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रविवार, 16 मार्च 2025

ऋग्वेद के दशराज्ञ युद्ध का आध्यात्मिक रूपक: आत्मसंघर्ष और अर्हन्नग्ने का संदेश


🔷 परिचय

ऋग्वेद (मंडल 7, सूक्त 18, मंत्र 22) की यह ऋचा सुदास एवं दस राजाओं के युद्ध से संबंधित है, जिसे "दशराज्ञ युद्ध" के नाम से जाना जाता है। यह वैदिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण युद्ध था, जिसमें कहा जाता है कि राजा सुदास और उनके प्रतिद्वंद्वी दस राजाओं के संघ के बीच घोर संग्राम हुआ। इस युद्ध को ब्रम्हर्षि वशिष्ठ एवं महर्षि विश्वमित्र के बीच का युद्ध भी माना जाता है. इस युद्ध में वशिष्ठ की ओर से युद्ध करते हुए राजा सुदास (तृत्सु वंश) विजयी हुए, जबकि विश्वमित्र की और से युद्धरत पुरु वंश के राजा संवरण और उनके 9 साथी- अलीन, अनु, भृगु, भालन, द्रुह्यु, मत्स्य, परसु, पुरू और पणि परास्त हुए.  

इस सूक्त की कई ऋचाएँ इस युद्ध से संबंधित हैं, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर इसमें अर्जुन्य विचार, आत्मोत्थान, एवं मोक्षमार्ग का संकेत मिलता है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है की वैदिक साहित्यों में विश्वमित्र को एक वलवान, तपस्वी परन्तु अहंकारी एवं क्रोधी ऋषि के रूपमे बताया गया है जबकि वशिष्ठ को ब्रम्हज्ञानी, शांत, स्थिर, निरभिमानी, क्षमाशील ऋषि के रूप में जाना जाता है. इस युद्ध में विश्वमित्र की और से युद्ध करनेवाले 10 राजाओं की पराजय एवं वशिष्ठ की और से युद्धरत अकेले सुदास की विजय आत्मा की १० इन्द्रियों पर विजय की और स्पष्ट इंगित करता है जिसकी चर्चा आगे करेंगे. 

विशेष रूप से इस मंत्र में "अर्हन्नग्ने" शब्द प्रयुक्त हुआ है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। "अर्हन्" शब्द प्राचीन शास्त्रों में पूजनीय, श्रेष्ठ एवं मोक्षमार्ग में प्रतिष्ठित व्यक्ति को संदर्भित करता है। यह शब्द उन आत्माओं के लिए प्रयुक्त होता है, जो पुण्य, ज्ञान और निर्वाण प्राप्ति की योग्य होती हैं। अतः यह शब्द विशुद्ध आध्यात्मिक अर्थों में पूर्ण रूप से कर्म-निर्जरा करके मोक्ष की स्थिति तक पहुँचने वाली आत्माओं की ओर संकेत करता है।

इस मंत्र के गहन विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि इसमें आत्मशुद्धि, ज्ञान की उपलब्धि एवं सद्गुणों के महत्व को उजागर किया गया है।

इस मंत्र का संबंध दशराज्ञ युद्ध से है, जिसका सामान्य अर्थ ऊपर दिया जा चुका है। अब इसके आध्यात्मिक संदर्भ का विश्लेषण करते हैं।

🔷 "दशराज्ञ युद्ध" का व्याकरणिक विश्लेषण

1️⃣ पद विभाजन

👉 "दशराज्ञ युद्ध" = "दश" + "राज्ञ" + "युद्ध"

2️⃣ प्रत्येक शब्द का व्याकरणिक विश्लेषण

(A) "दश" (दशन्) – संख्यावाचक विशेषण
📌 मूल रूप: "दशन्" (संस्कृत संख्यावाचक शब्द)
📌 रूप:

  • यह विशेषण (Adjective) है और संख्या को दर्शाता है।

  • यह नपुंसकलिंग (Neuter Gender) में प्रयुक्त होता है।

  • विभक्ति: प्रथमा विभक्ति एकवचन (Nominative Singular)।

  • संदर्भ: यहाँ दस राजाओं के समूह को इंगित करता है।

(B) "राज्ञ" (राजन्) – संज्ञा रूप
📌 मूल रूप: "राजन्" (राजा)
📌 रूप:

  • "राजन्" शब्द पंचमी विभक्ति बहुवचन (Ablative Plural) में "राज्ञ:" रूप में प्रयुक्त होता है।

  • "दशराज्ञ" = दस राजाओं से संबंधित (संपूर्ण दस राजाओं का समाहार)।

  • यह एक बहुव्रीहि समास (Bahuvrīhi Compound) भी हो सकता है, जिसका अर्थ "जो दस राजाओं से संबंधित हो"।

(C) "युद्ध" – नपुंसकलिंग संज्ञा
📌 मूल रूप: "युद्ध" (युद्ध, संग्राम)
📌 रूप:

  • नपुंसकलिंग (Neuter Gender) संज्ञा।

  • यह शब्द प्रथमा विभक्ति (Nominative Singular) में प्रयुक्त हुआ है।

  • यदि "दशराज्ञ युद्ध" को तत्पुरुष समास माना जाए, तो यह "दस राजाओं का युद्ध" का अर्थ देता है।

  • यदि इसे बहुव्रीहि समास माना जाए, तो "वह युद्ध जिसमें दस राजा सम्मिलित हों" अर्थ बनता है।

3️⃣ समास विश्लेषण

📌 "दशराज्ञ युद्ध" में दो संभावनाएँ हैं:

1️⃣ तत्पुरुष समास
"दशराज्ञ" + "युद्ध" = "दस राजाओं का युद्ध"

  • अर्थ: दस राजाओं द्वारा लड़ा गया संग्राम।

2️⃣ बहुव्रीहि समास
"दशराज्ञ युद्ध" = "वह युद्ध जिसमें दस राजा सम्मिलित हों"

  • अर्थ: यह युद्ध उन दस राजाओं के समूह से संबंधित है, जिन्होंने राजा सुदास के विरुद्ध युद्ध किया।

4️⃣ निष्कर्ष

📌 "दशराज्ञ युद्ध" शब्द तत्पुरुष समास और बहुव्रीहि समास दोनों प्रकार से व्याख्यायित किया जा सकता है।
📌 "दश" (संख्या) + "राज्ञ" (राजाओं से संबंधित) + "युद्ध" (संग्राम) = दस राजाओं से जुड़ा युद्ध।
📌 इसका ऐतिहासिक संदर्भ राजा सुदास और उनके प्रतिद्वंद्वी दस राजाओं के संघर्ष से है।
📌 व्याकरणिक दृष्टि से यह "प्रथमा विभक्ति" (Nominative Case) में प्रयुक्त हुआ है, जो इसे एक विशिष्ट संज्ञा बना देता है।


🔷 "दशराज्ञ युद्ध" और दस इन्द्रियों के बीच आध्यात्मिक साम्यता

👉 "दशराज्ञ युद्ध" में दस राजा आपस में संघर्षरत थे, जो राजा सुदास के विरुद्ध संगठित होकर लड़े। यह केवल एक लौकिक युद्ध नहीं, बल्कि अंतर्मन में सतत चलने वाले इन्द्रिय-संघर्ष का भी प्रतीक हो सकता है।

इसी प्रकार, हमारे भीतर भी दस इन्द्रियों का संघर्ष निरंतर चलता रहता है –

1️⃣ पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (Five Sense Organs)

  • चक्षु (आँखें) – रूप को देखने की शक्ति।

  • श्रवण (कान) – ध्वनि को सुनने की शक्ति।

  • घ्राण (नाक) – गंध को ग्रहण करने की शक्ति।

  • रसना (जीभ) – स्वाद का अनुभव करने की शक्ति।

  • त्वचा (स्पर्श) – संवेदनाओं को ग्रहण करने की शक्ति।

➡️ यदि इनका संयम न हो तो आत्मा इनकी दासता में आ जाती है।

2️⃣ पाँच कर्मेंद्रियाँ (Five Action Organs)

  • वाक् (वाणी) – बोलने की क्रिया।

  • पाणि (हाथ) – ग्रहण करने की क्रिया।

  • पाद (पैर) – गमन करने की क्रिया।

  • उपस्थ (जननेंद्रिय) – सृजन और सुख-संबंधी क्रिया।

  • गुदा (मलत्यागेंद्रिय) – त्याग करने की क्रिया।

➡️ यदि इन्द्रियाँ संयम में रहें, तो आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ➡️ यदि इन्द्रियाँ अनियंत्रित हो जाएँ, तो वे आत्मा को संसार के जाल में बाँध देती हैं।

👉 इस प्रकार, "दशराज्ञ युद्ध" आत्मा और इन्द्रियों के बीच का एक आध्यात्मिक संघर्ष भी है। 👉 जो इस युद्ध में विजय प्राप्त करता है, वही वास्तविक "अर्ह" (मोक्षपथगामी) होता है। 👉 यह केवल एक लौकिक युद्ध का वर्णन नहीं है, बल्कि आत्मशुद्धि, मोक्ष और पवित्रता के आध्यात्मिक संदेश को भी दर्शाता है।

🔷 ऋग्वेद 7.18.22 – संहितापाठ

द्वे नप्तुर्देववतः शते गोर्द्वा रथा वधूमन्ता सुदासः। अर्हन्नग्ने पैजवनस्य दानं होतेव सद्म पर्येमि रेभन्॥

🔷 पदपाठ

द्वे नप्तुः देववतः शते गौः द्वौ रथौ वधूमन्तौ सुदासः। अर्हन् अग्ने पैजवनस्य दानं होता इव सद्म परीयामि रेभन्॥

🔷 शब्दार्थ

  • द्वे (Dve) – दो।

  • नप्तुः (Naptuḥ) – वंशज, उत्तराधिकारी, या शिष्य।

  • देववतः (Devavataḥ) – दिव्य गुणों से युक्त, देवों से संबंधित।

  • शते (Śate) – सौ (संख्या सूचक)।

  • गौः (Gauḥ) – गौ, जो शुद्धता और समृद्धि का प्रतीक है।

  • द्वौ (Dvau) – दो।

  • रथौ (Rathau) – रथ, जो आध्यात्मिक एवं लौकिक यात्रा का प्रतीक है।

  • वधूमन्तौ (Vadhūmantau) – वधू सहित, स्त्रियों से संपन्न।

  • सुदासः (Sudāsaḥ) – राजा सुदास, जिसका शाब्दिक अर्थ "शुद्ध दाता" है।

  • अर्हन् (Arhan) – पूजनीय, श्रेष्ठ, आत्मशुद्ध व्यक्ति, जो मोक्ष के योग्य हो।

  • अग्ने (Agne) – अग्नि, जो पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है।

  • पैजवनस्य (Paijavanasya) – पैजवना वंश से संबंधित, या उस वंश की संपत्ति।

  • दानं (Dānaṁ) – दान, त्याग, पुण्यकर्म।

  • होता (Hotā) – यज्ञकर्ता, यज्ञ करने वाला पुरोहित।

  • इव (Iva) – समान, जैसा कि।

  • सद्म (Sadma) – घर, आश्रय, स्थान।

  • परीयामि (Pariyāmi) – परिभ्रमण करना, प्रयास करना, यश का विस्तार करना।

  • रेभन् (Rebhan) – गूँजना, उच्च स्वर में प्रतिध्वनित होना।

🔷 अन्वय (वाक्य संरचना)

सुदासः (शुद्ध आत्मा/युद्ध में विजयी राजा) द्वे नप्तुः देववतः शते गौः द्वौ रथौ वधूमन्तौ ददाति। (दिव्य गुणों से युक्त सौ गौ, दो रथ, और वधू सहित अन्य उपहार दान करता है।)

अर्हन् अग्ने! (हे अग्नि! जो अर्हत् है, पूजनीय है, पवित्रता का प्रतीक है।)

पैजवनस्य दानं होतेव सद्म पर्येमि रेभन्। (हे यज्ञकर्ता! मैं पैजवना के दान की प्रतिष्ठा में विचरण करता हूँ और इसका यश उच्च स्वर में गूँजता है।)

🔷 आध्यात्मिक व्याख्या

📌 इस मंत्र में द्वे नप्तुः देववतः शते गौः का संदर्भ सांसारिक एवं आध्यात्मिक संपन्नता से है।
📌 सुदास का अर्थ केवल राजा नहीं, बल्कि शुद्ध देने वाला, पुण्यात्मा भी होता है।
📌 अर्हन् अग्ने – यहाँ अग्नि को मोक्ष के योग्य, पवित्रता का प्रतीक और अर्हत् स्थिति को प्राप्त आत्मा के रूप में देखा जा सकता है।
📌 दान और यश की गूँज (परीयामि रेभन्) – यह आत्मा के पुण्यकर्म और धर्ममयी वाणी के प्रचार का भी प्रतीक हो सकता है।

🔷 निष्कर्ष

🔹 इस ऋचा में "अर्हन्" शब्द का प्रयोग मोक्षगामी आत्मा, पूर्ण शुद्ध व्यक्ति और पवित्र अग्नि के प्रतीक के रूप में हुआ है।
🔹 यह मंत्र आत्मिक उन्नति, कर्म-निर्जरा, त्याग और आत्मज्ञान की प्रेरणा देता है।
🔹 "अग्नि" और "अर्हन्" का समन्वय आत्मा की शुद्धता, तपस्या और मोक्ष-पथ की ओर संकेत करता है।
🔹 इसमें यज्ञ, दान और संयम के माध्यम से कर्म-निर्जरा एवं आत्मिक उत्थान का भी गूढ़ संकेत है।

