्रत पक्ष जो सर्वदर्शी है, जो भीतर-बाहर सब देखता है और कहीं भी मोह में नहीं फँसता।

    मघवा (Maghavā): दानशील, उदार। आत्मा का वह रूप जो आत्म-ज्ञान, सत्य और धर्म का दान करता है। लोभ और संग्रह से परे उदारता में स्थित रहता है।

    पाकशासन (Pākashāsana): अधर्म और पाप का संहारक। आत्मा का वह तेजस्वी रूप जो काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं का नाश करता है।


    इन्द्र का ऐश्वर्य दार्शनिक अर्थ:

    इन्द्र केवल शक्ति का देवता नहीं, वह ऐश्वर्यवाची भी है। 'इन्द्र' का अर्थ है — 'श्रेष्ठ, प्रमुख, सर्वश्रेष्ठ'। आत्मा का वह रूप जो इन्द्रियों का अधिपति बनकर आत्मवैभव को प्राप्त करता है। जब आत्मा इन्द्रियों पर शासन कर लेती है, तब वह बाह्य भोगों की दासी नहीं रह जाती, बल्कि अपने भीतर के दिव्य ऐश्वर्य, ज्ञान, शांति और आनन्द को प्राप्त करती है।

    इन्द्र वर्षा के अधिपति भी हैं। वर्षा का अर्थ है — जीवन में संभावनाओं और समृद्धि की वर्षा। वर्षा धरती को उपजाऊ बनाती है। दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ है — आत्मा का वह स्वरूप, जो अपनी साधना और तप से भीतर की भूमि को उपजाऊ बनाता है, जहाँ ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और मोक्ष के बीज अंकुरित होते हैं।

    अतः इन्द्र ऐश्वर्य, विजय, और आत्म वैभव का वह द्योतक है, जो आत्मा को साधना और विवेक के बल से भीतर समृद्ध और ऊर्जावान बनाता है।


    संक्षिप्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य:

    ऋग्वेद में वर्णित यह युद्ध सुदास और दस राजाओं के मध्य परुष्णी नदी के तट पर घटित हुआ माना जाता है। विश्वामित्र और वसिष्ठ जैसे महर्षियों की भूमिका इस युद्ध में रही। किन्तु यह इतिहास केवल पृष्ठभूमि है, असली युद्ध आत्मा और इन्द्रियों के बीच का है।

     विशेष टिप्पणी — ऐतिहासिक नहीं, आत्मिक युद्ध का रूपक

    यह दशराज्ञ युद्ध मात्र ऐतिहासिक युद्ध नहीं है। ऋग्वेद का यह वर्णन एक आध्यात्मिक रूपक है, जो प्रत्येक साधक के भीतर घटित होता है।
    'दश राजा' — हमारी दस इन्द्रियाँ और मनोविकार हैं। 'सुदास' — वह आत्मा है जो सत्य, धर्म और साधना के बल से विकारों पर विजय पाती है।
    इसलिए इस सूक्त को पढ़ते समय बाह्य इतिहास नहीं, अंतर्यात्रा और आत्मसंघर्ष का चिन्तन आवश्यक है।


    जीवन में उपयोगिता (Practical Relevance):

    यह सूक्त हमें सिखाता है —

    • रोजमर्रा के जीवन में देश इन्द्रियों के दश विकार हमारे 'दशराज्ञ' हैं।
    • आत्मा को अपने भीतर इन्द्र-वरुण रूपी बल और मर्यादा का आह्वान करना चाहिए।
    • आत्मसंयम, सत्य और धर्म ही इस संसार-संग्राम में विजय के शस्त्र हैं।
    • यही अभ्यास जीवन में शांति, संतुलन और मोक्षमार्ग प्रदान करता है।

    उपसंहार:

    ऋग्वेद के ये मंत्र केवल किसी ऐतिहासिक विजय के वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि यह आत्मा के परम संघर्ष का प्रतीक हैं। सत्य, धर्म, आत्मबल और साधना का पथ अपनाकर ही आत्मा इस संसार-सागर से पार हो सकती है। यही इन मंत्रों का सनातन और सार्वकालिक संदेश है।

    ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन


    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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    मंगलवार, 18 मार्च 2025

    यजुर्वेद मे ऋषभ वाची मन्त्र

     

    भगवान ऋषभदेव केवल जैनों के प्रथम तीर्थंकर नहीं हैं. वैदिक संस्कृति में भी उनका उच्च एवं महत्वपूर्ण स्थान है. उत्तर वैदिक काल में रचित भक्ति साहित्य विशेषकर श्रीमद्भगवद एवं विष्णुपुराण में उनका विशिष्ट उल्लेख मिलता है जिससे सामान्य जन भी परिचित हैं. परन्तु मूल वैदिक संहिताओं में भी ऋषभ देव एवं वृषभ शब्द का बारम्बार उल्लेख मिलता है. 

    विशेषकर ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के मन्त्रों में ऋषभ एवं वृषभ शब्दों का उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है. यहाँ पर यजुर्वेद में प्राप्त ऋषभवाची कुछ मन्त्रों का उल्लेख किया जा रहा है. इसी प्रकार ऋग्वेद में प्राप्त ऋषभवाची ऋचाओं का भी संकलन किया जा रहा ही जिसे बाद में प्रस्तुत किया जायेगा. इसी प्रकार दोनों ही वेदों में अनेक वृषभवाची मन्त्र भी हैं, जिनका भी संकलन कर प्रस्तुत किया जायेगा. 

    विद्वज्जनों से निवेदन है की इस प्रकार की और भी ऋषभ या वृषभ वाची मन्त्र उनके ध्यान में हो तो कृपया सूचित करें. वैदिक एवं जैन संस्कृति के समन्वय की दृष्टि से यह अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी है. इस प्रकार के कुछ सूत्रों का अर्थ एवं व्याख्या भी किया गया है, जिसे रुचिशील पाठक यहाँ देख सकते हैं. इस लिंक पर क्लीक कर उन लेखों तक पहुँच सकते हैं. 

    वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


    पूज्य आचार्यों/ मनीषियों से निवेदन है की इस प्रकार सन्दर्भ सहित इन वैदिक मन्त्रों का अर्थ एवं व्याख्या कर सामान्य जनों तक पहुंचाएं एवं भारतीय संस्कृति की इन दो महत्वपूर्ण धाराओं में समन्वय का मार्ग प्रशस्त करें. 

