विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में स्थान स्थान पर ऋषभदेव का उल्लेख प्राप्त होता है. इन मन्त्रों/ऋचाओं में ऋषभदेव का अत्यंत उच्च स्थान है. इसी सन्दर्भ में ऋग्वेद के 10 वें मंडल के सूक्त १६६ एवं १६७ का यहाँ पर अर्थ किया जा रहा है. इन दोनों मन्त्रों में ऋषभदेव की प्रार्थना एवं महिमा का वर्णन है.
मंत्र 1:
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्।
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥
स्रोत: ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 166, मंत्र 1
मंत्र 2:
ऋषभो वैराजः, ऋषभः शाक्वरो भीमसेनो वा। सपत्नघ्नम्॥
स्रोत: ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 167, मंत्र 1
पदपाठ (संधि-विच्छेद सहित)
मंत्र 1:
ऋषभम्। मा। समानानाम्। सपत्नानाम्। विषासहिम्।
हन्तारम्। शत्रूणाम्। कृधि। विराजम्। गोपतिम्। गवाम्॥
मंत्र 2:
ऋषभः। वैराजः। ऋषभः। शाक्वरः। भीमसेनः। वा। सपत्नघ्नम्॥
व्याकरणिक विश्लेषण
शब्द | विभक्ति / लिंग / वचन | प्रचलित अर्थ | समीचीन अर्थ |
---|---|---|---|
ऋषभम् / ऋषभः | द्वितीया/प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन | श्रेष्ठ, प्रमुख, नेता | ऋषभदेव, आत्म-निर्देश, आत्मा, जिन (जिनेन्द्र) |
वैराजः | प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन | वैराज से संबंधित, तेजस्वी | वैराग्यवान, मुनि |
शाक्वरः | प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन | शक्तिशाली, दिव्य | संयम से युक्त |
भीमसेनः | प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन | अत्यंत बलशाली, योद्धा | आत्मबल से संपन्न, विषय-कषायों के लिए भयंकर |
मा | संबोधन, प्रथम पुरुष, एकवचन | मुझे | आत्म-निवेदन |
समानानाम् | षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन | समान स्तर वालों का | समभाव रखने वालों का |
सपत्नानाम् | षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन | विरोधियों का | विकारों (कषायों) का |
विषासहिम् | द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन | विष सहने वाला, विजेता | कषायों को सहन करने वाला |
हन्तारम् | द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन | संहारक | राग-द्वेष का नाश करने वाला |
शत्रूणाम् | षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन | शत्रुओं का | कर्म शत्रु का |
कृधि | लोट् लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन | बना | आत्म-विकास करा |
विराजम् | द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन | तेजस्वी, प्रभावशाली | आत्म-प्रकाश से युक्त |
गोपतिम् | द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन | गो (गायों) का स्वामी | इंद्रियों का स्वामी (जितेन्द्रिय) |
गवाम् | षष्ठी, स्त्रीलिंग, बहुवचन | गायों का | इंद्रियों का |
अन्वय (शब्दों को क्रमबद्ध कर अर्थपूर्ण वाक्य बनाना)
मंत्र 1:
हे इन्द्र! मुझे समान जनों में श्रेष्ठ (ऋषभम्), प्रतिद्वंद्वियों पर विजयी (विषासहिम्), शत्रुओं का संहारक (हन्तारम्), तेजस्वी (विराजम्), और इंद्रियों का स्वामी (गोपतिम्) बनाओ।
मंत्र 2:
श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, संयमयुक्त, आत्मबल से संपन्न, या विकारों को नष्ट करने वाला बनाओ।
प्रचलित सामान्य अर्थ
मंत्र 1:
"हे इन्द्र! मुझे मेरे समान जनों में श्रेष्ठ बनाओ, प्रतिद्वंद्वियों पर विजय दिलाओ, शत्रुओं का संहारक बनाओ, तेजस्वी बनाओ, और गायों का स्वामी बनाओ।"
मंत्र 2:
"श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, दिव्य शक्ति से संपन्न, भीमसेन जैसा बलशाली या शत्रुओं का नाश करने वाला।"
समीचीन अर्थ
मंत्र 1:
"हे भगवान ऋषभदेव! मुझे समान साधकों में श्रेष्ठ बनाओ, आंतरिक विकारों (कषायों) पर विजय दिलाओ, राग-द्वेष का नाश करने वाला बनाओ, आत्म-तेज से युक्त करो, और इंद्रियों का स्वामी अर्थात जितेन्द्रिय या जिन बनाओ।"
मंत्र 2:
"भगवान ऋषभदेव त्यागमूर्ति हैं, वे आत्मबल से संपन्न हैं, संयम और आत्मज्ञान से पूर्ण हैं, और वे विकारों को नष्ट करने वाले हैं।"
निष्कर्ष (दोनों मंत्रों के बीच संबंध)
मंत्र | प्रचलित सामान्य अर्थ | समीचीन अर्थ (जैन दृष्टिकोण से) |
---|---|---|
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥ | "हे इन्द्र! मुझे श्रेष्ठ, शत्रुओं का नाश करने वाला, तेजस्वी और गोधन का स्वामी बनाओ।" | "हे भगवान ऋषभदेव! मुझे आत्म-विजयी, विकारों का नाश करने वाला, और जितेन्द्रिय बनाओ।" |
ऋषभो वैराजः, ऋषभः शाक्वरो भीमसेनो वा। सपत्नघ्नम्। | "श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, दिव्य शक्ति से संपन्न, भीमसेन जैसा बलशाली या शत्रुओं का नाश करने वाला।" | "भगवान ऋषभदेव त्यागमूर्ति, आत्मबल में अद्वितीय, और विकारों को नष्ट करने वाले हैं।" |
संक्षेप में प्रमुख अंतर
-
सपत्नघ्नम् (शत्रुनाशक):
- वैदिक दृष्टि से – भौतिक शत्रुओं का नाश करने वाला।
- जैन दृष्टि से – विकारों, कर्मों और कषायों का नाश करने वाला।
-
गोपति (गायों का स्वामी):
- वैदिक दृष्टि से – गोधन का स्वामी, राजा।
- जैन दृष्टि से – इंद्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय।
-
ऋषभ (श्रेष्ठ):
- वैदिक दृष्टि से – श्रेष्ठ योद्धा, नेता।
- जैन दृष्टि से – प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आत्मा।
निष्कर्ष
- दोनों मंत्रों में "ऋषभ" का प्रयोग श्रेष्ठता और बल के प्रतीक के रूप में हुआ है।
- वैदिक संदर्भ में यह बाह्य शक्ति, युद्ध और राजनीतिक श्रेष्ठता से संबंधित हो सकता है।
- जैन संदर्भ में यह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आत्मबल, संयम, तप और विकारों के नाश का प्रतीक है।
- "सपत्नघ्न" का वैदिक अर्थ शत्रु पर विजय है, जबकि जैन दर्शन इसे आत्मिक विकारों का नाश मानता है।
इस प्रकार, इन ऋचाओं का अर्थ भौतिक सत्ता और आध्यात्मिक सत्ता दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है और वेदों की व्यापक व्याख्या को दर्शाता है।
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