🔷 ऋग्वेद 7.18.22: आत्मोत्थान और अर्हन् तत्व का आध्यात्मिक संदेश

🔷 "द्वे नप्तुः" का विश्लेषण

संस्कृत व्याकरण के अनुसार:

  • "द्वे" = दो।

  • "नप्तुः" = "नप्तृ" (Naptru) शब्द से बना है, जिसका अर्थ "वंशज, शिष्य, या उत्तराधिकारी" होता है।

यदि "नप्तुः" को शिष्य/उत्तराधिकारी के रूप में लें, तो:

  • "द्वे नप्तुः" = दो प्रकार के अनुयायी।

  • यह दो मार्गों—ज्ञानमार्गी (स्वाध्याय और साधना करने वाले) और कर्ममार्गी (धर्मकर्म में प्रवृत्त) को इंगित कर सकता है।

  • यह आत्मा के ज्ञान और कर्म की संभावनाओं को दर्शाता है।

यदि "नप्तुः" को वंशज के रूप में लें, तो:

  • यह संभवतः दो वंशों या दो समूहों को इंगित कर सकता है, जो इस युद्ध में शामिल थे।

  • यह सुदास के दो प्रमुख समर्थकों या शत्रुओं को भी दर्शा सकता है।

🔷 "देववतः" का विश्लेषण

  • "देव" = दिव्यता, प्रकाश, शुद्धता।

  • "वत्" प्रत्यय = जिससे संपन्न हो।

  • "देववतः" वह आत्मा हो सकती है, जो दिव्यता को प्राप्त कर चुकी हो या जो देवगुणों से संपन्न हो।

  • यह केवल लौकिक देवताओं तक सीमित नहीं, बल्कि आत्मा की दिव्य अवस्था को भी इंगित कर सकता है।

  • "देववतः" आत्मा के दिव्यता की ओर बढ़ने, शुद्धता प्राप्त करने, और सम्यक् ज्ञान से युक्त होने का संकेत करता है।

🔷 "शते" का विश्लेषण

संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार:

  • "शत" = मूल रूप से "सौ" का सूचक है।

  • लेकिन "शते" (द्वितीया विभक्ति) का प्रयोग केवल संख्यावाचक अर्थ में ही नहीं, बल्कि "पूर्णता" के लिए भी किया जाता है।

संभावित आध्यात्मिक संकेत:

  • वैदिक साहित्य में "शत" का प्रयोग कभी-कभी "असीमितता" या "पूर्णता" के लिए होता है।

  • यदि यह "गौ" के साथ प्रयोग हुआ है, तो इसका तात्पर्य केवल "100 गाएँ" नहीं, बल्कि पूर्ण ज्ञान या सभी इन्द्रियों के संयमित होने की स्थिति भी हो सकता है।

  • "शते गौः" = पूर्ण इन्द्रिय संयम, शुद्धता, और आत्मा की पूर्ण निर्मलता।

🔷 "गौ" शब्द और गौ-दान का आध्यात्मिक संकेत

संस्कृत में "गौ" के विभिन्न अर्थ:

  • गाय (शुद्धता और जीवन देने वाली शक्ति का प्रतीक)।

  • इन्द्रियाँ (संवेदनाएँ जो बाहरी जगत से ज्ञान ग्रहण करती हैं)।

  • धारा, गति, प्रकाश, वेदवाणी (ज्ञान का प्रवाह)।

  • पृथ्वी (जो सबको धारण करती है)।

100 गौ-दान का आध्यात्मिक अर्थ:

  • यदि "गौ" = इन्द्रियाँ मानी जाएँ, तो "100 गौ-दान" का तात्पर्य:

    • 100 संख्या बड़ा संख्यात्मक प्रतीक हो सकता है, जो इन्द्रिय-विजय की पूर्णता को दर्शाता है।

    • यह समस्त इन्द्रियों के संयम, त्याग और नियंत्रण की ओर संकेत करता है।

    • "गौ-दान" का अर्थ केवल गायों को दान करना नहीं, बल्कि आत्मा के विकारी भावों को त्यागना भी हो सकता है।

    • "गौ" का संबंध "ज्ञान और प्रकाश" से भी है, अतः 100 गौ का दान = 100 बार ज्ञान या तप का अभ्यास।

🔷 निष्कर्ष

  • "अर्हन्" शब्द मोक्षगामी आत्मा, पूर्ण शुद्ध व्यक्ति और पवित्र अग्नि के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

  • यह मंत्र आत्मिक उन्नति, कर्म-निर्जरा, त्याग और आत्मज्ञान की प्रेरणा देता है।

  • "अग्नि" और "अर्हन्" का समन्वय आत्मा की शुद्धता, तपस्या और मोक्ष-पथ की ओर संकेत करता है।

  • इसमें यज्ञ, दान और संयम के माध्यम से कर्म-निर्जरा एवं आत्मिक उत्थान का भी गूढ़ संकेत है।

🔷 "रथ", "गौ", और "वधूमन्त" शब्दों का गूढ़ आध्यात्मिक अर्थ

ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रयुक्त इन शब्दों के लौकिक अर्थों के साथ-साथ गहरे आध्यात्मिक संकेत भी निहित हैं। ये आत्मसंयम, इन्द्रिय-नियंत्रण और मोक्षमार्ग की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।

🔷 "रथ" और इन्द्रिय संयम का संकेत

  • "रथ" संस्कृत में √रम् धातु से बना है, जिसका अर्थ गति करना या यात्रा करना है। यह आत्मा की सांसारिक और आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक है।

  • संस्कृत में "रथ" शरीर का भी प्रतीक है। इसके घोड़े इन्द्रियों के समान हैं, जिन्हें वल्गा (लगाम) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यदि ये अनियंत्रित हों, तो आत्मा मोह, राग-द्वेष और विकारों में फंस सकती है। यदि लगाम दृढ़ हो, तो आत्मा धर्म के पथ पर आगे बढ़ती है।

  • अतः, "रथ" वह साधन है, जिसके द्वारा आत्मा इन्द्रिय-नियंत्रण के साथ मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर हो सकती है।

🔷 "द्वौ रथौ" = ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ

  • "द्वौ" का अर्थ दो और "रथौ" द्विवचन रूप में दो रथों को इंगित करता है। यह आत्मा के दो प्रमुख साधनों को दर्शाता है:

    • पहला रथ ज्ञानेंद्रियों का है, जो आत्मा को बाह्य जगत का अनुभव कराते हैं।

    • दूसरा रथ कर्मेंद्रियों का है, जो आत्मा को संसार में प्रवृत्त कराते हैं।

  • यदि इन दोनों रथों को संयम से चलाया जाए, तो आत्मा मोक्षमार्ग की ओर बढ़ती है, अन्यथा यह संसार रूपी भंवर में उलझाने वाला युद्ध बन जाता है।

🔷 "वधूमन्त" और मुक्तिवधू का संकेत

  • संस्कृत में "वधूमन्त" = "वधू (पत्नी) + मन्त (युक्त)"। इसका सामान्य अर्थ "जिसके पास वधू हो" है, परंतु आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुक्तिवधू (मोक्ष-लक्ष्मी) की ओर भी संकेत करता है।

  • आध्यात्मिक साहित्य में "वधू" को केवल सांसारिक स्त्री न मानकर, आत्मा की परम दशा (मोक्ष) से जोड़ा गया है।

  • "मोक्ष-लक्ष्मी" या "मुक्तिवधू" वह अवस्था है, जहाँ आत्मा अपने अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त करती है।

  • "वधूमन्त" शब्द केवल सांसारिक विवाह ही नहीं, बल्कि आत्मा और मोक्ष के मिलन का भी प्रतीक हो सकता है। यह संयमी जीवन, इन्द्रिय-विजय, और अंततः आत्मा के अंतिम गंतव्य (मोक्ष) की ओर संकेत करता है।

🔷 "सुदासः" का विश्लेषण

  • "सु" (शुद्ध, अच्छा) + "दास" (सेवक) = जो शुद्ध और धर्म का सेवक हो।

  • "सुदास" केवल राजा का नाम नहीं, बल्कि आत्मा की स्थिति को भी दर्शाता है, जो धर्म, संयम और ज्ञान की सेवा में स्थित हो।

  • यह इन्द्रिय-संयम और आत्मा की तपस्या को दर्शाता है।

  • राजा "सुदास" को "शुद्ध दाता" कहा जाता है, जो इन्द्रियों के संघर्ष में विजयी होने का प्रयास करता है।

🔷 शब्दों के लौकिक एवं आध्यात्मिक संकेत

शब्दलौकिक अर्थआध्यात्मिक संकेत
रथयुद्ध का वाहनआत्मा का शरीर, जो इन्द्रिय-संयम से नियंत्रित रहता है।
गौगायें (पशु)इन्द्रियाँ, ज्ञान, प्रकाश, और तपस्या का प्रतीक।
गौ दानगायों को दान करनाइन्द्रिय-त्याग, ज्ञानार्जन, आत्म-शुद्धि।
वधूमन्तविवाह से युक्त व्यक्तिमुक्तिवधू (मोक्ष-लक्ष्मी), आत्मा की परम दशा।

🔷 निष्कर्ष

  • "रथ" आत्म-संयम का प्रतीक है।

  • "गौ" इन्द्रिय-नियंत्रण, ज्ञान और तपस्या को दर्शाती है।

  • "वधूमन्त" आत्मा और मोक्ष के मिलन का प्रतीक है।

  • "अर्हन्" शुद्ध चेतना और समस्त कर्मों से मुक्त आत्मा को इंगित करता है।

🔷 "अर्हन्" – शुद्ध चेतना, समस्त कर्मों से मुक्त आत्मा

  • "अर्ह" (√अर्ह्) धातु से बना है, जिसका अर्थ है "पूजनीय, योग्य, मोक्ष के अधिकारी"।

  • "अर्हन्" = "जो पूर्ण शुद्ध होकर समस्त कर्मों को भस्म कर चुका हो।"

  • यह मोक्ष की अंतिम स्थिति को दर्शाता है, जहाँ आत्मा सम्पूर्ण ज्ञान और शुद्धता को प्राप्त करती है।

"अर्हन्नग्ने" की गहराई एवं ऋषिमण्डल स्तोत्र से संबंध

"आद्यंताक्षर संलक्ष्यमक्षरं व्याप्य यत्स्थितं।"

📌 वर्णमाला का प्रथम और अंतिम अक्षर

📌 वर्णमाला के "अ" और "ह" के बीच सम्पूर्णता का संकेत

संस्कृत वर्णमाला का प्रथम अक्षर अ एवं अंतिम अक्षर ह है. यदि वर्णमाला की दृष्टि से देखें तो अ एवं ह के बीच सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है. प्रकारांतर से यह भी कहा जा सकता है "अह" में सम्पूर्ण जगत संसार समाहित है.  

  • "अह" का अर्थ = संपूर्ण जगत।

  • जब "अह" में अग्नि तत्त्व ("र्") जुड़ता है, तो यह "अर्ह" बनता है।

  • इसी प्रकार, "अहं" शब्द में अग्निबीज स्वरूप रेफ लगता है, तो वह "अर्हं" बनता है, अर्थात अहंकार को ध्यानरूपी अग्नि से जलाने वाला अर्हं होता है।

  • "अग्नि" केवल लौकिक अग्नि नहीं, बल्कि ज्ञान-ज्योति है, जो आत्मा को मोह से मुक्त करती है।

    • "अर्हन्नग्ने" का प्रयोग अग्नि को एक ऐसे तत्व के रूप में प्रस्तुत करता है, जो आत्मशुद्धि, त्याग, और मोक्ष का माध्यम है।

    • "अर्हन्" शब्द केवल पूजनीय व्यक्ति को इंगित नहीं करता, बल्कि वह आत्मा को भी इंगित करता है, जो समस्त कर्मों को जलाकर पूर्ण निर्मलता (निर्वाण) को प्राप्त कर लेती है।

🔷 "अर्हन्" की परिभाषा

  • "अर्हन्" वह है, जिसने केवल इन्द्रियों को ही नहीं, बल्कि समस्त कर्मों को भी जला दिया हो।

  • "जिन" इन्द्रियों को जीतकर आत्म-विजय प्राप्त करता है, लेकिन "अर्हन्" वह है, जो इस अग्नि द्वारा अपने समस्त कर्मों को जलाकर पूर्ण निर्मल हो चुका हो।

  • "अर्हन्" आत्मा की परम शुद्ध अवस्था को दर्शाता है, जहाँ कोई कर्म शेष नहीं रह जाता।

  • "अर्ह" शब्द में "अ" और "ह" (वर्णमाला के प्रथम और अंतिम अक्षर) का समावेश है, जो समस्त जगत को दर्शाता है।

  • "अर्हन्" वह है, जिसने इस समस्त जगत को जान लिया और उसे पार कर लिया।

📌 "अर्हन्" वह है, जो केवल इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने तक सीमित नहीं, बल्कि समस्त कर्मों को नष्ट करके शुद्ध आत्मा की स्थिति में पहुँच चुका है। 📌 "अर्ह" शब्द अग्नि तत्व से संबंधित है, जो आत्मा के समस्त विकारों को भस्म कर शुद्ध चेतना को प्रकट करता है।

🔷 "जिन" – इन्द्रिय-विजेता (The Conqueror of the Senses)

📌 संस्कृत व्युत्पत्ति:

  • "जि" (√जि) धातु से बना है, जिसका अर्थ है "विजय प्राप्त करना"।

  • "जिन" = "जो समस्त इन्द्रियों और विकारों पर विजय प्राप्त कर चुका हो।"