    यजुर्वेद मे ऋषभ वाची मन्त्र 

    1. प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७


    पद पाठ

    प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। च॒। मे॒। प॒ष्ठौ॒ही। च॒। मे॒। उ॒क्षा। च॒। मे॒। व॒शा। च॒। मे॒। ऋ॒ष॒भः। च॒। मे॒। वे॒हत्। च॒। मे॒। अ॒न॒ड्वान्। च॒। मे॒। धे॒नुः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥२७ ॥

    18-27 

    अर्थ एवं व्याख्या:  

    यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ 


    2. होता॑ यक्षदि॒डेडि॒तऽआ॒ जु॒ह्वा॑नः॒ सर॑स्वती॒मिन्द्रं बले॑न व॒र्धय॑न्नृष॒भेण॒ गवे॑न्द्रि॒यम॒श्विनेन्द्रा॑य भेष॒जं यवैः॑ क॒र्कन्धु॑भि॒र्मधु॑ ला॒जैर्न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३२ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। इ॒डा। ई॒डि॒तः। आ॒जुह्वा॑न॒ इत्या॒ऽजुह्वा॑नः। सर॑स्वतीम्। इन्द्र॑म्। बले॑न। व॒र्धय॑न्। ऋ॒ष॒भेण॑। गवा॑। इ॒न्द्रि॒यम्। अ॒श्विना॑। इन्द्रा॑य। भे॒ष॒जम्। यवैः॑। क॒र्कन्धु॑भि॒रिति॑ क॒र्कन्धु॑ऽभिः। मधु॑। ला॒जैः। न। मास॑रम्। पयः॑। सोमः॑। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३२ ॥

    21-32 

    3. होता॑ यक्षद॒ग्नि स्वाहाज्य॑स्य स्तो॒काना॒ स्वाहा॒ मेद॑सां॒ पृथ॒क्स्वाहा॒ छाग॑म॒श्विभ्या॒ स्वाहा॒॑ मे॒षꣳ सर॑स्वत्यै॒ स्वाह॑ऽऋष॒भमिन्द्रा॑य सि॒ꣳहाय॒ सह॑सऽइन्द्रि॒यꣳ स्वाहा॒ग्निं न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॒ सोम॑मिन्द्रि॒यꣳ स्वाहेन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णꣳ सवि॒तारं॒ वरु॑णं भि॒षजां॒ पति॒ꣳ स्वाहा॒ वनस्पतिं॑ प्रि॒यं पाथो॒ न भे॑ष॒जꣳ स्वाहा॑ दे॒वाऽआ॑ज्य॒पा जु॑षा॒णोऽअ॒ग्निर्भे॑ष॒जं पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥४० ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वाहा॑। आज्य॑स्य। स्तो॒काना॑म्। स्वाहा॑। मेद॑साम्। पृथ॑क्। स्वाहा॑। छाग॑म्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। स्वाहा॑। मे॒षम्। सर॑स्वत्यै। स्वाहा॑। ऋ॒ष॒भम्। इन्द्रा॑य। सि॒ꣳहाय॑। सह॑से। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। अ॒ग्निम्। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। सोम॑म्। इ॒न्द्रि॒यम्। स्वाहा॑। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑ण॒मिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। स॒वि॒तार॑म्। वरु॑णम्। भि॒षजा॑म्। पति॑म्। स्वाहा॑। वन॒स्पति॑म्। प्रि॒यम्। पाथः॑। न। भे॒ष॒जम्। स्वाहा॑। दे॒वाः। आ॒ज्य॒पा इत्या॑ज्य॒ऽपाः। जु॒षा॒णः। अ॒ग्निः। भे॒ष॒जम्। पयः॑। सोमः॑ प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। घृ॒तम्। मधु॑। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥४० ॥

    21-40 

    4. होता॑ यक्षद॒श्विनौ॒ छाग॑स्य व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षेता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒त्सर॑स्वतीं मे॒षस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑। होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ व॒पाया॒ मेद॑सो जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४१ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। छाग॑स्य। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षेता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्सर॑स्वतीम्। मे॒षस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑। होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। व॒पायाः॑। मेद॑सः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४१ ॥

    21-41

    5. होता॑ यक्षद॒श्विनौ॒ सर॑स्वती॒मिन्द्र॑ꣳ सु॒त्रामा॑णमि॒मे सोमाः॑ सु॒रामा॑ण॒श्छागै॒र्न मे॒षैर्ऋ॑ष॒भैः सु॒ताः शष्पै॒र्न तोक्म॑भिर्ला॒जैर्मह॑स्वन्तो॒ मदा॒ मास॑रेण॒ परि॑ष्कृताः शु॒क्राः पय॑स्वन्तो॒ऽमृताः॒ प्र॑स्थिता वो मधु॒श्चुत॒स्तान॒श्विना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ वृत्र॒हा जु॒षन्ता॑ सो॒म्यं मधु॒ पिब॑न्तु॒ मद॑न्तु॒ व्यन्तु॒ होत॒र्यज॑ ॥४२ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒श्विनौ॑। सर॑स्वतीम्। इन्द्र॑म्। सु॒त्रामा॑णमिति॑ सु॒ऽत्रामा॑णम्। इ॒मे। सोमाः॑। सु॒रामा॑णः। छागैः॑। न। मे॒षैः। ऋ॒ष॒भैः। सु॒ताः। शष्पैः॑। न। तोक्म॑भिरिति॒ तोक्म॑ऽभिः। ला॒जैः। मह॑स्वन्तः। मदाः॑। मास॑रेण। परि॑ष्कृताः। शु॒क्राः। पय॑स्वन्तः। अ॒मृताः॑। प्र॑स्थिता॒ इति॒ प्रऽस्थि॑ताः। वः॒। म॒धु॒श्चुत॒ इति॑ मधु॒ऽश्चुतः॑। तान्। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। इन्द्रः॑। सु॒त्रामा॑। वृ॒त्र॒हा। जु॒षन्ता॑म्। सो॒म्यम्। मधु॑। पिब॑न्तु। मद॑न्तु। व्यन्तु॑। होतः॑। यज॑ ॥४२ ॥

    21-42 

    6. होता॑ यक्ष॒दिन्द्र॑मृष॒भस्य॑ ह॒विष॒ऽआव॑यद॒द्य म॑ध्य॒तो मेद॒ऽउद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस॑न्नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑दे॒वमिन्द्रो॑ जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४५ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। इन्द्र॑म्। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। आ। अ॒व॒य॒त्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस॑त्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑त्। ए॒वम्। इन्द्रः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४५ ॥

