I. मूल संस्कृत मंत्र (संहितापाठ एवं पदपाठ):
अर्हन्न् बिभर्षि सायकानि धन्वा
अर्हन्निष्कं यजतं विश्वरूपम् ॥
अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं
न वा ओजीयः रुद्रत्वदस्ति ॥
पदपाठ:
अर्हन् बिभर्षि सायकानि धन्वा |
अर्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपम् ||
अर्हन् इदं दयसे विश्वम् अभ्वम् |
न वा ओजीयः रुद्रत्वदस्ति ||
II. सायण भाष्य (वैदिक कर्मकाण्डीय दृष्टिकोण से व्याख्या)
🔹 सायणाचार्य के अनुसार, यह मंत्र रुद्र की शक्ति, उनके यज्ञीय स्वरूप और उनकी कृपा को दर्शाता है।
🔥 सायण भाष्य का मूल अर्थ:
(1) "अर्हन् बिभर्षि सायकानि धन्वा"
👉 हे रुद्र! आप अपने धनुष और बाण धारण करते हैं, जो कि रोगों एवं विघ्नों के नाशक हैं।
🔹 सायणाचार्य कहते हैं कि यह यहाँ यज्ञीय अर्थ में प्रयोग हुआ है।
- धनुष = यज्ञीय शक्ति का प्रतीक
- सायक (बाण) = पापों एवं रोगों के नाशक यज्ञीय मन्त्र
तात्पर्य: रुद्र अपने धनुष एवं बाणों के माध्यम से रोगों, शत्रुओं एवं अनिष्ट शक्तियों का नाश करते हैं।
(2) "अर्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपम्"
👉 हे रुद्र! आप निष्क (स्वर्ण हार) धारण करते हैं और विश्वरूप हैं।
🔹 सायणाचार्य के अनुसार:
- "निष्क" = सोने का आभूषण, जो यज्ञ करने वालों के लिए शुभ होता है।
- "यजतं" = यज्ञ में आहुति देने वाला।
- "विश्वरूप" = जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो।
तात्पर्य: यह मंत्र यज्ञीय दृष्टि से रुद्र की समस्त जगत पर व्यापकता एवं यज्ञ में उनकी प्रमुख भूमिका को इंगित करता है।
(3) "अर्हन्निदं दयसे विश्वमभ्वं"
👉 हे रुद्र! आप इस सम्पूर्ण विश्व पर दया करते हैं।
🔹 सायणाचार्य कहते हैं कि यहाँ "दयसे" का अर्थ "रोगों को दूर करने वाले" से है।
- "दयसे" = कृपा करना, रोग निवारण करना।
- "विश्वमभ्वम्" = सम्पूर्ण जगत की पीड़ा दूर करना।
तात्पर्य: रुद्र यज्ञ के माध्यम से समस्त प्राणियों के दुःख, रोग एवं कष्टों को दूर करते हैं।
(4) "न वा ओजीयः रुद्रत्वदस्ति"
👉 हे रुद्र! आपसे अधिक बलशाली (ओजीयः) कोई नहीं है।
🔹 सायणाचार्य इसे इस प्रकार समझाते हैं:
- "ओजीयः" = अत्यधिक बलशाली।
- "रुद्रत्वदस्ति" = आपमें रुद्रस्वरूप शक्ति निहित है।
तात्पर्य: रुद्र सर्वाधिक शक्तिशाली देवता हैं, जो यज्ञ के माध्यम से जगत का कल्याण करते हैं।
III. सायण भाष्य के आधार पर विस्तृत अर्थ
🔹 सायण के अनुसार इस मंत्र में रुद्र के निम्नलिखित गुण दर्शाए गए हैं:
1️⃣ रुद्र यज्ञीय देवता हैं, जो यज्ञ के माध्यम से जगत का पोषण करते हैं।
2️⃣ उनका धनुष और बाण रोग, मृत्यु एवं आपदाओं का नाश करने वाले हैं।
3️⃣ वे स्वर्ण निष्क धारण करते हैं, जो उनके तेज, सौंदर्य एवं यज्ञ-संबंधी महिमा को दर्शाता है।
4️⃣ रुद्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं और विश्वरूप हैं।
5️⃣ वे यज्ञीय शक्ति द्वारा सम्पूर्ण विश्व के दुःख दूर करने वाले हैं।
6️⃣ उनसे अधिक शक्तिशाली कोई नहीं है।
शब्द | धातु / व्युत्पत्ति | शब्दार्थ (अर्थ) | विभक्ति एवं लिंग |
---|---|---|---|
अर्हन् | √अर्ह् (योग्यता रखना) | योग्य, पूजनीय, वंदनीय | प्रथमा विभक्ति, पुल्लिंग |
बिभर्षि | √भृ (धारण करना) | धारण करते हो, रखते हो | मध्यम पुरुष, एकवचन |
सायकानि | √सि (फेंकना) + "अक" प्रत्यय | बाण, अस्त्र | नपुंसकलिंग, बहुवचन, द्वितीया विभक्ति |
धन्वा | √धन् (ध्वनि करना) | धनुष, शस्त्र | पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति |
अर्हन् निष्कं | √अर्ह् + निष्क (स्वर्ण आभूषण) | योग्य आभूषण, मूल्यवान वस्त्र | द्वितीया विभक्ति |
यजतं | √यज् (यज्ञ करना) | यज्ञ करने वाला | कर्तृवाचक, द्विवचन |
विश्वरूपम् | √विश् (व्याप्त होना) + रूपम् | सर्वव्यापी स्वरूप | द्वितीया विभक्ति, नपुंसकलिंग |