🔷 "जिन" और "अर्हन्" में अंतर और साम्यता

विशेषताजिनअर्हन्
अर्थइन्द्रिय-विजेतासमस्त कर्मों को नष्ट करने वाला
मुख्य विशेषताआत्मा ने समस्त इन्द्रियों और राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर लीआत्मा पूर्णतः शुद्ध हो चुकी है, कोई कर्म शेष नहीं
संस्कृत व्युत्पत्ति√जि (विजय)√अर्ह (योग्यता, मोक्ष अधिकारी)
प्रयोगतीर्थंकरों के लिए, क्योंकि वे इन्द्रिय-विजेता हैंमोक्ष प्राप्त आत्माओं के लिए, क्योंकि वे समस्त कर्मों से मुक्त हैं
आध्यात्मिक लक्ष्यआत्म-विजय (इन्द्रिय संयम)आत्म-मुक्ति (कर्मों का पूर्ण क्षय)
दशराज्ञ युद्ध से संबंधसुदास आत्मा है, जो दस इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर रहा हैइन्द्रिय विजय के बाद आत्मा पूर्ण निर्मल हो चुकी है

🔷 निष्कर्ष: तीर्थंकर दोनों ही हैं – "जिन" भी और "अर्हन्" भी

📌 "जिन" वह है, जो दस इन्द्रियों को जीत चुका है और आत्मा को इन्द्रियों के अधीन नहीं रहने देता। 📌 "अर्हन्" वह है, जो इस आत्म-विजय के बाद समस्त कर्मों को भी भस्म कर पूर्ण निर्मल हो चुका है। 📌 "जिन" और "अर्हन्" दोनों ही मोक्ष की ओर जाने के दो चरण हैं – पहले इन्द्रिय संयम, फिर कर्मों का क्षय। 📌 तीर्थंकर इसीलिए "जिन" और "अर्हन्" दोनों कहे जाते हैं, क्योंकि वे न केवल स्वयं मुक्त होते हैं, बल्कि अन्य को भी इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

🚩 इस ऋचा की व्याख्या में दशराज्ञ युद्ध एवं रथ का सम्बन्ध जितेन्द्रियत्व अर्थात "जिन" से है और "अर्हन्" शब्द तो ऋचा में ही है।

यहाँ तीर्थंकर शब्द के साथ जिन और अर्हन को सम्मिलित करने का सन्दर्भ है. जिसका विस्तार बाद में "रेभन्" और "पर्येमि" के सन्दर्भ में किया जायेगा. 

🔷 "पैजवन" का विस्तृत अर्थ

📌 संस्कृत व्युत्पत्ति:

  • "पैजवन" = पैजवना वंश से संबंधित या संरक्षक।

  • "पाज" (Pāja) धातु से संबंधित हो सकता है, जिसका अर्थ पालन, सुरक्षा, पोषण होता है।

  • यह किसी विशेष दानदाता, यज्ञकर्ता, या आध्यात्मिक संरक्षक को भी संदर्भित कर सकता है।

📌 संभावित आध्यात्मिक संकेत:

  • "पैजवन" केवल एक वंश का नाम नहीं, बल्कि इसका अर्थ "संरक्षक" (Sanrakshak) भी हो सकता है।

  • यह कोई ऐसा व्यक्ति या तत्व भी हो सकता है, जो आत्म-कल्याण एवं मोक्ष मार्ग का संरक्षक हो।

🔷 3️⃣ "दानं" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "दा" (देना) + "न" (प्रक्रिया या भाव) = त्याग, परोपकार, आत्म-निवेदन।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह केवल बाह्य "दान" (गायें, संपत्ति आदि का दान) नहीं, बल्कि आत्मा का राग-द्वेष का त्याग, कर्म-निर्जरा और मोक्ष की दिशा में बढ़ना भी हो सकता है।

  • "दान" का सही अर्थ है आत्मा द्वारा अपनी आसक्तियों का समर्पण।

🚩 संभावित व्याख्या: "दानं" = कर्म-निर्जरा, त्याग, और आत्म-शुद्धि।

🔷 4️⃣ "होतेव" का विश्लेषण

📌 व्याकरणिक विश्लेषण:

  • "होतेव" – इसमें "होता" (यज्ञकर्ता, जो यज्ञ में मंत्रों का उच्चारण करता है) और "इव" (समान) का मेल है।

  • इसका अर्थ हुआ, "जिस प्रकार यज्ञकर्ता यज्ञ को संपन्न करता है, उसी प्रकार यह कार्य किया गया।"

  • यह संपूर्ण कर्म-त्याग और मोक्ष-मार्ग की ओर संकेत करता है।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • आत्मा यज्ञकर्ता की तरह अपने कर्मों को भस्म कर ज्ञान की अग्नि में तपती है।

  • यह तप, स्वाध्याय, और संयम की प्रक्रिया का प्रतीक हो सकता है।

🚩 संभावित व्याख्या: "होतेव" = जो आत्म-तपस्या में रत हो और कर्मों का क्षय कर रहा हो।

🔷 5️⃣ "सद्म" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "सद्म" = घर, निवास।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह मोक्ष, परमगति, और आत्मा के अंतिम विश्राम-स्थान को इंगित कर सकता है।

  • आत्मा का संस्कारों और भटकाव से मुक्त होकर शाश्वत शांति में स्थित होना।

🚩 संभावित व्याख्या: "सद्म" = मोक्ष, परमगति।

🔷 6️⃣ "पर्येमि" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "परि" = चारों ओर।

  • "यामि" = गमन करना, घूमना।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह आत्मा के संसार में भटकने या मोक्षमार्ग की ओर चलने का प्रतीक हो सकता है।

  • यह ज्ञान के प्रसार और धर्म का प्रचार भी हो सकता है।

🚩 संभावित व्याख्या: "पर्येमि" = आत्मा की गति—या तो संसार में, या ज्ञानमार्ग में।

🔷 7️⃣ "रेभन्" का विश्लेषण

📌 व्युत्पत्ति:

  • "रेभ" = ध्वनि, प्रतिध्वनि।

📌 आध्यात्मिक संकेत:

  • यह धर्म और सत्य की प्रतिध्वनि को दर्शा सकता है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती है।

  • यह ज्ञान और तप की शक्ति को भी दर्शा सकता है, जो आत्मा में गूँजती रहती है।

🚩 संभावित व्याख्या: "रेभन्" = धर्म की गूंज, आत्मज्ञान का प्रसार।

🔷 अंतिम निष्कर्ष

शब्दलौकिक अर्थआध्यात्मिक संकेत
पैजवनपैजवना वंश का व्यक्तिसंरक्षक, आत्म-संरक्षक, धर्मपालक
द्वौ रथौदो रथज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ (इन्द्रियों का युग्म)
शतेसौपूर्णता, संपूर्ण इन्द्रिय संयम, आत्म-शुद्धि
द्वे नप्तुःदो वंशज या शिष्यदो प्रकार के जीव—ज्ञानमार्गी और कर्ममार्गी, या संसारी और मोक्षगामी आत्मा

🔷 शब्दों का व्याकरणिक विश्लेषण एवं अंतिम रूपांतरण

शब्दव्याकरणिक रूपअर्थआध्यात्मिक संकेत
द्वे (Dve)संख्यावाचक विशेषण, द्विवचनदोसंसार में दो प्रमुख मार्ग: ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग।
नप्तुः (Naptuḥ)नप्तृ (वंशज, उत्तराधिकारी), षष्ठी विभक्ति बहुवचनदो वंशजआत्मा के दो मार्ग—एक जो इन्द्रियों में फंसी है, और दूसरी जो मोक्षमार्गी है।
देववतः (Devavataḥ)विशेषण, षष्ठी विभक्तिदेवगुणों से संपन्न, दिव्य गुणों से युक्तजो आध्यात्मिक उन्नति में स्थित हो और मोक्षमार्ग में अग्रसर हो।
शते (Śate)संख्यावाचक विशेषण, द्वितीया विभक्तिसौपूर्णता, संपूर्ण इन्द्रिय संयम, आत्मशुद्धि।
दानं (Dānaṁ)द्वितीया विभक्तिदानआत्मिक त्याग, कर्म-निर्जरा, और इन्द्रियों का समर्पण।
होतेव (Hotā Iva)"होता + इव"यज्ञकर्ता के समानजो यज्ञ के माध्यम से आत्मशुद्धि प्राप्त करता है।
सद्म (Sadma)द्वितीया विभक्तिघर, आश्रयमोक्ष, आत्मा का अंतिम गंतव्य।
पर्येमि (Pariyāmi)कर्ता क्रिया रूपघूमना, भटकनाआत्मा का कर्मबद्ध संसार में चक्रण।
रेभन् (Rebhan)कर्ता क्रिया रूपगूंजना, प्रतिध्वनि करनाधर्म की गूंज, आत्मज्ञान का प्रचार।

🔷 निष्कर्ष: संपूर्ण ऋचा का गूढ़ आध्यात्मिक सार

संभावित महत्वपूर्ण शब्दव्याकरणिक रूपअर्थआध्यात्मिक संकेत
द्वे नप्तुःसंख्यावाचक विशेषण, द्विवचनदो प्रकार के जीवज्ञानमार्गी एवं कर्ममार्गी, या संसारी एवं मोक्षगामी।
देववतःविशेषण, षष्ठी विभक्तिदेवगुणों से संपन्न, दिव्य गुणों से युक्तजो आध्यात्मिक उन्नति में स्थित हो और मोक्षमार्ग में अग्रसर हो।
शते गौःसंख्यावाचक विशेषण, स्त्रीलिंग संज्ञासौ गौ (इन्द्रियाँ)संपूर्ण इन्द्रिय संयम और आत्मज्ञान।
द्वौ रथौसंख्यावाचक विशेषण, द्विवचनदो रथआत्मा के दो मुख्य साधन: ज्ञानेंद्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ।
वधूमन्तविशेषण, पुल्लिंग एकवचनवधू सहितमुक्तिवधू, मोक्ष की प्राप्ति।
सुदासः"सु" (शुद्ध) + "दास" (सेवक)जो धर्म का शुद्ध सेवक होआत्मा जो संयम और तपस्या द्वारा शुद्ध हो।
अर्हन्नग्ने"अर्हन् + अग्ने" संबोधन रूपअर्ह अग्निवह अग्नि जो केवल लौकिक नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने वाली ज्ञान-ज्योति है।
पैजवनस्यषष्ठी विभक्तिपैजवना वंशधर्म संरक्षक, आत्म-संरक्षक।
दानंद्वितीया विभक्तिदानआत्मिक त्याग, कर्म-निर्जरा, और इन्द्रियों का समर्पण।
होतेव"होता + इव"यज्ञकर्ता के समानजो यज्ञ के माध्यम से आत्मशुद्धि प्राप्त करता है।
सद्मद्वितीया विभक्तिघर, आश्रयमोक्ष, आत्मा का अंतिम गंतव्य।
पर्येमिकर्ता क्रिया रूपघूमना, भटकनाआत्मा का कर्मबद्ध संसार में चक्रण।
रेभन्कर्ता क्रिया रूपगूंजना, प्रतिध्वनि करनाधर्म की गूंज, आत्मज्ञान का प्रचार।


🔷 व्याकरणिक परीक्षण: क्या "रेभन्" और "पर्येमि" दिव्यध्वनि के लिए प्रयोग हो सकते हैं?


📌 संस्कृत व्युत्पत्ति और व्याकरणिक विश्लेषण

1️⃣ "रेभन्" = दिव्यध्वनि का गूढ़ संकेत?

  • "रेभ" धातु का मूल अर्थ है गूंजना, प्रतिध्वनित होना, ध्वनि करना।

  • "रेभन्" वर्तमान कालिक कर्तरि प्रयोग में क्रियापद है, जिसका अर्थ होता है "जो गूंज रहा है" या "जो प्रतिध्वनित हो रहा है"।

  • संस्कृत में "रेभ्" धातु का प्रयोग किसी विशेष ध्वनि, वाणी, या घोषणा के लिए भी होता है।

📌 क्या यह दिव्यध्वनि का संकेत हो सकता है?

  • हाँ, "रेभन्" केवल साधारण प्रतिध्वनि तक सीमित नहीं है।

  • यह ऐसी ध्वनि भी हो सकती है, जो अपने आप उत्पन्न हो और स्वतः गूंजती रहे—जैसे तीर्थंकर की दिव्यध्वनि।

  • तीर्थंकर की वाणी स्वयं उत्पन्न होती है, किसी भाषा में बंधी नहीं होती, और सभी प्राणियों को उनकी भाषा में समझ में आती है—यह विशेषता "रेभन्" के अर्थ से सामंजस्य रखती है।

✅ संभावित व्याख्या: "रेभन्" = तीर्थंकर की दिव्यध्वनि/धर्मध्वनि , जो आत्मज्ञान के बाद स्वतः गूंजती है और समस्त संसार में धर्म का प्रसार करती है।

2️⃣ "पर्येमि" = विश्वव्यापी दिव्यध्वनि?

  • "परि" उपसर्ग = चारों ओर, सर्वव्यापक रूप से।

  • "यम्" धातु = गति करना, घूमना, विस्तार होना।

  • "पर्येमि" = मैं चारों ओर घूमता हूँ, मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ।

📌 क्या यह दिव्यध्वनि के विस्तार का संकेत हो सकता है?