    21-45 

    7. होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑म॒भि हि पि॒ष्टत॑मया॒ रभि॑ष्ठया रश॒नयाधि॑त। यत्रा॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सोम॑स्य प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॑ सवि॒तुः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॑नि यत्र॒ वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॑सि॒ यत्र॑ दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ तत्रै॒तान् प्र॒स्तुत्ये॑वोप॒स्तुत्ये॑वो॒पाव॑स्रक्ष॒द् रभी॑यसऽइव कृ॒त्वी कर॑दे॒वं दे॒वो वन॒स्पति॑र्जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४६ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। अ॒भि। हि। पि॒ष्टत॑म॒येति॑ पि॒ष्टऽत॑मया। रभि॑ष्ठया। र॒श॒नया॑। अधि॑त। यत्र॑। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। स॒वि॒तुः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑ꣳसि। यत्र॑। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। तत्र॑। ए॒तान्। प्र॒स्तुत्ये॒वेति॑ प्र॒ऽस्तुत्य॑ऽइव। उ॒प॒स्तुत्ये॒वेत्यु॑प॒ऽस्तुत्य॑इव। उपाव॑स्रक्ष॒दित्यु॑प॒ऽअव॑स्रक्षत्। रभी॑यसऽइ॒वेति॒ रभी॑यसःइव। कृ॒त्वी। कर॑त्। ए॒वम्। देवः॑। वन॒स्पतिः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४६ ॥

    21-46

    8. होता॑ यक्षद॒ग्निꣳ स्वि॑ष्ट॒कृत॒मया॑ड॒ग्नि॒र॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट्सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ड॒ग्नेः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ट्सोम॑स्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒डिन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॒न्यया॑ट्सवि॒तुः प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॒न्यया॒ड् वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॒स्यया॑ड् दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॑द॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यक्ष॒त्स्वं म॑हि॒मान॒माय॑जता॒मेज्या॒ऽइषः॑ कृ॒णोतु॒ सोऽअ॑ध्व॒रा जा॒तवे॑दा जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑ ॥४७ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। अ॒ग्निम्। स्वि॒ष्ट॒कृत॒मिति॑ स्विष्ट॒ऽकृत॑म्। अया॑ट्। अ॒ग्निः। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। स॒वि॒तुः प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। अया॑ट्। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑सि। अया॑ट्। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यक्ष॑त्। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। य॒क्ष॒त्। स्वम्। म॒हि॒मान॑म्। आ। य॒ज॒ता॒म्। एज्या॒ इत्या॒ऽइज्याः॑। इषः॑। कृ॒णोतु॑। सः। अ॒ध्व॒रा। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४७ ॥

    21-47
     

    9. दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णोऽअ॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या सुपिप्प॒लऽइन्द्रा॑य पच्यते॒ मधु॑। ओजो॒ न जू॒ति॑र्ऋ॑ष॒भो न भामं॒ वन॒स्पति॑र्नो॒ दध॑दिन्द्रि॒याणि॑ वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥५६ ॥


    पद पाठ

    दे॒वः। दे॒वैः। वन॒स्पतिः॑। हिर॑ण्यवर्ण॒ इति॒ हिर॑ण्यऽवर्णः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्या। सु॒पि॒प्प॒ल इति॑ सुऽपिप्प॒लः। इन्द्रा॑य। प॒च्य॒ते॒। मधु॑। ओजः॑। न। जू॒तिः। ऋ॒ष॒भः। न। भाम॑म्। वन॒स्पतिः॑। नः॒। दध॑त्। इ॒न्द्रि॒याणि॑। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥५६ ॥

    21-56 

    10. अ॒ग्निम॒द्य होता॑रमवृणीता॒यं यज॑मानः॒ पच॒न् पक्तीः॒ पच॑न् पुरो॒डाशा॑न् ब॒ध्नन्न॒श्विभ्यां॒ छाग॒ꣳ सर॑स्वत्यै मे॒षमिन्द्रा॑यऽऋष॒भꣳ सु॒न्वन्न॒श्विभ्या॒ सर॑स्वत्या॒ऽइन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ सुरासो॒मान् ॥५९ ॥


    पद पाठ

    अ॒ग्निम्। अ॒द्य। होता॑रम्। अ॒वृणी॒त॒। अ॒यम्। यज॑मानः। पच॑न्। पक्तीः॑। पच॑न्। पु॒रो॒डाशा॑न्। ब॒ध्नन्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। छाग॑म्। सर॑स्वत्यै। मे॒षम्। इन्द्रा॑य। ऋ॒ष॒भम्। सु॒न्वन्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। सर॑स्वत्यै। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति सु॒ऽत्राम्णे॑। सु॒रा॒सो॒मानिति॑ सुराऽसो॒मान् ॥५९ ॥

    21-59 

    11. सू॒प॒स्थाऽअ॒द्य दे॒वो वन॒स्पति॑रभवद॒श्विभ्यां॒ छागे॑न॒ सर॑स्वत्यै मे॒षेणेन्द्रा॑यऽऋष॒भेणाक्षँ॒स्तान् मे॑द॒स्तः प्रति॑ पच॒तागृ॑भीष॒तावी॑वृधन्त पुरो॒डाशै॒रपु॑र॒श्विना॒ सर॑स्व॒तीन्द्रः॑ सु॒त्रामा॑ सुरासो॒मान् ॥६० ॥


    पद पाठ

    सू॒प॒स्था इति॑ सुऽउप॒स्थाः। अ॒द्य। दे॒वः। वन॒स्पतिः॑। अ॒भ॒व॒त्। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। छागे॑न। सर॑स्वत्यै। मे॒षेण॑। इन्द्रा॑य। ऋ॒ष॒भेण॑। अक्ष॑न्। तान्। मे॒द॒स्तः। प्रति॑। प॒च॒ता। अगृ॑भीषत। अवी॑वृधन्त। पु॒रो॒डाशैः॑। अपुः॑। अ॒श्विना॑। सर॑स्वती। इन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। सु॒रा॒सो॒मानिति॑ सुराऽसो॒मान् ॥६० ॥