दयसे | √दय् (कृपा करना) | कृपा करते हो, अनुग्रह करते हो | मध्यम पुरुष, एकवचन |
विश्वम् अभ्वम् | √विश् (संपूर्ण) + √भू (होना) | सम्पूर्ण सृष्टि, अविनाशी रूप | द्वितीया विभक्ति |
न वा | निषेध शब्द | नहीं भी | - |
ओजीयः | √ओज् (बल, शक्ति) | अधिक शक्तिशाली | पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति |
रुद्रत्वदस्ति | रुद्र + त्व (भावार्थक प्रत्यय) + अस्ति | रुद्रस्वभाव वाला, रुद्ररूप | - |
III. अन्वय (संधि विच्छेद के साथ अर्थ)
🔹 "हे अर्हन्! आप बाण (सायकानि) और धनुष (धन्वा) धारण करते हैं।
🔹 आप यज्ञ में अर्ह निष्क (मूल्यवान वस्त्र/आभूषण) धारण करते हैं।
🔹 आप विश्वरूप (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वरूप) को धारण करने वाले हैं।
🔹 हे अर्हन्! आप इस सम्पूर्ण विश्व (विश्वम् अभ्वम्) पर दया करते हैं।
🔹 आपसे अधिक शक्तिशाली (ओजीयः) कोई नहीं है।
🔹 आपमें ही रुद्रत्व (रुद्र का स्वभाव) स्थित है।"
1. यास्क का निरुक्त (Nirukta - Etymological Analysis)
यास्काचार्य के अनुसार, यह मंत्र रुद्र के कई गुणों को दर्शाता है।
- "अर्हन्" = श्रेयस्करः (कल्याणकारी), समर्थः (सक्षम), पूजनीयः (वंदनीय)
- "बिभर्षि" = समस्त जगत को धारण करने वाला
- "यजतं" = जो अपने कार्यों से यज्ञ स्वरूप हो
- "विश्वरूपम्" = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वरूप को धारण करने वाला
🔹 निष्कर्ष:
यहाँ रुद्र केवल एक देवता नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड के संचालन का प्रतीक हैं।
2. निघण्टु (Nighantu - Vedic Lexicon)
ऋग्वेद के शब्दों की पुरातन सूची में:
- "रुद्र" = अग्नि, वायु, पर्जन्य
- "विश्व" = समस्त सृष्टि
- "सायक" = प्रकाश के किरणें (सूर्य के बाण)
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र केवल एक शस्त्रधारी देवता नहीं हैं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड के कारक, पोषक और संहारक भी हैं।
3. आध्यात्मिक (Vedantic/Yogic Interpretation)
- रुद्र = आत्मन् (ब्रह्म)
- सायक (बाण) = ध्यान और ज्ञान के अस्त्र
- धनुष = योग साधना
- विश्वरूप = अद्वैत ब्रह्म, सम्पूर्ण चेतना
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र आत्मस्वरूप हैं। उनका बाण ज्ञान की तीव्रता है, उनका धनुष योग है, और वे स्वयं ब्रह्म हैं।
4. जैन दृष्टिकोण
- अर्हन् = जिन, तीर्थंकर
- बाण और धनुष = तपस्या और संयम
- विश्वरूप = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र कोई शस्त्रधारी देवता नहीं, बल्कि वास्तविक जिन (विजेता) हैं, जो आत्मज्ञान के माध्यम से समस्त संसार को तिरस्कार कर मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।
डॉ सागरमल जैन ने इस सूक्त का एक विशेष प्रकार से अर्थ किया है. यहाँ उनका दृष्टिकोण भी प्रस्तुत है:
जैन दृष्टि से व्याख्या:
"हे अर्हन्! तू संयम रूपी शस्त्र (धनुष-बाण) को धारण करता है और सांसारिक जीवों के प्राण रूपी स्वर्ण का त्याग करता है। निश्चित रूप से तुझसे अधिक बलवान और कठोर (कषायों एवं कर्मों के उन्मूलन में) और कोई नहीं है। हे अर्हन्, तू विश्व के समस्त प्राणियों पर मातृवत् दया करता है।"
विश्लेषण:
यहाँ अर्हन् की रूपक के माध्यम से स्तुति की गई है। शस्त्र धारण करने का तात्पर्य संयम रूपी शस्त्र को धारण कर कर्म-शत्रुओं या कषाय-वासनाओं को पराजित करने से है। जैन परंपरा में 'अर्हन्' (अरिहंत) शब्द की व्याख्या शत्रु (कर्म) का नाश करने वाले के रूप में की जाती है। आचारांग सूत्र में साधक को अपनी वासनाओं से युद्ध करने का निर्देश दिया गया है।
इसी प्रकार, व्यंग्य रूप से (व्याज स्तुति) यह भी कहा गया है कि जहाँ सारा संसार स्वर्ण के पीछे भागता है, वहीं अर्हन् इसका त्याग करता है। यहाँ 'यजतं' शब्द त्याग का वाची माना जा सकता है। अतः तुझसे अधिक कठोर और समर्थ कौन हो सकता है?