  • हाँ, "पर्येमि" केवल लौकिक गमन तक सीमित नहीं, बल्कि व्यापक प्रसार और फैलाव को भी दर्शाता है।

  • तीर्थंकर की दिव्यध्वनि केवल सीमित स्थान तक नहीं रहती, बल्कि समस्त लोक में प्रवाहित होती है।

  • यह विस्तारित दिव्यध्वनि, जो सम्पूर्ण संसार में ज्ञान की गूंज पैदा करती है, "पर्येमि" से अभिव्यक्त की जा सकती है।

✅ संभावित व्याख्या: "पर्येमि" = तीर्थंकर की विश्वव्यापी दिव्यध्वनि, जो सम्पूर्ण लोक में धर्म और आत्मज्ञान का प्रसार करती है।

3️⃣ क्या यह अर्थ ऋग्वेद 7.18.22 के व्याकरण में सही बैठता है?

📌 मूल वाक्यांश: "होतेव सद्म पर्येमि रेभन्"

👉 "होतेव" (यज्ञकर्ता के समान), 👉 "सद्म" (आश्रय, मोक्ष), 👉 "पर्येमि" (चारों ओर व्याप्त होना), 👉 "रेभन्" (गूंजना, ध्वनि करना)।

✅ संभावित अर्थ: "मैं यज्ञकर्ता के समान मोक्ष की ओर बढ़ रहा हूँ और मेरी वाणी (दिव्यध्वनि) सम्पूर्ण जगत में गूंज रही है।"

🔷 निष्कर्ष:

  • "रेभन्" और "पर्येमि" तीर्थंकर की दिव्यध्वनि के लिए उपयुक्त हैं।

  • इस ऋचा में लौकिक युद्ध के साथ-साथ आत्मा के मोक्षमार्ग की गहरी आध्यात्मिक व्याख्या छिपी हुई है।

👉 अर्थ:

➡️ दो प्रकार के जीव (द्वे नप्तुः) – एक जो संसार में बंधे हैं और दूसरे जो मोक्षमार्ग पर हैं, देवत्व प्राप्त कर पूर्णता (शते) की ओर बढ़ते हैं। ➡️ गौ (इन्द्रियाँ) और दो रथ (ज्ञानेंद्रियाँ व कर्मेंद्रियाँ) आत्मा के लिए मार्गदर्शक हैं— यदि संयमित हों, तो मोक्ष की ओर ले जाते हैं। ➡️ वधूमन्त (मुक्तिवधू) का अर्थ आत्मा की मोक्ष प्राप्ति है, जो संयम और तपस्या के माध्यम से संभव होती है। ➡️ सुदास वह आत्मा है, जिसने संयम, धर्म और ज्ञान के बल पर दशराज्ञ युद्ध (इन्द्रियों के संघर्ष) में विजय प्राप्त कर ली है। ➡️ अर्हन्नग्ने – वह दिव्य अग्नि, जो आत्मा को शुद्ध कर उसे "अर्ह" (मोक्षगामी) बनाती है। ➡️ पैजवनस्य दानं – मोक्ष मार्ग पर अग्रसर आत्मा का सबसे बड़ा दान, अर्थात राग-द्वेष का त्याग। ➡️ होतेव – यह आत्मा तपस्वी यज्ञकर्ता के समान है, जो संसार रूपी अग्नि में अपने बंधनों का त्याग कर रहा है। ➡️ सद्म – यह आत्मा का परमगति (मोक्ष) है, जो परम विश्रांति का स्थान है। ➡️ पर्येमि रेभन् – यह तीर्थंकर की दिव्यध्वनि है, जो सम्पूर्ण लोक में गूँजती है और मोक्षमार्ग का संकेत देती है।

🔷 ऋचा का अंतिम समग्र अर्थ

➡️ यह मंत्र आत्मा के मोक्षमार्ग की मंगलकामना करता है। ➡️ यह आत्मबल, सम्यक् दृष्टि, सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा और तीर्थंकर वाणी के माध्यम से आत्मोत्थान की दिशा में प्रेरित करता है। ➡️ यह युद्ध केवल लौकिक युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रियों के संघर्ष का प्रतीक भी है।

🔷 निष्कर्ष: 🚩 यह ऋचा केवल दशराज्ञ युद्ध का संदर्भ नहीं, बल्कि आत्मा के मोक्षमार्ग की यात्रा को भी दर्शाती है। 🚩 "शते" केवल "सौ" नहीं, बल्कि पूर्णता का संकेत करता है। 🚩 "अर्हन्नग्ने" आत्मा की पूर्ण शुद्धता को इंगित करता है। 🚩 "गौ," "द्वौ रथौ" इन्द्रिय संयम और ज्ञानार्जन को दर्शाते हैं। 🚩 "वधूमन्त" मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति को इंगित करता है। 🚩 "सुदास" संयम और धर्म का प्रतीक है। 🚩 "दशराज्ञ युद्ध" आत्मा और इन्द्रियों के संघर्ष का प्रतीक है। 🚩 "पर्येमि रेभन्" तीर्थंकर की दिव्यध्वनि है, जो संपूर्ण जगत में गूँजती है और मोक्षमार्ग की ओर प्रेरित करती है।

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि

 
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Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser at Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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शुक्रवार, 14 मार्च 2025

ऋग्वेद का स्वस्ति मंत्र: तीर्थंकर अरिष्टनेमि और आत्मोत्थान की दिव्य प्रेरणा


परिचय

"स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥" 

यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का 89 वाँ सूक्त है, जो शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयी-संहिता (२५/१४-२३), काण्व संहिता, मैत्रायणी संहिता, तथा ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथों में भी लगभग समान रूप से प्राप्त होता है।

जगत, परिवार और स्वयं के कल्याण हेतु शुभ वचन कहना ही "स्वस्तिवाचन" कहलाता है। भारतीय धार्मिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं में स्वस्तिवाचन मंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।

संस्कृत व्याकरण के अनुसार, "स्वस्ति" = "सु" + "अस्ति", जिसका अर्थ है – "मंगल हो, कल्याण हो।"

ऋग्वेद का सर्वत्र प्रचलित मंगलकारी मंत्र केवल लौकिक कल्याण की कामना तक सीमित नहीं है, जैसा कि साधारणतः माना जाता है. इसमें गहरे आध्यात्मिक अर्थ निहित हैं, जिनसे न केवल सामान्य जनसमुदाय, बल्कि तथाकथित विद्वज्जन भी अपरिचित हैं। यदि इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए, तो यह मन्त्र सर्वज्ञ वाणी से उत्पन्न आत्मकल्याण प्रयोजनार्थ सम्यक् दर्शन,  सम्यग्ज्ञान, एवं कर्म-निर्जरा के पुरुषार्थ की ओर संकेत करता है।

इस मंत्र में 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) का उल्लेख विशेष महत्व रखता है, क्योंकि वे अहिंसा और वैराग्य के प्रतीक हैं। जैसे गरुड़ विषैले सर्पों पर विजय प्राप्त करता है और गारुड़ी मंत्र विष का नाश करता है, वैसे ही तीर्थंकर वाणी अज्ञान, राग-द्वेष रूपी विष को समाप्त करती है। 


तीर्थंकर नेमिनाथ, अजीमगंज, प. बंगाल 

इसी प्रकार, बृहस्पति को देवताओं का गुरु माना जाता है, वैसे ही तीर्थंकर केवल मनुष्यों के ही नहीं, बल्कि देवों के भी गुरु होते हैं और भोगोन्मुख एवं भोगासक्त देवताओं को भी सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। ऐतिहासिक रूप से यादव कुल शिरोमणि अरिष्टनेमि श्रीकृष्ण के चाचा समुद्रविजय और माता शिवादेवी के पुत्र अर्थात श्रीकृष्ण के चचेरे भाई हैं. 

यह लेख इस ऋग्वेद मंत्र को आध्यात्मिक सिद्धांतों की दृष्टि से विश्लेषित करेगा, जिसमें आत्मबल, सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा, और मोक्ष की दिशा को समझाया जाएगा। यह मंत्र केवल एक सांसारिक मंगलकामना सूचक वैदिक मन्त्र नहीं, बल्कि आत्मोत्थान और मोक्षमार्ग का एक गूढ़ संदेश प्रस्तुत करता है।

संहितापाठः

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

पदपाठः

स्वस्ति नः इन्द्रः वृद्धश्रवाः |
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः |
स्वस्ति नः तार्क्ष्यः अरिष्टनेमिः |
स्वस्ति नः बृहस्पतिः दधातु ||


शब्दार्थः (आध्यात्मिक दृष्टिकोण)

  1. स्वस्ति – अभय (निर्भयता), आत्मकल्याण, मोक्षमार्ग की शुभता।
  2. नः – हमारे लिए।
  3. इन्द्रः – आत्मबल का प्रतीक, जो इन्द्रियों को वश में रखे।
  4. वृद्धश्रवाः – जिसकी कीर्ति आत्मज्ञान से बढ़ी हो, जिनकी कीर्ति तीनो लोकों में सर्वाधिक हो ऐसे तीर्थंकर  अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त अति विशिष्ट आत्मा।
  5. पूषा – आत्मा का पोषण करने वाला सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान।
  6. विश्ववेदाः – समस्त लोक के वास्तविक स्वरूप को जानने वाला, सर्वज्ञ।
  7. तार्क्ष्यः – आत्मा की तीव्र गति, जो संसार से विमुक्त होने की क्षमता रखता है; गरुड़ रूप में, जो सर्पों पर विजय प्राप्त करता है, जैसे गारुड़ी मंत्र विष का नाश करता है।
  8. अरिष्टनेमिः – 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ, जिन्होंने अहिंसा का सर्वोच्च आदर्श स्थापित किया।
  9. बृहस्पतिः – जिनवाणी या तीर्थंकरों का उपदेश, जो आत्मज्ञान का स्रोत है; जैसे बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, वैसे ही तीर्थंकर केवल मनुष्यों के ही नहीं, बल्कि देवताओं के भी गुरु होते हैं।
  10. दधातु – प्रदान करे, स्थापित करे।

अन्वयः

इन्द्रः वृद्धश्रवाः नः स्वस्ति दधातु।
पूषा विश्ववेदाः नः स्वस्ति दधातु।
तार्क्ष्यः अरिष्टनेमिः नः स्वस्ति दधातु।
बृहस्पतिः नः स्वस्ति दधातु।

(अर्थात्, आत्मबल से संपन्न, सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान से पोषित, कर्म-रहित, और सच्चे उपदेशक तीर्थंकर श्री नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) हमें आत्मकल्याण की ओर ले जाएँ।)


आध्यात्मिक दृष्टि से विस्तृत व्याख्या

यह मंत्र आत्मकल्याण और मोक्षमार्ग की मंगलकामना का द्योतक है। इसमें आत्मबल, सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा, और आत्मज्ञान के चार महत्वपूर्ण तत्वों का उल्लेख है।

1. इन्द्रः वृद्धश्रवाः – आत्मबल और संयम

  • "इन्द्र" का अर्थ ऐश्वर्ययुक्त होता है. यहाँ ऐश्वर्य से तात्पर्य है आत्मा का ऐश्वर्य अर्थात  आत्मबल, संयम, इन्द्रिय-निग्रह आदि। 
  • "वृद्धश्रवाः" का अर्थ है जिनकी ख्याति आत्मज्ञान एवं लोककल्याण के कारण बढ़ी हो: जिन्होंने अटनागयण के साथ विशिष्ट एवं कठोर पुरुषार्थ (साधना) कर केवलज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्त करने के बाद जगत को मोक्ष अर्थात परम सुख का मार्ग दिखाया और जिसके कारण त्रिलोक पूज्यता अर्थात अर्हत अवस्था प्राप्त की हो।

2. पूषा विश्ववेदाः – सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सर्वज्ञता

  • पूषा का अर्थ है "पालन करने वाला", यहाँ इसे आत्मा के पोषण करने वाले सम्यक् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के रूप में देखा जा सकता है।
  • तीर्थंकर जगत के जीवों को दुःख से निवृत्ति एवं सुखप्राप्ति का मार्ग बताते हैं, स्वयं उस मार्ग पर चल चुके हैं और अनुयायियों को उस मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शक एवं धर्म सारथी हैं. इस अर्थ में जीवों के पालक हैं. 
  • "विश्ववेदाः" का अर्थ है जो समस्त लोक और तत्वों के स्वरूप को जानता है, अर्थात् केवलज्ञानी (सर्वज्ञ).   
  • यह उस आत्मज्ञान का भी सूचक है, जो आत्मा को संसार में भ्रमण करने से रोकता है और उसे मोक्षमार्ग पर अग्रसर करता है।

3. तार्क्ष्यः अरिष्टनेमिः – कर्म-निर्जरा, तीर्थंकर नेमिनाथ और गरुड़ी शक्ति

  • "तार्क्ष्य" गरुड़ का नाम है, जो तीव्र गति से उड़ने वाला और सर्वविघ्न विनाशक है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसे आत्मा की संसार से विमुक्त होने की शक्ति के रूप में देखा जा सकता है।
  • गरुड़ सर्पों पर विजय प्राप्त करता है, उसी प्रकार आत्मा को मोक्षमार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाले कर्मों को नष्ट करना होता है।
  • जिस प्रकार गारुड़ी मंत्र विष का नाश करता है, उसी प्रकार तीर्थंकरों की वाणी (जिनवाणी) अज्ञान, राग-द्वेष और मिथ्यात्व (आत्मिक विष) को समाप्त करती है।
  • "अरिष्टनेमिः" – भगवान नेमिनाथ, जो अहिंसा और मोक्षमार्ग के महान उपदेशक थे।
    • उन्होंने संसार के बंधनों को छोड़कर मोक्ष का पथ चुना।
    • उनका जीवन दर्शाता है कि सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए कोई भी आत्मा कर्म-बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकती है।
    • नेमिनाथ का नाम "अरिष्ट" शब्द से जुड़ा है, क्योंकि उन्होंने संसार के संकटों और कर्मों से स्वयं को मुक्त कर लिया था।