    21-60 


    12. उ॒न्न॒त ऋ॑ष॒भो वा॑म॒नस्तऽऐ॑न्द्रावैष्ण॒वाऽउ॑न्न॒तः शि॑तिबा॒हुः शि॑तिपृ॒ष्ठस्तऽऐ॑न्द्राबार्हस्प॒त्याः शुक॑रूपा वाजि॒नाः क॒ल्माषा॑ऽआग्निमारु॒ताः श्या॒माः पौ॒ष्णाः ॥७ ॥


    पद पाठ

    उ॒न्न॒त इत्यु॑त्ऽन॒तः। ऋ॒ष॒भः। वा॒म॒नः। ते। ऐ॒न्द्रा॒वै॒ष्ण॒वाः। उ॒न्न॒त इत्यु॑त्ऽन॒तः। शि॒ति॒बा॒हुरिति॑ शितिऽबा॒हुः। शि॒ति॒पृ॒ष्ठ इति॑ शितिऽपृ॒ष्ठः। ते। ऐ॒न्द्रा॒बा॒र्ह॒स्प॒त्याः। शुक॑रू॒पा इति॒ शुक॑ऽरू॒पाः। वा॒जि॒नाः। क॒ल्माषाः॑। आ॒ग्नि॒मा॒रु॒ता इत्या॑ग्निमारु॒ताः। श्या॒माः। पौ॒ष्णाः ॥७ ॥

    24-7 

    13. प॒ष्ठ॒वाहो॑ वि॒राज॑ऽउ॒क्षाणो॑ बृह॒त्याऽऋ॑ष॒भाः क॒कुभे॑ऽन॒ड्वाहः॑ प॒ङ्क्त्यै धे॒नवोऽति॑छन्दसे ॥१३ ॥


    पद पाठ

    प॒ष्ठ॒वाह॒ इति॑ पष्ठ॒वाहः॑। वि॒राज॒ इति॑ वि॒ऽराजे॑। उ॒क्षाणः॑। बृ॒ह॒त्यै। ऋ॒ष॒भाः। क॒कुभे॑। अ॒न॒ड्वाहः॑। प॒ङ्क्त्यै। धे॒नवः॑। अति॑छन्दस॒ऽइत्यति॑ऽछन्दसे ॥१३।

    24-13  

    14. होता॑ यक्ष॒त् स्वाहा॑कृतीर॒ग्निं गृ॒हप॑तिं॒ पृथ॒ग्वरु॑णं भेष॒जं कविं॑ क्ष॒त्रमिन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्। अति॑च्छन्दसं॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं बृ॒हदृ॑ष॒भं गां वयो॒ दध॒द् व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑ ॥३४ ॥


    पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। स्वाहा॑कृती॒रिति॒ स्वाहा॑ऽकृतीः। अ॒ग्निम्। गृ॒हप॑ति॒मिति॑ गृ॒हऽप॑तिम्। पृथ॑क्। वरु॑णम्। भे॒ष॒जम्। क॒विम्। क्ष॒त्रम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। अति॑छन्दस॒मित्यति॑ऽछन्दसम्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। बृ॒हत्। ऋ॒ष॒भम्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। व्यन्तु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥३४ ॥

    28-34  


    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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    सोमवार, 17 मार्च 2025

    यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ

    भूमिका

    यजुर्वेद (18.27) का यह मंत्र वैदिक संस्कृति में पशुपालन, कृषि, और यज्ञ की महत्ता को दर्शाता है। इसमें उत्तम बैल, गाय, और अन्य पशुओं की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है, जो प्राचीन भारतीय समाज की आर्थिक एवं आध्यात्मिक समृद्धि का प्रतीक थे। वैदिक परंपरा में पशुओं को केवल कृषि एवं दुग्ध उत्पादन के साधन के रूप में ही नहीं, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों, यज्ञीय कर्मों, एवं सामाजिक उन्नति के लिए भी महत्वपूर्ण माना गया है।

    इस मंत्र का व्याकरणीय विश्लेषण करने से इसके प्रत्येक पद का शाब्दिक, धात्विक, एवं भाषिक अर्थ स्पष्ट होता है। साथ ही, "ऋषभ" शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के रूप में भी प्रतिष्ठित है। भगवान ऋषभदेव ने कृषि, पशुपालन, और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी, जिससे यह मंत्र जैन दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण बन जाता है।

    असि, मसि, कृषि के आद्य प्रणेता ऋषभदेव: मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ

    इस लेख में हम इस मंत्र के संहितापाठ, पदपाठ, व्याकरणीय विश्लेषण, अन्वय, एवं वैदिक संदर्भों का अध्ययन करेंगे। साथ ही, जैन दर्शन के दृष्टिकोण से इसकी व्याख्या करेंगे, जिससे यह स्पष्ट होगा कि यह मंत्र केवल लौकिक अर्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गहरी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

    यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत व्याकरणीय विश्लेषण - भाग 1

    (🔹 भाग 1: मंत्र पाठ, पदपाठ एवं व्याकरणीय विश्लेषण)


    1. संहितापाठ एवं पदपाठ

    संहितापाठ:

    "प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

    पदपाठ:

    "प॒ष्ठ॒वाडिति॑ पष्ठ॒ऽवाट्। च॒। मे॒। प॒ष्ठौ॒ही। च॒। मे॒। उ॒क्षा। च॒। मे॒। व॒शा। च॒। मे॒। ऋ॒ष॒भः। च॒। मे॒। वे॒हत्। च॒। मे॒। अ॒न॒ड्वान्। च॒। मे॒। धे॒नुः। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥"


    2. पदों का व्याकरणीय विश्लेषण

    शब्द वर्ण विचार (उच्चारण) रूप विचार (शब्द रूप) व्याकरण (विभक्ति, लिंग, वचन) सामान्य अर्थ
    पष्ठवाट् प॒ष्ठ॒-वा-ट् पष्ठवाट् (संयुक्त शब्द) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन अच्छा बैल, उत्तम पशु
    च॑ अव्यय - और, तथा
    मे मे॒ सर्वनाम चतुर्थी विभक्ति, एकवचन मेरे लिए
    पष्ठौही प॒ष्ठौ॒ही पष्ठौही स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन अच्छी गाय
    उक्षा उ॒क्षा उक्षा (धातु "उक्ष" से बना) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन साँड, बैल
    वशा व॒शा वशा स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन दुधारू गाय
    ऋषभः ऋ॒ष॒भः ऋषभ (विशेषण) पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन श्रेष्ठ, बलशाली बैल
    वेहत् वे॒हत् वेहत् पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन विशिष्ट बैल
    अनड्वान् अ॒न॒ड्वान् अनड्वान् पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन हल में जोता न गया बैल
    धेनुः धे॒नुः धेनु स्त्रीलिंग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन गाय
    यज्ञेन य॒ज्ञेन॑ यज्ञ तृतीया विभक्ति, एकवचन यज्ञ के द्वारा
    कल्पन्ताम् क॒ल्प॒न्ता॒म् कल्प् (धातु) लोट लकार, प्रार्थनार्थक रूप, बहुवचन योग्य हो, अनुकूल हों