इस संदर्भ में 'विश्वमम्बं' शब्द विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसमें अर्हन् को विश्व के सभी प्राणियों पर दया करने वाला तथा मातृवत् स्नेह करने वाला कहा गया है, जो जैन परंपरा का मूल आधार है।
5. बौद्ध दृष्टिकोण
- अर्हन् = बोधिसत्त्व / निर्वाण प्राप्त व्यक्ति
- धनुष और बाण = ध्यान और प्रज्ञा
- दयसे = करुणा (compassion)
🔹 निष्कर्ष:
रुद्र बुद्ध की तरह हैं, जो प्रज्ञा और करुणा के द्वारा अज्ञान को नष्ट करते हैं।
IV. सायण भाष्य बनाम अन्य व्याख्याएँ
दृष्टिकोण | मुख्य निष्कर्ष |
---|---|
सायण भाष्य (वैदिक यज्ञीय अर्थ) | रुद्र एक यज्ञीय देवता हैं, जो रोगों, आपदाओं और संकटों का नाश करते हैं। उनका धनुष और बाण यज्ञीय शक्ति के प्रतीक हैं। |
यास्क का निरुक्त | रुद्र अग्नि, वायु और ब्रह्माण्डीय शक्ति के प्रतीक हैं। उनका विश्वरूप सर्वव्यापक ब्रह्म को दर्शाता है। |
निघण्टु (वैदिक शब्दकोश) | रुद्र अग्नि, जल, वायु, सूर्य, एवं चिकित्सा के कारक हैं। |
आध्यात्मिक (उपनिषद/योगिक) | रुद्र परम ब्रह्म (अद्वैत स्वरूप) हैं, और उनका धनुष-बाण ज्ञान और योग का प्रतीक है। |
जैन दृष्टिकोण | रुद्र अर्हत् (जिन) समान हैं, जो तपस्या और संयम के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं। |
बौद्ध दृष्टिकोण | रुद्र बोधिसत्त्व समान हैं, जो करुणा और प्रज्ञा द्वारा अज्ञान का नाश करते हैं। |
IV. सायण भाष्य बनाम अन्य व्याख्याएँ
V. समग्र निष्कर्ष
- निरुक्त – रुद्र संहारक और पालक दोनों हैं।
- निघण्टु – रुद्र अग्नि, वायु, और परम शक्ति हैं।
- वेदान्त – रुद्र परब्रह्म (ब्रह्माण्डीय चेतना) हैं।
- जैन दृष्टि – रुद्र तपस्वी, संयमी, आत्मज्ञानी वीतराग जिन अर्हन्त हैं।
- बौद्ध दृष्टि – रुद्र बुद्ध समान करुणामय और ज्ञान के प्रकाशक हैं।
यह सम्पूर्ण विश्लेषण इंगित करता है की केवल जैन और बौद्ध ही नहीं अपितु वैदिक दर्शन से सम्बंधित अलग अलग मत वेदों का अलग अलग अर्थ करते हैं. इसके अतिरिक्त निकट काल में हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती एवं महर्षि अरविन्द द्वारा किये हुए अर्थों में भी विभिन्नता है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की जैन दर्शन के प्रौढ़ विद्वान डॉ सागरमल जी जैन ने भी जैन दृष्टि से अनेक ऋचाओं का अनुवाद किया है. इन सभी अर्थों का अवलोकन करने हेतु विनती है.
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