4. बृहस्पतिः – जिनवाणी और तीर्थंकरों का उपदेश

  • "बृहस्पति" का अर्थ है – सर्वश्रेष्ठ उपदेशक, अर्थात् तीर्थंकरों की दिव्य वाणी, जो आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है।
  • जिनवाणी सर्वज्ञ तीर्थंकरों द्वारा दिया गया ज्ञान है, जो आत्मा को मोक्षमार्ग की दिशा में ले जाता है।
  • जैसे बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, उसी प्रकार तीर्थंकर केवल मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि देवों को भी सन्मार्ग दिखाते हैं

5. तीर्थंकर – पालन करने वाले

  • पूषा का अर्थ पालनकर्ता भी होता है।
  • जैन धर्म में तीर्थंकर केवल आत्मकल्याण के मार्गदर्शक ही नहीं होते, बल्कि वे चतुर्विध जैन संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) का भी पालन करने वाले होते हैं।

विशेष विचारणीय बिंदु

  • यह मंत्र आत्म-कल्याण की प्रार्थना है, जिसमें आत्मबल, सम्यक् दृष्टि एवं ज्ञान, कर्म-निर्जरा, और आत्मज्ञान के चार महत्वपूर्ण स्तंभों की बात कही गई है।
  • इसमें किसी बाह्य देवता की स्तुति नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर स्थित दिव्यता और आत्मशक्ति को जाग्रत करने की प्रेरणा है।
  • अरिष्टनेमिः (भगवान नेमिनाथ) का समावेश यह स्पष्ट करता है कि मोक्षमार्ग केवल उन्हीं को प्राप्त होता है, जो संसार से विरक्त होकर आत्मकल्याण की ओर बढ़ते हैं

निष्कर्ष

👉 यह मंत्र आत्मबल, सम्यक् दृष्टि, सम्यग्ज्ञान, कर्म-निर्जरा और तीर्थंकर वाणी के माध्यम से मोक्षमार्ग की मंगलकामना करता है।
👉 तीर्थंकर मनुष्यों के साथ-साथ देवों के भी गुरु होते हैं।
👉 यह मंत्र आध्यात्मिक विष (अज्ञान, राग-द्वेष) को दूर करने वाला गरुड़ी मंत्र के समान कार्य करता है।
👉 तीर्थंकर केवल मार्गदर्शक ही नहीं, बल्कि चतुर्विध संघ के पालक एवं आधारस्तम्भ भी होते हैं. 

यह मंत्र सांसारिक कल्याण के साथ साथ आत्मशुद्धि और मोक्षमार्ग की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।

ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


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Jyoti Kothari 
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गुरुवार, 13 मार्च 2025

ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 136 के 7 मंत्रों का जैन दृष्टिकोण से विश्लेषण


ऋग्वेद के इस सूक्त में वातरशनाः मुनियों का वर्णन मिलता है। वातरशनाः शब्द का अर्थ है "वायु को ही वस्त्र मानने वाले", जो जैन परंपरा में निर्वस्त्र दिगंबर मुनियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। जैन धर्म में ये मुनि तप, संयम और आत्म-शुद्धि के मार्ग पर चलते हैं। अब प्रत्येक मंत्र का जैन दृष्टिकोण से व्याख्या करते हैं:

मंत्र 1:

"केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते॥"

सामान्य अर्थ:
केशी मुनि अग्नि को धारण करते हैं, विष का सेवन करते हैं, आकाश और पृथ्वी को धारण करते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करने वाले हैं और स्वयं ज्योतिर्मय कहे जाते हैं।

जैन दृष्टिकोण:

  • यहाँ "केशी" का अर्थ भगवान ऋषभदेव और जैन मुनियों से लिया जाता है।
  • जैन आगमों में भी कहा गया है कि सच्चे मुनि विष, राग-द्वेष आदि अग्नि को सहन करने वाले होते हैं
  • "ज्योतिरुच्यते" का अर्थ आत्मज्ञान की ज्योति से लिया जा सकता है, जो केवलज्ञान प्राप्त आत्माओं में प्रकट होती है।

मंत्र 2:

"मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत॥"

सामान्य अर्थ:
मुनि वायु को ही अपनी रस्सी मानते हैं, पीले रंग के वस्त्र पहनते हैं, और मल (मिट्टी) को वस्त्र के रूप में धारण करते हैं। वे वायु के मार्ग पर चलते हैं, जहाँ देवता भी नहीं पहुँच सकते।

जैन दृष्टिकोण:

  • वातरशनाः का अर्थ निर्वस्त्र दिगंबर मुनि है, जो वस्त्रों से मुक्त होते हैं और केवल आत्मसंयम के बल पर जीवित रहते हैं।
  • "मला वसते" का अर्थ सांसारिक वस्त्रों और भौतिक सुखों से विरक्त जीवन जीने से है।
  • जैन ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है कि व्रती मुनि पृथ्वी पर पड़े मिट्टी के टुकड़ों को भी अपना वस्त्र नहीं मानते, बल्कि पूर्ण नग्न रहते हैं।
  • "देवासो अविक्षत" का अर्थ है कि देवता भी इनके मार्ग को नहीं समझ सकते, क्योंकि यह अत्यंत कठिन और आत्म-परक मार्ग है। जैन शास्त्रों के अनुसार देवता चारित्र धारण करने में अक्षम हैं अर्थात वे मुनि बनने के अयोग्य हैं. केवल मनुष्य ही जैन मुनि बन सकते हैं. 

"वातरशनाः" शब्द की व्याख्या

  1. संधि-विच्छेद:

    • वात + रशनाः = वातरशनाः
  2. व्युत्पत्ति:

    • "वात" का अर्थ है वायु
    • "रशनाः" का अर्थ है रस्सी (बंधन), कमर-पट्टी, वस्त्र या नियंत्रण।
  3. शब्दार्थ:

    • वातरशनाः का सामान्य अर्थ है "वे जो वायु को ही वस्त्र के रूप में धारण करते हैं"
    • इस शब्द का प्रयोग विशेष रूप से उन मुनियों के लिए हुआ है, जो नग्न रहते हैं और कोई वस्त्र धारण नहीं करते।
    • इसका जैन संदर्भ में सीधा संबंध दिगंबर मुनियों से है, क्योंकि वे वस्त्र नहीं पहनते और संयम एवं आत्मबल को ही अपनी रक्षा मानते हैं।

मंत्र 3:

"उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम्।
शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ॥"

सामान्य अर्थ:
हम मौन के द्वारा उन्मत्त होकर वायु में स्थित होते हैं। हे मनुष्यों! आप हमारे शरीर को देख सकते हैं, लेकिन हमारी आंतरिक अवस्था को नहीं समझ सकते।

जैन दृष्टिकोण:

  • "मौनेय" का अर्थ मौन साधना और आत्म-शुद्धि से लिया जा सकता है, जो जैन मुनियों का एक प्रमुख लक्षण है।
  • जैन परंपरा में "महामौन" (पूर्ण मौन) को आत्मा की उन्नति का साधन माना गया है।
  • बाहरी लोग मुनियों के शरीर को देखते हैं, लेकिन वे उनके अंदर के आत्मिक विकास को नहीं समझ सकते

मंत्र 4:

"अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत्।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः॥"

सामान्य अर्थ:
मुनि अंतरिक्ष में उड़ते हैं और सभी रूपों को धारण करते हैं। वे देवताओं के मित्र होते हैं और उनके कल्याण के लिए कार्य करते हैं।

जैन दृष्टिकोण:

  • यहाँ "अंतरिक्ष" शब्द को संयम और आत्मोन्नति से लिया जा सकता है, जिससे आत्मा संसार के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष की ओर जाती है।
  • "देवस्य देवस्य सखा" का अर्थ यह हो सकता है कि मोक्ष प्राप्त आत्माएँ (सिद्ध) ही असली देवता हैं, और मुनि उन्हीं के पथ पर चलते हैं।

मंत्र 5:

"वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः।
उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः॥"

सामान्य अर्थ:
मुनि वायु के घोड़े हैं, वायु के मित्र हैं, और देवताओं द्वारा प्रेरित होते हैं। वे दोनों समुद्रों (पूर्व और पश्चिम) में निवास करते हैं।

जैन दृष्टिकोण:

  • "वातस्य अश्वः" का अर्थ आत्मा की गति और कर्म बंधनों से मुक्ति की प्रक्रिया से लिया जा सकता है।
  • जैन मुनि भी कर्मों को समाप्त कर मोक्ष रूपी "समुद्र" तक पहुँचने की यात्रा करते हैं।
  • "पूर्व और अपर" का अर्थ जीव के भूतकालीन और भविष्यकालीन जन्मों के बीच का संबंध भी हो सकता है।

मंत्र 6:

"अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन्।
केशी केतस्य विद्वान्सखा स्वादुर्मदिन्तमः॥"

सामान्य अर्थ:
मुनि अप्सराओं, गंधर्वों और मृगों के साथ विचरण करते हैं। लंबे केश वाले ये मुनि ज्ञान के प्रतीक हैं और आनंद के साथी हैं।

जैन दृष्टिकोण:

  • जैन मुनि निष्कपट, निर्लिप्त और निरपेक्ष होते हैं, इसलिए उनका संसार के भोगों से कोई लेना-देना नहीं होता।
  • "केशी" का अर्थ भी ऋषभदेव से लिया जा सकता है, जो दिगंबर मुनियों के आद्य प्रवर्तक माने जाते हैं।
  • "सखा स्वादुर्मदिन्तमः" का अर्थ है ज्ञान और आत्मानंद में स्थित संत।

मंत्र 7:

"वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्नमा।
केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह॥"

सामान्य अर्थ:
वायु ने हमें मथा (प्रेरित) है, और वह बुरे नामों को नष्ट करता है। लंबे केश वाले मुनि विष के पात्र को धारण करते हैं, जिसे उन्होंने रुद्र के साथ पिया था।

जैन दृष्टिकोण:

  • यहाँ "वायु" को संयम और आत्मबल के प्रतीक के रूप में लिया जा सकता है, जो जैन मुनियों को पथभ्रष्ट नहीं होने देता।
  • "विष" का अर्थ सांसारिक दुखों और कष्टों को सहन करने की क्षमता से लिया जा सकता है।
  • "रुद्र" को यदि कर्मनाशक शक्ति का प्रतीक मानें, तो मुनि उसी शक्ति से कर्म बंधनों को समाप्त करते हैं।

 निष्कर्ष (जैन दृष्टिकोण से व्याख्या का सार)

  • "वातरशनाः" का स्पष्ट संदर्भ जैन मुनियों से है, जो नग्न रहते हैं।
  • मुनियों का संयम, मौन, आत्मज्ञान, और विकारों से मुक्त जीवन को इन ऋचाओं में दर्शाया गया है।
  • जैन धर्म में कर्मों का नाश और आत्मा की उन्नति का जो मार्ग बताया गया है, वह इन मंत्रों से मेल खाता है।
  • भगवान ऋषभदेव और जैन मुनियों की विशेषताएँ इन मंत्रों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती हैं।

अतः, ऋग्वेद के इस सूक्त को जैन मुनियों की साधना और संयम के आदर्शों से जोड़ा जा सकता है।


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्र: व्याकरण, अर्थ एवं जैन दृष्टिकोण


विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में स्थान स्थान पर ऋषभदेव का उल्लेख प्राप्त होता है. इन मन्त्रों/ऋचाओं में ऋषभदेव का अत्यंत उच्च स्थान है. इसी सन्दर्भ में ऋग्वेद के 10 वें मंडल के सूक्त १६६ एवं १६७ का यहाँ पर अर्थ किया जा रहा है. इन दोनों मन्त्रों में ऋषभदेव की प्रार्थना एवं महिमा का वर्णन है. 