    3. अन्वय 

    "पष्ठवाट् च मे, पष्ठौही च मे, उक्षा च मे, वशा च मे, ऋषभः च मे, वेहत् च मे, अनड्वान् च मे, धेनुः च मे, यज्ञेन कल्पन्ताम्।"

    🔹 सरल अन्वय:
    "अच्छे बैल, अच्छी गाय, बलशाली बैल, विशिष्ट बैल, हल में न जोता गया बैल, दुधारू गाय – ये सब मेरे लिए यज्ञ से अनुकूल हों।"


    4. व्याकरणीय विशेषताएँ और विशेष व्याख्या

    1. पष्ठवाट्, उक्षा, वशा, ऋषभ, वेहत, अनड्वान, धेनु – सभी संज्ञाएँ हैं।
    2. यज्ञेन – तृतीया विभक्ति में "करण कारक" है, अर्थात यज्ञ के माध्यम से इनका कल्याण हो।
    3. कल्पन्ताम् – लोट लकार में बहुवचन रूप, जो इच्छा या प्रार्थना का सूचक है।


    यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत विश्लेषण - भाग 2

    (🔹 भाग 2: अन्वय पाठ, सामान्य अर्थ एवं वैदिक संदर्भ)


    1. अन्वय पाठ (व्याकरणीय क्रम में सार्थक संकलन)

    संहितापाठ:
    "प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

    अन्वय (व्याकरण के अनुसार क्रमबद्धता):
    "पष्ठवाट् च मे कल्पन्ताम्, पष्ठौही च मे कल्पन्ताम्, उक्षा च मे कल्पन्ताम्, वशा च मे कल्पन्ताम्, ऋषभः च मे कल्पन्ताम्, वेहत् च मे कल्पन्ताम्, अनड्वान् च मे कल्पन्ताम्, धेनुः च मे कल्पन्ताम्। यज्ञेन कल्पन्ताम्।"

    🔹 सरल अन्वय:
    "हे यज्ञ! उत्तम बैल, उत्तम गाय, बलशाली बैल, विशेष बैल, हल में न जोता गया बैल, दुधारू गाय – ये सब मेरे लिए तुम्हारे माध्यम से अनुकूल हो जाएँ।"

    स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसका निम्न प्रकार से अर्थ किया है. 

     स्वामी जी ने पष्ठवाट् का अर्थ पीठ से भार उठानेवाले मेरे हाथी, ऊँट आदि, पष्ठौही का अर्थ पीठ से भार उठाने वाली  घोड़ी, ऊँटनी आदि अर्थ किया है. उन्होंने पशुशिक्षा को यज्ञकर्म कहा है. अर्थात जो पशुओं को अच्छी शिक्षा देके कार्यों में सयुक्त करते हैं, वे अपने प्रयोजन सिद्ध करके सुखी होते हैं.



     





    2. सामान्य अर्थ एवं व्याख्या

    (क) सामान्य अर्थ - लौकिक संदर्भ में

    विशेष रूप से यज्ञ के माध्यम से इस मंत्र में उत्तम पशुओं की प्राप्ति की कामना की गई है। पशु, विशेष रूप से बैल और गाय, प्राचीन वैदिक समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण थे।

    🔹 शब्दों के अर्थ एवं संदर्भ:

    1. पष्ठवाट् – उत्तम बैल, जो खेती एवं भार वहन के लिए उपयुक्त हो।
    2. पष्ठौही – उत्तम गाय, जो दूध देने में श्रेष्ठ हो।
    3. उक्षा – बलशाली साँड, प्रजनन एवं कृषि कार्य के लिए उपयोगी।
    4. वशा – विशेष रूप से उपयोगी गाय, जो अधिक दूध देती हो।
    5. ऋषभः – सर्वोत्तम बैल, नेतृत्व करने वाला पशु।
    6. वेहत् – बलवान, विशिष्ट प्रजाति का बैल।
    7. अनड्वान् – ऐसा बैल जिसे हल में न जोता गया हो, शुद्ध एवं स्वतंत्र।
    8. धेनुः – गाय, जो पोषण एवं समृद्धि का प्रतीक है।
    9. यज्ञेन कल्पन्ताम् – इन सभी पशुओं को यज्ञ के द्वारा अनुकूल बनाया जाए, जिससे वे हमारे जीवन में समृद्धि लाएँ।

    👉 वैदिक संस्कृति में, यज्ञ के माध्यम से समृद्धि की प्राप्ति की कामना की जाती थी, जिसमें उत्तम पशुधन की प्राप्ति अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती थी।


    (ख) वैदिक संदर्भ एवं पुरातन संस्कृति में इस मंत्र का स्थान

    1. पशुधन का महत्व: वैदिक काल में पशुधन समृद्धि एवं शक्ति का प्रतीक था। उत्तम बैल एवं गायें कृषि एवं दुग्ध उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
    2. यज्ञ की भूमिका: यह मंत्र इस विश्वास को प्रकट करता है कि यज्ञ करने से श्रेष्ठ पशु प्राप्त हो सकते हैं, जो समाज की उन्नति के लिए आवश्यक हैं।
    3. ऋषभ का महत्त्व: "ऋषभ" शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में श्रेष्ठता, अग्रणी शक्ति एवं आध्यात्मिक नेतृत्व के लिए किया जाता है।

    3. वैदिक मंत्रों से तुलनात्मक दृष्टि

    ऋग्वेद में भी पशुधन की समृद्धि के लिए मंत्र मिलते हैं, जैसे –

    • ऋग्वेद (1.162.2): "गोमन्तं अनड्वानं अश्वावन्तं हविष्मन्तं पुरुषं न इष्टे।"
      • इसमें भी गो, अनड्वान, अश्व एवं अन्य पशुओं की प्राप्ति की कामना की गई है।

    यजुर्वेद में पशुधन और यज्ञ का संबंध कई मंत्रों में दिखता है, जैसे –

    • यजुर्वेद (12.71): "धेनुर्मे रसमायुषं दधातु।"
      • यहाँ धेनु (गाय) को आयु एवं रस (जीवनशक्ति) देने वाली बताया गया है।

    📌 स्पष्ट है कि वैदिक परंपरा में पशुओं को केवल आर्थिक साधन ही नहीं, बल्कि धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का भी कारक माना गया है।


    निष्कर्ष

    ✅ यह मंत्र उत्तम पशुओं की प्राप्ति एवं उनके कल्याण की कामना से संबंधित है।
    ✅ यज्ञ को इन पशुओं की वृद्धि एवं शुद्धि का माध्यम माना गया है।
    ✅ ऋषभ (श्रेष्ठ बैल) यहाँ विशेष स्थान रखता है, जो जैन परिप्रेक्ष्य में भी महत्वपूर्ण होगा।

    यजुर्वेद मंत्र (18.27) का विस्तृत विश्लेषण - भाग 3

    (🔹 भाग 3: जैन दृष्टि से विश्लेषण एवं निष्कर्ष)


    1. मंत्र में "ऋषभ" का जैन दृष्टि से विश्लेषण

    मूल मंत्र:
    "प॒ष्ठ॒वाट् च॑ मे पष्ठौ॒ही च॑ मऽउ॒क्षा च॑ मे व॒शा च॑ मऽऋष॒भश्च॑ मे वे॒हच्च॑ मेऽन॒ड्वाँश्च॑ मे धेनु॒श्च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥२७ ॥"

    🔹 "ऋषभ" शब्द की व्याख्या:

    1. वैदिक दृष्टि से:

      • यहाँ "ऋषभ" का सामान्य अर्थ है श्रेष्ठ बैल, जो कृषि एवं पशुधन के लिए उपयोगी होता है।
      • वैदिक साहित्य में "ऋषभ" का प्रयोग बलशाली, सर्वोत्तम, एवं नेतृत्वकर्ता के रूप में किया जाता है।
    2. जैन दृष्टि से:

      • जैन परंपरा में "ऋषभ" केवल एक बलशाली बैल का प्रतीक नहीं, बल्कि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का नाम है।
      • भगवान ऋषभदेव ही प्रथम युगपुरुष माने जाते हैं, जिन्होंने मनुष्यों को कृषि, पशुपालन, लेखन, शस्त्रविद्या (असि), व्यापार (वाणिज्य) और अन्य आवश्यक कलाओं का ज्ञान दिया।
      • जैन आगमों के अनुसार, ऋषभदेव ने मानव समाज को सर्वप्रथम संगठित एवं शिक्षित किया।  
      • यह मंत्र इस विचार को संकेत कर सकता है कि ऋषभदेव के मार्गदर्शन से मानव जाति ने पशुपालन, कृषि आदि की व्यवस्था सीखी।

    🔹 संभावित जैन-वैदिक संबंध:

    • यदि "ऋषभ" का अर्थ केवल "श्रेष्ठ बैल" लिया जाए, तब भी यह ऋषभदेव के युग में हुई कृषि क्रांति का प्रतीक हो सकता है।
    • यदि "ऋषभ" को प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में लिया जाए, तो यह मंत्र उनकी शिक्षा, कृषि संस्कृति, एवं समाज व्यवस्था को प्रतिबिंबित करता है।

    2. यज्ञ और जैन परिप्रेक्ष्य

    मंत्र में "यज्ञ" का प्रयोग:
    "य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम्" – वैदिक दृष्टि से इस मंत्र में यहाँ "यज्ञ" के माध्यम से पशुधन की समृद्धि की बात कही गई है।

    🔹 जैन दृष्टि से यज्ञ का अर्थ:

    1. वेदों में यज्ञ:

      • ऐसा कहा जाता है की वैदिक यज्ञों में प्राचीनकाल में पशुबलि दी जाती थी।
      • यह मंत्र पशुओं की समृद्धि की प्रार्थना कर रहा है, जो संभवतः यज्ञीय पशुबलि के विरोध में कहा गया हो
      • जैन धर्म  वैदिक पशुबलि-प्रधान यज्ञों का विरोध करता है.  
    2. जैन दृष्टि से यज्ञ:

      • "यज्ञ" का वास्तविक अर्थ है – आत्मशुद्धि एवं सत्य की साधना।
      • जैन धर्म में यज्ञ = अहिंसा, दान, त्याग, स्वाध्याय एवं तप।
      • यह मंत्र ऋषभदेव द्वारा स्थापित अहिंसा पर आधारित कृषि एवं समाज संरचना को भी प्रतिबिंबित करता है।

    3. अन्य पदों का जैन संदर्भ में विश्लेषण

    वैदिक शब्द लौकिक संदर्भ जैन संदर्भ
    पष्ठवाट् (श्रेष्ठ बैल) उत्तम कृषि बैल ऋषभदेव द्वारा स्थापित कृषि संस्कृति
    पष्ठौही (श्रेष्ठ गाय) उत्तम दुग्ध गाय गौ-पालन एवं अहिंसक समाज निर्माण
    उक्षा (साँड) बलशाली पशु ऋषभदेव द्वारा सिखाई गई कृषि में प्रयुक्त
    वशा (दुग्धगाय) दूध देने वाली गाय गौ-पालन से प्राप्त आहार व्यवस्था
    अनड्वान (हल में न जोता गया बैल) स्वतंत्र बैल आत्म-संयम एवं मोक्ष-मार्ग का प्रतीक
    धेनु (गाय) दूध देने वाली माता अहिंसा, करुणा एवं परोपकार का प्रतीक
    ऋषभ श्रेष्ठ बैल ऋषभदेव – प्रथम तीर्थंकर, जिन्होंने सभ्यता को दिशा दी
    यज्ञेन कल्पन्ताम् (यज्ञ द्वारा योग्य हों) यज्ञ के माध्यम से पशुधन का विकास अहिंसा, त्याग, तपस्या द्वारा समाज उन्नति