मंत्र 1:
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्।
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥

स्रोत: ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 166, मंत्र 1

मंत्र 2:
ऋषभो वैराजः, ऋषभः शाक्वरो भीमसेनो वा। सपत्नघ्नम्॥
स्रोत: ऋग्वेद, मंडल 10, सूक्त 167, मंत्र 1


पदपाठ (संधि-विच्छेद सहित)

मंत्र 1:

ऋषभम्। मा। समानानाम्। सपत्नानाम्। विषासहिम्।
हन्तारम्। शत्रूणाम्। कृधि। विराजम्। गोपतिम्। गवाम्॥

मंत्र 2:

ऋषभः। वैराजः। ऋषभः। शाक्वरः। भीमसेनः। वा। सपत्नघ्नम्॥


व्याकरणिक विश्लेषण

शब्द विभक्ति / लिंग / वचन प्रचलित अर्थ समीचीन अर्थ
ऋषभम् / ऋषभः द्वितीया/प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन श्रेष्ठ, प्रमुख, नेता ऋषभदेव, आत्म-निर्देश, आत्मा, जिन (जिनेन्द्र)
वैराजः प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन वैराज से संबंधित, तेजस्वी वैराग्यवान, मुनि
शाक्वरः प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन शक्तिशाली, दिव्य संयम से युक्त
भीमसेनः प्रथमा, पुल्लिंग, एकवचन अत्यंत बलशाली, योद्धा आत्मबल से संपन्न, विषय-कषायों के लिए भयंकर 
मा संबोधन, प्रथम पुरुष, एकवचन मुझे आत्म-निवेदन
समानानाम् षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन समान स्तर वालों का समभाव रखने वालों का
सपत्नानाम् षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन विरोधियों का विकारों (कषायों) का
विषासहिम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन विष सहने वाला, विजेता कषायों को सहन करने वाला
हन्तारम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन संहारक राग-द्वेष का नाश करने वाला
शत्रूणाम् षष्ठी, पुल्लिंग, बहुवचन शत्रुओं का कर्म शत्रु का
कृधि लोट् लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन बना आत्म-विकास करा
विराजम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन तेजस्वी, प्रभावशाली आत्म-प्रकाश से युक्त
गोपतिम् द्वितीया, पुल्लिंग, एकवचन गो (गायों) का स्वामी इंद्रियों का स्वामी (जितेन्द्रिय)
गवाम् षष्ठी, स्त्रीलिंग, बहुवचन गायों का इंद्रियों का

अन्वय (शब्दों को क्रमबद्ध कर अर्थपूर्ण वाक्य बनाना)

मंत्र 1:

हे इन्द्र! मुझे समान जनों में श्रेष्ठ (ऋषभम्), प्रतिद्वंद्वियों पर विजयी (विषासहिम्), शत्रुओं का संहारक (हन्तारम्), तेजस्वी (विराजम्), और इंद्रियों का स्वामी (गोपतिम्) बनाओ।

मंत्र 2:

श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, संयमयुक्त, आत्मबल से संपन्न, या विकारों को नष्ट करने वाला बनाओ।


प्रचलित सामान्य अर्थ

मंत्र 1:  

"हे इन्द्र! मुझे मेरे समान जनों में श्रेष्ठ बनाओ, प्रतिद्वंद्वियों पर विजय दिलाओ, शत्रुओं का संहारक बनाओ, तेजस्वी बनाओ, और गायों का स्वामी बनाओ।"

मंत्र 2:

"श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, दिव्य शक्ति से संपन्न, भीमसेन जैसा बलशाली या शत्रुओं का नाश करने वाला।"


समीचीन अर्थ 

मंत्र 1:

"हे भगवान ऋषभदेव! मुझे समान साधकों में श्रेष्ठ बनाओ, आंतरिक विकारों (कषायों) पर विजय दिलाओ, राग-द्वेष का नाश करने वाला बनाओ, आत्म-तेज से युक्त करो, और इंद्रियों का स्वामी अर्थात जितेन्द्रिय या जिन बनाओ।"

मंत्र 2:

"भगवान ऋषभदेव त्यागमूर्ति हैं, वे आत्मबल से संपन्न हैं, संयम और आत्मज्ञान से पूर्ण हैं, और वे विकारों को नष्ट करने वाले हैं।"


निष्कर्ष (दोनों मंत्रों के बीच संबंध)

मंत्र प्रचलित सामान्य अर्थ समीचीन अर्थ (जैन दृष्टिकोण से)
ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विषासहिम्। हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम्॥ "हे इन्द्र! मुझे श्रेष्ठ, शत्रुओं का नाश करने वाला, तेजस्वी और गोधन का स्वामी बनाओ।" "हे भगवान ऋषभदेव! मुझे आत्म-विजयी, विकारों का नाश करने वाला, और जितेन्द्रिय बनाओ।"
ऋषभो वैराजः, ऋषभः शाक्वरो भीमसेनो वा। सपत्नघ्नम्। "श्रेष्ठ, राजसी गुणों से युक्त, दिव्य शक्ति से संपन्न, भीमसेन जैसा बलशाली या शत्रुओं का नाश करने वाला।" "भगवान ऋषभदेव त्यागमूर्ति, आत्मबल में अद्वितीय, और विकारों को नष्ट करने वाले हैं।"

संक्षेप में प्रमुख अंतर

  1. सपत्नघ्नम् (शत्रुनाशक):

    • वैदिक दृष्टि से – भौतिक शत्रुओं का नाश करने वाला।
    • जैन दृष्टि से – विकारों, कर्मों और कषायों का नाश करने वाला।
  2. गोपति (गायों का स्वामी):

    • वैदिक दृष्टि से – गोधन का स्वामी, राजा।
    • जैन दृष्टि से – इंद्रियों का स्वामी, जितेन्द्रिय।
  3. ऋषभ (श्रेष्ठ):

    • वैदिक दृष्टि से – श्रेष्ठ योद्धा, नेता।
    • जैन दृष्टि से – प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आत्मा।

निष्कर्ष

  • दोनों मंत्रों में "ऋषभ" का प्रयोग श्रेष्ठता और बल के प्रतीक के रूप में हुआ है।
  • वैदिक संदर्भ में यह बाह्य शक्ति, युद्ध और राजनीतिक श्रेष्ठता से संबंधित हो सकता है।
  • जैन संदर्भ में यह  प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, आत्मबल, संयम, तप और विकारों के नाश का प्रतीक है।
  • "सपत्नघ्न" का वैदिक अर्थ शत्रु पर विजय है, जबकि जैन दर्शन इसे आत्मिक विकारों का नाश मानता है।

इस प्रकार, इन ऋचाओं का अर्थ भौतिक सत्ता और आध्यात्मिक सत्ता दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है और वेदों की व्यापक व्याख्या को दर्शाता है।


Jyoti Kothari 
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बुधवार, 12 मार्च 2025

वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण- ऋग्वेद एवं अन्य वेदों से सम्बंधित लेखों की सूचि


वेद विज्ञान लेखमाला: समन्वित दृष्टिकोण


भारत की अनादिकालीन सनातन संस्कृति में दो धाराएं सदा से सतत प्रवाहमान है जिन्हे वार्हत और आर्हत अथवा वैदिक व श्रमण संस्कृति के नाम से जाना जाता है. जब दो धाराएं सामानांतर बहती है तो उनमे एक जैसे अनेक तत्व होते हैं तो अंतर्विरोध भी. अनेक स्थानों पर दोनों एक जैसे दिखते हैं, होते हैं और कई स्थानों पर मतभिन्नता भी होती है. यही इस सामानांतर धाराओं का वैशिष्ट्य भी है और सौंदर्य भी. और यही भारतवर्ष का, इस आर्यावर्त की पावन भूमि का शाश्वत उद्घोष है और यही इसे वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करनेवाला विश्वगुरु भी बनता है. 

पाश्चात्य विद्वान भारत की इस खूबी को पहचान ही नहीं पाए अथवा जानबूझ कर इसे अनदेखा किया. इन दोनों संस्कृतियों की विभाजक रेखा अत्यंत सूक्ष्म है और कब यह मिल जाती है और कब अलग हो जाती, यह पहचानना अत्यंत कठिन है. ये बात इन संस्कृतियों और इतिहास की गहराई में गोता लगानेवाले मर्मज्ञों को ही ज्ञात होता है. 

अर्हत, ऋषभ, भरत, अरिष्टनेमि, वातरसन जैसे श्रमण (आर्हत या जैन) संस्कृति में बहुप्रचलित शब्द वेदों, पुराणों, श्रीमद्भागवद आदि वैदिक ग्रंथों में बहुलता से मिलता है. इन शब्दों के अर्थ में मतभिन्नता भी है. इस लेखमाला का उद्देश्य समन्वित दृष्टिकोण से ऋग्वेद, यजुर्वेद, पुराण, श्रीमद्भागवद आदि ग्रंथों में पाए जानेवाले इन शब्दों के अर्थों का तार्किक विश्लेषण कर समन्वय के तत्व स्थापित करना है. 

वेद-विज्ञान लेखमाला के लेखों की सूचि 


1. यह लेख 'ऋषभाष्टकम्' स्तोत्र के मूल श्लोकों एवं उसका हिंदी अर्थ प्रदान करता है, जिससे पाठक भगवान ऋषभदेव की महिमा और गुणों को समझ सकते हैं। इस स्तोत्र में ऋग्वेद के आधार पर तीर्थंकर ऋषभदेव की स्तुति की गई है. 

ऋषभाष्टकम् स्तोत्र अर्थ सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/02/blog-post_28.html

2. इस लेख में ऋग्वेद की एक विशेष ऋचा का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'अर्हंत' शब्द का उल्लेख है, जो जैन धर्म में तीर्थंकरों के लिए प्रयुक्त होता है।

ऋग्वेद में अर्हंतवाची एक ऋचा का अर्थ

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_81.html

3. यह लेख ऋग्वेद की एक ऋचा का शब्दार्थ, अन्वयार्थ और व्याकरणिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक उसकी गहराई से समझ प्राप्त कर सकें।

विभिन्न दृष्टिकोणों से ऋग्वेद की ऋचा का विश्लेषण – शब्दार्थ, अन्वयार्थ एवं विस्तृत व्याकरण सहित

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_13.html

4. इस लेख में ऋग्वेद की ऋचा 70.74.22 का विश्लेषण किया गया है, जिसमें 'ऋत', 'वृषभ' और 'धर्मध्वनि' जैसे महत्वपूर्ण वैदिक अवधारणाओं की व्याख्या की गई है।

ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/707422.html

5. यह लेख आचार्य कोत्स और आचार्य यास्क के वेदों पर विचारों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिससे वेदों की व्याख्या की प्राचीन परंपराओं की समझ मिलती है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_12.html

6. इस लेख में गणधरवाद में वेदों की व्याख्या की विभिन्न परंपराओं का विश्लेषण किया गया है, जो गणधरवाद ग्रन्थ में वेदों के प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_62.html

7. यह लेख ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्रों का व्याकरणिक, भाषाशास्त्रीय और दार्शनिक विश्लेषण करता है। इसमें प्रचलित सामान्य अर्थ और समीचीन दृष्टि से व्याख्या प्रस्तुत की गई है, जो आत्मबल, संयम और विकारों के नाश को दर्शाती है।

ऋग्वेद के दो महत्वपूर्ण मंत्र: व्याकरण, अर्थ एवं जैन दृष्टिकोण

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_7.html

8. वातरशनाः शब्द ऋग्वेद में नग्न मुनियों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है "जो वायु को ही वस्त्र मानते हैं।" यह दिगंबर जैन मुनियों से मेल खाता है, जो पूर्ण संयम और आत्मबल के प्रतीक हैं। यह लेख वैदिक और जैन संदर्भ में इसकी व्याख्या करता है।

ऋग्वेद मंडल 10, सूक्त 136 के 7 मंत्रों का जैन दृष्टिकोण से विश्लेषण

https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/10-136-7.html

9. स्वस्ति मंत्र केवल लौकिक मंगलकामना नहीं, बल्कि आत्मोत्थान और मोक्षमार्ग की प्रेरणा है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि, अहिंसा और वैराग्य के प्रतीक हैं, जिनकी वाणी अज्ञान व राग-द्वेष को समाप्त करती है। यह लेख स्वस्तिवाचन के आध्यात्मिक रहस्य और आत्मकल्याण की गूढ़ प्रेरणा को उजागर करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_14.html

10. ऋग्वेद 7.18.22 की यह ऋचा केवल दशराज्ञ युद्ध का विवरण नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रियों के बीच संघर्ष का आध्यात्मिक संकेत भी देती है। "अर्हन्नग्ने" केवल लौकिक अग्नि नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि की ज्वाला है। "पर्येमि रेभन्" में दिव्यध्वनि का प्रसार छुपा है, जो मोक्षमार्ग की दिशा में प्रेरित करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_16.html

11. ​यजुर्वेद (18.27) में उत्तम बैल, गाय और अन्य पशुओं की प्रार्थना की गई है, जो वैदिक समाज की आर्थिक और आध्यात्मिक समृद्धि के प्रतीक थे। 'ऋषभ' शब्द का विशेष महत्व है, जो जैन परंपरा में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से संबंधित है। उन्होंने कृषि, पशुपालन और विभिन्न कलाओं की शिक्षा देकर मानव सभ्यता की नींव रखी।
यजुर्वेद (18.27): ऋषभदेव, कृषि संस्कृति एवं वैदिक संदर्भ                                                                            https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/1827.html

12. भगवान ऋषभदेव ने मानव समाज को असि (शस्त्रविद्या), मसि (लेखन कला), कृषि (खेती और पशुपालन) और शिल्प (कला एवं विज्ञान) की शिक्षा दी। उन्होंने पुरुषों को 72 और स्त्रियों को 64 कलाएँ सिखाईं, जिससे समाज का बहुआयामी विकास हुआ। इससे मा नव सभ्यता संगठित हुई और समाज निर्माण के आधारस्तंभ स्थापित हुए।

13. यहाँ प्रस्तुत यजुर्वेदीय मंत्रों में 'ऋषभ' शब्द का उल्लेख करते हुए भगवान ऋषभदेव की वैदिक संस्कृति में प्रतिष्ठा को दर्शाया गया है। यजुर्वेद के मन्त्रों का यह संकलन जैन और वैदिक परंपराओं के समन्वय का महत्वपूर्ण प्रयास है, जो ऋग्वेद और यजुर्वेद के ऋषभवाची मंत्रों के माध्यम से इस संबंध को उजागर करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_18.html

14. ऋग्वेद का दशराज्ञ संग्राम केवल एक ऐतिहासिक युद्ध नहीं, बल्कि आत्मा और इन्द्रिय-विकारों के संघर्ष का अद्भुत प्रतीक है। यह लेख सुदास की विजयगाथा के माध्यम से आत्मबल, सत्य और धर्म की स्थापना का ऋग्वेदीय संदेश सामने लाता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_20.html