    4. निष्कर्ष – जैन दृष्टि से मंत्र का व्यापक अर्थ

    📌 1. "ऋषभ" शब्द का प्रयोग बैल के लिए नहीं, बल्कि शिक्षा प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के लिए भी किया गया है. 
    📌 2. यह मंत्र कृषि एवं पशुपालन के विकास की बात करता है, जो ऋषभदेव द्वारा स्थापित सभ्यता के अनुरूप है।
    📌 3. "यज्ञ" का अर्थ यहाँ आत्म-संयम, शुद्धि एवं धर्म का पालन भी लिया जा सकता है, जो जैन दृष्टि से स्वीकार्य है।
    📌 4. पशुबलि-प्रधान यज्ञों का विरोध करते हुए, इस मंत्र में पशुओं की समृद्धि की बात की गई है, जो अहिंसक समाज व्यवस्था की ओर संकेत करता है।

    अतः यह मंत्र वैदिक कृषि, ऋषभदेव की शिक्षाओं, एवं अहिंसा आधारित सामाजिक व्यवस्था के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध स्थापित कर सकता है।

    📌 इस मंत्र का व्यापक अर्थ यह दर्शाता है कि भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्था और वैदिक युग की कृषि आधारित संरचना में कई समानताएँ थीं।

    📌 यज्ञ, कृषि, एवं पशुपालन को ऋषभदेव की शिक्षाओं से जोड़कर देखा जा सकता है, जो अहिंसा एवं समाज-व्यवस्था की आधारशिला बने।

    ✅ भाग 1: मंत्र पाठ, पदपाठ एवं व्याकरणीय विश्लेषण।
    ✅ भाग 2: अन्वय पाठ, सामान्य अर्थ एवं वैदिक संदर्भ।
    ✅ भाग 3: जैन दृष्टि से गहन विश्लेषण एवं निष्कर्ष।

    ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


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    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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    असि, मसि, कृषि के आद्य प्रणेता ऋषभदेव: मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ


    ऋषभदेव द्वारा समाज, शिक्षा एवं अर्थव्यवस्था का निर्माण

    भूमिका

    भगवान ऋषभदेव केवल पहले तीर्थंकर ही नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के प्रथम मार्गदर्शक भी थे। उन्होंने मनुष्यों को संस्कृति, शिक्षा, कृषि, व्यापार एवं अर्थव्यवस्था का प्रथम ज्ञान प्रदान किया। इससे पूर्व मानव समाज पूर्णतः असंगठित था, लोग वनों में रहते थे. वृक्षों से प्राप्त फलादि का भोजन करते थे. जैन शास्त्रों में इन्हे कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है जो इन सरल प्रकृति के मनुष्यों की सभी सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता था. उस समय कृषि, पशुपालन, व्यापार यहाँ तक की अग्नि का उपयोग भी नहीं जानते थे.  

    जैन शास्त्रों के अनुसार ऋषभदेव ने भरत क्षेत्र को अकर्मभूमि से कर्मभूमि में रूपांतरित किया. शिक्षा, कला एवं ज्ञानहीन जनसमुदाय को विभिन्न प्रकार की शिक्षा देकर उन्हें योग्य एवं कर्मशील बनाया. प्रत्येक व्यक्तो को उसकी आतंरिक योग्यता के अनुसार शिक्षा दे कर समाजव्यवस्था की संरचना में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने शारीरिक अवस्थाओं के अनुसार स्त्री एवं पुरुषों को अलग अलग प्रकार की विद्या एवं कला का ज्ञान दिया. 

    ऋषभदेव ने मनुष्यों को चार प्रमुख विधाएँ सिखाईं, इसलिए उन्हें इन विद्याओं का आद्यप्रणेता कहा जाता है. ये विद्याएं आज भी मानव सभ्यता को आलोकित कर रही है. अतः वे मानव सभ्यता और समाज निर्माण के आधारस्तंभ माने जाते हैं. 

    1. असि (शस्त्रविद्या एवं सुरक्षा व्यवस्था)
    2. मसि (लेखन कला एवं ज्ञान प्रसार)
    3. कृषि (खेती एवं पशुपालन)
    4. शिल्प एवं पुरुषों की 72 तथा स्त्रियों की 64 कलाएँ
    ऋषभदेव की महिमा केवल जैन शास्त्रों में ही नहीं अपितु वेद-पुराणों में भी वर्णित है. ऋग्वेद, यजुर्वेद, विष्णुपुराण, आदिपुराण, श्रीमद्भागवत आदि अनेक वैदिक ग्रंथों में उनकी महिमा का गान किया गया है. 

    1. असि (शस्त्रविद्या) – समाज में अनुशासन एवं सुरक्षा की स्थापना

    🔹 ऋषभदेव ने आत्मरक्षा के लिए शस्त्रविद्या (असि) की शिक्षा दी, जिससे समाज में अनुशासन एवं सुरक्षा बनी रहे।
    🔹 इस विद्या से समाज को संरक्षा, युद्ध नीति, एवं सामूहिक व्यवस्था का ज्ञान मिला।
    🔹 उन्होंने समाज को सिखाया कि हिंसा केवल रक्षा के लिए होनी चाहिए, आक्रमण के लिए नहीं।

    👉 अर्थव्यवस्था में योगदान: राज्य की स्थापना के लिए सैन्य बल आवश्यक था, जो व्यापार, कृषि एवं अन्य कार्यों की रक्षा कर सके। असि विद्या के बिना सुशासन एवं समाज को संगठित करना कठिन था।

    2. मसि (लेखन, शिक्षा एवं ज्ञान का प्रसार)

    🔹 ऋषभदेव ने सर्वप्रथम लिपि का विकास किया एवं  लेखन कला (मसि) का ज्ञान दिया, जिससे भाषा एवं ज्ञान संरक्षित किया जा सके।
    🔹लिपि के बिना संस्कृति का विकास कठिन था।
    🔹 इससे मनुष्य अपने अनुभवों, सिद्धांतों, व्यापारिक सौदों एवं समाज के नियमों को लिखकर भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचा सका।
    🔹 इससे अध्ययन, प्रशासन एवं ज्ञानार्जन की परंपरा को वल मिला। 

    3. कृषि (खेती एवं पशुपालन) – आत्मनिर्भर समाज की नींव

    🔹 ऋषभदेव के पूर्व मानव वनों में रहता था एवं भोजन के लिए फल-फूल आदि पर निर्भर था।
    🔹 उन्होंने पहली बार कृषि (खेती करने की विधि) सिखाई, जिससे मानव भोजन के लिए आत्मनिर्भर हो सके।
    🔹 उन्होंने सिखाया कि कौन-से बीज बोने चाहिए, किस ऋतु में क्या उगता है, एवं सिंचाई कैसे करनी चाहिए।
    🔹 इसके साथ ही उन्होंने गौ-पालन एवं पशुपालन की परंपरा भी स्थापित की।

     कृषि एवं पशुपालन ने ही प्राथमिक रूप से वाणिज्य की प्रक्रिया प्रारम्भ करने में योगदान दिया. 