15. 'भरत' शब्द वैदिक, पौराणिक और जैन साहित्य में भिन्न अर्थों में प्रतिष्ठित है। ऋग्वेद भाष्य में 'भरत' वीर क्षत्रिय गण है, वहीं पुराणों व जैन परंपरा में वह ऋषभदेव पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं। यह लेख इन दोनों दृष्टियों का ऐतिहासिक और दार्शनिक विश्लेषण करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_11.html

16. क्या आप जानते हैं भारत का नाम कैसे पड़ा? यह लेख वेद, पुराण और जैन आगमों से प्रमाणित करता है कि 'भारतवर्ष' का नामकरण दुष्यंत पुत्र भरत से नहीं, बल्कि ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत से हुआ। जानिए इस गौरवशाली इतिहास की सच्चाई।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_22.html

17. यह आलेख वैदिक परंपरा में अग्नि पुराण की महत्ता को रेखांकित करता है। ऋक् और यजुः संपदा से समृद्ध यह पुराण धर्म, नीति, आयुर्वेद, वास्तु, धनुर्वेद, ज्योतिष और तंत्र सहित विविध विषयों का गहन संगम है, जो वैदिक मूल्यों का व्यवहारिक रूप में अनुपम प्रस्तुतीकरण करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_2.html

18. पुराण भारतीय संस्कृति और धर्म का जीवंत दर्पण हैं। जानिए पुराण शब्द का अर्थ, शास्त्रीय लक्षण, रचनाकाल, 18 महापुराण और उपपुराणों की विस्तृत सूची, प्रमुख विषयवस्तु और ऐतिहासिक महत्व। यह लेख वेदों के पूरक इन ग्रंथों का सार प्रस्तुत करता है।
https://jyoti-kothari.blogspot.com/2025/03/blog-post_23.html

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भारतीय नववर्ष लेखमाला के लेखों की सन्दर्भ एवं लिंक सहित सूचि

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गणधरवाद मे वेदों की व्याख्या की विविध परंपराएँ


विशेषावश्यक भाष्य और गणधरवाद का महत्व

आवश्यक निर्युक्ति नामक प्राचीन ग्रन्थ के आधार पर उसकी विस्तृत व्याख्या के रूप में ७ वीं शताब्दी में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण द्वारा विशेषावश्यक भाष्य की रचना की गई. विशेषावश्यक भाष्य में "गणधरवाद" नामका एक विशिष्ट प्रकरण है. इस प्रकरण में भगवान् महावीर एवं उनके 11 गणधरों के बीच वार्तालाप को दर्शाया गया है.  

भगवान महावीर के ग्यारह गणधर: शंकाओं से शिष्यत्व तक

इन 11 महापंडित ब्राह्मणों को किसी न किसी गूढ़ दार्शनिक विषयों पर शंका थी. भगवान् महावीर त्रिकालदर्शी  सर्वज्ञ थे अतः उन्होंने उनकी शंकाओं को स्वतः ही जानकर उनका निराकरण कर दिया. गणधरवाद नामक ग्रन्थ में उन सभी 11 पंडितों के शंकाओं एवं भगवान् महावीर द्वारा किये गए समाधान का वाद-विवाद अर्थात तर्कशास्त्रीय शैली में विस्तृत निरूपण किया गया है. वार्तालाप/वाद-विवाद में अपनी शंकाओं का समाधान होने पर उन महा पंडितों ने भगवान् का शिष्यत्व अंगीकार किया और वे ही भगवान् के प्रधान शिष्य अर्थात गणधर बने.

इंद्रभूति गौतम और आत्मा का प्रश्न

इनमे प्रथम थे इंद्रभूति गौतम (जिन्हे सामान्य रूप से जैनों में गौतम स्वामी के रूप में जाना जाता है) जिन्हे "आत्मा है या नहीं" इस विषय पर शंका थी. इंद्रभूति गौतम ने अनुमान, प्रत्यक्ष, आगम आदि प्रमाणों के सम्बन्ध में  तत्कालीन तर्कशास्त्रीय प्रणाली के अनुसार भगवान् महावीर से वाद किया एवं भगवान ने उन सभी प्रकार से उसका समाधान किया। 

इस प्रसंग में एक रोचक तथ्य ये है की इंद्रभूति की शंकाओं का लगभग समाधान होने के बाद भी एक वेदवाक्य को लेकर उनके मन में दुविधा थी. इंद्रभूति ने जो अर्थ समझा था उसके अनुसार जीव (आत्मा) एक स्वतंत्र सत्ता न होकर पंचभूतों से उत्पन्न एवं उसीमे विलीन होनेवाली एक व्यवस्था थी. इंद्रभूति की समझ चार्वाक दर्शन में वर्णित आत्मा की व्याख्या के निकट थी साथ ही उसमे वेदान्तिक दर्शन का भी प्रभाव था. उस समय भगवान ने उसी वेदवाक्य का दूसरे तरीके से अर्थ किया एवं इंद्रभूति उससे संतुष्ट होकर महावीर के शिष्य बने और प्रथम गणधर के रूप में प्रतिष्ठित हुए. 

इस पुरे प्रकरण से यह समझ में आता है की प्राचीन काल (सायण से बहुत पहले) से ही वेदों के अर्थ करने की अनेक विधियां विकसित हो चुकी थी.  

संहिता पाठ एवं पदपाठ

संहिता पाठ:

विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तित्यरे व्रवीमीति होवाच याज्ञवल्क्यः।

(बृहदारण्यक उपनिषद् 2.4.12)

पदपाठ:

  • विज्ञानघनः एव – विज्ञान का सघन स्वरूप ही

  • एतेभ्यः भूतेभ्यः – इन भूतों (पंचभूतों) से

  • समुत्थाय – उत्पन्न होकर

  • तान्येवानु विनश्यति – उन्हीं में पुनः विलीन हो जाता है

  • न प्रेत्य संज्ञा अस्ति – मरने के बाद कोई संज्ञा नहीं होती

  • इति अरे व्रवीमि – "हे अरे! मैं यह कहता हूँ"

  • होवाच याज्ञवल्क्यः – ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा


व्याकरणीय विश्लेषण

(1) संज्ञा और विशेषण:

  • विज्ञानघनः (नपुंसकलिंग, एकवचन) – शुद्ध चेतना का घना स्वरूप

  • भूतेभ्यः (पंचमी विभक्ति, बहुवचन) – पंचमहाभूतों से

  • संज्ञा (स्त्रीलिंग, एकवचन) – चेतना, स्मृति, पहचान

(2) क्रिया और लकार:

  • समुत्थाय (कृदन्त, ल्यबन्त रूप) – उत्पन्न होकर

  • अनु विनश्यति (लट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – पुनः नष्ट हो जाता है

  • व्रवीमि (लट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – "मैं कहता हूँ"

  • होवाच (लिट् लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन) – "ऐसा कहा"


अन्वय (वाक्य संरचना):

"विज्ञानघनः एव एतेभ्यः भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति। न प्रेत्य संज्ञा अस्ति। इति अरे व्रवीमि। होवाच याज्ञवल्क्यः।"

सरल हिन्दी अनुवाद:

याज्ञवल्क्य कहते हैं – "आत्मा (चेतना) केवल विज्ञानघन (शुद्ध ज्ञानस्वरूप) ही है। यह पंचभूतों से उत्पन्न होती है और उन्हीं में विलीन हो जाती है। मृत्यु के बाद कोई व्यक्तिगत संज्ञा या पहचान शेष नहीं रहती।"

दार्शनिक व्याख्या

(1) सामान्य अर्थ:

यह श्लोक आत्मा की प्रकृति और मृत्यु के पश्चात उसकी स्थिति को दर्शाता है। इसमें बताया गया है कि जीव पंचभूतों से उत्पन्न होता है और मृत्यु के बाद उन्हीं में विलीन हो जाता है। यह विचार अद्वैत वेदान्त के ब्रह्मवाद से मेल खाता है, जिसमें आत्मा और ब्रह्म को एक ही तत्व माना गया है।

(2) वेदान्तिक व्याख्या:

  • अद्वैत वेदान्त की दृष्टि से यह आत्मा और ब्रह्म की एकता को दर्शाता है।

  • मृत्यु के बाद जीव पंचभूतों में विलीन हो जाता है, और संज्ञा (व्यक्तिगत अहं) समाप्त हो जाती है।

  • ब्रह्म-ज्ञान प्राप्ति के बाद जीव मुक्त होकर ब्रह्म में विलीन हो जाता है।

(3) चार्वाक दर्शन की व्याख्या:

  • चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म या मोक्ष को नहीं मानता।

  • इस श्लोक को भौतिकवादी दृष्टि से देखने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवन केवल पंचभूतों का संयोजन है।

  • "न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का सीधा अर्थ यह है कि मृत्यु के बाद कोई भी चेतन तत्व नहीं बचता, क्योंकि आत्मा कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।

(4) गणधरवाद की व्याख्या:

गणधरवाद में भगवान महावीर और उनके गणधर इन्द्रभूति गौतम के मध्य हुआ संवाद आत्मा के स्वरूप और उसके अस्तित्व को स्पष्ट करने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। इस श्लोक में प्रयुक्त "विज्ञानघन" शब्द का अर्थ जैन गणधरवाद के अनुसार केवल भूतों से उत्पन्न चेतना नहीं है, बल्कि अनंत ज्ञान-पर्यायों से युक्त जीव को दर्शाता है।

गणधरवाद की प्रमुख अवधारणाएँ:

  1. आत्मा विज्ञानघन है: आत्मा केवलज्ञान का स्रोत है। यह भौतिक तत्त्वों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि अनादि और शाश्वत सत्ता है।

  2. "समुत्थाय" का अर्थ: आत्मा पंचभूतों से उत्पन्न नहीं होती, बल्कि भूतों के साथ शरीर संबंध जोड़ती है।

  3. "तान्येवानु विनश्यति" का अर्थ: आत्मा स्वयं नष्ट नहीं होती, बल्कि उसका लौकिक संज्ञान (स्थूल संज्ञा) समाप्त होता है।

  4. "न प्रेत्य संज्ञा अस्ति" का अर्थ: मृत्यु के बाद व्यक्ति विशेष की भौतिक पहचान समाप्त हो जाती है, लेकिन आत्मा अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म धारण करती है।

  5. नित्य-अनित्य सिद्धांत: आत्मा नित्य है, लेकिन उसकी विशेष पर्यायें (स्थिति) नष्ट होती रहती हैं।

  6. कर्म-बंधन का सिद्धांत: आत्मा अपने कर्मों के कारण संसार में भ्रमण करती है और केवल कर्मों के क्षय के बाद मोक्ष प्राप्त कर सकती है।

(5) जैन दृष्टिकोण:

  • आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वरूप है और पंचभूतों से स्वतंत्र है।

  • पंचभौतिक शरीर धारण करता और छोड़ता है, परंतु आत्मा स्वयं अविनाशी होती है।

  • मृत्यु के बाद पुराना नाम-रूप समाप्त होता है, लेकिन आत्मा नए शरीर में जन्म लेती है।

  • कर्मों के बंधन के कारण आत्मा संसार में भ्रमण करती रहती है, लेकिन जब कर्मों का क्षय होता है, तब वह मोक्ष प्राप्त कर लेती है।

निष्कर्ष:

  • वेदांत के अनुसार – आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है और व्यक्तिगत संज्ञा समाप्त हो जाती है।

  • चार्वाक दर्शन के अनुसार – आत्मा जैसी कोई सत्ता नहीं होती, केवल पंचभूतों का संयोजन ही जीवन है।

  • गणधरवाद के अनुसार – आत्मा अविनाशी है, पंचभौतिक शरीर को त्यागकर पुनर्जन्म लेती है।

  • जैन दर्शन के अनुसार – आत्मा स्वतंत्र सत्ता है, कर्मों के अनुसार शरीर धारण करती है और मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) का पालन करना आवश्यक है।

अंतिम निष्कर्ष:

यह श्लोक आत्मा के स्वरूप पर गहन दार्शनिक चिंतन को प्रस्तुत करता है। जैन दृष्टिकोण में इसे इस प्रकार समझा जाता है कि मृत्यु के बाद केवल पंचभौतिक शरीर समाप्त होता है, लेकिन आत्मा कर्मों के अनुरूप नए जन्म में प्रवेश करती है। आत्मा की नित्यता, कर्मबंधन और मोक्ष का सिद्धांत जैन दर्शन की आधारभूत मान्यताओं में आता है, जिसे गणधरवाद ने प्रमाणित किया।

यह श्लोक जैन दर्शन के अनुसार कर्मबंध, पुनर्जन्म और आत्मा की शाश्वतता को दर्शाता है।

आभार: 

दर्शन शास्त्र के प्रकांड पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने गणधरवाद का विस्तृत अनुवाद किया है. यह ग्रन्थ प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुआ है. इस ग्रन्थ के पृष्ठ २३ से २८ तक वृहदारण्यक के अर्थ को लेकर इंद्रभूति गौतम की शंका एवं भगवान महावीर द्वारा प्रस्तुत समाधान पर विस्तृत चर्चा की गई है. गणधरवाद से सम्बंधित व्याख्या के लिए इसी ग्रन्थ को आधार माना गया है. 


ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन


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Jyoti Kothari 
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ऋत, वृषभ और धर्मध्वनि: ऋग्वेद की ऋचा (70.74.22) का व्याख्यात्मक अध्ययन

भूमिका

ऋग्वेद की ऋचाएँ गूढ़ रहस्यों से भरपूर हैं, जो विभिन्न अर्थ-व्याख्याओं के आधार पर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। विशेष रूप से ऋग्वेद (70.74.22) की यह ऋचा, जिसका मुख्य विषय वृषभ (बैल) और ऋत (सत्य/व्यवस्था) है, विभिन्न दर्शनों में अलग-अलग प्रकार से व्याख्यायित की गई है। जहाँ वैदिक परंपरा में इस ऋचा को इन्द्र और जलचक्र से जोड़ा गया है, वहीं जैन परंपरा में इसे भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और समवसरण में प्रवचन से जोड़ा जाता है। इस लेख में, इस ऋचा का शुद्ध संहिता पाठ, पद पाठ, व्याकरण, अन्वय, शब्दार्थ एवं विभिन्न दर्शनों के अनुसार व्याख्या प्रस्तुत की गई है।

निघंटु और सायण भाष्य के अनुसार, यह ऋचा वर्षा चक्र और इन्द्र की भूमिका को इंगित करती है। निघंटु में "वृषभ" का अर्थ इन्द्र तथा "गो" का अर्थ सूर्य किरणें बताया गया है। अतः यह ऋचा इन्द्र के जलनियंत्रण की शक्ति और वृष्टि-चक्र के संचालन का वर्णन करती है। सायण भाष्य के अनुसार, यहाँ "ऋतस्य सदसः" का तात्पर्य जलाशय (अंतरिक्ष) से है, जहाँ सूर्य की किरणें जल को वाष्पित कर वर्षा उत्पन्न करती हैं। इस दृष्टिकोण से, ऋचा का अर्थ इन्द्र के गरजने और जलवृष्टि करने से संबंधित है।

वहीं, जैन परंपरा में इस ऋचा की व्याख्या भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और समवसरण में प्रवचन देने की प्रक्रिया के रूप में की जाती है। जिस प्रकार एक युवा वृषभ अपने समूह में गर्जना करता है और अपनी उपस्थिति स्थापित करता है, उसी प्रकार अर्हत ऋषभदेव अपनी दिव्य वाणी के माध्यम से समवसरण में धर्म का प्रचार करते हैं, और उनकी वाणी पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त होती है। जैन परंपरा के अनुसार, यह ऋचा भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और उनकी धर्मध्वनि की व्यापकता को इंगित करती है। इस लेख में, ऋग्वेद की इस महत्वपूर्ण ऋचा का संपूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, जिससे इसके गूढ़ अर्थ को समझा जा सके।

शुद्ध संहिता पाठ:

ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्संगाष्टेयों दृषमों गोमिरानट।
उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥  
ऋग्वेद 70.74.22

पद पाठ:

ऋतस्य हि सदसः धीतिः अरणौत्। 
गाष्टेयः दृषमः गोमिः आनट्। 
उत अतिष्ठत् अविषेणः रवेण। 
महायन्ति वित्सम् विव्याधा रजांसि॥"
  1. ऋतस्य 
  2. हि 
  3. सदसः 
  4. धीतिः 
  5. अरणौत् 
  6. सः 
  7. गाष्टेयः 
  8. दृषमः 
  9. गोमिः 
  10. आनट् 
  11. उत् 
  12. अतिष्ठत् 
  13. अविषेणः 
  14. रवेण
  15. महायन्ति 
  16. वित्सम् 
  17. विव्याधा 
  18. रजांसि  

व्याकरण:

  1. ऋतस्य (षष्ठी विभक्ति, एकवचन) – "ऋत" का, सत्य का, धर्म का।
  2. हि (निश्चयार्थक अव्यय) – निश्चय ही।
  3. सदसः (षष्ठी विभक्ति, एकवचन) – सभा का, मंडल का।
  4. धीतिः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – धारणा, प्रज्ञा, बुद्धि।
  5. अरणौत् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – प्रकाशित करता है, फैलाता है।
  6. सः (संबंधवाचक सर्वनाम) – वह।
  7. गाष्टेयः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ।
  8. दृषमः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – तेजस्वी, चमकने वाला।
  9. गोमिः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – गव्यों से युक्त, गोमय।
  10. आनट् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – प्रविष्ट हुआ, शामिल हुआ।
  11. उत (समुच्चयार्थक अव्यय) – और, पुनः।
  12. अतिष्ठत् (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, एकवचन) – स्थित हुआ, खड़ा हुआ।
  13. अविषेणः (प्रथमा विभक्ति, एकवचन) – अविष (शत्रुता रहित), शांत।
  14. रवेण (तृतीया विभक्ति, एकवचन) – ध्वनि के द्वारा।
  15. महायन्ति (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन) – व्यापक होते हैं, फैलते हैं।
  16. वित्सम् (द्वितीया विभक्ति, एकवचन) – ज्ञान, समझ।
  17. विव्याधा (लिट् लकार, उत्तम पुरुष, बहुवचन) – व्याप्त किया, फैलाया।
  18. रजांसि (अव्यय) – लोक, जगत्।

अन्वय:

ऋतस्य हि सदसः धीतिः अरणौत्।
सः गाष्टेयः दृषमः गोमिः आनट्।
उत अतिष्ठत् अविषेणः रवेण।
महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि॥ 

(अर्थात्)

ऋत (सत्य) की सभा (संसद) में धृति (प्रज्ञा) प्रकाशित होती है।
वह (वृषभ) तरुण गाय से उत्पन्न, तेजस्वी, गोमय (धर्म के वाहक) समूह में प्रवेश करता है।
वह अविष (शत्रुता रहित), गूढ़ ध्वनि से स्थित होता है।
महान ज्ञानी, अपने वाणी रूपी रव से ज्ञान को सम्पूर्ण लोक में व्याप्त कर देते हैं।

सामान्य अर्थ (General Meaning):

यह ऋचा एक प्राकृतिक दृश्य का वर्णन करती है जिसमें सत्य (ऋत) के प्रभाव से एक सभा में दिव्य ज्ञान (धीतिः) प्रकट होता है। जिस प्रकार एक युवा बैल (वृषभ), जो गायों के झुंड से उत्पन्न होता है, अपनी ध्वनि से झुंड में पहचान बनाता है, उसी प्रकार सत्य के प्रभाव से उत्पन्न दिव्य ज्ञान (धर्मवाणी) सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होता है और उसे प्रकाशित करता है।

इन्द्र देव: जलचक्र के नियंत्रक, एक कलात्मक चित्रण 


निघंटु के अनुसार अर्थ (According to Nighantu):

निघंटु में "वृषभ" का अर्थ "इन्द्र" तथा "गो" का अर्थ "किरण" बताया गया है। अतः इस ऋचा का अर्थ होगा – "इन्द्र अपनी ध्वनि (गरज) के माध्यम से जलचक्र को नियंत्रित करता है और अपने प्रकाश से जलवृष्टि करवाता है।" इसे वर्षा और मौसम चक्र से संबंधित किया जाता है।

सायण भाष्य के अनुसार अर्थ (According to Saayan Bhashya):

सायण इस ऋचा को जलचक्र और अंतरिक्ष से जोड़ते हैं। उनके अनुसार, "ऋतस्य सदसः" का अर्थ है जल का स्थान (अंतरिक्ष), और "धीतिः" का अर्थ है सूर्य की किरणें। यह सूर्य की ऊर्जा का वर्णन करता है, जो जल को अंतरिक्ष से वाष्पित कर वर्षा उत्पन्न करती है। "वृषभ" यहाँ जल का प्रतीक है, जो अंतरिक्ष में बादलों के रूप में गर्जना करता है और फिर वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर गिरता है।


इस ऋचा का जैन दृष्टि से अर्थ करने से पहले इस सन्दर्भ में जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान डॉ सागरमल जैन की व्याख्या को समझना आवश्यक है. उनके अनुसार: 

डॉ सागरमल जैन की व्याख्या

इस ऋचा के शाब्दिक अर्थ के अनुसार, इसके द्वितीय चरण का अर्थ होगा – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ रंभाता हुआ गौओं के साथ मिलता है, किन्तु केवल इतना अर्थ करने से ऋचा का भाव स्पष्ट नहीं होता। इसके पूर्व चरण "ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्सं" को भी ध्यान में लेना आवश्यक है। इस चरण का अर्थ सायण और दयानन्द सरस्वती ने भिन्न-भिन्न रूप में किया है, किन्तु दोनों ही अर्थ लाक्षणिक रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।

जहाँ दयानन्द ने "ऋतस्य हि सदसों धीतिरणौत्सं" का अर्थ किया – "ऋत की समान विचारधारा (भक्ति) प्रकाशित हो रही है," वहीं सायण भाष्य के आधार पर सातवेलकर ने इसे "जल स्थान (अंतरिक्ष) का धारक यह इन्द्र प्रकाशित करता है," इस रूप में प्रस्तुत किया। परन्तु, इन दोनों ही अर्थों को न तो पूर्णतः शब्दानुसार कहा जा सकता है और न ही पूर्णतः लाक्षणिक।

दयानन्द ने इसकी लाक्षणिकता को स्पष्ट करते हुए कहा कि "ईश्वर का प्रकाश फैला है।" परन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारतीय चिन्तन में ईश्वर की अवधारणा एक परवर्ती विकास है। ऋत की अवधारणा इससे प्राचीन है, और इसका अर्थ सत्य या व्यवस्था (cosmic order) होता है।

जैन दृष्टिकोण से व्याख्या

यदि इस ऋचा को वृषभ से संबद्ध मानें, तो इसका अर्थ इस प्रकार होगा – जिस प्रकार तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ गौ-समूह के बीच अपनी ध्वनि से सुशोभित होता है, उसी प्रकार ऋषभदेव के केवलज्ञान से उत्पन्न सम्यक्वाणी से सत्य की सभा (समवसरण) सुशोभित होती है।

ऋषभदेव समवसरण में ऊपर आसीन होकर जिस धर्मध्वनि का उद्घोष करते हैं, वह अपनी तीव्र रव ध्वनि के द्वारा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होती है।

इस प्रकार, उपर्युक्त ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अधिक समीचीन प्रतीत होता है।

जैन दर्शन के अनुसार शब्दार्थ:

  1. ऋतस्य सदसः – सत्य की सभा, समवसरण, जहां सत्य प्रतिपादित होता है।
  2. धीतिः – धारण शक्ति, प्रज्ञा, केवलज्ञान का प्रकाश।
  3. अरणौत् – प्रसारित करता है, प्रकाशित करता है।
  4. गाष्टेयः – तरुण गाय से उत्पन्न वृषभ।
  5. गोमिः – गौओं से युक्त, धर्म-समाज से जुड़ा हुआ।
  6. अविषेणः – बिना शत्रुता के, शांत, करुणामयी।
  7. रवेण – ध्वनि के द्वारा, दिव्य वाणी से।
  8. महायन्ति – व्यापक होते हैं, सर्वत्र गूंजते हैं।
  9. वित्सं – ज्ञान, समझ।
  10. विव्याधा रजांसि – पूरे लोक में व्याप्त होना।


विस्तृत व्याख्या (जैन दृष्टिकोण से):

इस ऋचा में ऋत (सत्य) की सभा (संसद) में प्रज्ञा का प्रकाश होने की बात कही गई है। यदि इसे वृषभ (बैल) के रूप में लिया जाए, तो यह प्रतीकात्मक रूप से भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान और उनकी धर्मवाणी की ओर संकेत करता है।

🔹 ऋतस्य हि सदसः धीतिरणौत्सं – सत्य की सभा में, जहां धर्म और ज्ञान का प्रकाश होता है, वहां केवलज्ञान रूपी प्रज्ञा प्रकाशित होती है। यह समवसरण का ही प्रतीक है, जहां भगवान ऋषभदेव सम्यक्ज्ञान का प्रकाश फैलाते हैं।

🔹 गाष्टेयों दृषमों गोमिरानट – जिस प्रकार तरुण गाय (गौओं के झुंड) से उत्पन्न वृषभ अपनी वाणी के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्शाता है, वैसे ही भगवान ऋषभदेव अपने समवसरण में धर्मध्वनि का उद्घोष करते हैं, जो चारों दिशाओं में फैलती है।

🔹 उदतिष्ठत्तविषेणा रवेण – वे (ऋषभदेव) समवसरण में उपविशित होते हैं और उनकी दिव्य वाणी (ध्वनि) संसार में व्याप्त होती है।

🔹 महायन्ति वित्सं विव्याधा रजांसि – उनकी तीव्र धर्मध्वनि पूरे लोक में व्याप्त होती है और समस्त संसार को धर्म के प्रकाश से आलोकित करती है।

यहाँ "वृषभ" का अर्थ केवल बैल नहीं है, बल्कि यह भगवान ऋषभदेव के केवलज्ञान की गूंजने वाली वाणी को भी दर्शाता है, जो सत्य और धर्म को प्रकट करती है।


निष्कर्ष:

यह ऋचा केवल एक सामान्य प्राकृतिक दृश्य का वर्णन नहीं करती, बल्कि एक गूढ़ आध्यात्मिक भाव को प्रकट करती है। ऋषभदेव के केवलज्ञान से उत्पन्न दिव्य वाणी (धर्मध्वनि) सत्य की सभा (समवसरण) को सुशोभित करती है और उनकी दिव्य ध्वनि पूरे संसार में गूंजती है, जिससे ज्ञान का प्रकाश फैलता है।

इस प्रकार, इस ऋचा का जैन दृष्टि से जो लाक्षणिक अर्थ किया जाता है, वह अत्यंत समीचीन प्रतीत होता है।


Thanks, 
Jyoti Kothari 
(Jyoti Kothari, Proprietor, Vardhaman Gems, Jaipur represents Centuries Old Tradition of Excellence in Gems and Jewelry. He is an adviser, Vardhaman Infotech, a leading IT company in Jaipur. He is also ISO 9000 professional)

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