    👉 अर्थव्यवस्था में योगदान: खेती एवं पशुपालन ने व्यापार एवं संपन्नता को जन्म दिया। अतिरिक्त उत्पादन से वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) की परंपरा शुरू हुई।

    4. 72 एवं 64 कलाएँ – पूर्ण समाज की स्थापना

    ऋषभदेव ने न केवल शस्त्र, लेखन एवं कृषि का ज्ञान दिया, बल्कि कला, शिल्प एवं विज्ञान को भी बढ़ावा दिया।
    उन्होंने पुरुषों को 72 कलाएँ एवं स्त्रियों को 64 कलाएँ सिखाईं, जिससे समाज का बहुआयामी विकास हो सके।

    (क) 72 पुरुषों की कलाएँ – शिल्प एवं व्यापार का विकास

    🔹 इनमें अभियांत्रिकी, स्थापत्य कला, धातु विज्ञान, आभूषण निर्माण, अश्वविद्या, रथ सञ्चालन, चिकित्सा, संगीत, योग, वस्त्र निर्माण, व्यापार, प्रशासन, गणित, ज्योतिष एवं अन्य तकनीकी विधाएँ शामिल थीं। इससे पुरुष समाज श्रम, व्यापार, एवं शासन व्यवस्था में दक्ष हुआ।

    (ख) 64 स्त्रियों की कलाएँ – समाज एवं संस्कृति का संवर्धन

    🔹 स्त्रियों को भी विभिन्न कलाओं का ज्ञान दिया गया, जिनमें चित्रकला, संगीत, नृत्य, पाककला, वस्त्र निर्माण, सौंदर्य शास्त्र, चिकित्सा, कढ़ाई, लेखन एवं अन्य विधाएँ थीं। इससे समाज में संस्कृति, कला, एवं पारिवारिक संगठन का विकास हुआ।

    ध्यान देने योग्य बात ये है की ऋषभदेव ने पाककला जैसी कुछ बहु उपयोगी कला पुरुष एवं स्त्री दोनों की सिखलाई. इन कलाओं का समावेश 72 एवं 64 दोनों प्रकार की कलाओं में है. 

    👉 अर्थव्यवस्था एवं समाज व्यवस्था में योगदान:
    ✔ शिल्प और व्यापार ने अर्थव्यवस्था को गति दी।
    ✔ तकनीकी कौशल से समाज में नवाचार (Innovation) आया।
    ✔ स्थापत्य कला (Architecture) ने नगर निर्माण की शुरुआत की।


    ऋषभदेव द्वारा समाज निर्माण की प्रमुख उपलब्धियाँ

    1. शासन व्यवस्था: ऋषभदेव से इक्ष्वाकु वंश प्रारम्भ हुआ. वे इस अवसर्पिणी काल में पहले राजा बने, जिन्होंने शासन की एक व्यवस्थित प्रणाली स्थापित की। उन्होंने विनीता नगरी (अयोध्या) को अपनी राजधानी बनाई. 

    उनके दीक्षा लेने के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत ने अपने राज्य का विस्तार किया और इस आर्यावर्त के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट बने. उन्हीके नाम से इस भूमि का नाम भारत हुआ. 
     2. कृषि विद्या: खेती एवं पशुपालन की शुरुआत कर मनुष्य को आत्मनिर्भर बनाया।
     3. व्यापार: वस्तु-विनिमय प्रणाली एवं अर्थव्यवस्था की नींव रखी।
     4. सैन्य एवं सुरक्षा: असि विद्या (शस्त्र विद्या) द्वारा समाज की रक्षा के लिए व्यवस्था बनाई।
     5. ज्ञान एवं शिक्षा: मसि विद्या (लेखन कला) से शिक्षा प्रणाली की शुरुआत की।
     6. कला एवं शिल्प: 72 एवं 64 कलाओं की शिक्षा देकर समाज में कुशलता एवं संस्कृति का विकास किया।
     7. सामाजिक व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था की प्राचीनतम नींव रखी (राजनीति, व्यापार, शिल्प, एवं कृषि में विशेषज्ञता के अनुसार वर्गीकरण हुआ, अर्थात कर्मानुसार वर्ण; जो बाद में विकृत होकर जातिवाद में बदल गया)।
     8. वैराग्य एवं मोक्षमार्ग: अंत में, उन्होंने राजपाट त्यागकर दीक्षा ली, केवलज्ञान प्राप्त किया, सर्वज्ञ बनकर उपदेश दिया और त्याग और मोक्ष की राह दिखलाई। उन्होंने उस काल में इस भूमि पर श्रमण संस्कृति की नींव रखी. 


    निष्कर्ष

    ऋषभदेव केवल धार्मिक गुरु नहीं, बल्कि पहले समाज सुधारक एवं शिक्षक थे।
    उन्होंने शस्त्रविद्या, लेखन, कृषि, व्यापार, एवं कला-संस्कृति का ज्ञान देकर समाज को संगठित किया।
    आज की अर्थव्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा प्रणाली, एवं वैज्ञानिक सोच का प्रारंभिक आधार उन्होंने रखा।
    उनकी शिक्षा से ही समाज व्यवस्थित हुआ, जिससे बाद में नगर, राज्य, एवं सभ्यताओं का निर्माण हुआ।
    वे केवल एक महान तीर्थंकर ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के प्रथम पथप्रदर्शक भी थे। 


    अतः ऋषभदेव का योगदान केवल धार्मिक क्षेत्र में नहीं, बल्कि समाज, शासन, अर्थव्यवस्था एवं विज्ञान के हर क्षेत्र में अतुलनीय है।
    📖 उनकी शिक्षाएँ आज भी प्रेरणा देती हैं कि कैसे आत्मनिर्भरता, अनुशासन, और ज्ञान द्वारा समाज को उन्नत किया जा सकता है।

    वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि



    Thanks, 
    Jyoti Kothari 
    (Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, to Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also an ISO 9000 professional)

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